आधी नज्म का पूरा गीत - 16 Ranju Bhatia द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आधी नज्म का पूरा गीत - 16

आधी नज्म का पूरा गीत

रंजू भाटिया

एपिसोड १६

बात कुफ्र की, की है हमने

स्त्री मन न जाने कितने दर्द और उन अनकहे लफ़्ज़ों में बंधा हुआ है, यह अमृता प्रीतम अच्छी तरह से समझती थी वह अपने शब्दों से न जाने कितनी औरतों की उन दस्तकों को लेखन की आवाज़ देती हुई लगती है, कि औरत के जीवन में उसकी ही मुस्कुराहटें और खनक जाने कितनी कैदों में कैद होती रहती है. सही मायने में तो स्त्री का मन ही है जो उसे कैद में रखता है. इसी के चलते वह एक कैद से मुक्त होती है औऱ दूसरी कैद उसे आ घेरती है. यह कैद कभी औलाद की होती है, कभी रिश्तों की तो कभी उस प्रेम की जिसे वह सांस दर सांस जीती चली जाती है. उन्हीं की लिखी एक नज्म है, जो उनकी यह पंक्तियाँ पढ़ कर याद आई...बदन का मांसजब गीली मिटटी की तरह होतातो सारे लफ्ज़ ----मेरे सूखे होंठों से झरतेऔर मिटटी मेंबीजों की तरह गिरते....मैं थकी हुई धरती की तरहखामोश होती तो निगोड़ेमेरे अंगों में से उग पड़तेनिर्लज्जफूलों की तरह हँसतेऔर मैं..........एक काले कोस जैसीमहक महक जाती....अचानक --एक कागज आगे सरकता हैउसके कांपते हुए हाथो को देखता हैएक अंग जलता है, एक अंग पिघलता हैउसे एक अजनबी गंध आती हैऔर उसका हाथबदन में उतर आई लकीरों कोछूता है..हाथ रुकता है बदन सिसकता हैएक लम्बी लकीर टूटती सी लगती हैफ़िर जन्म और मौत कीदोहरी सी गंध में वह भीग जाती हैसब काली और पतली लकीरें -एक लम्बी चीख के कुछ टुकडे दिखते हैंखामोश और हैरान वह निचुड़ी सी खड़ीदेखती सोचती -शायद एक क्वारीं का गर्भपात इसी तरह होता है...यह कर्ण और कविता का जन्म है..एहसास की शिद्दत.एक एक खामोशी की गार किस तरह गुजरती है और उसका कम्पन कैसे रगों में उतरता है अमृता की इस कविता के लफ्ज़ कुछ अदभुत सा अनुमान देते हैं, यहाँ लफ्ज़ गर्भपात जन्म के अर्थों में है जिस में हर कविता पुरे होने के एहसास से सिर्फ़ एक कदम की दूरी पर खड़ी रह जाती है...हमारे अचेतन मन ने युग युग के एहसास अपने में लिपटाए होते हैं पर किसी गाँठ को यह मन कब अपने पोरों से खोल देता है कोई नही जानता घड़ी पल लम्हा कोई भी नहीं..अमृता ने अपने ही लिखे कुछ लफ्जों में कुंती की तकदीर का एक बहुत सूक्ष्म सा लम्हा लिख दिया था..कविता कभी कागज को देखेऔर कभी नजर को चुरा लेजैसे कागज कोई पराया मर्द होता है...यहाँ कुंती को कर्ण अपनी कोख में लिए हुए अपना सा लगता है पर जब उस एहसास को वह दुनिया के हवाले करती है तो वह उसको पराया लगता है.उसी तरह जब तक कविता अपने दिल में है वह अपनी है पर कागज के हवाले होते ही वह कागज पराया लगने लगता है.जैसे कुंती जानती है उसका समाज उसके कर्ण का समाज नही हो सकता है..उसी तरह कविता रचने वाला जानता है कि अंतर्मन का एक टुकडा उस से टूटकर बिल्कुल गैर की आँखों के हवाले हो जायेगा.....कविता का बीज किसी के भीतर अचानक उसी तरह पनप जाता है जिस तरह सूरज ने अपनी किरण का एक टुकडा कुंती की कोख में रख दिया था....वह आग का स्पर्श करती, चौंक जाती, जाग उठती, भरे भरे बदन को छूतीचोली के बटन खोलतीअंजुली -भर चांदनी बदन पर छिडकतीऔर बदन सुखाते हुए -उसका हाथ खिसक जाता है...बदन का अँधेरा छाती की तरह बिछतावह औंधी सी छाती पर लेटतीउसके तिनके तोड़तीऔर उसका अंग अंग सुलग जाता हैउसे लगताउसके बदन का अँधेरा किसी की बाहों में टूटना चाहता है....अमृता कहती है कि उनके भीतर एक कवि कैसे जाग गया यह वह नही जानती..लेकिन जब जाग गया तो उसने अपनी पहचान अक्षरों में उतारी...कुंती के युग में दुर्वासा ऋषि का आ कर वरदान देना सिर्फ़ कुंती के युग में हो सकता था लेकिन कवि हर युग में होता है....दुर्वासा हर युग में नही होता फ़िर भी कुछ ऐसा हर कविता लिखने वाले के साथ घटता है...सूरज तो एक अग्नि कण कुंती को देकर आसमान पर जा बैठा, लेकिन वह अग्नि कण जब कर्ण बन गया तो उस कर्ण का दर्द कौन जान सकता है..मोहब्बत का अग्नि कण कविता रचने वाले को जब मिलता है तो वह कविता बन जाता है अपनी किस्मत का प्याला उसे भी अपने होंठो से पीना होता है..कुंती के पास जो मन्त्र था वह घड़ी पल के लिए सूरज को धरती पर उतार सकता था, पर कवि के पास एहसास की शिद्दत का जो मन्त्र होता है वह अपने प्यार करने वाले को धरती पर नहीं उतार सकता वह उसको सिर्फ़ अपनी कल्पना की जमीन पर उतार सकता है..कल्पना भी कुंती की कोख सी होती है और दोनों अग्निकणों को एक खामोशी में से जन्म लेना होता है और फ़िर कर्ण को बहते हुए पानी के हवाले हो जाना होता है और कविता को बहती हुई पवन के हवाले.....उस के बाद गर्म अफवाहे सिर्फ़ कर्ण के बदन को जलाने के लिए होती है और दिल के खून में भीगी हुई हर कविता के लिए...कुंती का कर्ण को बहती हुई नदी के हवाले कर देना सारी उम्र के लिए ऐसा दर्द दे गया कि उस दर्द की पहचान के लिए सूरज की परिक्रमा करती हुई धरती भी एक पल के लिए खड़ी हो गई थी.....पर कविता रचने वाले को अपनी आत्मा के टुकड़े को बहती हवा के हवाले अपने हाथों से कर देना एक ऐसा कर्म होता है जिसे शक्ति कण भीगी हुई आँखों से देखते हैं..कुंती सूरज का पता जानती है, पर कर्ण को नही बता सकती है.कविता लिखने वाला अपने प्रिय का पता जानता है पर अपनी ही रची कविता को नहीं बता सकता है.इश्क का यह मौन व्रत इल्हाई पलों का तकाजा होता है..एक घूंट चाँदनी पी सकने का वक्त भी सिर्फ़ कुंती और कविता लिखने वाले को नसीब होता है....अमृता के लिखे पात्र कई पाठकों के इतने सजीव हो उठते हैं कि वह कई बार अमृता को पत्र लिखते और कहते वह अनीता.अलका जहाँ भी हो उन्हें हमारा प्यार देना

जब अमृता ने" एक थी अनीता "उपन्यास लिखा तो उन्हें हैदराबाद से एक वेश्या घराने की औरत ने पत्र लिखा की यह तो उसकी कहानी है.उसकी आत्मा भी अनीता की तरह पवित्र है, सिर्फ़ इसकी घटनाएँ भिन्न है.यदि अमृता उस पर कहानी लिखना चाहे तो वह दिल्ली आ सकती है..अमृता ने उसको पत्र लिखा पर उसका उसके बाद कोई जवाब नहीं आया....पर उनके एरियल उपन्यास की मुख्य पात्र अमृता के पास कई दिन तक आ के रहीं थी ताकि वह सही सही उसके बारे में उस उपन्यास में लिख सकें

जेबकतरे उपन्यास को जब अमृता ने लिखा तो उस में एक वाकया जिस में जेल में एक पात्र एक कविता लिख कर जेल के बाहर भिजवाता है और उस कविता के नीचे अपने नाम की बजाय कैदी नम्बर लिखता है..अमृता ने यह नम्बर अचेतन रूप से लिखा पर बाद में उन्हें याद आया कि यह गोर्की का नम्बर था.जब वह क़ैद था और अमृता ने मास्को में उसके स्मारक में घूमते हुए वह नम्बर अपन डायरी में नोट कर लिया था...इस के आगे की कहानी अमृता ने अपने चेतन तौर पर लिखी....

इस प्रकार कहाँ कौन सा पात्र लिखने वाले के दिल से कलम में उतर जाए कौन जाने..१९७५ में अमृता के एक उपन्यास "धरती सागर और सीपियाँ "पर जबकादम्बरी फ़िल्म बन रही थी तो उसके उन्हें एक गीत लिखना था..उस वक्त का सीन था जब चेतना इस उपन्यास की पात्र समाजिक चलन के ख्याल को परे हटा कर अपने प्रिय को अपने मन और तन में हासिल कर कर लेती है..यह बहुत ही हसीं लम्हा था मिलन और दर्द का....जब अमृता इसको लिखने लगीं तो अमृता को अचानक से वह अपनी दशा याद आ गई जब वह पहली बार इमरोज़ से मिली थी और उन्होंने उस लम्हे को एक पंजाबी गीत लिखा था...उन्होंने उसी का हिन्दी अनुवाद किया और जैसे १५ बरस पहले की उस घड़ी को फ़िर से जी लिया...गाना वह बहुत खुबसूरत था...आज भी बरबस एक अजब सा समां बाँध जाता है इसको पढने से सुनने से.अम्बर की एक पाक सुराही, बादल का एक जाम उठा करघूंट चांदनी की पी है हमने बात कुफ्र की की है हमने

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