आधी नज्म का पूरा गीत - 15 Ranju Bhatia द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आधी नज्म का पूरा गीत - 15

आधी नज्म का पूरा गीत

रंजू भाटिया

episode 15

जब लिखे शब्द ज़िन्दगी की बात कहते हैं

इस एपिसोड में हम अमृता प्रीतम के लिखे हुए उपन्यास, कहानी से वो पंक्तियाँ लेंगे, जो औरत की उन बातों को स्पष्ट रूप से कहते हैं और दिल को झंझोर देते हैं, अमृता के उपन्यास की सप्त तारिकाएँ अपने शब्दों से हमारे दिल की बात कहती हैं आइये आज इन शब्दों के साथ इस अनूठे सफ़र पर चलते हैं और चिन्तन करते हैं कि क्या यह हालात कभी बदलेंगे ?उनकी कहानी पांच बरस लम्बी सड़क से कुछ पंक्तियाँ है. चिंतन की माखी डंक मारती, लेकिन शहद भी इकठ्ठा करती है. सड़कें वहीँ की वहीँ रहती है, सिर्फ राही गुजर जाते. राही भी सिर्फ चलते हैं, पहुँचते कहीं नहीं..धरती की भांति मन के सफ़र की सड़क भी गोल होती अपने से चलती है अपने तक पहुंचती हैचिमटे से कोयला तो पकडा जा सकता है, पर आग की लपटें नहीं पकड़ी जा सकती, आग की लपट सिर्फ आग की लपट से ही पकड़ी जा सकती है..यहाँ अगर किसी को चलना है तो किसी और से पैर ले कर चलता है..पहला दूसरे से.दूसरा तीसरे से, तीसरा चौथे से, उधार पैर ले कर अपाहिज हो कर..कहानी सड़क नंबर ५ से..ताकत, जब इंसान अपन भीतर से पाता, तो उसको इस तरह से प्यार करता है जैसे कोई महबूबा को प्यार करता है.पर जब अपने भीतर से पाने की जगह वह दुनिया से पाता है, तो उसको इस तरह से प्यार करता है जैसे कोई वेश्या से प्यार करता हैकोई रिश्ता शरीर पर पहने हुए कपडे की तरह होता है जो कभी भी शरीर से उतरा जा सकता है, पर कोई रिश्ता नसों में चलने वाले लहू की तरह होता है जिसके बगैर इंसान जीत नहीं रह सकता है..और कोई रिश्ता शरीर पर पैदा हुई खुजली की तरह होता है......उपन्यास (" धरती सागर और सीपियाँ ) मनुष्य को समाज चाहिए, लेकिन समाज को मनुष्य नहीं चाहिए..सड़क नम्बर ५ से सारी दुनिया कपडों में बंटी हुई है..धरती के टुकड़े भी भेसो से पहचाने जाते हैं, अपने अपने झंडों से..और उनकी रक्षा भी मनुष्य नहीं करते, वर्दियां करती है.भला कहीं सचमुच का मनुष्य सचमुच के मनुष्य को मार सकता है ? यह सिर्फ वर्दियों.पोशाकों और झंडों की लड़ाई है.ज्ञान को धारण करना शिव के सामान सिर पर गंगा धारण करने के बराबर है, हम सब रेत को बुहार रहे हैं...यह और बात है कि कोई हल जुआ ले कर रेत बुहारता है, कोई तराजू बाट लेकर और कोई कागज कलम ले कर.उपन्यास यात्री से ली गयी पंक्तियाँ, क्या यह आज के वक़्त के सच को उजागर नहीं करती क्या ?आज और कल में एक गरीबी का लम्बा फासला होता है जो कई बार एक जन्म में तय नहीं होता, पर समझ की हद में आ कर कई बातें ऐसी भी होती है जो समझ के परे होती हैं....घर बदल सकते हैं, पर इस से क्या होता है..कहीं भी जाओ, वही घरों के कोने होते हैं और वही कोनों के अँधेरे.और वही अंधेरों में लटकने वाले सवाल....कई बातें ऐसी होती है, जिन्हें शब्दों की सजा नहीं देनी चाहिए..देखा जाए तो यह धरती मजबूरियों का लम्बाइतिहास हैदुर्योधन की भरी सभा में द्रौपदी ने पूछा था कि युधिष्टर जब स्वयं को हार चुके, तब मुझे दांव पर लगाने काउन्हें क्या अधिकार था ? और यह सवाल हजारों सालों से हवा में खडा हुआ है..एतराज़ का सम्बन्ध कानून से होता संकोच का मन से..यह युग का अंतर है.आज की मोहब्बत को कोई हवन कुंड नहीं कहता.आज के राक्षसों को कोई राक्षस नहींकहता है.आज की भलाई को कोई वरदान नहीं कहता..आज की बुराई कोई कोई श्राप नहीं कहता है...खामोशी का दोष बहुत बड़ा और बहुत दूर तक फैला हुआ है, इंसान के बिस्तर से दुनिया के राजसिहासन तक....कई सवाल सदियों से हवा में खड़े हुए हैं..पर इंसान सदियों से चुप है..इन गलत राहो पर चलने के लिए इंसान को हिम्मत नहीं चाहिए, इन पर न चलने के लिए हिम्मत चाहिए..अगर भगवान पत्थर का बनाया जा सकता है.तो इन्साफ क्यों नहीं ! जबकि वही तो सच होगा..जीभ सिर्फ हुकोमतों की होती है, इन्सान तो कब का चुप है...हर एक जाम की आंखों में हो, जैसे कुछ आंसूं भर आए."......एक कलम का सच जो सदियों दिल को अपनी भावों की गहराई में डुबोता रहेगा....अमृता की कलम का जादू कब नहीं दिल को छू गया है..."किसी भी मनुष्य को अगर अपनी सही जीवनी लिखनी हो, तो उस को चाहिए वह खाली कागजों पर लहू मल दे लहू से भीगे हुए पन्नों पर यह साफ़ पढा जा सकता है कि लहू रोटी की फ़िक्र में कैसे सूखता रहा था, यह लहू हजारों चिंताओं में कैसे सहमत रहा था और यह लहू ज़ंग के मैदान में किस तरह बहता -बिखरता रहा था, और, या नसों में व्यर्थ घूमता रहा था...."अमृता की लिखी यह पंक्तियाँ उनके लिखे उपन्यास जिलावतन से हैं...अमृता जी का लिखा अक्सर भटकते दिल का सहारा बन जाता है..इन पंक्तियों में ज़िन्दगी को दर्शन दे सकने का होंसला है और दर्द से पीड़ित मानव दिल की व्यथा भी है...एक पाठक ने तो यहाँ तक कहा कि अमृता के लिखे में कहावतें बन सकने का जज्बा है......आज उन्हीं के लिखे उपन्यासों और नज्मों की वह पंक्तियाँ जो..दिल में कभी सकून कभी दर्द की लहर पैदा कर देती हैं...."हमारी मंडियों में गेहूं भी बिकता है, ज्वार भी बिकती है, और औरत भी बिकती है.....आर्थिक गुलामी जब औरत को दास बनाती है, वही दासता फिर मानसिक गुलामी बन जाती..मानसिक गुलामी जब नासूर बनती है तब लोग नासूर के बदन पर पवित्रता कि रंगीन पोशाक पहना देते हैं, और यह पवित्रता जो खुद मुख्तारी में से नहीं, मज़बूरी में से जन्म लेती है.समाजी खजाने का सिक्का बन जाती है, और समाज हर औरत को इस सिक्के से तोलता हैं.."कहानी ( आखिरी ख़त से )"औरत का पाप फूल के समान होता है, पानी में डूबता नहीं, तैर कर मुहं से बोलता है..मर्दों का क्या है, उनके पाप तो पत्थरों के समान पानी में डूब जाते हैं..."कहानी ( न जाने कौन रंग रे से )"मर्द मर जाए तो भले ही औरत के सभी अंग जीवित रहते हैं, पर उनकी कोख अवश्य मर जाती है.."कहानी ( तीसरी औरत से )"इस दुनिया के सुनार सोने में खोट मिलातें हैं, दुनिया उनसे कुछ नहीं कहती है पर जब इस दुनिया के प्रेमी सोने में सोना मिलाते हैं, तो दुनिया उनके पीछे पड़ जाती है.."कहानी ( मिटटी की जात से )"मिटटी की जात किसी ने न पूछी..एक कल्लर घोडी पर चढ़ कर एक चिकनी मिटटी को ब्याहाने आ गया" कहानी ( मिटटी की जात से )"ब्याह के पेशे में किसी की तरक्की नहीं होती....बीबियाँ सारी उम्र बीबियाँ ही रहती है..खाविंद सारी उम्र खाविंद ही बने रहते हैं..तरक्की हो सकती है, पर होते कभी देखा नहीं..यही कि आज जो खाविंद लगा हुआ है, कल महबूब बन जाए.कल जो महबूब बने, परसों वह खुदा बन जाए.रिश्ता जो सिर्फ रस्म के सहारे खडा रहता है, चलते चलते दिल के सहारे खडा हो जाए...आत्मा के सहारे......"

कहानी (मलिका से ) कुछ उदासियों की कब्रें होतीं हैं, जिनमे मरे हुए नहीं जीवित लोग रहते हैं..अर्थों का कोई खड्का नहीं होता है.वे पेडों के पत्तों की तरह चुपचाप उगते हैं.और चुपचाप झड़ जाते हैं...कहानी ( दो खिड़कियाँ से )औरत जात का सफरनामा : कोख के अँधेरे से लेकर कब्र के अँधेरे तक होता है ?उपन्यास ( दिल्ली की गलियाँ से )औरत की कोख कभी बाँझ नहीं होगी ॥अगर औरत कि कोख बाँझ हो गयी तो ज़िन्दगी के हादसे किसके साथ खेलेंगे ?उपन्यास (बंद दरवाजा से ) है न इन पंक्तियों में कुछ कहने का वह अंदाज़, जो अपनी ही ज़िन्दगी के करीब महसूस होता है.....उनका कहना था कि आज का चेतन मनुष्य उस पाले में ठिठुर रहा है, जिस में सपनों की धूप नहीं पहुंचती..समाजिक और राजनीतिक सच्चाई के हाथों मनुष्य रोज़ कांपता है टूटता है...सोचती हूँ कोई भी रचना, कोई भी कृति, धूप की एक कटोरी के पीने के समान है या धूप का एक टुकडा कोख में डालने की तरह है और कुछ नहीं, सिर्फ़ ज़िन्दगी का जाडा काटने का एक साधन...अमृता ने स्त्री होने के तमाम दर्दों को प्रेम की आँच में तापकर सहा था. अमृता को पढ़ते हुए जाने कितनी बार आँसुओं ने सब्र के पहाड़ को तोड़ दिया है, उन्हें पढ़ना हर मर्तबा पहली बार पढ़ना ही होता है. वह प्रेम के दरिया के पार उतरना नहीं चाहती थी, डूब जाना चाहती थी.

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