आधी नज्म का पूरा गीत - 14 Ranju Bhatia द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आधी नज्म का पूरा गीत - 14

आधी नज्म का पूरा गीत

रंजू भाटिया

episode १४

दर्द इश्क की खुशबु है

तू सुगंध है, सुगन्ध किसी की मल्कियत नहीं हुआ करती तू मेरी मल्कियत नहीं सुगंध एहसास के लिए हैं बाजुओं में उसकी कल्पना धोखा है अपने आप से धोखे में जीना खुद को कत्ल करना है मैंने खुद को कत्ल किया है मैंने हर पल जहर पीया है हर सोच में तू मेरी है सिर्फ मेरी और हकीकत में सदियों का फासला है सपना स्मृति से फिसल जाता है सच आलिंगन में रह जाता है यह पंक्तियाँ अमृता की किताब वर्जित बाग़ की गाथा से ली गयी है...उन्होंने लिखा है कि मैं यदि पूरी गाथा लिखने लगूंगी तो मेरी नज्मों का लम्बा इतिहास हो जाएगा इस लिए इन में बिलकुल पहले दिनों कि बात लिखूंगी जब मैंने वर्जित बाग़ को देख लिया तो अपना ही कागज कानों में खड़कने लगा था..तुम्हारा बुत आम का पौधा कौन से बाग़ में लगा कि बाग़ के माली हमें उडाने आ गए दुःख तो इस बात का है..जब अमृता बहुत छोटी थी तब फरीद की वाणी पढ़ी थी..हंस उड़ कर खेत में आया तो लोग उडाने चले.तब अमृता इस दर्द की गहराई को समझ नहीं पायी कि लोग क्यों हंस को उडाने आ जाते हैं ? क्या वह जानते नहीं कि हंस खेत का कोई दाना नहीं खायेगा.पर जब अमृता ने इस वर्जित बाग़ को देख लिया तो इस दर्द को जाना..इसी दर्द का थोडा स इजहार इस नज्म में आयासो जा री मालिन सो जी अरी बहना आम की रखवाली के लिए हमारा बिरहा जो बैठा है....अमृता अपनी और से अपना दर्द तो जानती थी, फिर एक दिन उन्हें पता चला कि जब रोज़ रात को जब दिल्ली रेडियो की गाड़ी आती थी अमृता को घर छोड़ने तो गली के मोड़ पर इमरोज़ का घर था और वह घर की छत से तब तक देखता रहता कि अमृता की गाडी वहां से कब जायेगी..गाडी चल जाती पर इमरोज़ वहीँ खड़े रहते..और अन्दर से जब तक उनकी बहन सुभाग आवाज़ दे कर कहती कि अब तो आ जाओ भाई उसकी गाडी जा चुकी है...अमृता को तब इमरोज़ के मन का कुछ पता नहीं था लेकिन अपने मन का तो पता थाइस लिए लिखा गया...कि मैं तो कोयल हूँ मेरी जुबान तो एक वर्जित छाला है मेरा तो दर्द का रिश्ता यह वर्जित छाला अमृता की जुबान पर किसने डाला ? बाग़ की हरियाली को वर्जित किसने कह दिया ? यह तो पता नहीं लेकिन जब वह दिन आया जब अमृता और इमरोज़ मिल बैठे तो उन्हें लगा जरुर वही आदम और हव्वा थे.जिन्होंने आदम बाग़ का वर्जित फल खाया था पर तब उस बाग़ के फल को वर्जित करार किसने दिया यह कोईनहीं जानता..एक दिन इमरोज़ ने अमृता से कहा कि क्या तुमने कभी हुमायूं के मकबरे की सीढियां चढ़ कर कभी देखा है..कि ऊपर से कैसा दिखाई देता है..अमृता तब यह जानती थी कि इमरोज़ जिस विज्ञापन एजेंसी में काम करता है और उसको अपने काम के लिए अक्सर माडल लड़कियों को ले कर लाल किले या इस तरह की एतिहासिक जगह पर आना जाना होता है..जरुर कभी किसी माडल को ले कर यहाँ आया होगा और उसको पता होगा कि ऊपर से कैसा दृश्य दिखायी देता है..इसलिए उन्होंने पूछा कि यहाँ तुम्हारा किसके साथ आना हुआ है...इमरोज़ ने कहा मुझे तो लगता है कि मैं तेरे बगैर कभी कहीं गया ही नहीं..अमृता चुप हो गयी..जरूर कोई होनी थी जो इस तरह की बाते कहलवा देती थी. और अमृता उसको सच मन लेती थी..एक बार शहर में फिल्म लगी बागबान.इमरोज़ ने कहा कल एक फिल्म देखी है बाकी फिल्मों से अलग है दिल चाहता है कि तुम्हारे साथ फ़िर से मिल कर देखना चाहता हूँ...जो कहानी उस फिल्म की इमरोज़ ने अमृता को बतायी उस कहानी में एक आमिर घर के लोग एक अनाथ नवजात समुन्द्र के किनारे कि मछुआरे के बस्ती से एक शिशु को अपने घर ला कर पालते हैं. वह बच्चा शहर में पलता बढा होता है और शहर की ही एक लड़की से शादी करके वापस मछुआरों की बस्ती में आ कर उनके आगे बढ़ने और उनके मेहनत और गरीबी देख कर उसके हल तलाश करने की कोशिश में लगा जाता है, और कुछ दिन में वह खुद एक अच्छा मछुआरा बन जाता है. जिस लड़की के साथ उसकी शादी हुई है वह इस ज़िन्दगी से इनकार नहीं करती पर उस ज़िन्दगी से कुछ उदासीन भी बनी रहती है. ज़िन्दगी यूँ ही एक तरह से चल रही होती है.कोई शिकवा नहीं कोई शिकायत नहीं....बस जब वह समुंदर से मछली पकड़ कर आता है तो वह उसको खाने से पहले नहाने को कहती है क्यों कि उस से वह मछली की बू सहन नहीं होती है...फिर कुछ दिन के लिए उसकी पत्नी शहर चली जाती है....पीछे से उस का खाना व अन्य कामों के लिए एक लड़की को उसी बस्ती से रख जाती है....वह लड़की मछली की गंध से इतनी वाकिफ है कि वह समुन्द्र से उसके लौटने पर उसको तौलिया साबुन न नहाने को कह कर सीधा खाना खाने के लिए बुला लेती है..इस तरह जिन्दगी कुछ दिन चलती है फिर वह उस की पत्नी के आने पर वापस लौट जाती है | एक दिन सभी मछुआरे समुन्द्र में मछली पकड़ने जाते हैं कि अचानक तूफ़ान आ जाता है सारे मछुआरे वापस आ जाते हैं पर वह नायक तूफ़ान में फंस जाता है.कोई उस उफनते समुन्द्र में उतरने की हिम्मत नहीं कर पाता..तभी वह लड़की जो पहले उनके घर काम कर चुकी थी वह अपनी नौका ले कर उस तूफ़ान में समुन्द्र में जा कर उस नायक को बचा कर ले आती है.यह समुंदरी तूफ़ान दो दिलो कि जद्दो जहद का भी है. सारा गाँव जश्न मानता है और उस नायक की पत्नी जुबान से कुछ नहीं कहती पर गहराई से सोचती है कि उस नायक के साथ जीने लायक वह लड़की है जो नौका ले कर तूफ़ान में चली गयी, मैं तो सिर्फ किनारे में खड़ी देखती रह गयी और यह सोच कर वह वापस शहर चली जाती है.अमृता ने और इमरोज़ ने यह फिल्म एक साथ मिल कर देखी... देख कर दोनों उसकी कहानी से भरे हुए थे जिस में न कोई तकरार थी. होंठो पर न मोहब्बत के हर्फ न किसी शिकवे के लेकिन जैसे सहज जीना उन किरदारों के साथ ही हो गया था.दिल में एक ही हसरत रही कि किसी तरह से वह सहज ढंग से एक साथ रह सके पर कोई रास्ता तब दोनों को ही नहीं दिखाई देता था.

अमृता इमरोज़ से अक्सर कहती कि 'देख इमरोज़ तेरी तो जीने बसने की उम्र है जाओ तुम अपनी ज़िन्दगी जीओ.मैंने तो अब वैसे भी बहुत दिन नहीं जीना है."..और इमरोज़ कहते कि मैंने क्या तेरे बगैर जी कर मरना है..? शायद तभी अमृता जा कर भी उनकी ज़िन्दगी से अब तक दूर नहीं हो पायी है.प्यार के रिश्ते बने बनाए नहीं मिलते जैसे माहिर बुत तराश को पहली नजर में ही अनगढ़ पत्थर में से संभावना दिख जाती है मास्टर पीसकी मास्टर पीस बनाने के लिए बाकी रह जाता है सिर्फ..तराश --तराश ---तराश उसी तरह दो इंसानों को भी पहली नजर में एक दूसरे में संभावना दिख जाती है -प्यार की जीने योग्य रिश्ते की बाकी रह जाती है तराश -तराश -तराश --सोते जागते हुए भी बोलते बुनते हुए भी...खामोशी में भी और एक दूसरे को देखते हुए भी और न देखते हुए भी और न देखते हुए भी यह ज़िन्दगी का रिश्ता दिलकश रिश्ता एक रहस्यमय रिश्ता न यह रिश्ता ख़त्म होता है और न ही इसकी.. तराश -तराश -तराश...हर किसी को किसी न किसी पंक्ति ने छुआ, अमृता का लिखा यही असर करता है, कि व्यक्ति विशेष अपने आस पास खुद को उसी से जुड़ा हुआ महसूस करता है.जीने लगो तो करना फूल ज़िन्दगी के हवाले जाने लगो तो करना बीज धरती के हवाले अमृता ने क्या कब हवाले कर दिया अपने लिखे के जरिये वह जो पढ़े समझे वही जाने..उनकी कहानियों की औरत, उनकी खुद की जिंदगी की बातें, आज के वक्त की औरत की भी दास्तान कहती लगती है, उन्होंने वह बात चाहे किसी भी तरह से कहा हो, लिखा हो, मुझे वह अपने वक़्त सा ही लगता है

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