भावनाओं का बाज़ारीकरण Lakshmi Narayan Panna द्वारा पत्रिका में हिंदी पीडीएफ

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भावनाओं का बाज़ारीकरण

भावनाओं का बाजारीकरण


भावनाओं का मानव जीवन में बड़ा ही महत्व है । भाव या इमोशन्स जीवन के वे अंग हैं जिनके बग़ैर जीवन ब्लैक एंड व्हाइट चलचित्र मात्र रह जाता है । मनुष्य के इमोशन ही हैं जो नीरस जीवन को आनंद और रंगहीन दुनिंया को रंगों से भरते हैं । कभी कभी मनुष्य अपने इन्ही इमोशन्स के कारण ठगा भी जाता है । जब कभी कोई व्यक्ति अपनी भावनाओं की खुशनुमा रात में दुनिया से बेख़बर चैन की नींद ले रहा होता है , उस वक़्त कोई चोर न जाने कैसे उसके जीवन से कुछ चुरा ले जाता है । जब तक वह अपनी भाव निद्रा से जागता है , तब तक ठगा जा चुका होता है । ऐसा भी नही कि कोई ऐसा हो जिसकी भावनाएं जीवित न हों और कभी ठगा न गया हो । दरअसल यहाँ हर ठगा हुआ पीड़ित एक ठग भी है । ठगों जलसे में नेक दिल सभी हैं और ठग भी । दुविधा यही है कि निर्णय कैसे हो कि वह नेकदिल है या ठग । भावनाओं की किताब में नेकदिली की परिभाषा ही स्पष्ट नही है । यह एक ऐसा समुंदर है जिसमें गोते लगते रहने पर उम्मीदों का आनंद ताउम्र बरकरार रहता है । पूरा जीवन ठगे जाने के बाद भी उम्मीदें उसे निराश नही होने देतीं ।
उस दिन मेरे अंतर्मन ने कुछ ऐसा महसूस किया जो पहले कभी नही हुआ था । मेरी उंगली लाइक बटन पर जाने ही वाली थीं क्योंकि भावनाओं ने ऐसा करने का आदेश दे दिया था । परन्तु मेरे विरोधी या कहें आलोचक मस्तिष्क ने सही समय पर मुझे चेताया । एक बार पुनः चिंतन के लिए प्रेरित किया , तब मैं ठहर गया कुछ देर सोंचता रहा । मेरी भावनाएं बार-बार उस दृश्य पर दया प्रकट करतीं मस्तिष्क पर लाइक करने का दबाव बनाने का असफल प्रयास करतीं । उसी क्षण मस्तिष्क ने मेरे समक्ष एक प्रश्न लाकर रख दिया , अब पहले तो इस प्रश्न का जवाब खोजना था । मेरी जरा सी चूक से शायद मैं एक बार पुनः ठगी का शिकार हो जाता । परन्तु सच कहा गया है - दूध की जली बिल्ली छांछ भी फूंक फूंक कर पीती है । बार बार उस बेबस लाचार बच्चे की आंखों में जीने की चाह मेरे धैर्य को चेतावनी दे रही थी । मेरी भावनाएं कुरेद कुरेद कर कह रहीं थीं कि क्या तू इतना पत्थर दिल हो गया , जो इस बेबसी पर दुःख भी जाहिर नही कर सकता ? मेरे जज़्बात उस भूखे गिद्ध पर ज़हर उगलने को आतुर थे , जो उस बेबस बच्चे के मरने का इंतज़ार कर रहा था । फिर भी मैंने मनोबल को कमजोर नही होने दिया । मेरा मश्तिष्क कह रहा था आखिर जिस व्यक्ति ने यह तस्वीर निकाली है , उसका उद्देश्य क्या रहा होगा ?
अपने जवाब के लिए मैंने कमेंट बॉक्स से दूसरों के कमेंट्स पढ़े , तब पता चला कि वह तस्वीर साउथ अफ्रीका के फोटोजर्नलिस्ट केविन कॉर्टर ने खींची थी । इस तस्वीर के कारण लगातार आलोचनाओं से आहत होकर उन्होंने आत्महत्या भी कर ली थी ।
मामले को पूरी तरह समझने के लिए गूगल पर और सर्च किया और पाया सन 1993 में वह आकाल रैंकिंग के लिए फोटोग्राफी करने जब वह सूडान गए । वहाँ पर अयोध गाँव में फोटोग्राफी करने दौरान उन्होंने देखा कि एक नन्हा बच्चा दयनीय स्थिति में जीवन के लिए संघर्ष करते हुए धीरे धीरे किढल रहा था । शायद वह अपनी भूख मिटाने के लिए भोजन की उम्मीद में संघर्ष किये जा रहा था । वह खाद्य केंद्र की ओर बढ़ रहा था । उन्होंने जैसे ही इस दृश्य को कैमरे में कैद किया , वहाँ एक मोटा गिद्ध आकर बैठ गया । उस गिद्ध को बच्चे की मौत का इंतजार था और बच्चे को भोजन का । कॉर्टर को हिदायत दी गई थी कि संक्रामक बीमारी से बचने के लिए किसी पीड़ित को हाथ न लगाएं । कॉर्टर की भावनाओं ने उसे झकझोरा परन्तु संक्रमण के डर से उसने बच्चे को छुआ नही , 20 मिनट तक वहीं पर  इंतजार किया बच्चा खाद्य केंद्र की ओर बढ़ रहा था । उसने सोंचा कि शायद उससे डरकर गिद्ध अपने पंख फैलाएगा और उड़ जाएगा । गिद्ध नही उड़ा , कॉर्टर ने उसे डर दिखाकर भगा दिया , अपनी आँखें बंद की गॉड से प्रार्थना की । फिर उसने एक सिगरेट जलाई , रोया और चला गया । द न्यूयार्क टाइम्स ने इस चित्र को प्रसारित किया । पाठकों ने कॉर्टर की आलोचना की , कि बच्चे की स्थिति की तस्वीर निकलने के बजाय उसकी सहायता करना जरूरी था । 
उसके बाद बच्चे के साथ क्या हुआ ? यह जानने के लिए पाठकों में एक ज्वारीय लहर दौड़ गई । उनका चित्र जल्द ही विवादित बहस और अध्य्यन की विषय वस्तु बन गया । बाद के शोधों से पता चला की वह बच्चा जीवित रहा और बाद में 14 वर्षों बाद मलेरिया बुख़ार से पीड़ित होकर मरा ।
कॉर्टर को अपने इस चित्र के लिए पुलित्जर पुरश्कर मिला । परन्तु उस दिन के चमकीले अंधकार से वह बाहर नही निकल पाए और 1994 में यह लिखते हुए आत्महत्या कर ली कि ---
 "मैं जीती जागती हत्याओं , लाशों , भूख और दर्द की यादों का शिकार हो गया" ।
कॉर्टर ने भले ही पुरश्कर जीता प्रारम्भ में उसका उद्देश्य भी भावनाओं का व्यापार करना रहा होगा , परन्तु बाद में उसे एहसास हुआ । अपने आप पर शर्मिंदगी जाहिर करते हुए वह इस दुनिया से चला गया या कहे जान छुड़ाकर  भाग गया । लेकिन यह कैसा बाजारीकरण हो रहा कि भारत के लोग उस चित्र को आज भी सोशल मीडिया पर यह लिखकर पोस्ट करते हैं कि -
"दिल मे जरा सी भी दया हो लाइक करें और शेयर भी करें "
कॉर्टर से अधिक दोषी तो वे लोग हैं जो केवल कुछ लाइक्स बटोरने के लिए सच्चाई को तोड़ मरोड़ कर बाजार में उतारते हैं । 
अब मेरी उंगलियाँ कमेंट बॉक्स में कुछ लिखना चाह रहीं थीं । शायद मेरी भावनाएं अभी भी उस ठग के बहकावे में थीं । मैंने अपनी भावनाओं पर काबू करते हुए सोचा कि ऐसा करके भी तो उसका उद्देश्य सफल हो जाएगा । अब पहले भी तो कई लोगों ने यही किया है । लोग एक एक करके पोस्ट शेयर करते जा रहे हैं । लाइक्स लाखों का आंकड़ा छू रहे हैं । तब मैंने उस पोस्ट को जस का तस छोड़ दिया ।
2.
भावनाओं के बाजार में केवल कॉर्टर ही ऐसा दुकानदार नही था जो लोगों की भावनाओं के साथ व्यापार करना चाहता था । भावनाओं का यह बाजार सदियों से गुलज़ार रहा है । यहाँ हर प्रकार के व्यक्ति की भावनाओं के साथ खेलने के साधन मौजूद हैं । इस बाजार में केवल कुछ गिनें चुने दुकानदार ही नही हैं अपितु पूरा बाजार भावनाओं के व्यापारियों से भरा हुआ है । एक उदाहरण लेते हैं कि ईश्वर में विश्वास रखने वालों की भावनाओं के साथ व्यपार बहुत बृहद स्तर पर चल रहा है । वे रोज ठगे जाते हैं परन्तु चूँ भी नही करते । ईश्वरी शक्ति का डर दिखाकर या झूठे चमत्कारों का सहारा लेकर इस व्यपार में करोड़ों कमाए जा रहे हैं । जैसे कि अभी कुछ समय पहले की बात है उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले में एक साधु परमानंद के कुकर्मों का पर्दाफास हुआ । लोग बताते हैं कि पहले वह घर पर ही बने एक मंदिर में स्वयं पूजा पाठ करता था । चूँकि लोगों का मूर्तियों में विश्वास इतना ज्यादा है और मन ईश भक्ति के भावों से इतना  भरा है कि धीरे-धीरे कुछ भक्तों का जमावड़ा होने लगा । दुनियाबी तकलीफों से तंग लोग साधुओं से अपना दुखड़ा साझा करते हैं । व्यक्ति अपनी तकलीफों से दुखी होकर अनजान ईश्वर से विनती तो करता ही है , ऐसे में लगातार प्रयास करने से व्यक्ति के जीवन जब कभी खुशी के कुछ पल आ जाते हैं तो वह इसे मंदिर में जाने , ईश्वर का प्रसाद और साधुओं के आशीर्वाद का परिणाम समझ लेता है । क्योंकि रोज उनके सम्पर्क में रहने से वह भावनात्मक रूप से उनसे जुड़ जाता है और उनके द्वारा ठगे जाने को भी ऐहसान समझता है या फिर स्वतः होने वाले परिवर्तन का श्रेय भी उन्हें देता है । कुछ ऐसा ही परमानंद के आश्रम में भी हुआ होगा । धीरे-धीरे वहाँ लोगों की भीड़ लगने लगी । 
समान्यतः महिलाएं अपनी भावनाओं के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं इस कारण , इस प्रकार की ठगी का शिकार भी अधिकतर वही होती हैं । कारण है कि महिलाओं को सदियों से तमाम उपेक्षाओं और भेदभाव का सामना करना पड़ा है और कहीं-कहीं तो आज भी उनको सभी अधिकार प्राप्त नही हैं । उनकी शिक्षा पर भी विशेष ध्यान नही दिया जाता । देश में अनुमानतः लगभग 70 प्रतिशत महिलाओं को आज भी पुरुषों से कमतर आंका जाता है और उन्हें सही शिक्षा नही मिल पाती । जबकि लगभग 50 से 60 प्रतिशत पुरुष , समाज में अपनी श्रेष्ठता के मद या गरीबी के कारण शिक्षा की पूर्णता को नही प्राप्त कर पाते । ऐसे में इन्हें ठगना परमानंद , आशाराम , राम रहीम और इनके जैसे तमाम अज्ञात ढोंगी साधुओं के लिए आसान हो जाता है । 
परमानंद के आश्रम में लोग आते और अपनी समस्याओं को उसके समक्ष रखते । भजन कीर्तन होता ईश भक्ति होती और लोग अच्छा होने की उम्मीद में दान पेटी भरते और चले जाते । जिनकी मन्नत पूरी होती वे पुनः चढ़ाव चढ़ाते । दान पेटी रोज अपना हाज़मा खराब करती और खाया पिया सब परमानंद के आश्रम में उगल देती । जिनकी मन्नत पूरी नही होती वे पुनः एक नई उम्मीद के साथ आते और तब तक ठगे जाते जब तक थक कर चूर न हो जाते । 
हमारे समाज में जब कोई महिला अपने विवाह के कई वर्षों के बाद भी माँ नही बन पाती तो लोग उसके साथ ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे कि उसने कोई पाप किया हो । बेचारी निर्दोष होते हुए भी सारा दोष अपनी बांझ कोख पर देते हुए एक बच्चे की उम्मीद में पागलों की तरह दागदार चौखटों पर श्रद्धा सुमन अर्पित करती फिरती है । इन चौखटों पर बैठे साधू भेष के भेड़िये उसे नोचने की फिराक में रहते हैं । आशाराम , राम रहीम , परमानंद और ऐसे तमाम भेड़िये पत्थर के भगवान की सरपरस्ती में उस बेचारी आधुनिक द्रौपदी का चीर हरण करते रहते हैं , पर कन्हैया चुपचाप देखता रहता है । 
इस प्रकार ऐसे ठगों का व्यापार दिन दूना रात चौगुना फलता फूलता जाता है । 
परमानंद का लालच बढा उसने सोंचा कि यदि ऐसी महिलाओं में से आधी को भी बच्चे पैदा हो जाएं तो मन्नत पूरी होने के कारण अंधभक्तों की भीड़ बनी रहेगी । उसने अपने इस व्यपार को सजीव रूप देने के लिए एक लेडीज नर्स और डॉक्टर भी रख ली । भोली भाली महिलाएं उम्मीद की एक किरण देख कर आतीं ,  तब वह पहले उनसे पूरी जानकारी लेता सारी जांच रिपोर्ट उनसे लेकर कहता अब इनकी कोई जरूरत नही ,  ईश्वर की कृपा होगी । डॉक्टर जाँच रिपोर्ट पढ़ने के बाद महिला के गर्भधारण की स्थिति बताती । यदि इलाज से ठीक होने की उम्मीद होती और महिला के बांझपन का कारण उसका पति होता तो फिर भस्म के साथ दवाएं दी जातीं । महिलाओं को धोखे में रखकर उन्हें पूजा के बहाने भजन कीर्तन के बाद अकेले में बुलाया जाता , फिर उन्हें नशीली दवाओं से मदहोश करके परमानंद अपनी घिनौनी पूजा करता । पति जिन्हें परमेश्वर कहा जाता बाहर बेंच पर बैठकर मधुर भजनों के मन्द ध्वनि की तरंगों में उम्मीदों की उड़ान भरते रहते । इस घिनौनी पूजा का चलचित्र बनाकर महिला को ब्लैकमेल किया जाता जब तक वह माँ नही बन जाती । इस तरह उसने हजारों बेबश महिलाओं को अपनी हवस का शिकार बनाया और उन्हें तथा उनके मूर्ख पतियों को खूब ठगा । कन्हैया फिर भी चुप रहा लेकिन धन्य है नारी का भक्ति भाव आबरू लुटने के बाद भी कम नही हुआ ।
एक दिन दानपेटी पाप का घड़ा बनकर फुट पड़ी । परमानंद के एक परमभक्त को एक सी0डी0 मिल गई उसने जब उसे चला कर देखा तो पाया कि वह कितनी बड़ी ठगी का शिकार हो चुका है । उसकी भावनाओं का किस तरह इस्तेमाल किया गया है । उसने परमानंद से यह सब बन्द करने को कहा तो पीटा गया तब जाके उसकी भावनाओं का मायाजाल टूटा और वह बाहर निकला । कुछ दिनों तक वह परमानंद के षड्यंत्र में फँसे रहने का नाटक करता रहा । सबूत इक्कट्ठे किये और चुपके से आस पास की मोबाइल शॉप पर वीडियो देकर वायरल करवा दिया । परमानंद पकड़ा गया , वह डॉक्टर , परमानंद की पत्नी व बेटा जो भी इस प्रकरण के दोषी थे पकड़े गए , लेकिन क्या फायदा हुआ ? सच्चाई सामने आने पर हजारों परिवारों की महिलाओं के दामन पर एक दाग लग गया । कई लोगों को कहते सुना कि अब जिन औरतों को वहाँ जाने के बाद बच्चे पैदा हुए होंगें उनके गाँव परिवार वाले क्या कहेंगे ? कुछ लोगों से बात भी हुई जो उन महिलाओं के लिए अभद्र भाषा का प्रयोग कर रहे थे ।  जिस कारण मेरी भावनाएं भी कुलबुलाने लगीं । दुनियाबी सोंच से हटकर मुझे उन महिलाओं पर तरस आ रहा था । आखिर उनका दोष इतना ही तो था कि वे माँ बनने के लिए सब पर विश्वास करती गईं और अंत में ठगी का शिकार होकर अपनी आबरू लुटा बैठीं । मानता हूँ कि सच जानने के बाद उन्होंने उसे छुपाया होगा । 
अपने पति से इतना बड़ा रहस्य क्यों नही बता पाई ? क्या उन्हें दोषी ठहराने के लिए इतना काफी है ? 
पहली बार जब परमानंद ने उन्हें ठगा होगा उस दिन उन महिलाओं ने खुद को कैसे सम्भाला होगा ? सोंचकर मेरा मन बेचैन हो गया । पहले तो भावनाओं के भँवर में फँसकर और घर परिवार के तानों से बचने के लिए अपनी आबरू लुटा बैठीं फिर उन्ही लोगों की नाक बचाने के लिए सब कुछ सहकर तब तक ठगी जाती रहीं जब तक उनकी उम्मीदों का चिराग नही जला दिया। अपनों की दुनिया रौशन करके अपनी जिंदगी में आग लगाने वाली वे महिलाएं मेरी नजर में दोषी नही हैं । शर्म तो उन्हें आनी चाहिए जो बच्चे न पैदा होने पर सिर्फ महिला को उपहास का पात्र बनाते हैं । अपनी मर्जी से परमानंद जैसे भेड़ियों के पास ले जाते हैं या उन्हें यहाँ वहाँ भटकने पर मजबूर कर देते हैं । शायद ही कोई महिला होगी जो माँ नही बनाना चाहती हो । 
उसके माँ न बनने पर सबसे पहले उसे ही दोषी क्यों ठहराया जाता है ? 
यदि वह माँ नही बन पाती तो उसमें उसका क्या दोष है ?  फिर भी वह भावनाओं में बहकर ठगी जाती है और अपने दामन पर दाग लेकर जीवन भर शर्मिंदा रहती है । इस तरह घर परिवार में भी भावनाओं में फंसाकर ठगी होती है ।
परमानंद जैसे भावनाओं के व्यापारी भक्ति भाव , मातृत्व भाव , और विश्वास के भावनात्मक जाल में फंसा कर अपनी दुकानें चलाते हैं । देश के कुछ डॉक्टर , इंजीनियर , पुलिस , अधिकारी व मंत्री जिन्हें देवत्व की पदवी मिली है ऐसे मनोरोगियों और व्यपारियों के बाजार में उनका हाथ बंटाते हैं ।
3.
आजकल सोशल मीडिया पर भावनाओं का बाजारीकरण बहुत तेजी से अपने पैर पसार रहा है । कुछ देशभक्ति के भाव में , कुछ पारिवारिक व सामाजिक समरसता , जीवों पर दया भाव तो कुछ गरीबी पर दया भाव के जाल में फंसा कर लाइक्स बटोरने में जुटे हैं । यही लोग यदि जमीनी स्तर पर कुछ सुधारने की सोंचते तो यकीनन देश की तस्वीर कुछ और होती । 
लोगों की रिश्तों , गरीबी , देशभक्ति और रूप सौंदर्य से सम्बंधित भावनाओं का इस्तेमाल करके खूब लाइक्स बटोरे जा रहे हैं । जैसे कि कुछ लोग ऐसी पोस्ट डालते हैं कि किसी व्यक्ति तस्वीर लगा कर लिखते हैं कि - 
"अब नही लिखोगे नाइस पिक !"
किसी बृद्ध के साथ फ़ोटो खिंचवाकर पोस्ट करते हैं और लिखते हैं कि-
"अब लिखो नाइस पिक "
किसी एक्सीडेंट के फोटो डालकर लिखते हैं कि- 
"अगर दिल मे जरा सी भी दया हो तो लाइक और शेयर करें "
किसी घायल सैनिक का फोटो लगाकर लिखते हैं -
"अगर सच्चे देशभक्त हो तो लाइक और शेयर जरूर करोगे "
क्या इस तरह की पोस्ट से कोई सकारात्मक परिवर्तन होने वाला है ? जो लोग भावनाओं की बड़ी- बड़ी बातें करते हैं उनका उद्देश्य वाहवाही लूटने तक ही सीमित रहता है ।
किसी देश में भावनाओं की बढ़ती हुई बाजारीकरण की स्थिति तब और साफ हो जाती जब उस देश के शीर्ष नेता वोट बटोरने के खातिर भावनाओं के कभी न भरने वाले गड्ढे खोदने लगते हैं । पदों की गरिमा को बनाये रखते हुए स्पष्ट करना चाहता हूँ कि  किस प्रकार कुछ तथाकथित नेता हमारी धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल करके इन्शानियत का गला घोंट रहे हैं । एक ही धर्म व सम्प्रदाय के लोगों में दैवीय श्रेष्ठता और निम्नता की वकालत करके जोंक की भाँति इन्शानियत का लहू पी रहे हैं । जब उन्हें लगने लगा कि पुरानी तरकीबे बेअसर होने लगीं , बाजार मंदा पड़ने लगा तो नए फार्मूले इज़ाद करने लगे । क्योंकि लोग पुरानी तरकीबों से अवगत हुए हैं न कि भावनाओं से मुक्त । उनमें आज भी देशप्रेम का भाव है , भक्ति भाव है , अपनों से लगाव है , करुणा है , दया है और इन्शानियत भी । यह जो इन्शानियत का भाव है वही उन्हें ठगी से बचा सकता है इसलिए ठग इंसानी जज्बातों पर प्रहार करके इन्शानियत को पंगु बना रहे हैं । सैकड़ों वर्षों पहले जब लोगों को जातियों में बाँटकर ठगा गया तब से आज तक वे उससे ऊपर नही उठ पाए । कुछ नेकदिल मानवता के मसीहा पैदा हुए और जातियों को यह कहकर फिर से जोड़ने का प्रयास किया कि "सबका ईश्वर एक है , ईश्वर अल्लाह एक है " । अतः मानव मानव भी एक है ।
मनुष्य की मरणासन मनुष्यता धीरे धीरे अपनी वास्तविकता में लौटते हुए जीवंत होने लगी थी । ठग भी हार मानने वाला नही वह अपने इस बाजार को इयूँ ही खत्म नही होने देगा । वह जानता है मनुष्य कितना भी पढा लिखा क्यों न हो वह स्वयं की भवनाओं का गुलाम ही है । जब वह जातीय और साम्प्रदायिक भेदभाव का फ़ायदा उठाने में असफ़ल होने लगा तो वह एकता भाव के शीने में देवताओं की जाति धर्म का खंज़र उतारने लगा । भक्तिभाव के वशीभूत कुछ लोगों को जैसे ही पता चला कि फलाँ देवता उनकी जाति का है ।  उस पर अपने अधिकार का दावा ठोकने लग गए और जिनके हाथ यह मौका नही लगा , वे तमाम तर्कों और कुतर्कों का सहारा लेकर अपनी जाति का होने का दावा करने लगे । तर्कों से कुछ भी सिद्ध हो परन्तु इस ठगी का शिकार सब हुए । यदि मामले पर गौर किया जाए और मान लिया जाय कि देवताओं में भी जाति है तो सिद्ध हो जाता है कि देवता भी आदि के मनुष्य ही हैं । 
इस तरह के तमाम उदाहरणों से आप परिचित हैं । नित नए तरीकों से ठग हमारी भावनाओं को भर्मित करके हमें ठगते हैं और हम भावनाओं का काला चश्मा पहने आँखों वाले अन्धे उनके उद्देश्य को सफल बनाते हैं ।
भावनाओं के इस बाजार में क्या डॉक्टर , क्या इंजीनयर , लेखक , शायर , कवि , गायक , संगीतकार , नेता , अभिनेता ,छोटे बड़े व्यवसायी ,  साधू सन्त , और हर सामान्य आदमी किसी न किसी को ठग कर या लाभ पहुंचा कर अपना उत्पाद बेंच रहा है । आप को सतर्क रहने की जरूरत है कि कहीं आप भावनाओं के वशीभूत ठगी का शिकार तो नही हो रहें ।

***** समाप्त*****