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चाहत भाग २

कल की ही बात है, एक सम्पन्न आदमी की किडनी का प्रत्यारोपण हम लोगों ने किया है। उसकी पत्नी बार-बार हम लोगों से कह रही थी कि धन की चिन्ता न करें। धन चाहे जितना लग जाए पर मेरे पति के जीवन की रक्षा हो जाए। मैंने उन्हें भी समझाया था कि धन से आदमी के प्राणों का कोई संबंध नहीं है। अगर धन से जान बचती होती तो दुनिया का कोई धनवान कभी न मरता। लेकिन ऐसा नहीं है। आप भरोसा रखिये मैं और मेरे सभी सहयोगी पूरे मन से आपके पति की जान बचाकर उसे स्वस्थ्य बनाने के लिये कटिबद्ध हैं।

दूसरे दिन जब जगदीश को आपरेशन के लिये ले जाया जा रहा था उस समय राकेश, राकेश की पत्नी और उसका मित्र विष्णु भी वहाँ उपस्थित थे। सभी सविता के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़े थे। सविता को चिन्ता तो थी लेकिन सभी उपस्थित लोगों को देखकर उसके अन्दर एक आत्म विश्वास जागृत हो गया था कि उसके पति स्वस्थ्य हो जाएंगे। वह अपनी ननद के स्वास्थ्य के लिये भी ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी। दो-ढाई घण्टे के बाद डा. माथुर ने आकर आपरेशन की सफलता सूचना दी। दोनों मरीजों को सघन चिकित्सा कक्ष में स्थानान्तरित किया जा चुका था और उनकी पूरी देखरेख की जा रही थी।

डा. माथुर ने आपरेशन के बाद की सावधानियों और व्यवस्थाओं के संबंध में सविता को समझाया और उसके परिश्रम की सराहना भी की। सविता ने भी डाक्टर साहब और पूरे अस्पताल के लोगों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए उनके निर्देषों का पालन करने की सहमति दी।

डा. माथुर जा चुके थे। वहाँ उपस्थित लोग भी जाने को तत्पर थे तभी उनमें से एक युवक ने आकर सविता से कहा-

मैं एक समाजसेवी संस्था की ओर से आपके पास आया हूँ। मेरा नाम विनोद है। मैं प्रतिदिन सुबह शाम आकर देख लिया करूंगा। आप मेरा नम्बर ले लीजिये, अस्पताल से भी आपको मेरा नम्बर मिल सकता है। आप जब भी मुझे फोन करेंगी मैं कुछ ही समय में आपके पास पहुँच जाउंगा।

सविता देख रही थी कि जब से वह आया था सभी बातों को बड़े ध्यान से सुन रहा था। खास तौर से बीमारी और उपचार के विषय में तो वह काफी गम्भीर था। विनोद भी बाकी सदस्यों के साथ अस्पताल से विदा हो जाता है।

अब अस्पताल में सविता अकेली रह गई थी। वह सघन उपचार कक्ष के बाहर पड़ी कुर्सी पर बैठी-बैठी भगवान को याद करती हुई अपने पति और ननद के स्वस्थ्य होने की कामना कर रही थी। बीच-बीच में वह आती-जाती नर्सों से और अन्य कर्मचारियों से उनका हाल जानती रहती थी। शाम को लगभग छैः बजे के आसपास विनोद आता है। वह अपने साथ एक थर्मस, गिलास-कप आदि लिये हुए था। सविता अकेली बाहर कुर्सी पर बैठी हुई थी। वह पास की ही दूसरी कुर्सी पर बैठ जाता है। वह पूछता है-

अब उन लोगों का क्या हाल है?

अस्पताल में भीतर तो रहने नहीं देते हैं। मैं बीच में दो बार उन्हें देखने भीतर गई थी। ड्यूटी डाक्टर ने बतलाया कि स्थिति ठीक है और चिन्ता की कोई बात नहीं है।

विनोद ने थर्मस से चाय भरकर सविता को भी दी और स्वयं भी ली। उसने बतलाया कि यहाँ से जाने के बाद उसने डाक्टर माथुर से बात की थी।

क्या कह रहे थे?

उनका कहना है कि यदि तीन साल पहले इनका ठीक से उपचार होता तो यह स्थिति नहीं आती।

इनको तकलीफ तो रहती थी। उपचार भी करवाते थे किन्तु हमें यह लगता था कि मामूली पेट दर्द है। फिर दवाओं से आराम भी लग जाता था। जब तकलीफ बढ़ गई तो बड़े डाक्टर को दिखलाया। हमारी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। बड़े डाक्टरों की फीस भी अधिक होती है। इसलिये भी थोड़ी सी लापरवाही हो गई।

डा. माथुर कह रहे थे कि ऐसे केसेज में सत्तर प्रतिशत तक तो मरीज ठीक हो जाते हैं किन्तु तीस प्रतिशत मामलों में किडनी प्रापर रिस्पान्स नहीं करती है और स्थिति बिगड़ भी जाती है।

आप सब लोगों की सहायता से मैं जितना कर सकती हूँ कर रही हूँ। आगे भगवान की मर्जी।

आपके परिवार से और कोई साथ नहीं आया?

परिवार में इनके और मेरे माता-पिता हैं। सभी वृद्ध और कमजोर हैं इसलिये उन्हें साथ लाना उचित नहीं था। मेरे ननदोई घर पर बच्चों के साथ हैं और वे अपना परिवार देख रहे हैं। उन्हें यहाँ की जानकारी मैं देती रहती हूँ।

आप कहीं नौकरी करती हैं?

नहीं! मैं घर पर ही रहती हूँ और घर की देखभाल करती हूँ।

आपको देखकर लगता है कि आप काफी पढ़ी-लिखी हैं?

मैंने एम. एससी. और एमसीए किया है। मैं जाब तलाश कर रही थी तभी मेरी इनसे मुलाकात हो गई। ये भी पोस्ट ग्रेजुएट हैं। परिवार की परिस्थितियों के कारण और नौकरी न मिलने के कारण ये आटो चलाने लगे। मेरे घर वालों को इनके आटो चलाने पर बहुत एतराज था। वे हमारी शादी के पक्ष में नहीं थे। हम लोगों ने लव मैरिज की थी। हमारा अन्तर्जातीय विवाह हुआ था, इस कारण से परिवारों में वैसे संबंध नहीं हैं जैसे होना चाहिए। आपके परिवार में कौन-कौन हैं?

मेरे यहाँ आभूषण निर्माण का काम होता है। मैं, मेरा बड़ा भाई और पिता जी मिलकर अपना व्यवसाय देखते हैं। मैं व्यापार के साथ-साथ परिवार को भी देखता हूँ। इसके साथ-साथ समाजसेवा भी करता हूँ। इसमें मेरे पिता जी का भी सहयोग रहता है। आप यदि मेरी बात को अन्यथा न लें तो एक बात कहूँ?

कहये!

अस्पताल में रिश्तेदारों को सिर्फ शाम को ही मिलने दिया जाता है। आपको अभी दो-तीन माह यहाँ रहना पड़ेगा। बाकी समय में आप क्या करेंगी। यदि आप कहें तो मैं आपके लिये किसी नौकरी की व्यवस्था कर सकता हूँ। इससे आपका समय भी अच्छे से निकल जाया करेगा और इलाज भी चलता रहेगा।

दो-चार दिन देख लें। इनकी हालत थोड़ा सुधर जाए तो मन हल्का हो जाएगा। आप यदि मेरे लिये किसी नौकरी की व्यवस्था कर सकें तो यह मेरे ऊपर आपका बड़ा उपकार होगा।

विनोद कुछ देर वहाँ और रूकता है। वह जगदीश को देखने भी जाता है और उसकी हालत की भी जानकारी लेता है। उसके बाद वह चला जाता है।

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दूसरे दिन विनोद दोपहर में लगभग 12 बजे आया। उसने सविता से जगदीश के हालचाल जानने के बाद भीतर जाकर उसे देखा और ड्युटी डाक्टर से उसके विषय में बात की। फिर वह सविता के पास आया। उसने सविता को खुशखबरी देते हुए बतलाया कि अस्पताल के नजदीक ही उसने एक फर्म में सविता के लिये नौकरी की बात की है। उसने यह भी बतलाया कि वह जब भी चाहे काम प्रारम्भ कर सकती है।

विनोद ने जब उससे उसके खाने के विषय में पूछा तो पता चला कि अभी उसने भोजन नहीं किया है तब वह उसे किसी होटल में चलने के लिये कहता है। सविता के लिये मुम्बई एक अपरिचित नगर था। उसे कदम-कदम पर किसी सहारे की आवश्यकता थी। वह सहमति दे देती है।

विनोद उसे पास ही एक अच्छे होटल में ले गया। सविता ने जब होटल की भव्यता और सुन्दरता देखी तो उससे कहा- मैंने अपने जीवन में पहले कभी ऐसी अच्छी होटल नहीं देखी।

मुम्बई बहुत बड़ी है। यह हमारे देश की आर्थिक एवं सांस्कृतिक राजधानी है। अगर आप यहाँ नौकरी करती हैं तो धीरे-धीरे आप मुम्बई के रंग में ढल जाएंगी और यहीं की होकर रह जाएंगी। यह नगर इसी तरह से महानगर बना है। यहाँ के अधिकांश लोग बाहर से आकर ही यहाँ बसे हैं।

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सविता ने दूसरे दिन ही नौकरी पर जाना प्रारम्भ कर दिया। विनोद उसे लेकर उस फर्म तक गया था और वहाँ उसके मालिक से उसका परिचय करवा आया था। अब सविता की दिनचर्या बहुत व्यस्त हो गई थी। वह सुबह तैयार होकर अस्पताल जाती। वहाँ से निकल कर अपने काम पर चली जाती और फिर शाम को अस्पताल पहुँच जाती। शाम को विनोद आता था तो रात्रि का भोजन वे प्रायः साथ-साथ ही किया करते थे। वहाँ से विनोद उसे उसके गेस्ट हाउस में छोड़कर फिर अपने घर जाता था। उनके बीच संबंध प्रगाढ़ होते जा रहे थे। विनोद प्रायः उसके लिये उपहार आदि लाता रहता था। सविता उसको अस्वीकार नहीं कर पाती थी। जगदीश दिनों-दिन अच्छा होता जा रहा था। सविता उसकी ओर से निश्चिन्त होती जा रही थी और विनोद के रुप में उसे एक अच्छा और विश्वसनीय साथी मिल गया था जिससे वह अपने सारे सुख-दुख और मन की बातें खुल कर कह लेती थी। विनोद मन ही मन सविता के प्रति झुकता जा रहा था।

एक दिन रात्रि के भोजन के दौरान विनोद ने सविता से पूछा कि वह जीवन में क्या बनना चाहती थी। सविता ने एक ठण्डी सांस भरकर कहा- जीवन में किसी की सभी हसरतें कहाँ पूरी होती हैं। फिर उनकी चर्चा करने से क्या फायदा?

उसकी बात सुनकर विनोद भावुक हो गया। उसे लगा जैसे उसने सविता के किसी मर्म स्थान पर हाथ रख दिया है। वह उसे समझाते हुए बोला-

जिन्दगी में सभी हसरतें

पूरी नहीं होतीं

और नहीं बनती हैं

भविष्य का आधार।

हम समझ नहीं पाते

हसरतें हैं

हमारे जीवन का दर्पण।

हसरतों को पूरा करने के लिये

करना पड़ता है

बहुत परिश्रम।

धन, ज्ञान, कर्म और भाग्य का समन्वय

बनता है

सफलता का आधार।

यदि हम करते रहें

निरन्तर प्रयास

तो हमारी सभी हसरतें

एक दिन

निश्चित ही होती हैं पूरी।

वह भावुक होकर कहता है- जीवन में सब कुछ पाया पर एक दिन यह काया मिटकर केवल धर्म और कर्म की स्मृतियां ही रह जाएंगी। हमें अपने जीवन में पुरूषार्थ और भाग्य को समझना चाहिए। भाग्य है एक दर्पण के समान और पौरूष है उसका प्रतिबिम्ब। दोनों का जीवन में सामन्जस्य हो तभी जीवन की सम्पूर्णता होकर सफलता मिलती है। जीवन में एक दिन सभी को अनन्त में विलीन होना है। अतएव भगवान द्वारा प्रदत्त इस जीवन का पूरा-पूरा उपभोग कर लेना चाहिए। वह सविता के प्रति प्रेम व समर्पण की भावना में बह रहा था। सविता उसकी बातों को सुन रही थी किन्तु उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था।

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जगदीश को दो दिनों से ज्वर आ रहा था। डाक्टर उसका उपचार कर रहे थे किन्तु कोई लाभ नहीं हो रहा था। आज डाक्टरों ने बतलाया कि ट्रांसप्लान्ट की गई किडनी सही रिस्पान्स नहीं कर रही है। वे सविता को अपने रिश्तेदारों को बुला लेने के लिये कहते हैं। इस स्थिति से सविता काफी असहज हो गई थी। उसने अपने सास-ससुर को खबर कर दी थी। दूसरी ओर उसकी ननद बिलकुल सामान्य हो गई थी। उसे रिलीव किया जा रहा था। जगदीश की हालत बिगड़ती ही जा रही थी।

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सविता के सास-ससुर मुम्बई पहुँच गये थे। जगदीश के उपचार के लिये डाक्टर लगातार प्रयास कर रहे थे किन्तु वे उसे नहीं बचा सके। जगदीश इस दुनियां को छोड़कर चल दिया। सविता इस घटनाक्रम से लगभग टूट चुकी थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। सभी की सलाह पर जगदीश का अंतिम संस्कार वहीं मुम्बई में ही किया गया। सविता वहां से छुट्टी लेकर अपने सास-ससुर के साथ अपने गृह नगर आ गई। मृत्यु के बाद के सारे काम हो जाने के बाद उनके परिवार के सामने फिर आजीविका की समस्या खड़ी हो गई थी। परिवार की सहमति से ही सविता वापिस मुम्बई रवाना हो गई। वहां उसने अपनी पुरानी सेवाएं पुनः प्रारम्भ कर दीं। वह नियमित रुप से अपने सास-ससुर को भी खर्च भेजती रहती है।

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उस दिन शाम को जब विनोद उसके पास आता है तो वह कुछ चिन्तित सा था। वह सविता को समुद्र के किनारे घुमाने ले जाता है। वहाँ वे एक चट्टान पर बैठे थे। तभी विनोद उससे कहता है- मेरी समझ में नहीं आ रहा मैं तुमसे अपने मन की यह बात कैसे कहूँ?

कौन सी बात?

विनोद कुछ रूककर कहता है मैं चाहता हूँ कि मैं और तुम जीवन भर एक दूसरे के साथ रहें। यदि तुम स्वीकार करो तो मैं तुम्हारे साथ विवाह करना चाहता हूँ।

उसकी बात सुनकर सविता अवाक रह जाती है। वह कहती है- यह सही है कि आप एक बहुत अच्छे इन्सान हैं। ईश्वर ने आपको सब कुछ दिया है। मेरी और आपकी कोई बराबरी नहीं है। मैंने जगदीश से प्रेम विवाह किया था। वही मेरा पहला और अंतिम प्यार था। मैंने आपको कभी भी इस दृष्टि से नहीं देखा। मेरे ऊपर मेरे माता-पिता और सास-ससुर की जिम्मेदारी है। यही कारण है कि मैं पुनः मुम्बई वापिस आ गई हूँ। आपने मुझे जो काम दिलवा दिया है उसी से कमाकर मैं उनकी सेवा करुंगी। मैं आजीवन आपकी आभारी रहूंगी कि आपने निस्वार्थ भाव से एक अपरिचित परिवार का इतना ध्यान रखते हुए सेवा,सुश्रुषा प्रदान की, और अपनी ओर से हर संभव प्रयास किया कि जगदीश अच्छा हो जाए। पर मेरा दुर्भाग्य है कि अथक प्रयासों के बाद भी हम उसे बचा नही सके।

मेरे ऊपर दो परिवारों की जवाबदारी आ गयी है। मेरे माता पिता जिन्होने मुझे जन्म दिया और दूसरे मेरे सास ससुर जिन्होने विवाह के बाद मुझे अपनी बेटी के समान रखा। इन सभी का मेरे अलावा और कोई नही हैं। मुझे ही इन सबकी देखभाल अकेले ही करनी होगी, मैं अपनी जवाबदारी से विमुख होकर विवाह कर लूँ , यह मेरे लिए संभव नही है। मैं भारतीय सभ्यता,संस्कृति एवं संस्कारों में पली हूँ। और मैं आजीवन उनके देखभाल में अपना समय देना चाहती हूँ। आप मुझे गलत मत समझयिगा।

मैं तो आपके सुखद व संपन्न भविष्य की प्रभु से हमेशा प्रार्थना करती रहूँगी। अब मेरी और आपकी राहें अलग अलग हो रही है।

विनोद कुछ उत्तर नहीं देता। उसका सिर कुछ झुका हुआ था। सविता भी मौन थी। कुछ देर बाद दोनों उठकर चल पड़े। पश्चिम में सागर में सूरज डूबता चला जा रहा था।

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