बैलगाड़ी नहरिया पार जा रही थी- हिचकोले पर हिचकोले खाती हुई...कच्चे मिट्टी के पुल से, धूल के गुबार उठकर, घेराबंदी करते हुए. मंगला ने घूंघट की ओट से, झांककर देखा. नहर से लगी, धोबी काका की मडैया, धुंधली जान पड़ी. सूरज के साथ, पखेरू भी वापसी पर थे. गोधूलि का उदास संगीत, बंसी के क्षीर्ण स्वरों में, ध्वनित हो रहा था. गऊओं को हांकते बाल-चरवाहे, फुदकना भूल, थके कदमों से लौट रहे थे... एक रहस्यमय नीरवता, दियों में टिमटिमाती, कौंधती हुई सी. न जाने क्यों मंगला की आँखें छलक आयीं. कलेजे में हूक सी उठी. यहीं से उसकी जड़ें अलग हुईं... अतीत की प्रेतछायाएं, इन्हीं सुधियों में कैद...इन्हीं राहों पर अंकित, जीवन के पदचिन्ह. “ईलो बहुरिया... तोहरा घर आइ गवा. अम्मा जानों दुआरे ठाढ़ी हन” गाड़ीवान बैजू की हुंकार ने, तंद्रा को भंग किया. मंगला हकबकाकर उतरी. नैहर की माटी छूकर, पैरों में झुरझुरी सी हुई...कहीं न कहीं भीतर भी! अम्माँ दौड़कर गले मिलीं. (ससुराल वाले) बैजू भैया के जाते ही, घूँघट हटा दिया गया. घर के चबूतरे पर, गाँव- बिरादरी की स्त्रियों का जमावड़ा...कुशल – क्षेम पूछने को, उमड़ता हुआ सा...उन सबके टोहके, नैनों के भेद भरे इशारे और ढेर सारी बतकही...लेकिन मंगला की आँखें, चम्पा को खोजती हुई- अपनी बालसखी चम्पा को.
उस जमघट में कोई नहीं, जिससे चम्पा के विषय में पूछ सके. गाँव में चम्पा के खिलाफ, हवा बन रही थी. कई बातें उड़ते उड़ते, मंगला के कानों तक भी पहुंची; कुतर्क मानकर, जिन्हें खारिज कर दिया था उसने. नाउन काकी, पड़ोसन भौजी, सुग्गी मनिहारिन, रज्जो पंसारन- इनमें से एक भी महिला, खुले दिमाग की नहीं... सहेली के बारे में आखिर, पूछे तो किससे?! हुजूम के पीछे, आँख चुराती सी , श्यामा चाची खड़ी थीं. उनसे नजर मिलते ही, मन हुलस उठा. भीड़ को चीरते हुए उधर बढ़ी, तो कई भृकुटियाँ तन गयीं. ‘कैसन हो बिटिया...सब कुसल- मंगल?” “ठीक हैं चाची...तुम आपन हाल कहो” भीड़ छंट रही थी, किन्तु कई जोड़ी आँखें, पलट- पलटकर, उन दोनों पर गड़ने लगीं. मामले की नजाकत भांपकर, चाची ने फुसफुसाते हुए कहा, “ऊ सब बादै मां बतैहैं...अबहिन तो...” मंगला उनका अभिप्राय समझकर, चुपचाप अम्मा के पीछे हो ली. भीतर आते ही अम्मा ने कठोर स्वर में घुड़का, “बिरादरी मां ओहिका हुक्का- पानी बंद हय...फिरौं!! तुमका बोलैं- बतियाएं खातिन, कौनो दुसरी मेहरिया नाहीं दिखात?!” द्विरागमन के बाद, पहली बार मैके में पग धरा...तिस पर भी फटकार! मंगला ने यह सोचा न था. मन भर- भर आया और दीठ धुंधलाने लगी. इस सबसे बेखबर अम्मा, कम्मो को बुलाने चली गईं.
ठीक १५ दिन पहले, कम्मो की गोद- भराई थी. उसकी छोटी बहन कम्मो उर्फ़ कमली! होने वाली सास, शगुन की साड़ी, गहने, चढ़ावा, फल- फूल- सारे ताम- झाम के साथ, पधारीं थी; ५ दिन पहले ही, तिलक चढ़ा था. शुभकार्य का उछाह, घर की दरोदीवार से छलका पड़ रहा था...लिपी- पुती दीवारें, चूने- गेरू से रंगा तुलसी चौरा, आम के पत्तों की बन्दनवार तथा चावल के लेप और कुंकुम की अल्पना. बेचारी कम्मो हर समय चौके में जुती रहती है...अपने ही लगन के बारे में, सोचने की फुर्सत नहीं. पहले मंगला भी उसका हाथ बंटाती थी. अम्मा तो बस, हुकुम चलाती रहतीं. काम के नाम पर, उनके हाथ- गोड़, सब पिराते हैं. बड़के भैया का ब्याह भी, हो ही गया है. कम्मो के गौने के बाद, बहुरिया बिदा कर लायेंगी अम्मा. एक अदद ‘नौकरानी’ की दरकार, उनको हमेशा थी...पढाई के साथ, घर का कामकाज, बेटियां कैसे निपटाएंगी- उन्हें तनिक चिंता नहीं! अपनी अधूरी शिक्षा को लेकर, कितना बवाल किया था उसने! चम्पा ने भी समझाया था, “ गाँव- जवार के मनई, सबहिन बैलान हंय. कौनौ बिटियन का पढ़े नाहीं देत. बरहीं तक पढ़ि लेई तो ओहिका बियाह करा दइहैं.” कच्ची उमर में, अपनी बर्बादी ही, ना रोक पाई मंगला!! दसवीं करते ही फेरे और बारहवीं की परीक्षा के बाद गौना. वह कितना चीखी चिल्लाई थी...शहर के छात्रावास में रहकर, आगे की शिक्षा का मन बनाया था उसने. बापू के हाथ- पैर भी जोड़े थे. किन्तु वे आंसू, रूढ़िवादी सोच को पिघला ना सके. उलटा सुनने को मिला, “का करिहौ डिग्री लइके? चम्पा अस मास्टरनी बने का है?! ओहिकी संगत कीन्ह करत हो...माथा फिरिन जाई... नास हुइ जाई...!!”
चम्पा गाँव भर में, सबसे पढ़ी- लिखी लड़की थी. आगे की पढ़ाई, शहर में की. वहीँ से प्रेम ‘पाल’ लिया. ओडिशा का प्रेमपाल और यू. पी. देहात की चम्पा! गाँव के दबंगों ने, इस पर खूब होहल्ला मचाया था. चम्पा के अम्मा- बापू भी क्या करते... एकलौती सन्तान के तो सात खून माफ़! प्रेम की मां, महिला और बाल विकास मंत्रालय में काम कर रही थीं. उन्होंने ही बहू चम्पा को, गाँव में आंगनवाड़ी खोलने की प्रेरणा दी थी. बेटे ने भी इस काम में, बहू का साथ दिया. दबंगई करने वाले धनिकों को ये रास ना आया. पैसे, रुतबे और राजनैतिक साख के बल पर वे राज करते आये थे. पंचायत उनके इशारे पर नाचती. सहकारी संस्थाएं, उनके हुकुम की गुलाम थीं. पैसे की चमक और लाठी की धमक दिखाकर, वे भोले भाले ग्रामीणों से, वोट झड़ा लेते. चम्पा ने गाँव में शिक्षा और जागरूकता की अलख जगा दी थी. बड़े लोगों के काले कारनामों से पर्दा उठाने लगी थी वह. खेतिहर- श्रमिकों के शोषण और बेगारी पर सवाल खड़े करने लगी. उसका कुछ ‘इंतजाम’ तो होना ही था. प्रेमपाल पर झूठा इलज़ाम लगाकर ‘अंदर’ करवा दिया गया...फिर चम्पा के परिवार का सामाजिक बहिष्कार. अन्याय के खिलाफ, चम्पा चुप नहीं बैठने वाली थी. लेकिन समस्या यह थी कि फिलहाल मंगला, चम्पा से मिले तो कैसे मिले?!
“काहे दिद्दी...का सोचत हौ? चाह(चाय) नाहीं पियें का है?” कमली चाय और खुरमे सजाकर, कबसे सामने बैठी थी. “हम का कही कमलिया...तुम कछू धरे (समझ) नाहिं पइहो” “बाह री दिद्दा! मुला तुमहूँ आजी हुइ गयिन”...“काहे ते(से)- हम बालक अहीं...तोहरी बतियाँ बुझाय नाहिं सकित” “अबै तो आपन दुलहा की बतियां बुझाय पउबो अउर कछू नाहिं” “दिद्दा!!” लाज से दोहरी होकर, कमली ने शिकायती स्वर में प्रतिरोध किया. जब तक वे आपस में और कुछ कहतीं सुनतीं, मउसी ने आवाज़ लगाई, “दूनो बहिनी हियाँ पंचायत करैं लागीं. बन्ना, बन्नी होंय का हैं; ओहिकी कउनो सुधी नाहीं” “आवत हंइ मउसी...तनी धीरज धरो” मंगला ने ऊंचे स्वर में उत्तर दिया. जल्दी जल्दी चाय गटक, कमली का हाथ पकड़कर, उसने आंगन की राह ली. आंगन में औरतों का जमावड़ा था- ढोलक पर थाप देकर, गला फाड़ती हुईं. बगल में एक छोटा सा पंडाल. पंडाल में पूड़ी- कचौरी छन रही थी. ताजे बने कद्दू के साग की, लुभावनी सुगंध, नासापुटों में, सेंध मारने लगी. पड़ोसन भौजी ने तान छेड़ी, “बन्ने टीका बिके, टीका ले लो; अपनी अम्मा को बेच टीका ले लो, अपने बापू को बेच टीका ले लो” समां बंधने लगा था. स्त्रियों ने मंगला को खींचकर उठा दिया. मंगला ने इधर- उधर दोचार ठुमके लगाये तो अम्मा ने निहाल होकर, बीस रूपये निछावर कर दिये. निछावर के पैसे, झट नाउन काकी की झोली में चले गये.
सुग्गी ने चुटकी ली, “ई तरह कमर मटकाइके, सास ससुर का बेंच दीन्हा; अब कारज मां को आई?” “काहे? ईका दुलहा तो अइबे करी. अउर का चाही हमका?” “तुम तो नई रीत चलावत हो भउजी” “अउर का? आजकाल सहरन मा, एही तो हुइ रहा है. मेहरिया, मंसवा आजाद घूमत हंय. बूढ़ मनई, केहिका सुहात हय?!.” “अउका! बुढ़वा- बुढ़ेऊ संगै चलिहैं तईं फइसन(फैशन) बिगड़िन जाई”“सही बतलात हौ दुलहिन. आजकाल माँई बापू क कउनो पूछ नाहीं” पहली बार नई पीढ़ी की बातचीत में किसी सयानी का दखल हुआ. उन बातों से, मंगला का मन उचाट हुआ जा रहा था. इस बीच नये गीत छेड़ दिए गये. समय की नज़ाकत देख, बेमन से ही सही, पर उसे सुर में सुर मिलाना पड़ा. किसी किसी गीत पर मटकना भी पड़ा. परन्तु मन दूसरी ही दिशा में भाग रहा था. उसके नैहर में फिर सुहाग लिया जाना था, दूल्हे के पाँव पखारे जाने थे, कन्या का दान होना था. तरुणियों के मीठे कंठ फूट पड़े थे. नवयौवन की मिठास, स्वरों में गुंथकर, बिखर रही थी. बज रही थी कुंवारे दिलों की बंसरी!
“मेरा बन्ना है अलबेला, सहरी बाबू छैल छबीला” ग्राम बालाओं का पसंदीदा गाना शुरू हुआ तो ढोलक भी पूरे जोश से ठनकने लगी. मंगला को भी याद आये अपने कुंवारे सपने और उन सपनों का राजकुमार. नाम के समान ही रूप था उसके पति रूपेश का. वही तो था इस गाने का नायक. शहरी भी और छैल छबीला भी! रंगीले मिजाज वाला पति पाकर, वह फूली नहीं समाई थी. लेकिन जीवन का लेखा कुछ और ही था. वह कब प्रेयसी से पत्नी और पत्नी से मात्र देह बनकर रह गयी, उसे खुद पता न चला! गंवार औरत का तमगा, उसके वजूद से चिपका दिया गया. ससुराल कस्बे में था. कहने को कस्बा लेकिन छोटे शहर का प्रतिरूप जानो. उन सबके रंग- ढंग अनोखे थे. रूपेश डायरी जैसी कोई चीज देखता था. बाद में पता चला कि वह टैब थी. उस पर बेहूदे और नंगई से भरे नजारे चलते रहते. मंगला ने नाक भौं- सिकोड़ी तो जहर बुझे ताने सुनने को मिले. मुहल्ले की भाभियों ने दबी जबान से उसे चेताया भी; यह कि रूपेश के ‘लच्छन’ शुरू से ठीक न थे. शहर जाकर एकदम्मै बिगड़ गया. वहां तो सुना कि लड़के, लड़की बिना शादी के साथ रहते हैं. पच्छिम की हवा थी जो रूपेश को भी लग गयी. उसे हाथ से बेहाथ हुआ जानकर, माईं- बापू ने फेरे पड़वा दिए. पर क्या समस्या का इलाज हो सका?! ठेकेदारी के सिलसिले में, रूपेश को शहर जाना होता. उसने पीकर आना शुरू कर दिया. गाहे- बगाहे पत्नी पर हाथ भी उठा देता. वह शिकायत करती तो सास जानकी उसे ही कोसतीं; इल्जाम देतीं कि ‘सपूत’ को बांधकर नहीं रख पाई. ससुरजी को ऐसे अवसरों पर काठ मार जाता. हाय तौबा मचते ही, वे वहां से पलायन कर जाते. चम्पा और अम्मा, उधर किसी नातेदार से मिलने आईं थीं. सत्यनारायण की कथा का आयोजन था. दो घड़ी मंगला के पास भी हो आईं. मंगला के यहाँ, उसका पूरा कुनबा था; सो अपना दुखड़ा, अम्मा से रोने का मौक़ा ही न मिला.
फिर भी, बिटिया की आकुलता, माँ से छिपी न रह सकी. वहां की हवा में ही, कुछ ऐसी सुगबुगाहट थी जो रिश्तों की कलई खोल रही थी. जानकी के हाव- भाव, खासे आक्रामक थे. बेटे को मुंहबोली साली(चम्पा) और सासू से प्रेमपूर्वक बतियाते देख, वह कटकर रह गईं. पतोहू मंगला को, अर्थपूर्ण दृष्टि से देख, उन्होंने कटाक्ष किया,“ मैं सुनरी, मोर पिया सुनरा, गंउवा के लोग बनरी बनरा” (मैं सुंदर, मेरा पति सुंदर. गाँव के सब लोग वानरी, वानर). मंगला की बेचारगी, चेहरे पर झलक आयी थी. उसे सांत्वना की जरूरत थी पर अम्मा फुसफुसाकर इतना ही बोलीं, “बिटिया सुरू सुरू मां, दिक्कत ह्वात हय; धीरज राखैं क परी... ऊ तोहरी दुसरी अम्मां अहीं. ऊका सासन(शासन) त रहिबे करी.”क्या आँखें मूँदने से मुसीबत टल जाती है?! दामाद, बिटिया को मुंह पर जाहिल कह गया, “का जानी कसक(कैसे), पढ़ी लिखी हन... कम्पूटर, मुबेल( मोबाइल) कछू नाय समझित” वह ताना तीर के समान, मंगला को लगा. जमाने की दौड़ में पिछड़ी हुई स्त्री, सर्वथा हीन और अयोग्य बन जाती है. ऐसे में एक चम्पा ही थी, जिसने मंगला को सहारा दिया. वादा किया कि अगली बार मायके आने पर, उसे कम्प्यूटर और मोबाइल चलाना बताएगी. इधर अम्मा की दशा, “जिमि दशनन मां जीभ बिचारी’ जैसी हो गयी थी. बेचारगी में, दुनियां भर की मुसीबत उन पर टूट पड़ी!
वे अपने दुखों का पुलिंदा खोलकर बैठ गयीं, बिटिया के आगे. उनका गठिया का रोग, बापू का मोतियाबिंद, कम्मो की होने वाली ससुराल से रूपये पैसे की मांग...आदि आदि. मंगला की कुंवारी ननद इम्बुली, वहीँ ‘कुंडली मारे’ बैठी थी सो ‘खुलकर’ उसके हाल- चाल नहीं ले पाईं. इम्बुली न भी होती तो क्या वे उसे दिलासा देतीं... उस पर जुलुम ढाने वाले, ससुरालियों को, लताड़ पातीं?! शायद नहीं!! वे तो लाचारी जताकर, लोकलाज की दुहाई देकर, पल्ला झाड़ लेना चाहतीं थीं. “अम्बे रानी ने भेजा सुहाग, सुहागन तेरे लिए” ढोलक फिर से गूँज उठी तो मंगला की चेतना जागी. सासू अम्मा, अपनी बड़की बिटिया निम्बुली संग पधारीं थीं. परात में उनके पैर धोकर, पोंछ दिये गये. आनन फानन में मेज बिछ गयी. गर्म गर्म चाय, पकौड़े और गुड़ वाली जलेबियाँ, खिदमत में पेश की गयीं. अम्मा तो उन्हें देख, बौरा सी गयीं थीं. घर भर से कहती फिर रही थीं, “पहुनियाँ आयी हंय...धन्न(धन्य) हमरे भाग!” बीच बीच में तिर्यक दृष्टि से मंगला को भी देख लेतीं थीं, इस उम्मीद से कि वह भी जानकी की कुछ खातिर कर ले. मंगला का दिल बैठा जा रहा था. माँ को समधन की मिजाजपुरसी से फुरसत नहीं. उसकी सुध कब लेतीं?! ब्याहता बेटी मरे या जिए; पूछना तक दुश्वार है. यहाँ औरतों के कान, बड़े चौकस- चौकन्ने हैं... सांस भी लो तो अफ़साना बन जाए... रंग में भंग होते देर न लगे! अजब है दुनियां की रीत - पराये घर में खप ना पायी तो ये भी उसी की गलती!
बिरादरी में दस मेल की बातें होती हैं... अम्मा क्या, उसे ही लिए बैठी रहेंगी?? और भी गम हैं जमाने में!! कम्मो की जिम्मेवारी है...आने वाली बहू का सब कुछ देखना है. घटनाएँ किसी नाटक की तरह आगे बढ़ रही थीं. एक दृश्य में धोबन काकी, कम्मो को सुहाग दे रहीं थीं. सुहागनों को जिमाया जा रहा था और वे सब कम्मो को असीस रहीं थीं. ढोलक की थाप पर, कोई मधुर, कर्णप्रिय सा गीत गूँज उठा, “मांगहुं रे सुहाग देवी मैया तोरे मंदिरवा, मोरे अंगना बोल रहा कागा, सगुन बड़ा भारी है” दूसरे दृश्य में कम्मों चावल फेंककर, पीहर को पराया कर रही थी. शहनाई बिदाई की धुन बजाने लगी. नैन बरस पड़े. कमली की तरल आँखों को पोंछते हुए, उसे सीने से लगाते हुए, मंगला के भीतर भी न जाने क्या क्या उमड़ पड़ा था! बेटियां पराया धन होती हैं...उन्हें घर से बेघर होना ही पड़ता है!! बिदाई के बाद तो मानों, उसके सुख- दुःख भी पराये हो जाते हैं!!! रुलाई के संग घुलकर, कोई स्वरलहरी हवा में तैर गयी- “सावन सुअना माँग भरी बिरना तो चुनरी रँगाई अनमोल। माता ने दीन्हेगउ नौ मन सोनवाँ तौ ददुली ने लहर पटोर।।भैया ने दीन्हेगउ चढ़न को घेड़वा, भौजी मोतिन को हार।माता के राये ते नदिया बहति है, ददुली के रोये सागर पार।।भैया के रोये टुका भीजत है, भौजी के दुइ-दुइ आँस।“
खुद बिदा होने की बेला भी आ गयी थी मंगला की. मैके से कपड़े- लत्ते, पैसे, मिठाई और बयाना, बहुत कुछ मिला किन्तु असली सौगात तो चम्पा ने चुपके से भिजवाई थी- वह झोला जिसमें कुछ किताबें और प्राइवेट बी. ए. का फॉर्म था. मन में हल्की सी आस बंधी कि अगली बार यदि ‘माहौल’ सुधरा तो चम्पा से ‘कम्पूटर’ सीखेगी. लौटते समय सब कुछ वही था था. वही बैजू काका की बैलगाड़ी...धोबी काका की मडैया, बाल- चरवाहे, मद्धम सी बांसुरी. नहीं थे तो उसकी आँखों से छलकते हुए आंसू. वह दिल के किसी नामालूम से कोने में, जज़्ब हो गये थे. दो कुलों की लाज का भार, कन्धों पर जो था! नारी को पृथ्वी की भांति सहनशील होना ही पड़ता है!! सासू अम्मा ने गरम चिमटे से जो उसकी पीठ दागी थी...बड़की ननद के वार से तो बांह छिल गयी और रूपेश जी ने नाखूनों से ही बकोट लिया था. इतने घावों को छिपाने के लिए, उसे लम्बा और बड़ी बांह का ब्लाउज पहनना पड़ा; बड़ा सा पेटीकोट भी. कोई देख लेता तो कम्मो के लगन में, गड़बड़ी मच जाती!! सबसे बड़ा मन का घाव था, जिसे चाहकर भी किसी को दिखा न सकी...जिसकी पीड़ा अनकही ही रह गयी!!!