केदारनाथ - फिल्म रिव्यू Mayur Patel द्वारा फिल्म समीक्षा में हिंदी पीडीएफ

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केदारनाथ - फिल्म रिव्यू

कुछ फिल्में एसी होतीं हैं जिनके ट्रेलर बहुत ही प्रभावक होते है और फिल्म भी दमदार निकलती है. जैसे की पिछले हफ्ते रिलिज हुई ‘2.0’. फिर कुछ फिल्में एसी होतीं हैं जो ट्रेलर देख के बस ठीकठाक ही लगती है पर पूरी फिल्म के तोर पर दिल जित लेती है. जैसे की इस साल की सरप्राइज हिट ‘सोनु के टिटु की स्वीटी’. और फिर कुछ फिल्में एसी होती है जिनके ट्रेकर भी फिके होते है और फिल्म भी ट्रेलर के जितनी ही बोरिंग नीकलती है. ‘केदारनाथ’ ऐसी ही एक फिकी-बोरिंग-बासी फिल्म है.

वोलिवुड अब बदल चुका है, नई पीढी के दर्शक अब नए प्रकार की कहानियों से सजी फिल्में पसंद करते है, पर ‘केदारनाथ’ के निर्माता-निर्देशक अभिषेक कपूर को शायद ये बात पता नहीं है ईसीलिये उन्होंने एक पचास साल पुरानी कहानी दर्शकों के सर मारने की गुस्ताखी की है. केदारनाथ में 2013 में आई बाढ की त्रासदी को फिल्म की कहानी में पिरोने का प्रयास किया गया है लेकिन उसके साथ जो प्रेमकहानी दिखाई गई है वो इतनी पुरानी है, इतनी वकवास है की दर्शक उब जाते है. मुस्लिम हिरो और हिन्दु हिरोइन में प्यार… परिवार का विरोध… रोना-धोना और झगडे… बस यही सब फिल्म कें 75 फिसदी हिस्से में चलता रहेता है. गनीमत है की फिल्म की लंबाई दो घंटे से भी कम है. पर इतनी लंबाई भी असहनीय हो जाती है. आखिर के 15-20 मिनट में कुदरत का कहर दिखाया गया है. बाढ के दृश्य अच्छे है, पर और अच्छे होने की काफी गुंजाइस थीं.

फिल्म के टेकनिकल पासों की बात करे तो, फिल्म का बेकग्राउन्ड म्युजिक बढिया है. केमेरा वर्क शानदार. केदारनाथ की वादीयों को बढिया तरीके से केमेरे में कैद किया गया है. गाने बस, सुनो-और-भूल-जाओ टाइप के ही है. लवस्टोरी में अगर गाने मधुर हो तो वो फिल्म दर्शकों पर प्रभाव छोडने में कामियाब रहती है, बोलिवुड में ऐसे कई उदाहरण है जहां रोमेन्टिक फिल्में अपनी घिसिपिटी कहानी के बावजूद केवल संगीत के बलबूते पर सफल रही है. जैसे की, ‘आशिकी’(1990), ‘ताल’(1999), ‘धडकन’(2000) और ‘धडक’(2018). ‘केदारनाथ’ के गाने अगर बहेतर होते तो बोक्सओफिस पर थोडी बहोत मदद मिलती, पर अफसोस… ये हो न सका…

सारा अली खान की यह पहेली फिल्म है पर उन्होंने गजब का आत्मविश्वास दिखाया है. वो केमेरे के साथ इतनी सहज है की लगता ही नहीं की वो पहेली बार एक्टिंग कर रही है. उनके हावभाव, डायलोग डिलिवरी, बोडी-लेंग्वेज सब सटिक है. और वो दिखती भी खूबसूरत है. उनकी मां अम्रिता सिंघ की छबी साफ साफ उनके अभिनय में दिखती है. अम्रिता की तरह ही सारा ने भी बिन्दास अपना किरदार निभाया है. लडकी में स्पार्क है, और भविष्य उज्जवल है. सारा के मुकाबले फिल्म के हिरो सुशांत सिंघ राजपूत फिके लगे. ज्यादातर फिल्म में वो बस हसते रहेते है और शर्माते रहेते है. माना की आपका किरदार एक शर्मिले युवक का है, पर यार इतना भी मत शर्माओ की आप हिरोइन के आगे पूरी तरह से दब जाओ..! सारा और सुशांत जब भी स्क्रीन पर एक साथ आते है, हमें सिर्फ सारा दिखीं. सुशांत उनके सामने कहीं खो से गये. ये वो सुशांत नहीं है जिनहोंने ‘काइपो छे’, ‘डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी’ और ‘एम.एस. धोनी’ जैसी फिल्मों में सराहनीय पर्फोर्मन्सीस दिये थे. इन दोनों के अलावा बाकी के कलाकार बस ठीकठाक ही लगे.

‘केदारनाथ’ की कहानी जितनी कमजोर है, उतने की ठंडे है फिल्म के डायलोग्स. काफी जगह ऐसे सीन थे जहां बढिया पंच मारे जा सकते थे, पर यहां भी कोई प्रसंशनीय काम नहीं किया गया. हमें लगता है की फिल्म के मेकर्स ‘केदारनाथ की वाढ’ के विषय पर काफी मुस्ताक थे. उन्हें लगा होगा की ये थीम ही बोक्सओफिस पर धूम मचा देगी, जैसे ‘टाइटेनिक’ के वक्त हुआ था. लेकिन अभिषेक भैया, ‘टाइटेनिक’ में एक उमदा, दिल को छू लेने वाली प्रेमकहानी भी थीं. और अगर उस फिल्म में से आप उस प्रेमकहानी को निकाल दें तो वो फिल्म भी महज एक अच्छी डोक्युमेन्ट्री बनकर रह जायेगी. कमर्शियल फिल्म की थीम चाहे कितनी भी वास्तविक और मजबूत क्यों न हो, उसके साथ फिक्शन का डोज भी सही मात्रा में होना अनिवार्य है. और इसी मामले में ‘केदारनाथ’ चूक जाती है. उत्तराखंड की उस भयंकर त्रासदी को भूनाने की ये नाकाम कोशिश इस ‘केदारनाथ’ को बोक्सओफिस पर डूबाके रहेगी.

एक अच्छे विषय को बेजान ढंग से प्रस्तुत करनेवाली इस ढीलीढाली फिल्म को मैं दूंगा पांच में से दो स्टार.

(Film Review by: Mayur Patel)