स्वाभिमान - लघुकथा - 21 Jahnavi Suman द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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स्वाभिमान - लघुकथा - 21

आख़िरी फैसला

शामली के पति शैलेंद्र काम के सिलसिले में अक्सर विदेश जाया करते थे, इसलिए उसने अपने बेटे सार्थक का पालन पोषण एक तरह से अकेले ही किया था।

शलेंद्र की रिटायरमेंट के बाद वह खुश थी, कि अब परिवार एक साथ रहेगा।

सार्थक का व्यवसाय भी अच्छा चल निकला था, जल्दी ही अच्छे घराने की बहु भी मिल गई और दो वर्षों में पोते से आँगन भी खिल उठा।

सार्थक अब अपने परिवार में अधिक व्यस्त हो गया था। माँ बाप का खर्चा बेटे को खलने लगा था।

एक दिन सार्थक मायूस सा चेहरा बना कर माँ के पास आया और बोला, "माँ मुझे व्यपार में करोड़ों रुपए का चूना लग गया। कर्ज़दार मेरी जान के प्यासे हो गए है।अगर ये घर बेच दें तो मेरा क़र्ज़ उत्तर जाएगा।

बेटे की ख़ुशी के लिए उन्होंने घर बेच दिया।

सब किराये के मकान में चले गए।

एक दिन सार्थक फिर से मायूस चेहरा लेकर माँ के पास आया और बोला, "यदि आप और पापा वृद्धाश्रम चले जाएँ तो मेरा ख़र्चा कुछ कम हो जायेगा। "

शामली कुछ बोलती उससे पहले शैलेन्द्र न कहा, 'बस बेटा बस अब हम पर कोई एहसान न करना । मुझे सब समझ आ गया है । हम अलग घर में चले जायेगे, मगर इस दहलीज़ पर कभी वापिस नहीं आएगें।

वे दोनों किराये के छोटे से कमरे में रहने लगे, शैलेन्द्र ने टूशन पढ़ाना शुरू कर दिया ।

एक दिन शामली को बहुत तेज़ बुखार हो गया खून की जाँच कराने पर पता चला, गम्भीर स्थिति का डेंगू हुआ है डॉक्टर ने तुरन्त अस्पताल में भर्ती होने की सलाह दी।

शैलेन्द्र के पास इतने रुपए नहीं थे, कि अस्पताल का खर्च उठा सके।

वह बीमार शामली के पास दिन भर बैठा रहा बुखार उतारने की दवा देता रहा। सिर पर ठंडे पानी की पट्टी रखता रहा।

उसके मस्तिष्क में लगातार विचार उठ रहे थे, क्या करे शामली को तो बचाना है कैसे जाए बेटे से मदद माँगने ?

आखिर उसने फैसला किया वह अपने स्वाभिमान को ताक पर रखकर बेटे से मदद माँगने जाएगा।

वह उठा और शामली से बोला, मैं अभी आ रहा हूँ।

शामली ने इशारे से अपने पास बुलाया और बोली सार्थक के पास जा रहे हो ना, मत जाओ। मेरे पास बैठ जाओ। शामली ने शलेंद्र का हाथ कस के पकड़ लिया।

शैलेंद्र ने शामली के चेहरे की ओर देखा, शामली ने एक आख़री मुस्कुराहट शैलेंद्र को दी और हमेशा के लिए आँखें मूंदलीं।

***

नानी के कँगन

चिंटू बेटा, झटपट नहा लो, पापा, तुम्हारे दादाजी और दादी को एयरपोर्ट से लेकर आते ही होंगे।

निशा यह कहकर रसोईघर में चली गई।

थोड़ी देर में उसके पति 'अमन'; माँ और बाबूजी को लेकर घर आ गए।

निशा ने सास ' करुणा' और ससुर ' घनश्याम का गर्मजोशी से स्वागत किया।

दोनो पहली बार मुम्बई आए थे। बेटे -बहु और पोते से मिलकर दोनों बहुत खुश हुए।

चौपाटी घर से ज़्यादा दूर न था। करुणा चिन्टू को साथ ले चौपाटी घूमने निकल गई।

चौपाटी पर घूमते घूमते चिंटू करुणा से पूछ बैठा, 'दादी आप कितने दिन रहोगी ?"

करुणा ने कहा, ' पूरा एक महीना' फिर चिंटू से पूछा , 'क्यों मेरा आना, तुम्हे अच्छा नहीं लगा "

चिंटू बोला, " नहीं, मुझे तो आपकी बहुत याद आती है। लेकिन मम्मी-पापा आपके आने से पहले कुछ हिसाब लगा रहे थे, कि दूध वाले से कितना दूध माँगना है। दादाजी के लिए ओट्स लानी है। शायद उनके पास पैसे नहीं हैं., मेरी गुल्लक भी तोड़ कर पैसे ले लिए।

मम्मी ने अपनी फ्रेंड से फाइव थाउजेंड रूपीस उधार माँगे हैं, वो कह रहीं थी अगर मेरे सास ससुर, ज़्यादा दिन रुकेंगे तो तुझ से और रुपए ले लूँगी। "

करुणा ने कहा. 'अच्छा ये बात है।'

वे घर लौट आये।

एक महीना मुंबई घूमने फिरने में कब निकल गया पता ही नहीं चला। घूमने फ़िरने का ज़्यादातर खर्चा करुणा और घनश्याम ने उठाया।

करुणा और घनश्याम के दिल्ली वापिस लौटने का दिन आ गया।

निशा ने सास ससुर से कहा, 'कुछ दिन और ठहर जाइए। " अमन ने भी निशा की बात का समर्थन करते हुए कहा, हाँ, मां के हाथ का खाना कुछ दिन और खाने को मिल जायेगा। "

घनश्याम ने कहा, 'नहीं बेटा दिल्ली में घर अकेला छोड़ आये हैं वापिस जाना तो ज़रूरी है। दोनों टैक्सी लेकर एयरपोर्ट के लिए, निकल गए। चिंटू बालकनी से टैक्सी को तब तक देखता रहा जब तक आँखों से ओझल न हो गई।

करुणा ने एयरपोर्ट से अमन को फ़ोन किया और बोली, 'बेटा फ्लाइट टाइम पर है।

मैंने अपने दो कँगन यहाँ बैच दिए थे। अच्छे दाम मिल रहे थे, वो पैसे मैंने तुम्हारे तकिये के नीचे रख दिए उधार समझ कर रख लेना।

मुझे पता है, तेरा स्वभाव कभी किसी को अपनी तकलीफ़ नहीं बताता।

माँ की बात सुन कर अमन की आँखे भर आईं, होठों से कुछ न बोल सका। उसे मालूम था, माँ को वो 'नानी के कँगन' कितने प्रिय थे।

***

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ

अलका! फ़ोन कब से बज रहा है, उठाती क्यों नहीं रवि ने आवाज़ लगाई।

अरे आती हूँ

फ़ोन सुनने के बाद अलका बोली, 'सुनो रवि, संडे को जो लड़का तरंग को देखने आया था उन्होंने तरंग को पसंद कर लिया।

रवि ने पूछा, वही जो नया नया डॉक्टर बना है ?

अलका ने कहा हाँ, कल आ रहे हैं वो शादी की तारीख़ तय करने।

तरंग ने भी माँ -पिता की बातें सुनी और शर्म से लाल हो गई। वो डॉक्टर अमित की धर्मपत्नी बनने जा रही थी सोच कर ही बदन में सिहरन सी दौड़ गई।

अमित के माता -पिता आये शादी के विषय में सब ज़रूरी बातें तय हो गईं। उनकी फरमाइश थी, कि अच्छी से अच्छी शादी हो क्यूंकि अमित का उठना बैठना ऊँचे लोगों में है।

तरंग के माता-पिता ने बेटी की ख़ुशी के लिए सब कुछ स्वीकार कर लिया हालांकि वे जानते थे कि, उनकी इतनी क्षमता नहीं है। वे लाखों रूपये के कर्जे में डूब जाएंगे।

आखिर शादी का दिन भी आ गया सब तरफ़ ख़ुशी बिखर गई थी।

जयमाला के बाद पंडित ने फेरों की तैयारी शुरू कर दी। फ़ेरे सम्पन्न हुए और डोली का समय आ गया।

तभी अमित के पिता ने रवि को बुलाया और बोले, 'अमित को अपना क्लिनिक खोलने के लिए धन की सख्त ज़रूरत है, आप पच्चीस लाख रुपयों का प्रबंध कर दें।

रवि ने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा, 'मैं पहले ही बहुत कर्ज़ा ले चूका हूँ और नहीं ले सकता। '

अमित के पिता बोले, सब कुछ आपकी लड़की को ही मिलेगा, हमारा क्या हैं । "

रवि गिड़गिड़ाया, ' और खर्चा नहीं कर सकता मैं । अमित के पिता ने आँखे तरेरते हुए कहा, फिर रखिये अपनी लड़की को घर पर।

रवि ने उनके पैर पकड़ लिए।

तरंग को माज़रा समझने में देर नहीं लगी। वह चिल्लाई, 'पापा बंद कीजिये गिड़गिड़ाना।

कैसा समाज है हमारा ? बेटी बचाओ , बेटी पढ़ाओ और फिर समाज में अपमानित करो बेटी को। जितनी ज़रूरत बेटियों को पति की होती है उतनी ही बेटों को बहु की होती है फिर ये कैसी सौदे बाजी। ये मुझे क्या छोड़ कर जाएंगे, मैं इन जैसे लोभी और अमित जैसे कायर व्यक्ति का स्वयं ही त्याग करती हूँ। चले जाइये यहाँ से मैं कँवारी रहना ज़्यादा पसंद करुँगी।

अलका ने तरंग को अपनी छाती से लगा लिया। दोनों के आँसू बह निकले। शायद संमाज कभी जान पायेगा इन आँसुओं की क़ीमत । .

***

लेखक का नाम..... जाह्नवी सुमन