आस पास गडबड है...!!! Jahnavi Suman द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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आस पास गडबड है...!!!


आस पास

गड•बड• हे ...!!!

सुमन षर्मा

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आपकी यात्रा मंगलमय हो !

हमारे देश की जनता का आचार व्यवहार सार्वजनिक स्थलों पर न जाने कैसा हो जाता है, कि देख कर लगता है ,बिना राजा की प्रजा वाले देश में आ गए हो. जहाँ प्रत्येक व्यक्ति अपनी मर्जी का मालिक है। चाहे, कोई रेलवे स्टेशन ले लो या हवाई अड्डा।

निर्देश भले ही कुछ भी लिखे हों, उद्‌घोषणा चाहे कुछ भी हो रही हो , लेकिन यहाँ पर आये यात्री हों या यात्रियों को रेलवे स्टेशन या हवाई अड्डे तक छोड़ने आए, उनके रिश्तेदार सब अपनी मर्जी से ही चलेंगे।

अगर आप नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर जाएँ , तो वहाँ लोगों का आचरण देखते हुए, क्या आप को ऐसा नहीं लगता कि यहाँ उद्‌घोषणा कुछश् इस प्रकार हो रही है ,

उद्‌घोषणा

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर आपका स्वागत है। कृपया आँखे बंद कर के चलें व आस पास के लोगों को कोहनी मारते रहें। किसी भी लावारिस व संदिग्ध वस्तु के निकट जा कर उसे छू छू कर देखें। प्रत्येक वस्तु बम्ब नहीं होती, हो सकता है कोई व्यक्ति अपना कीमती सामान रेलवे स्टेशन पर भूल गया हो, जिसे पाकर आप मालामाल हो जाएँ। बस यही तो आपकी जिंदिगी का पहला और आखरी पल है, जब महालक्ष्मी की कृपा आप पर बरस सकती है। इस सुअवसर को हाथ से न जाने दें।

रेलवे द्वारा अनुबंधित कुली पर सामान लादना आपको महंगा पड़ सकता है ,इसलिये आप ऐरे गेरे नत्थू खेरे मजदूरों पर सामान लाद सकते हैं। आप सारा का सारा सामान अपने नाजुक कन्धों पर भी लाद सकते हैं ,पचास —साठ रुपए तो अवश्य ही आप के बचत खाते में चले जाएँगे बस दो चार रातें आप को करवटें बदल कर गुजारनी पड़ेंगी और दिन में थोड़ा सा कराहना पड़ सकता है।

गाड़ी संख्या के आधार पर प्लेटफार्म का चुनाव न करें ,किसी भी प्लेटफार्म पर जाकर खड़े हो जाएँ। रेलवे कर्मी स्वयं आपको गोदी में उठा कर गाड़ी तक ले जाएंगे।

केले के छिलके, पेय पदाथोर्ं के खाली डिब्बे, कूड़ा—करकट इत्यादि यहाँ —वहाँ अवश्य फैलाएँ , अन्यथा सफाई कर्मचारियों को निठल्ला बैठने की आदत पड़ जायेगी।

यदि आपके साथ छोटे बच्चे भी सफर कर रहे हैं , तो आप उनका हाथ न पकड़ें , यही सबसे बेहतर अवसर है, अपने बच्चों की बुद्धि परखने का, कि क्या वह अपने माता पिता को पहचानते हैं , या किसी भी महिला — पुरुष को अपना माता —पिता समझ कर उनके साथ चले जाते हैं।

आप को अपने कीमती सामान की स्वयं सुरक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं। यदि अपने सामान का आप स्वयं ध्यान रखेंगे, तो दिल्ली पुलिस के जवान क्या यहाँ मूँगफली बेचेंगे।

रेलवे की सम्पति आपकी अपनी सम्पति है। आप जो भी चाहें, यहाँ से उखाड़ कर ले जाएँ।

कल झेलम — एक्सप्रैस ,अपने निर्धारित समय पर ,नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से रवाना हो गई थी।,जिसका हमें खेद है। कई यात्री इस कारण यात्रा से वंचित रह गए। बरसों से विलंब से चल रही,इस रेलगाड़ी को समय पर रवाना कर ,संचालक ने रेलवे की साख को गहरा धक्का पहुँचाया है। अतः उसे तत्काल प्रभाव से इस पद से निष्कासित कर दिया गया है।

रेलगाड़ी के प्लेटफार्म पर रुकते ही , उसमेँ प्रवेश पाने के लिए धक्का —मुक्की अवश्य करें। आप के बच्चों के ज्ञान चक्षु खुलेंगे।वह क्रिकेट के अतिरिक्त मुक्केबाजी और कुश्ती के खेल के प्रति भी आकर्षित होगें।

कोई अनजान व्यक्ति , आपको यदि खाने —पीने की कोई वस्तु देता है, तो तुरंत उसे ईश्वर का प्रसाद समझ कर ग्रहण कर लें और अपने पूरे परिवार में उसे बाँट दें। हो सकता है वह व्यक्ति कुम्भ के मेले में बिछुड़ा आपका जुड़वाँ भाई हो।

रेलगाड़ी की खिड़की से बाहर मुँह निकाल कर हिंदी फिल्मो के हीरो की तरह गाना गुनगुनाये। हाथों को हवा में लहराएँ। आप ने टिकिट खरीदा है उसका पूरा—पूरा लाभ उठाएँ। सीट पर जूते —चप्पल पहनकर कूदें। अपने बच्चों को एक डिब्बे से दूसरे डिब्बे तक भागकर पकड़न— पकड़ाई खेलने दें।

बर्थ पर सोएं या फर्श पर ,रेलवे विभाग आपकी सुखद यात्रा की मंगल कामना करता है।

पता

कहाँ गए गुरू

प्राचीन काल में एकलव्य ने अपना अंगूठा गुरू दक्षिणा में दे दिया थां

लेकिन क्या वर्तमान समय में भी शिक्षक उसी प्रकार के सम्मान व आदर के अध्किारी हैं? जितने वह पहले ज़माने में थे, या फिर अध्यापकों ने अपनी असली पहचान व पुराना आदर खो दिया है? शिक्षक, भिन्न— भिन्न प्रकार के होते हैं। इनकी विभिन्न प्रजातियाँ हमारे देश के अलग—अलग हिस्सों में पाई जाती हैं। इस आधर पर शिक्षकाें को विभिन्न श्रेणियाें में निःसंकोच सजाया जा सकता है। शिक्षक मुख्य रुप से पाँच प्रकार की श्रेणियो में बाँटे जा सकते हैें।

शिक्षकाें की पहली प्रजाति

निर्भीेक प्रजाति

इस प्रजाति के शिक्षक प्राय ग्रामीण व पिछड़े इलाकों में पाये जाती हैं। शहरों में भी इस प्रजाति के सक्रिय होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। इनमें पुरुष शिक्षकों की सख्ं या महिला शिक्षकों की संख्या से अध्कि होती है।

ग्रामीण अध्किाश्ां अनपढ़ होते हैं, इसलिए एसेे शिक्षकों के लिए समस्त गाँव में सीना तान कर विचरण करने का एक अनुकूल वातावरण उत्पन्न हो जाता हैं। पाठशाला के एक छोर से दूसरे छोर तक वह जंगल के सिंह की भांति निर्भीक घूमते हैं और अपनी कक्षा से बाहर खड़े किसी भी छात्रा पर भूखे सिंह की तरह झपट पड़ते हैं। इन्हें देखते ही छात्रा डरे हुए मृग की भांति कुलाचे भरते हुए कक्षाओं में घुस जातें हैं। ऐसे शिक्षक अपने हाथों में प्राय झड़ी लके र कक्षा में प्रवेश करतें हैं। ‘झड़ी' इनकी छवि को आरे अधिक भयानक बना देती है। इनके कक्षा में प्रवेश के पश्चात भयभीत छात्रा इन्हें देखकर स्वयं को एक दूसरे के पीछे छिपाने की कोशिश करते हैं। इनके द्वारा पूछे गए प्रश्न भी सिंह की गर्जाना से कम नहीं होते, जिनका उत्तर देते समय कुछ कमज़ोर छात्रा हकलाने लगते हैं।

होशियार छात्रााें के शब्द भी अकसर गले में अटक कर रह जातें हैं। छात्रा, आधे उत्तर के पश्चात अपना आत्मविश्वास खो बैठते हैं। इनका मुस्कुराहट रहित चेहरा इन्हे शिक्षकों की अन्य प्रजाति से भिन्न बनाता है। जब तक एसेे शिक्षक कक्षा में रहतें हैं, संवदे नशील छात्राों के दिल की धड़कन कानाें तक सुनी जा सकती है। यह शिक्षक कक्षा में पढ़ाई के लिए अनुकूल वातावरण पैदा करने में पूरी तरह से असमर्थ रहते हैं। कुछ शरारती छात्रा अपने हृ”दय की भड़ास निकालने के लिए अपनी कॉपी पर इनका दानव जैसा चेहरा बनाकर उस पर दो सींग लगा देते हैं। यह प्रजाति अपने पढ़ाए जाने वाले विषय में आधी—अधूरी जानकारी रखते हुए भी बहुत अकड़ में रहती है। गाँवों के अतिरिक्त यह प्रजाती कही—ं कहीं शहराें मे भी देखी जा सकती है। शहरों में यह प्रजाति , श्िक्षिकों की अन्य प्रजाति में ऐसे घुल मिल जाती है, कि इसे अन्य प्रजातियों से अलग कर पाना जटिल कार्य हो जाता है।

शिक्षकाें की दूसरी प्रजाति

ख़ज़ूर प्रजाति

यह प्रजाति अधिकांशत शहरो में पाई जाती है। इस प्रजाति के शिक्षकाें में महिलाएँ अधिक हाते ी हैं। प्राय ये पब्लिक स्कूलाें को अपना निशाना बनाती हैं। गाँव के शिक्षकाें की भांति ये शिक्षक भी कुछ अकड़ू प्रकार के होते हैं। इन्हें ख़ज़ूर प्रजाति का इसलिए कहा जाता है, जैसे फ़लों से लदे होने पर भी ख़जूर झूकता नहीं ह,ै उसी प्रकार यह शिक्षक भी अपनेाान पर घमंड करते हुंए अकड़ कर रहते हैं। इस प्रजाति को ‘खज़ूर' प्रजाति कहने का एक सशक्त कारण यह भी ह,ै कि इन की छत्र छाया स,े छात्र विशष्ेा लाभान्वित नहीं होते। ऐसे शिक्षकों की मित्रता भी कम ही लोगों से हो पाती है। यह झून्डों में कम ही पाये जाते हैं।

पाठशाला में अर्धवकाश के समय भी ये प्रागंण में प्राय अकेले विचरण करते हुए पाए जाते हैं। अभिभावक अध्यापक दिवस पर ये अपने हाठेाें पर नकली मुस्कुराहट लाने में सक्षम होते हैं। इस दिवस के बीत जाने पर इनके होठ अपने सामान्य आकार में आ जाते हैं। यदि इनकी गल्ती छात्रा पकड़ लेते हैं, तो ये नाग की तरह फन फैलाकर उस छात्रा पर ऐसे तन जाते हैं जैसे उसे डस ही लेना चाहते हो,ं या फिर उसे निगल ही लेगें। वह अपने मुँह से ज़हर उगलते हुए कहतें हैं, ‘तुम्हें अधिकाान है, तो कक्षा को तुम ही क्याें नहीं पढ़ा लेत?े ' ये छात्राें से कभी घुलते — मिलते नहीं। यह अपने फ़ोन नम्बर को इस तरह छिपा कर रखते हैं जैसे किसी लॉकर का अभेद कोड नम्बर हो। जब तक ऐसे अध्यापक कक्षा में रहते हैं। कक्षा का वातावरण तनाव पूर्ण रहता है। यह प्रजाति धीरे—धीरे पूरे विश्व में पनप रही है। शायद ही पृथ्वी का कोई भाग इस प्रजाति से अछूता रहा हो।

शिक्षकाें को तीसरी प्रजाति

ध्ेानु प्रजाति

शिक्षिकों की अगली श्रेणी में जो शिक्षिक आते ह,ैं वह गाय की भािंत चुपचाप, कक्षा में पहुँचते हैं। इस प्रजाति के शिक्षिक विनम्र स्वभाव के होते हैं। उनके आने से कक्षा में सौहार्दपूर्ण वातावरण बन जाता है। ऐसे शिक्षिकों का लेक्चर कुछ छात्राें के लिए लोरी का काम करता है और वह पिछले बैंच पर बैठ कर उँघते रहते हैं या फिर कभी—कभी गहरी निंद्रा में पहुँच कर खराटें लेने भी शुरू कर देते हैं। इस प्रजाति के शिक्षक किसी की नींद ख़राब करने में विश्वास नहीं रखते। वह गध्ेा—घोड़ो में कोई भेद नहीं करते। वह सभी को एक ही लाठी से हाँकते हैं। न तो वह होशियार छात्रों की कभी प्रशसां ही करते हैं और न ही नालायक छात्रों को कभी दंडित ही करते हैं। इस प्रजाति के पुरुष शिक्षक किसी तरह की प्रतिक्रिया अपने चेहरे पर नहीं आने देते। वह क्रोधित हैं या प्रसन्न इस बात का अनुमान लगाना अत्यन्त जटिल कार्य हो जाता है। इस प्रजाति की महिला शिक्षिकाएँ इससे कुछ भिन्न हाते ी हैंं एसे ी शिक्षिकाएँ क्रोध या प्रसन्नता छिपाने में तो अक्षम होती हैं, किन्तु वह एक ही लय में हमेशा अपना मुँह खोला करती हैं। यदि कोई छात्रा अपनी कोई समस्या इनके समक्ष रखता है तो यह कक्षा में दिए गए राग का पुन अलाप कर देतीं हैं। जिस तरह गाय के सींगों से हम भयभीत नहीं होते इसी प्रकार इनके क्रोधित होने पर भी छात्रा इनके सामने समान्य ही रहते हैं। इनके अन्दराान कितनी गहराई तक है? कभी इसके पुख्ता सबूत नहीं मिलते हैैं। यह प्रजाति मुख्य रुप से शहरों में पाई जाती है। कस्बाें में भी यह प्रजाति कही—ं कहीं देखी जा सकती है।

इस प्रजाति की कुछ अन्य विशेषताएँ भी हैं। यह शिक्षक छात्रों को दिए गए गृहकार्य की जांच करने में बहुत उदासीन नज़र आते हैं। यह प्रश्न पत्र को अधिक जटिल नहीं बनाते क्योिं क जटिल पश्र नों में ये स्वयं ही उलझ जातें हैं।

झुई मुई प्रजाति

इस प्रजाति के शिक्षक कुछ समय के लिए पाठशाला में उपस्थित रहतें हैं फिर अचानक कुछ दिनों के लिए ग़ायब हो जाते हैं। यह प्रजाति सरकारी स्कलूों को अपना निशाना बनाती है, क्योिं क नौकरी से न निकाले जाने का यहाँ अनुकुल वातावरण मिलता है। यह अपने शिष्यों से कभी पहचान नहीं बना पाते। बहुत समय के अन्तराल के बाद जब पाठशाला में आते हैं, तब छात्र स्टाफ रूम में इन्हें— छुप छुप कर ऐसे देखतें हैं, जैसे कोई नई नवेली दुल्हन हो। इनका कोर्स कभी भी निर्धारित समय में समाप्त नहीं होता है। शिक्षकाें की इस प्रजाति के शिक्षक प्राय पाठशाला में अनुपस्थित रहतें हैं। इन के पीरियड अन्य अध्यापकों को झेलने पड़ते हैं। यह कक्षा में आकर भी अपनी किसी व्यक्तिगत समम्या में उलझे रहते हैं। यह अपने श्ष्यिों को न तो नाम से पहचानते हैं और न ही चेहरे से इनका शिक्षक बनने का औचित्य समझना अत्यन्त जटिल कार्य नहीं है। यह बात लगभग स्पष्ट है, कि धन कमाने की इच्छा आाध्ुनिक युग में बढ़ती जा रही है, और अध्यापन कार्य करना सीध व सरल लगता है।

ऊपर दी गई प्रजातियाँ आध्ुनिक युग में कुकुरमुत्ते की तरह पनप रहीं हैं।

पोराणिक शिक्षक

शिक्षिकों की आखिरी प्रजाति के शिक्षक प्राचीन युग के गुरु की भािंत हातेे हैं। यह अपने विषय में पूरी जानकारी रखतें हैं। इनकी तुलना एक फूलाें से भरे या फ़लों से लदें पेड़ो से की जा सकती है।ाान से लद्‌दे होने के कारण इनके चेहरे पर पूरा विश्वास दिखाई देता है। इनके कक्षा में आते ही छात्र स्वयं ही अनुशासित हो जाते हैं। एसेे शिक्षक छात्रों को न कवे ल किताबी शिक्षा देते हैं, अपितु छात्राें का चहुमुखी विकास भी करते हैं। एसेे शिक्षक न कवे ल अपने शिष्यों के चेहते होतें हैं, बल्कि अपने सहशिक्षकों के भी चेहते बन जाते हैं। इनका शिक्षक बनने का प्राथमिक उद्‌देश्य धनोर्पाजन नहीं होता। ऐसी प्रजाति के शिक्षक कभी झुन्ड में तो कभी अकलेे ही देखे जाते हैैं। वह छात्राें के विकास औराान के लिए तन व मन, शायद कभी— कभी धन भी न्यौछावर कर देते हैं। इनके शिष्य अपने जीवन का पाठनकाल पूर्ण कर लनेे के बाद भी, अपने जीवन काल में इन्हें बार—बार स्मरण करते हैं। ऐसे शिक्षकाें की संख्या गाँवाें व शहरों में तेज़ी से घट रही है। यह सचमुच चिंता का विषय है। यह प्रजाति अब विलुप्त हो रही है। यदि शीघ्र ही इसे बचाया न गया तो, यह प्रजाति केवल संग्रहालयों की वस्तु बन कर रह जाएगी।

मैं आभारी हूँ, अपने शिक्षकाें की, जो विलुप्त हाते ी प्रजाति के थे। आपके शिक्षक किस प्रजाति के हैं?

जनगणना

चाँदनी चॉक की एक हवेली में एक बुजर्ग महिला सेवईयाँ बना—बना कर धूप में सुखा रही थी। तभी वहाँ दो नवयुवतियाँ प्रवेश करतीं हैं। बुज़ुर्ग महिला मुँह उठा कर उफपर देखती है। उन युवतियाें से कड़क आवाज ़ में पूछती है,‘‘ ए!तुम दाने ो लुढक़ ते मटर सी कहाँ लुढ़कत़ी आ रही हा?े युवतियाँ सहम जाती हैं। एक युवती जवाब में कहती है, ‘‘ अम्मा जी! हम भारत सरकार की ओर से जनगणना के लिए आए हैं।'' अम्मा जी त्यौरियाँ चढ़ा कर उनकी ओर देखती हैं। दूसरी युवती साहस बटोर कर कहती है,‘‘ हम भारत में रहने वाले लोगो की गिनती करेगें।'' अम्मा जी हाथ नचाती हुई कहती हैं ,‘‘गिनती करनी है तो अपने ऑफिस में जाकर करो। इस को क्या धर्मशाला समझा है जो यहाँ बैठ कर गिनती करोगी? युवती ने जवाब दिया,‘‘अरे नहीं हमें तो आप के और आपके घर के विषय में कुछ बातें पूछनी है।ं '' अम्मा जी ने गुस्से में कहा ‘‘ये तो वही बात हो गई मान ना मान में तेरी मेहमान।''

युवतियाँ मुस्कुराती हुई वहाँ रखी चारपाई पर बैठ गईं। एक युवती ने अम्मा जी से सवाल किया, ‘‘आपका नाम क्या है?'' अम्माजी ने आश्चर्य से मुहँ पर हाथ रख कर कहा ‘‘हाय राम! क्या ज़्ामाना आ गया। अभी ये लड़़िकयाँ जमीन से भी नहीं निकलीं और मुझे नाम से पुकारेगीं?''एक युवती ने जवाब में कहा ,‘‘ हमें फार्म पर लिखना है।'' अम्मा जी बोली,ं ‘‘ऐ मुझे क्या स्कूल में दाखिला लेना है जो मेरे नाम का फार्म भर रही हो।'' दूसरी युवती हँसते हुए बाले ी ,‘‘आप के परिवार के सभी सदस्यों के नाम लिखने हैं।'' प्रथम युवती ने पुन प्रश्न किया,‘‘आप के घर में कितने पुरुष व कितनी महिलाएँ हैं?''

अम्माजी सेवईयाँ फैलाते हुए बोलीं ‘‘,तुझे क्या दोनो के बीच कुश्ती लड़वानी है?'' युवतियाँ अम्माजी से कुछ भी जानकारी प्राप्त न कर सकीं। अब उन्होने पूछा, ‘‘आप के बच्चे कितने हैं?'' अम्माजी ने कहा,‘‘ भला कोई अपने बच्चे भी गिनता है क्या? जितने उफपर वाले ने दे दिये। सब उसकी माया है।'' युवती ने कहा ‘‘चलिए यह तो बता दीजिए, आप के पति क्या काम करते हैं?'' इस बार ऐसा लगा जैसे अम्माजी की दुखती रग पर किसी ने हाथ रख दिया हो। वह पास पड़ी टूटी खटिया में धम से धसं गई। उनकी सूनी विरान आँखें समय की तहों को चीरती हुई 50 साल पीछे चली गईं। अपने पति की सरकारी नौकरी से लेकर साझेदारी में हुई धोखा—धड़ी तक की अम्माजी की कहानी युवतियों का एक घंटा निगल गई। लेकिन युवतियाँ तो सरकारी काम से आईं थीं। उन्हें तो अपना काम पूरा करना ही था। वह इसी आशा में सवाल किए जा रहीे थीं कि कभी तो अम्माजी सवालों के जवाब देना शुरु करेंगीं। अब तक अम्माजी की सेवईयाँ सूख चूकीं थीं। वह उनकी पोटली बना कर चप्पलें मटक कर जब चलने लगीं तो युवतियों ने पूछा,‘‘ क्या ये घर आपका नहीं है?'' अम्माजी ने कहा,‘‘ ना रे ये तो बिमला का घर है। मैं तो पिछली गली में रहती हूँ। वहाँ ध्ूाप नहीं आती है ना, तो बिमला बोली चाचीजी! तुम यहाँ सवईयाँ सुखा लेना।'' दोनो युवतियाँ के चेहरे फीके पड़ गए। वह एक दूसरे का मुँह ताकने लगीं।

काके लागूँ पाय?

मार्च के महीने में दिल्ली विश्वविदयालय में पुस्तक मेले में ‘एक हिन्दी प्रकाशक' की स्टॉल पर बैठने का अवसर प्राप्त हुआ। सैंकडों ़आगंतुक वहाँ आए। अधिकतर लोगों की हिन्दी की पुस्तकें न खरीदने का कारण,जो मैंने अनुभव किया वह था, उनकी हिन्दी के विषय में अज्ञानता। उन्हें देखकर भविष्य की जो तस्वीर मेरे मस्तक पटल पर उभरी वह आपके सामने प्रस्तुत है——

एक पाँचवी के छात्र को हिन्दी का कार्य मिलता है, जिसमें उसे कबीर के दोहे का अर्थ स्पष्ट करना होता है। वह अपने पिताजी से पूछता ह,ै ''डैड, गुरू गोबिंद दउ खड़े काके लागूँ पाय।'' पिताजी गुस्से में कहते हैं, ‘‘खड़ा रहने दे दोनो को। तू जा कर अपना कार्य कर।''उनका सुपुत्र अपनी किताब पिताजी को दिखाते हुए कहता है, ‘‘वही तो कर रहा हूँ। मुझे इन पक्िंतयों का अर्थ लिखना हैं।'' पिताजी थोडे़ से शर्मिंदा होते हुए बोले ''मेरे तो हिन्दी में कभी अच्छे अंक नहीं आए। तुम्हारी माताजी से पूछता हूँ।

पिताजी अपनी पत्नी के पास पहुँचे और बोले,‘‘अजी सुनती हो? पत्नी खाना बनाते हुए कहती है,‘‘ हाँ हाँ बहरी नही हूँ।'' पिताजी कहते हैं,‘‘गुरू गोबिंद दोनो खड़े काके लागूँ पाय?'' पत्नी बेलन लेकर बाहर आती है और गुस्से से दहाड़ती है,‘‘बस आप तो दूसरों के पावों में ही पड़े रहना। कभी सिर उठा कर जीने की मत सोचना।''घर में काम करने वाली नौकरानी बर्तन साफ करते—करते कहती है, ‘‘मेमसाहब! मैं जानती हूँ गुरू और गोबिन्द को। दोनों गुन्डे हैं। चाय वाले के पास बैठे हुए दोनों बीड़ी फूँकते रहतें हैं।'' पिताजी सोचते हैंं इनसे तो बात करना ही बेकार है। अम्मा से जाकर पूछता हूँ। अम्मा जी पूजा की माला जप रहीं हैं। पिताजी बड़ी उत्सुकता से अम्माा जी के पास पहुँचते

हैं और पूछते हैं,‘‘अम्मा गुरु गोबिंद दउ खड़े काके लागूँ पाय?''अम्मा जी माला को पूरा जपने के बाद कुछ देर अपने बेटे की ओर देखतीं हैं और बोलती हैं,‘‘बेटा तुझे ‘दोनो' के पाँव पड़ने में कोई प्रोबल्म है?'' ‘‘नहीं माँ यह बात नहीं है।''पिताजी समझाने की कोशिश करतें हैं। अम्माजी कहतीं हेैं, ‘‘तो अब खड़ा —खड़ा मेंरा मुँह क्या देख रहा है जा जाकर दोनो के पाँव पड ़ जा।'' अम्माजी सोचती हैं दोनाें से उधार ले रखा होगा? पिताजी निराश हो जाते हेैं। पिताजी सोचते है बाबूजी अवश्य मदद करेगें। यह सोच कर वह बाबूजी के पास जातें हैं। बाबूजी बगीचे में धूप सेक रहे थे पिताजी खुशी —खुशी वहाँ जाते हैं और पूछते हैं,‘‘ बाबूजी गुरू गोबिंद दउ खड़े काके लागूँ पाय।'' बाबूजी ने नाक चढ़ाते हुए इघर उघर देखा और कहा , ‘‘ पहले अन्दर से मेरा चश्मा लाकर दे। मुझे तो यहाँ कोई खड़ा नज़र नही आ रहा।''

पास में माली पौधो में पानी दे रहा था वह सोचता है, ‘‘कैसा कंजसू मालिक मिला है। पैसे देने में तो कंजूसी करता ही था अब पाँव पड़ने में भी कंजूसी करने लगा है। कितनी देर से समय बर्बाद कर रहा है काके लागूँ पाय'' छा़त्र अन्दर से दौड़ा दौड़ा आता है और अपने पिताजी के हाथों से अपनी पुस्तक छीन लेता है। वह कहता है,‘‘ आप लोग रहने दो मैं इन्टरनैट से समझ लूँगा।''।

मेरी माँ

एक बार तीसरी कक्षा के विद्‌धर्थियो को गृहकार्य में निबंध लिखने को दिया गया। निबंध का विषय था—‘मेरी माँ।' हिन्दी का प्रचलन कम हो जाने के कारण घर के सभी सदस्य उनकी सहायता करने में अस्मर्थ रहे। छात्राों ने इन्टरनेट पर, ‘माँ' शब्द की वेबसाईट खोली और वहाँ माँ से संबंधित जो भी पेज़ खुले और उनसे मिली जानकारी को लेकर क्या गुल खिलाया —

एक छात्रा का निबंध ;भारत माता के निबंध से प्रेरित होकरद्ध मैं अपनी माँ का सपूत हूँ। मेरी माँ का विशाल क्षेत्रापफल है। वह उत्तर में हिमाचल से लेकर नीचे दक्षिण में कन्याकुमारी तक पफैली हुई है। उसका एक छोर असम की पहाड़ियाँ हैं, तो दूसरा छोर कच्छ की खाड़ी है। कोई मेरी माँ पर बुरी नज़र ना डाले, इसलिए रात—दिन तीनों सेनाएँ मेरी माँ की सुरक्षा के लिए तैयार रहतीं हैं और सीमा सुरक्षा बल सीमा पर तैनात रहता हैं। मेरी माँ वर्षो तक अंग्रेजो की गुलाम बनी रही। मेरे वीर भाई बहनों ने वर्षों तक संघर्ष किया और उसे उन्नीस सौ सैंतालीस में अंग्रेजों से आज़ाद करवा लिया। लेकिन अंग्रजों की कटु नीतियों के कारण मेरी माँ के दो टुकड़े कर दिए गए। एक अंग मुसलमानों को पाकिस्तान के रुप में सोंप दिया गया। आज मेरी माँ की संतान सौ करोड़ से भी अधिक है। मेरी माँ का मुख्य रफप से आय का साधन खेती बाड़ी है। मेरी माँ गेहूँ, चावल, तिलहन, दालें व कपास पैदा करती है। मेरी माँ के भीतर कहीं हिमालय जैसे उफँचे पहाड़ हैं, तो कहीं खार जैसे पठार। मेरी माँ के मैदानी हिस्सों में, कहीं राजस्थान के मरुस्थल हैं, तो कहीं उत्तर प्रदेश की उपजाउफ मिट्‌टी। कहीं मेरी माँ के भीतर शांत समुन्द्र है, तो कहीं प्रचंड ज्वाला मुखी। कुछ विदेशी ताकतें मेरी माँ से कश्मीर छीन लेना चाहती हैं।

कश्मीर मेरी माँ के शरीर पर मस्तक की तरह है। मैं अपनी माँ को कभी घर से बाहर नहीं जाने दूँगा, अन्यथा आंतकवादी मेरी माँ का सिर काटकर ले जाएगें। दूसरे छात्रा का निबन्ध ;इस छात्रा की माँ का नाम दुर्गा है। दुर्गा माँ से प्रेरित होकरद्ध मेरी माँ की नाम दुर्गा है। उनकी आठ भुजाएँ हैैं। मेरी माँ के नौ रुप हैं। इसलिए वह नव दुर्गा के रुप में भी जानी जाती है। जब असुरों ने पूरे ब्रह्ममाण्ड में त्रााहि—त्रााहि मचा दी थी, तब देवताओं में भी असुरक्षा की भावना पफैल गई थी। शिव और ब्रह्मा ने संयुक्त रुप से जिस शक्ति को उत्पन्न किया, वह— मेरी माँ है। महिषासुर का वध कर मेरी माँ ने देवताओं को उसके भय से मुक्ति दिलवाई थी। मेरी माँ ने चण्ड—मुण्ड नामक राक्षसों के घमंड को भी चूर—चूर कर दिया था। जब रक्तबीज का आतंक बढ़ गया था, तब मेरी माँ ने उसे भी भस्म कर दिया था। शुम्भ और निशुम्भ दैत्यों का संहार मेरी माँ ने ही किया।

लेकिन मुझे इस बात का दुख है, कि मेरी माँ ने मुझे कभी भी अपने विषय में कुछ नहीं बताया। मुझे माँ की बहादुरी के किस्से और इस विषय में सारी जानकारी इन्टरनेट से पता चला है। तीसरे छात्रा का निबंध ;गाय माता से प्रभावित होकरद्ध मेरी माँ का नाम गाय है। वह एक घरेलु पालतु पशु है। उनके चार पैर हैं व एक लम्बी सी पूँछ है। मेरी माँ की दो बडी—बड़ी काली आँखे, दो कान, एक सिर, एक धड़ और सिर पर दो सींग हैं। मेरी माँ की त्वचा का रंग एकदम सपफ़ेद है। जब मेरी माँ के उफपर मक्खियाँ भिनभिनाती हैं, तो मेरी माँ उन्हें अपनी पुँछ से झटपट उड़ा देती है। जब मेरे पिताजी मेरी माँ के सामने हरा—हरा चारा डालते हैं, तो वह अपनी मोटी—मोटी अाँखों से पिताजी की ओर ऐसे देखती हैं, जैसे उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट रहीं हों। मेरी माँ की प्यास बुझाने के लिए एक बड़ा सा हौद हमेशा पानी से भरा रहता है। पिताजी ऑपिफस जाने से पहले मेरी माँ को खूटी से पृथक कर देते हैं। मेरी माँ दिन भर खुले मैदान में घास चरती रहती हैं और शाम को घर लौट आती हैं। शाम होते ही उन्हें खुटी से बाँध दिया जाता है। सवेरा होते ही मेरी माँ रम्भाने लगती हैं।

हम उनकी रम्भाने की आवाज़ से उठ जाते हैं। मैं प्यार से अपनी माँ की पीठ पर हाथ पफेरता हूँ। जब हम गर्मी की छुट्‌टियों में जब हम अपनी नानी के घर जातें हैं, तो मेरी मा को पड़ौसियों की देख रेख में छोड़ जाते हैं। मैं अपनी माँ से बहुत प्यार करता हूँ।

अघ्यापिका यह सब पढ़कर झुंझाला गई और बोली, ‘अब मैं सारी कक्षा की कापियाँ जांच कर क्या करुँ? यहाँ तो सभी महान सपूत बैठे हैं। मैं तो धन्य हो गई। इन माताओं के दर्शन मैं, ‘पेरैन्टस्‌ टीचर मीटिंग' में अवश्य करना चाहूँगी।