कुलदीप ने ने अपना सूटकेस गाड़ी से उतारा। कुछ समय इधर उधर देखते रहे। पर उन्हें लेने कोई नहीं पहुँचा था। उन्होंने अपने आने की सूचना तो दी थी। फोन पर बात हुई थी कि उनके चचेरे भाई का बेटा उन्हें लेने स्टेशन आएगा। पर वह तो दिखाई नहीं पड़ रहा था। कुछ क्षण अनिश्चय में खड़े रहे। क्या करें समझ नहीं आ रहा था। बहुत समय के बाद यहाँ आए थे। आगे की यात्रा कैसे करनी है मालूम नहीं था। फिर सोंचा पहले स्टेशन के बाहर चलते हैं फिर आगे देखेंगे।
स्टेशन के बाहर निकले तो सामने चाय की दुकान देख कर अचानक ही अपनी थकान का एहसास हुआ। पहले लंदन से दिल्ली तक की हवाई यात्रा की। होटल में कुछ ही घंटे विश्राम करने के बाद यहाँ के लिए रेलगाड़ी पकड़ ली। उन्हें एक प्याला चाय की सख्त आवश्यक्ता महसूस हुई। उन्होंने चाय बनाने को कहा।
चाय पीते हुए वह इधर उधर निगाह दौड़ाने लगे। पहले से यह जगह कितनी बदल गई थी। पहले यह एक छोटा सा स्टेशन था। आज की तरह बाहर इतनी दुकानें नहीं थीं। अब तो जैसे एक बाजार ही हो गया है।
पहले खड़खड़े चलते थे। जिन्हें एक घोड़ा खींचता था। यहाँ से गाँव जाने का यही एकमात्र साधन उपलब्ध था। जब वह हॉस्टल से छुट्टियों में घर आते तो सबसे पहले स्टेशन के बाहर कुल्हड़ में मिलने वाली चाय पीते थे। लेकिन आज प्लास्टिक के छोटे से कप में भी सिर्फ आधा कप चाय ही थी। लेकिन स्वाद वैसा नहीं था। कुल्हड़ से उठने वाली सोंधी सी खुशबू की जगह प्लास्टिक की गंध उन्हें अच्छी नहीं लगी। आधा कप चाय भी पूरी नहीं पी पाए।
पैसे चुकाने के बाद उन्होंने पूँछतांछ की कि गाँव जाने के लिए क्या साधन उपलब्ध है। पता चला कि एक बस आती है किंतु उसके आने में कुछ समय है। समय बचाने के लिए लोग तिपहिया टेंपो से चले जाते हैं। वह भी एक टेंपो की तरफ बढ़ गए। उन्होंने टेंपो वाले से गांव तक ले जाने का भाड़ा पूँछा। टेंपो चालक उनके हुलिये व बातचीत के लहज़े से समझ गया कि पार्टी पैसे वाली है। शायद किसी बड़े शहर में रहते हैं और बहुत दिनों के बाद आए हैं। उसने दार्शनिक भाव से सुझाव दिया।
"साहब रेट तो हम पर सवारी का लेते हैं। लेकिन कई लोगों के साथ बैठना पड़ेगा। आपको असुविधा होगी। मेरे हिसाब से तो पूरा टेंपो ही कर लीजिए।"
कुलदीप ने बाकी टेंपो वालों को आवश्यक्ता से अधिक सवारी बैठाते हुए देखा तो बात उनकी समझ में आ गई। ट्रेन में अपनी बर्थ थी पर उन्हें घुटन सी हो रही थी। वह बोले।
"ठीक है, पूरे का भाड़ा ही बताओ।"
टेंपो वाले ने कुछ देर दिमाग में जोड़ घटाना करने के बाद उन्हें भाड़ा बता दिया। कुलदीप समझ रहे थे कि उसने भाड़ा ज़्यादा ही बताया है। लेकिन इतने सारे लोगों के बीच दब कर बैठना उनके लिए संभव नहीं था।
टेंपो गांव की तरफ बढ़ने लगा और कुलदीप अतीत की गलियों में विचरने लगे।
सात साल की उम्र थी। कुलदीप जिसे प्यार से घर में सब दीपू बुलाते थे, मैदान में साथियों के साथ गिल्ली डंडा खेल रहा था। तभी दूर से उसे बाबूजी आते दिखाई दिए। वह किसी काम के सिलसिले में शहर गए थे। जाते समय दीपू ने उनसे शहर से खिलौना लाने को कहा था। बाबूजी को देखते ही वह उनकी तरफ भागा।
"ऐ दीपू कहाँ भाग रहा है। मुझे मेरा दांव तो देते जाओ।" मनोज ने गुस्सा दिखाते हुए कहा।
"कल तुम्हारा दांव दूँगा। अभी मुझे बाबूजी के पास जाना है।" दीपू भागते हुए बोला।
दीपू भागता हुआ बाबूजी के पास गया।
"शहर से मेरे लिए खिलौना लाए।"
"लाया हूँ पहले घर तो पहुँचने दो।"
दीपू ने उनका झोला ले लिया और आगे आगे चलने लगा। उसे पता था कि उस थैले में ही उसका खिलौना है। घर पहुँचते ही उसने झोले से अपना खिलौना निकाल लिया। प्लास्टिक का हवाई जहाज था। उसे देखते ही वह खुशी से उछल पड़ा। उसे हाथ में लेकर इधर उधर भागने लगा जैसे उड़ा रहा हो।
"बहुत सुंदर हवाई जहाज लाए हैं बाबूजी तुम्हारे लिए?" अम्मा ने कहा।
"अम्मा हवाई जहाज उड़ कर बहुत दूर के देशों में जाता है। एक दिन मैं भी जहाज में उड़ कर दूर देश जाऊँगा।" दीपू ने जहाज को ऊपर उठाते हुए कहा।
अम्मा ने प्यार से उसे गोद में बिठा लिया।
"खूब तरक्की करना बचुआ। विदेश भी जाना। पर कभी अपनी देहरी को मत भूलना।"
टेंपो में बैठे हुए अम्मा के शब्द कान में गूंजने लगे। उस उम्र में वह अधिक समझ नहीं पाए थे। लेकिन तीस बरस पहले जब वह सचमुच विदेश में जाकर बस गए तो अम्मा की कही बात का मतलब समझ आ गया। अपना देश, गांव और घर की देहरी हमेशा उनकी यादों में जीवित रहे।
विदेश में रहते हुए कुलदीप ने बहुत कुछ हासिल किया। मान सम्मान, धन दौलत सब कुछ। परिवार भी वहीं शुरू किया। परंतु उनके व्यक्तित्व का एक हिस्सा जैसे हमेशा ही उनके गांव में बसता रहा। एक बार अपने गांव को देखने की इच्छा कई वर्षों से उनके दिल में दबी हुई थी। इस बीच एक दो बार भारत आना भी हुआ। लेकिन गांव जाने का मौका नहीं मिल पाया। जब वह सोंचते कोई ना कोई बाधा उत्पन्न हो जाती थी।
कुछ दिनों से दिल में एक अजीब सी बेचैनी थी। अतः उन्होंने तय कर लिया कि कुछ भी हो जाए वह अपने गांव अवश्य जाएंगे। उन्होंने पत्नी को यह फैसला सुनाया। पत्नी ने भी उनका समर्थन करते हुए कहा कि यदि उनकी इच्छा है तो उन्हें अवश्य जाना चाहिए। उसके बाद कुलदीप ने बिना कुछ और सोंचे जाने की तैयारी कर ली।
गांव के बाहर टेंपो से उतर रहे थे तभी किसी ने पैर छुए।
"मैं महेंद्र, वो अचानक ज़रूरी काम आ गया इसलिए लेने नहीं आ सका।"
कुलदीप पहचान गए कि वही भतीजा है जो स्टेशन आने वाला था।
महेंद्र ने उनका सूटकेस उठाते हुए कहा।
"दरअसल प्रधानी का चुनाव होने वाला है। मैं पुराने प्रधान के साथ हूँ इसलिए चुनाव प्रचार के काम से जाना पड़ा। उनका मेरे बिना काम नहीं चलता है।"
महेंद्र ने सफाई दी। लेकिन उसमें ना आ सकने की मजबूरी कम अपनी अहमियत दिखाने का भाव अधिक था। महेंद्र मोटरसाइकिल लेकर आया था। कुलदीप पीछे सूटकेस पकड़ कर बैठ गए।
गांव में घुसे तो सब कुछ बदला हुआ नज़र आया। मोटरसाइकिल पर बैठे हुए वह मन ही मन विचार कर रहे थे कि पुरानी कौन कौन सी चीज़ें अब दिखाई नहीं दीं। मोटरसाइकिल उनके चचेरे भाई के घर के सामने रुकी। उन्हें देख कर उनके भाई बसंत ने आगे बढ़ कर उनके पैर छुए। उन्हें भीतर ले गए।
"परेशान हुए होगे भइया पर महेंद्र काम में फंस गए। इसलिए आ नहीं पाए।"
"बताया महेंद्र ने। कोई खास परेशानी नहीं हुई। पूरा टेंपो कर लिया था।"
तभी भीतर से एक स्त्री ने आकर पैर छुए।
"सावित्री है। महेंद्र की अम्मा। हमारे ब्याह के समय तो आप थे नहीं।"
कुलदीप ने अपनी जेब से कुछ पैसे निकाल कर शगुन के तौर पर दिए।
"अरे ये क्या भइया। सावित्री कोई नई दुलहिन तो है नहीं।"
"पर मैं तो पहली बार मिला हूँ।" कुलदीप ने पर्स जेब में रखते हुए कहा।
सावित्री चाय नाश्ते की व्यवस्था करने लगी।
चाय नाश्ते के बाद वह बसंत के साथ बातचीत करने लगे।
"खेती बाड़ी कैसी चल रही है?"
"अब कुछ नहीं रहा। महेंद्र तो नेताई करने में लग गए। एक दोस्त के साथ ठेकेदारी भी करते हैं। अब इस उमर में सब अकेले संभालने में दिक्कत हो रही थी। वैसे भी खेती में अब परता नहीं पड़ता।"
"तो क्या बटाई पर दे दिया है?"
"नहीं खेत बाग सब बेंच दिए। महेंद्र को उसका हिस्सा देकर जो बचा वह हम दोनों के लिए बहुत है।"
"हाँ अब बीवी बच्चे वाला है। सो हमने अलग कर दिया। रहें अपने हिसाब से।"
सावित्री वहीं आकर बैठ गई। वह बोली।
"एक बिटिया है दो साल की । बहू उसे लेकर कुछ दिन के लिए पीहर गई है।"
कुलदीप अपना घर देखना चाहते थे। गांव छोड़ते समय उनके पिता ने वह चाचाजी के सुपुर्द कर दिया था। बसंत ने कहा कि पहले खाना खा लो फिर ले चलेंगे। अतः कुलदीप अपने साथियों के बारे में पूँछताछ करने लगे। दो लोग तो अब दुनिया में ही नहीं थे। कुछ शहर में बच्चों के साथ थे। केवल एक ही दोस्त गांव में था। वह भी अपनी बीमारी के कारण परेशान था।
दोपहर को खाने के बाद कुलदीप बसंत के साथ अपना घर देखने के लिए निकले। वह कुछ दूरी पर था। दोनों अपने पुराने दिनों को याद करते हुए चले जा रहे थे। एक जगह पर गांव के कुछ लड़के इकठ्ठे होकर पत्ते खेल रहे थे। बसंत ने गंभीर स्वर में कहा।
"अब समय बहुत बदल गया है भइया। बड़ों का भी लिहाज नहीं है। दिन भर आवारागर्दी करते रहते हैं। इनकी वजह से गांव में लड़कियों का घर से निकलना मुश्किल हो गया है। ऐसी भद्दी बातें करते हैं कि पूँछो मत।"
"कौन कहेगा। जरा जरा सी बात पर तो सर फुड़व्वल हो जाता है। अब लोगों में वैसा प्रेम भाव नहीं रहा।"
कुलदीप सोंच रहे थे। सचमुच बहुत कुछ बदल गया है। उनके समय में तो साथ खड़े होकर बात भी कर रहे होते थे तो बड़ों को सामने देख कर संकोच होता था। ये लोग तो बैठे पत्ते खेल रहे थे।
अपने घर पहुँचे तो वहाँ पुराना कुछ नहीं रह गया था। खपरैल के छप्पर वाले कच्चे मकान की जगह सीमेंट से बना दुतल्ला मकान था।
"भइया ताऊजी मकान बाबूजी को दे गए थे। उनके बाद हमने इसकी देखभाल की। आप तो जैसे हम लोगों को भूल ही गए थे। पुराना मकान जर्जर हो गया था। इसलिए महेंद ने यहाँ पक्का मकान बनवा लिया। अब वही यहाँ रहता है।"
कुलदीप उन नई दीवारों में उस पुराने समय को महसूस करने का प्रयास करने लगे। मन को कई तरह के भावों ने घेर लिया। कुछ तस्वीरें आँखों के सामने तैरने लगीं।
जब दीपू दसवीं में था तभी अम्मा सांप के काटने से चल बसीं। दीपू का रो रो कर बुरा हाल था। बाबूजी ने अपना दुख छिपा कर उसे संभाला। दसवीं पास करने के बाद बाबूजी ने दीपू को उसकी बुआ के घर बारहवीं करने के लिए भेज दिया। बारहवीं के बाद दीपू ने कॉलेज में दाखिला ले लिया और हॉस्टल में रहने लगा। छुट्टियों में जब वह घर आता तो देखता कि बाबूजी पहले से और कमज़ोर हो गए हैं। वह चाहता था कि जल्द से जल्द कॉलेज खत्म कर नौकरी करे ताकि बाबूजी को अपने साथ रख सके।
एम.एस.सी करने के बाद दीपू पीएचडी करने के साथ साथ एक स्कूल में पढ़ाने लगा। वह ज़िद करके बाबूजी को साथ ले गया। बाबूजी कुछ दिन उसके साथ रहते और कुछ दिन खेती के सिलसिले में गांव में रहते थे। दीपू भी समय निकाल कर गांव चला जाता था। गांव का खुला वातावरण उसके दिल दिमाग को ताज़गी से भर देता था। जो शहर में उसके व्यस्त जीवन के लिए बहुत आवश्यक था।
पीएचडी करने के बाद उसे बंबई के एक कॉलेज में प्रोफेसर की नौकरी मिल गई। बाबूजी के लिए भी खेती बाड़ी संभालना कठिन हो गया था। अतः खेत बेंच कर और घर चाचाजी को सौंप वह भी दीपू के साथ बंबई चले गए।
बंबई में कुछ ही दिन बिताने के बाद बाबूजी की मृत्यु हो गई। दीपू अब अकेला पड़ गया था। उसी दौरान उसे लंदन जाकर रीसर्च करने का मौका मिला। वह हमेशा के लिए विदेश चला गया।