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डायरी

डायरी

आशीष कुमार त्रिवेदी

मैं अपनी यह पुश्तैनी हवेली बेंचने आया हूँ। कुछ कागज़ात पर दस्तखत करने के बाद यह सौ साल पुरानी हवेली बिक जायेगी। मुझे बताया गया कि एक बंद कमरे से कुछ सामान मिला है। कुछ पुराना फर्नीचर था। उनमें एक आराम कुर्सी थी। इसे मैंने अपने दादाजी की तस्वीर में देखा था। एक छोटा सा संदूक भी था। जिसमें एक कपडे में लिपटी डायरी राखी थी। पापा ने बताया था दादाजी को डायरी लिखने कि आदत थी।

अपने दादाजी के विषय में मैं बहुत कम जानता था। सिर्फ इतना ही कि वह गांधी जी से बहुत प्रभावित थे और उन्होनें देश एवं समाज कि सेवा का प्रण लिया था। कुछ घंटे मुझे इसी हवेली में बिताने थे। मैंने वह आराम कुर्सी आँगन में रखवा दी। उस पर बैठ कर मैं डायरी के पन्ने पलटने लगा। डायरी लगातार नहीं लिखी गई थी। कभी कभी छह माह का अंतराल था। जिस पहले पन्ने पर नज़र टिकी उस पर तारीख थी.…

7 जून 1942

कभी कभी सोंचता हूँ क्या मेरा जीवन सिर्फ इस लिए है कि मैं धन दौलत स्त्री पुत्र का सुख भोगूं और चला जाऊं। एक अजीब सी उत्कंठा मन में रहती है। जी करता है कि सब कुछ छोड़ दूं। जब अपने आस पास गरीब अनपढ़ लोगों को कष्ट भोगते देखता हूँ तो स्वयं के संपन्न एवं शिक्षित होने पर दुःख होता है। क्या फायदा है इस सब का जब यह किसी के काम न आये। जब भी मन में कुछ करने कि ठानता हूँ तो नयी ब्याहता पत्नी का ख़याल आ जाता है। उसे इस सब में क्यों घसीटू। किन्तु यदि सिद्धार्थ भी इस मोह में पड़े होते तो क्या कभी महात्मा बुद्ध बनते।

10 अगस्त 1942

बापू ने बंबई में 'भारत छोड़ो आंदोलन' का प्राम्भ करते हुए देश वासियों को 'करो या मरो' का नारा दिया है। मेरे सामने भी अब करो या मरो का प्रश्न है। नहीं अब और नहीं। अब मन बना लिया है। ये जीवन देश और समाज के लिए है। पिताजी नहीं समझेंगे। उन्हें लगता है मेरा दिमाग खराब है। उन्हें समझाने का प्रयास भी छोड़ दिया है मैंने। तसल्ली इस बात की है कि गोदावरी इस फैसले में मेरे साथ है।

उसके बाद कई पन्ने थे जिनमें दादाजी ने उन दिनों का वर्णन किया था जब वो समाज सेवा के लिए देश भर में भ्रमण कर रहे थे। इनमें उन्होंने समाज की बदहाली, समाज सुधार के रास्ते में आने वाली मुसीबतों, इत्यादि का ज़िक्र किया था। इसके बाद मेरी दृष्टि एक पन्ने पर ठहरी

21 जनवरी 1946

आज सुबह सुबह खबर मिली कि मैं मकर संक्रांति के दिन पिता बन गया। बहुत सुखद एहसास है। जब घर से निकला था गोदावरी को सातवां महीन लगा था। चलते समय उसने कोई शिकायत नहीं की। माँ ने अवश्य उलाहना दिया था ' सारी दुनिया की चिंता है लेकिन पत्नी कि नहीं। उसे इस हाल में छोड़कर जा रहे हो।' क्या करता उस समय महामारी फैली थी। समाज को मेरी ज़रुरत थी। गोदावरी के लिए तो सारा परिवार था। इसलिए पति के फ़र्ज़ से अधिक मैंने मानवता के फ़र्ज़ को महत्त्व दिया। उम्मीद है गोदावरी इसे समझती है। पाने की ख़ुशी तो है किन्तु इतने दिनों में मैं जान गया हूँ कि देने का सुख इससे कहीं बड़ा है। बेटे को देखने की इच्छा है। शीघ्र ही घर जाने का प्रयत्न करूंगा।

25 अगस्त 1947

यह कैसी आज़ादी मिली है जो अपने साथ इतना बवंडर लेकर आई है। इंसान जैसे वहशी हो गया है। चारों तरफ नफ़रत कि आग जल रही है। बापू भी बहुत दुखी हैं। आज़ादी की कोई ख़ुशी नहीं रही। जैसे खीर का पतीला जल गया हो। सब कुछ बेस्वाद बेमज़ा।

5 सितम्बर 1947

न जाने कितने लोग घर से बेघर हो गए। लाशों से भरी गाड़ियां दोनों मुल्कों में पहुँच रही हैं। आखिर कब बुझेगी ये आग। मैं दिल्ली में हूँ। यहाँ आने वाले शरणार्थियों [ हालाँकि इस शब्द से मुझे परहेज़ है वे कोई गैर नहीं हैं, अपने ही मुल्क में आये हैं] के पुनर्वास में सहायता कर रहा हूँ। वहाँ से आये हुए लोगों की आपबीती सुनकर लोग यहाँ के मुसलमान भाइयों पर अत्याचार कर रहे हैं। बापू ने कितनी बार अपील कि है कि यह सब बंद हो। किन्तु कोई नहीं सुनता। हे, प्रभु लोगों को सदबुद्धि दो।

4 नवंबर 1948

बबुआ अब चलने लगा है। अपनी तोतली जुबान में जाने क्या क्या बोलता है। अच्छा लगता है। लेकिन अब बहुत दिन हो गए। बापू बिरला हाउस में ठहरे हैं। सोंचता हूँ उनके पास कुछ दिन बिताऊं।

24 जनवरी 1948

बहुत से लोग बापू के खिलाफ हैं। उन्हें बापू का अनशन कर पाकिस्तान को रुपये दिलाना अच्छा नहीं लगा। अभी बीस तारीख को बम फटा। बापू बच गए। सरदार पटेल ने कहा कि वे अपनी हिफाज़त के लिए पुलिस कि तैनाती कि इज़ाज़त दें। लेकिन बापू नहीं मानते। उनका कहना है कि यदि मृत्यु आनी है तो उसे कोई नहीं टाल सकता है। सच है, क्या जीवन मृत्यु वाकई हमारे हाथ में है। फिर भी बापू कि फ़िक्र होती है।

30 जनवरी 1948

आज सुबह से मन न जाने कैसी आशंका से घिरा है। यूँ तो सब कुछ सामान्य रहा है अब तक फिर भी मन में किसी अनहोनी का डर सता रहा है। पांच बजने को हैं बापू की सभा का वक़्त हो रहा है।

इसके बाद एक बहुत लंबा अंतराल था। कुछ महीनों का नहीं लगभग दो दशकों का। तारीख पढ़ कर मैं चौंक गया। यह तो दादाजी कि मृत्यु का दिन था।

26 जुलाई 1975

कई बार कुछ बातें जीवन में बहुत तकलीफ देती हैं। जो एक प्रश्न बनकर आपके साथ चिपकी रहती हैं। अफ़सोस के आलावा हम कुछ भी नहीं कर सकते। उस दिन 30 जनवरी 1948 को सुबह से ही मन आशंकित था। सभा स्थल पर सभी बापू की प्रतीक्षा कर रहे थे। बापू को आज कुछ देर हो गई थी। वो सरदार पटेल के साथ बातचीत में व्यस्त थे। मनु और आभा इस पशोपश में थीं कि उन्हें बातचीत के बीच में सभा के लिए बुलाया जाये या नहीं। कुछ समय बाद बापू आये तो उन्होनें नाराज़गी दिखाई कि उन्हें समय का भान क्यों नहीं कराया। वो सभा कि तरफ बढे। लोग आगे बढ़ बढ़ कर पाँव छूने लगे। उनमें एक व्यक्ति था जिसे देखकर मन में आया कि यह सही नहीं है। मैं उस जगह था जहां से उसे आसानी से रोक सकता था। किन्तु जैसे होनी प्रबल थी। मुझे लगा पीछे से किसी ने पुकारा। पीछे मुड़ कर देखा कोई नहीं था। तभी गोली चलने की आवाज़ आई। मैं स्तब्ध रह गया। उसी व्यक्ति ने बापू को गोली मारी थी।

कई महीनों तक निराशा और दुःख के आलम में रहा। गोदावरी ने मन प्राण से प्रयास किया कि मैं उस दौर से निकल सकूं। उसने समझाया कि बापू को तो नहीं लौटाया जा सकता किन्तु उनके आदर्श और सिद्धांतों को तो जीवित रख सकते हैं। बात समझ में आ गई। मैंने खुद को इस उद्देश्य के लिए समर्पित कर दिया।

किन्तु वह अफ़सोस आज भी साथ है। क्या होता गर मैनें उस आवाज़ को अनसुनी कर दिल की आवाज़ सुनी होती।

अब तक जिस व्यक्ति को मैंने सिर्फ तस्वीर में देखा था उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व इस डायरी के माध्यम से मेरी आँखों के सामने था। उनसे मेरा रक्त सम्बन्ध तो था ही लेकिन आज उनके विचारों और सिद्धांतों से भी स्वयं को जोड़ पा रहा था। साथ ही उस अफसोस से भी जो उन्हें सालता रहा।

क्या होता यदि उन्होंने अपने दिल कि बात सुनी होती।

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