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मुखाग्नि

मुखाग्नि

आशीष कुमार त्रिवेदी

अमरमणि जी की केवल एक ही संतान थी, उनकी लाड़ली बेटी रुची. उन्होंने कभी बेटे की कमी महसूस नहीं की. उनकी बेटी ही उनके लिए सब कुछ थी. उनके सारे सपने उसी से जुड़े थे. रुची एक अच्छी टेनिस खिलाड़ी थी. उसकी इस प्रतिभा को पहचान कर उन्होंने उसके लिए सबसे अच्छी कोचिंग की व्यवस्था की थी.

उनके इस प्रोत्साहन के कारण ही रुची राज्य स्तर की उभरती हुई खिलाड़ी थी. वह बहुत तेजी से टेनिस की दुनिया में अपने कदम जमा रही थी. अमर जी को अपनी बेटी पर नाज़ था.

परंतु उनसे उलट उनकी पत्नी रेनू सदैव यही बात करती रहती थीं कि काश उनके एक बेटा होता. अक्सर अमर जी की उनसे बहस हो जाती थी.

"यह क्या हमेशा बेटे के लिए रोती रहती हो. ईश्वर ने हमें इतनी अच्छी बेटी दी है जो नसीब वालों को ही मिलती है."

रेनू अपना तर्क देतीं.

"वो सब ठीक है पर बेटा तो आखिर बेटा ही होता है. बहुत कुछ ऐसा है जो केवल एक बेटा ही कर सकता है."

"यह तुम्हारा वहम है. हमारी बेटी अकेली दस बेटों पर भारी है. देखना अगर जरूरत पड़ी तो वह यह साबित करके दिखाएगी."

उनके सारे तर्कों को वह सिरे से खारिज कर देती थीं.

अपनी माँ के इस रवैये से रुची भी बहुत दुखी रहती थी. वह हर संभव कोशिश करती थी कि अपनी माँ को खुश कर सके. लेकिन उसकी तमाम कोशिशें बेकार चली जाती थीं. हर कोई उसके हुनर की तारीफ करता था. सिवाय उसकी माँ के. उनका मानना था कि खेलकूद लड़कियों को शोभा नहीं देते हैं. लड़कियों के लिए तो यही अच्छा है कि वह घर गृहस्ती के काम सीखें. वही उन्हें ससुराल में इज्ज़त दिलाता है. वह अक्सर कहती थीं कि इस तरह खेल के लिए शहर शहर भटकना ठीक नहीं. कल को यदि कुछ ऊंचनीच हो गई तो समाज में जीना मुश्किल हो जाएगा.

दरअसल उनकी इस सोंच को उनकी जेठानी और हवा देती थीं. उन्हें इस बात का बड़ा घमंड था कि वह एक बेटे की माँ हैं. सदैव अपने बेटे की तारीफ किया करती थीं. रेनू को सदा यह एहसास दिलाती थीं कि बेटा ना होने से उसकी ज़िंदगी कितनी अधूरी है. जबकी वास्तविकता यह थी कि उनके लाड़ प्यार से उनका बेटा बिगड़ गया था. रुची से दो वर्ष बड़ा होने के बावजूद बहुत ही गैरज़िम्मेदार था. पढ़ाई में उसका बिल्कुल भी मन नहीं लगता था. सब उसे निठल्ला कहते थे.

जबकी रुची की हर तरफ तारीफ होती थी. यह बात उन्हें बिल्कुल भी रास नहीं आती थी. वही अक्सर रेनू को समझाती थीं कि तुम अपनी लड़की का खेल छुड़वा कर उसे लड़कियों वाले काम काज सिखाओ. रेनू को डराते हुए कहती थीं "तुम समझती नहीं हो. अगर रुची के यही लक्षण रहे तो कोई उससे ब्याह नहीं करेगा. क्या सारी उम्र उसे कुआंरी बिठाए रखोगी."

"दीदी मैं तो खुद भी नहीं चाहती कि रुची यूं मारी मारी फिरे. पर आपके देवर कहाँ समझते हैं. उन्हें तो उसे बेटा बनाने की ज़िद है." रेनू अपना दुखड़ा सुनाती थीं.

"अमर तो नादान है. वैसे भी लड़कियों की परवरिश तो औरतों का काम है. तुम अगर नहीं चेतीं तो बहुत पछताओगी."

अपनी जेठानी की यह बातें सुनकर रेनू और परेशान हो जाती थीं. जब भी रुची को टूर्नामेंट खेलने कहीं बाहर जाना होता था तो वह पूरी कोशिश करती थीं कि रुची जाने का इरादा त्याग दे. उनकी यह बात अमर जी को बहुत खराब लगती थी.

"तुम अगर उसका उत्साह नहीं बढ़ा सकती हो तो कम से कम उसे निरुत्साहित तो ना किया करो."

"मैं नहीं चाहती कि रुची इन बेकार की चीज़ों मे समय बर्बाद करे. शादी के बाद उसे घर गृहस्ती संभालनी है. वहाँ यह खेल काम नहीं आएगा."

"रुची एक अच्छी खिलाड़ी है. उसकी शादी भी उसी से होगी जो उसके खेल को समझे."

"जो मर्ज़ी है करिए. पर मैं कहे देती हूँ एक दिन आप बहुत पछताएंगे."

अमर जी ही थे जिनके कारण रुची अपने खेल को आगे बढ़ा पा रही थी. वह उसे समझाते "बेटा तुम अपनी माँ की बातों से परेशान ना हुआ करो. तुम जम कर खेलो और खूब आगे बढ़ो. मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ."

रुची टूर्नामेंट खेलने के लिए शहर के बाहर गई हुई थी. उस दिन रात को ही उसे लौटना था. अमर जी अपने काम से लौटे तो सीने में दर्द की शिकायत की. पहले तो रेनू ने समझा कि ठंड की वजह से ऐसा हो रहा है. अतः उन्होंने गर्म तेल से सीने की मालिश की. लेकिन कोई आराम नहीं मिला. अमर जी की तबीयत और खराब हो गई. रेनू भागी हुई अपने जेठ के घर गईं. उनका भतीजा दोस्तों के साथ कहीं गया था. अपने जेठ और पड़ोसियों की मदद से उन्होंने अमर जी को अस्पताल पहुँचाया.

रुची के लौटने पर जब उसे खबर मिली तो वह सीधे अस्पताल पहुँची. अपनी रोती हुई माँ को तसल्ली देते हुए बोली "मम्मी तुम चिंता मत करो सब ठीक हो जाएगा. मैं सब संभाल लूँगी."

"तुम क्या संभाल लोगी. कितनी भाग दौड़ करनी पड़ेगी. इसी दिन के लिए तो कहती थी कि काश एक बेटा होता. आज वह सब कुछ संभाल लेता."

"मैं सब कर लूँगी." रुची ने फिर से आश्वासन दिया.

रुची ने जो कहा उसे कर दिखाया. डॉक्टरों से मिलना हो, दवा या इंजेक्शन लाना हो सब काम बखूबी निभाया. अमर जी की तबीयत में सुधार आ रहा था.

सभी रुची के साहस और धैर्य की तारीफ कर रहे थे. अब रेनू को भी एहसास होने लगा था कि उनके पति सही कहते थे. उनकी बेटी ने समय आने पर खुद को साबित कर दिखाया था. उनके मन में रुची के प्रति अपने व्यवहार को लेकर पछतावा था. अमर जी को अब आई.सी.यू से प्राईवेट कमरे में भेज दिया गया था. डॉक्टरों का कहना था कि एक दो दिन में उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल जाएगी.

सारा परिवार अमर जी को घर ले जाने की प्रतीक्षा कर रहा था. किंतु विधि का विधान कुछ और ही था. अचानक ही उनकी तबीयत फिर बिगड़ी और वह चल बसे. परिवार गम के माहौल में डूब गया. रुची को सबसे अधिक धक्का पहुँचा था. उसके पिता ही उसे सबसे अधिक समझते थे. वही थे जो उसकी प्रेरणा शक्ति थे. अब वह स्वयं को अकेला महसूस कर रही थी.

आँगन में अमर जी का शव रखा था. सभी इस बात की चर्चा कर रहे थे कि चिता को आग कौन देगा. बेटा तो कोई है नहीं. लगता है जिस भतीजे के खराब चाल चलन के कारण उससे नाराज़ थे वही मुखाग्नि देगा.

सभी अटकलों को समाप्त करते हुए रुची ने ऐलान किया "पापा को मुखाग्नि मैं दूंगी."

यह बात सुनते ही सब चौंक गए. उसकी ताई विरोध जताते हुए बोलीं "दिमाग खराब है तुम्हारा यह काम बेटियां नहीं करती हैं."

रुची के जवाब देने से पहले ही उसकी माँ ने कहा "वह सही कह रही है दीदी. उनकी बीमारी में रुची ने ही उनकी सेवा की थी. अब उनकी चिता को आग भी वही देगी."

रुची अपनी माँ की बात सुन कर हैरान थी. उसने अपनी माँ की ओर देखा तो वह बोलीं "काश मैंने तुम्हारे पापा की बात पहले सुनी होती तो इतने साल बेकार दुख ना मनाती."

अपनी माँ का समर्थन पाकर रुची को बहुत हिम्मत मिली. उसे लग रहा था कि वह अकेली नहीं है.

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