अपना Ashish Kumar Trivedi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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आशीष कुमार त्रिवेदी

नाज़नीन अभी अपने दल के साथ काम से लौटा था। पास के मोहल्ले में एक बड़े घर में शादी हुई थी। वहाँ बहुत अच्छा नेग मिला था। उसने कमाई को अपने साथियों में बांट दिया। अपने हिस्से में से एक हिस्सा उसने भिखारियों में बांट दिया था।

बचे हुए पैसों को उसने अलमारी में रख कर कोने में पड़ी एक पुरानी सी किताब उठा ली। किताब लेकर वह अपने बिस्तर पर बैठ कर उसे पढ़ने लगा।

इस किताब को वह रोज़ ही निकाल कर पढ़ता है। इसका एक एक शब्द उसे रट गया है। फिर भी वह उसे पूरे चाव से पढ़ता है। इस किताब से उसका गहरा रिश्ता है। किताब ने आज भी उसकी पुरानी पहचान को अपने सीने में छिपा रखा था।

'रमेश कुमार कक्षा दस'

किताब को अपने सीने पर रख कर वह अपनी आँखें मूंद कर लेट गया। उसका अतीत एक चलचित्र की तरह उसकी आँखों के सामने से गुज़रने लगा।

वह सहमा हुआ अपनी माँ से चिपका हुआ था।

"मम्मी मैं इन लोगों के साथ नहीं जाऊँगा। मैं तुम्हारा बेटा हूँ। यह मेरा घर है।"

किन्नरों के मुखिया ने ताली बजा कर कहा "तू इनमें से नहीं है। हमारा है। यहाँ तुझे कुछ नहीं मिलेगा। सब तेरी हंसी उड़ाएंगे।"

"मैं पढ़ लिख कर अफसर बनूँगा। फिर कोई मेरी हंसी नहीं उड़ाएगा" रमेश ने गुस्से से कहा और अपनी माँ से लिपट गया।

माँ ने उसके पिता से विनती की कि वह उन लोगों को भगा दें। वह रमेश को नहीं जाने देंगी। लेकिन उन्होंने तो उल्टा उन्हें ही डांट दिया "बेवकूफ मत बनो। यह यहाँ नहीं रह सकता। पहले कम फजीहत झेली है इसकी वजह से। मुझे और बच्चों को भी पालना है।"

रमेश के पिता ने घसीट कर उसे उसकी माँ से अलग किया और उन किन्नरों के हवाले कर दिया।

"अरे चल नखरे मत कर। मैं तुझे बनाऊँगी हिंजड़ों का अफसर।" किन्नरों का मुखिया उसे जबरन घसीट कर ले गया। वह रोता गिड़गिड़ाता रहा। सारा मोहल्ला अपने घरों से झांक कर तमाशा देख रहा था।

रमेश पैदा हुआ था तो वह अपने बड़े भाई जैसा नहीं था। पर उसकी कमी को माँ ने सबसे छिपा लिया। वह उसे इस उम्मीद पर स्कूल भेजने लगी कि यदि वह पढ़ लिख गया तो उसके किन्नर होने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

एक उम्र तक तो बात दबी रही। किंतु जब वह किशोरावस्था में पहुँचा तब उसके हाव भाव, चाल ढाल लड़कियों जैसे दिखाई पड़ने लगे। अब लोग उसके स्त्रियोचित व्यवहार का उपहास उड़ाते थे। नाते रिश्तेदार इस बात को लेकर अपमान करते थे। लेकिन इन सबके बावजूद अपनी माँ के हौंसला देने पर वह धैर्य बनाए हुए था।

लेकिन माँ के अलावा कोई भी उसे पसंद नहीं करता था। भाई बहन उससे कतराते थे। पिता के लिए वह शर्मिंदगी के अलावा कुछ नहीं था। सारे झंझावातों को झेलता हुआ वह दसवीं कक्षा में पहुँच गया था।

उस शाम वह अपनी अंग्रेज़ी की किताब लेकर पढ़ रहा था। तभी तालियां बजाता हुआ किन्नरों का एक दल घर के आंगन में घुस आया। रमेश के किन्नर होने के कारण उसे साथ ले जाने का दावा करने लगे। उसके पिता ने जबरन उसे उनके हवाले कर दिया।

कई दिनों तक रमेश रोता रहा और घर जाने की ज़िद करता रहा। उसे उम्मीद थी कि और कोई ना सही पर एक दिन उसकी माँ उसे लेने अवश्य आएगी। लेकिन कई दिन बीतने पर भी वह नहीं आई। रमेश निराश हो गया। धीरे धीरे उसने किन्नरों को ही अपना परिवार मान लिया।

रमेश को विधिवत उनके समाज में शामिल कर लिया गया। उसे एक नया नाम मिल गया नाज़नीन। किन्नरों के मुखिया ने उसे अपने समाज के हिसाब से तैयार करना आरंभ कर दिया। पहले वह ढोलक बजाने के लिए दल के साथ जाता था। समय के साथ साथ वह नाच गाने में निपुण हो गया। उसका रंग रूप भी निखर आया। वह दल का प्रमुख सदस्य बन गया।

मुखिया के ना रहने पर सबने उसे ही मुखिया चुन लिया। वह अब पूरी तरह से अपने नए जीवन में रम गया था। पुरानी जीवन से उसका नाता केवल इस किताब तक ही था जिसे वह अपने साथ ले आया था।

समाज ने उसे उपहास और अपमान के अलावा कुछ नहीं दिया था। फिर भी उसके मन में कोई कड़वाहट नहीं थी। भले लोग उससे जुड़ने में शर्म महसूस करते हों पर वह सबको अपना समझता था। जो भी दुख या तकलीफ में उसके पास आता था वह उसकी भरसक मदद करता था।

नाज़नीन आँखें मूंदे लेटा था तभी एक साथी ने आकर बताया कि रत्ना आई है। नाज़नीन ने सुना तो उसने फौरन उठकर किताब अलमारी में रख दी और बाहर चला गया। रत्ना उसके बड़े भाई की पत्नी थी। वह अक्सर चोरी छिपे उससे पैसों की मदद मांगने आती थी।

नाज़नीन ने भाभी को नमस्ते करने के बाद पूँछा "बहू ठीक है ना। अब तो बच्चा हो गया होगा। क्या हुआ?" आवाज़ से उसकी उत्सुकता झलक रही थी।

"बेटी हुई है। कल बारह दिन हो जाएंगे। उसी के लिए पैसों की....."

नाज़नीन ने उसे रोक कर कहा "लक्ष्मी आई है भाभी पैसों की चिंता मत करो।" वह उठकर भीतर चला गया। पैसे लाकर भाभी को दे दिए। कुछ पैसे अलग से देते हुए बोला "इससे बिटिया के लिए चांदी के कंगन खरीद देना।"

पैसे लेकर रत्ना चली गई। पर नाज़नीन का मन व्याकुल हो गया। उसने कभी अपने भतीजे को नहीं देखा था। उसी शहर में होते हुए भी कभी वह अपने घर नहीं गया। ना ही उसकी भाभी इस डर से उसे यहाँ लाई कि उसके यहाँ आने की खबर सबको लग जाएगी। इसलिए पोती होने की खबर सुनते ही उसका मन उसे देखने को मचलने लगा।

रात भर वह अपने मन को समझाने का प्रयास करता रहा। लेकिन अपनी इच्छा को दबा नहीं सका। वह रिक्शा लेकर अपने घर की तरफ चल दिया। उसे आया देख कर रत्ना घबरा गई और उससे लौट जाने की विनती करने लगी। उसी समय नाज़नीन का भाई बाहर आ गया। उसने उसे पहचाना नहीं या जानबूझ कर अनजान बना रहा "अरे क्यों वापस कर रही हो। खुशी के मौके पर नाचना गाना तो इनका काम है।" नाज़नीन को देख कर बोला "तुम तो अकेले हो। कोई ढोलक बजाने वाला भी नहीं है। कैसे नाचोगे।"

नाज़नीन बोला "आज बहुत खुश हूँ। मुझे किसी की ज़रूरत नहीं।" यह कह कर वह ताली बजा कर नाचने लगा।

***