कच्ची मिट्टी
दिन के उजले वातावरण को धीरे—धीरे रात का स्याह अंधेरा निगल रहा था। तन्वी रसोईघर में रात के भोजन की व्यवस्था कर रही थी। उसने अपनी सहायता करने के लिए बेटी मायरा को पुकारा । मायरा ने भाई की ओर संकेत करते हुए कहा — “मम्मी जी, भाई से करा लो ! मैं सौम्या से अपने नोट्स लेने के लिए उसके घर जा रही हूँ !”
“ नहीं, अब अंधेरा हो चुका है ! तू इस समय घर से बाहर नहीं जाएगी !” तन्वी ने कठोर लहज़े में कहा।
“ मम्मी जी, आज हर क्षेत्र में लड़कियाँ लड़कों से आगे आकर अपनी प्रतिभा का झंडा गाड़ रही हैं, फिर मुझ पर यह प्रतिबंध क्यों ? आप भाई को तो कभी कहीं जाने से नहीं रोकती हैं !” मायरा के शब्दों से तन्वी के अन्तःकरण में अनायास ही लिंग—आधारित भेदभाव से उत्पन्न एक चिर-परिचित-सा असंतोष होने लगा । धीरे-धीरे अनजाने ही उसकी यह अनुभूति विचित्र प्रकार की व्याकुलता में परिवर्तित होने लगी। कुछ क्षणों के पश्चात् तन्वी के अन्दर की माँ का स्थान एक बेटी ने ले लिया और उसके बचपन तथा किशोरावस्था के विश्रंखलित स्मृति-चित्र उसकी आँखों में तैरने लगे —
तीनों बहन—भाईयों में वह सबसे छोटी, सभी के प्रेम की अधिकारिणी थी । सबसे बड़ी बहन दामिनी, उससे तीन वर्ष छोटा भाई महेश तथा महेश से दो वर्ष छोटी बहन तन्वी थी । तन्वी को सभी की डाँट भी पड़ती थी, पर सभी की डाँट में सदैव प्रेम छिपा रहता था, इसलिए कभी किसी की डाँट खाकर उसे दुख नहीं हुआ था । किन्तु, अनेक घटना-चित्र, जिनसे छोटी—सी आयु में उसके हृदय पर कुठाराघात हुआ था, आज भी उसकी स्मृति में जीवंत रूप में अपना स्थान बना हुए हैं । ऐसा ही एक वृत्त-चित्र तन्वी की स्मृति में उस समय का अंकित है, जब वह सात—आठ वर्ष की रही होगी। पिताजी बाजार से मिठाई लाये थे। बडी बहन दामिनी ने अपने छोटे भाई महेश के बराबर मिठाई ली थी । माँ उसको समझाते हुए डाँट रही थी — “ दामिनी, महेश तेरा भाई है, इसको अपने से ज्यादा दे दिया कर !” दामिनी पर माँ की बातों का कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पडा —
“ माँ, यह भैया है, तो हम बहन हैं !...... मैं महेश से बडी हूँ, फिर उसको अधिक चीज क्यों मिलेगी ?”
माँ का मृदु व्यवहार कठोर मुद्रा में परिवर्तित हो गया — “ बेहया, एक बार की कही हुई बात समझ में नहीं आती !.......तुझे कौन—सा कोल्हू में चलना है भाई से ज्यादा मठाई खाके ! लडकों के सिर पर जिम्मेदारी का कितना बडा बोझ होता है, यह कभी सोचा है तूने !” दामिनी को माँ की यह दलील भी रास नहीं आयी —
“माँ, मुझे कोल्हू में नहीं चलना है, तो महेश भी कोल्हू में नहीं चलता है, ना ही कभी कोल्हू में चलेगा !..........रही बात काम की और जिम्मेदारी की, तो काम भी मैं महेश से ज्यादा करती हूँ ! इसलिए मैं कोई भी चीज उससे कम नहीं लूँगी !” दामिनी बोल ही रही थी, तभी बाहर से पिताजी आ गए। वह माँ की शिकायत करते हुए पिताजी से लिपट गयी और अपना पक्ष रखते हुए बोली — “पिताजी, मैं महेश से बडी हूँ ! मैं उससे कम चीज क्यों लूँ ! माँ कहती है, यह भैया है ! किसी चीज का बँटवारा छोटा-बडा देखकर होता है या भैया—बहन देखकर ?”
पिताजी ने दामिनी को शांत करते हुए कहा — “ बिल्कुल ठीक है ! किसी चीज को बाँटने का आधार भैया—बहन नहीं होना चाहिए। तुम दोनों को बराबर चीज मिलेगी ! बडे होकर तुम दोनों को ही बडे—बडे और महत्वपूर्ण दायित्व संभालने हैं !” दामिनी पिताजी के तर्क का संबल पाकर प्रसन्न हो गयी। तन्वी को भी उनका तर्क दमदार लगा था, पर वह माँ की दलील और पिता के तर्क में विरोधाभास को लेकर परेशान थी। वह कई दिनों तक इसी उधेडबुन में लगी रही थी कि आखिर इतनी—सी बात आज तक माँ की समझ में क्यों नहीं आयी ? क्यों उन्हें वह बात ठीक नहीं लगती, जिसमें समानता का भाव होता है ? तन्वी आयु में छोटी होने पर भी इस बात पर गंभीरता चिंतन कर रही थी कि उसकी माँ बेटा-बेटी में भेदभाव क्यों करती है ? और इस विषय पर माँ से विस्तारपूर्वक बात करना चाहती थी।
एक दिन अनुकूल समय पाकर उसने माँ से कहा — “माँ, मैं तो भैया से छोटी हूँ, इसलिए कम चीजें लेकर संतुष्ट रहती हूँ, पर दामिनी दीदी तो भैया से बडी हैं, फिर भी आप उन्हें भैया से कम चीजें लेने के लिए बाध्य क्यों करती हैं ?......केवल खाने—खिलाने के लिए ही नहीं, पढ़ने के लिए भी......! आप भैया को अधिक पढाना चाहती हैं ; उन्हें इस शहर से दूर दूसरे शहर भेजने के लिए भी तैयार हैं और दामिनी दीदी की पढ़ाई बंद कराने के लिए कहती हैं ! माँ, आप लडके—लडकी में इतना भेदभाव क्यों करती हैं ?”
माँ को यह आरोप अच्छा नहीं लगा। उन्होंने सफाई देते हुए कहा — “मैं कहाँ भेदभाव करती हूँ ! बेटी, मैं तो बस यह कहती हूँ, मर्दों पे काम का बोझ ज्यादा रहता है ; उन्हें बाहर—भीतर के काम करने पडते हैं, इसलिए उन्हें ........! अब मैं तुम्हारे पिताजी की बराबरी करूँ, तो ठीक है ?”
“ हाँ, ठीक है ! माँ, इसमें गलत क्या है ? कुछ भी तो गलत नहीं है ! आप पिताजी से कम क्यों समझती हैं अपने आप को !”
तन्वी की बातें सुनकर माँ मौन हो गयी और गंभीर विचार-सागर में डूबने लगी। वे समझ नहीं पा रही थीं कि तन्वी से क्या कहें ? कुछ क्षण पश्चात् माँ ने गहरी उदासी भरे स्वर में कहा — “बेटी, तुमने भेदभाव देखा ही कहाँ है ! मैं तो भेदभाव करती ही नहीं हूँ ! कभी कुछ ऐसा हो भी जाता है, तो तुम्हारे पिताजी खाने—खेलने, पढने—लिखने में कहीं भी तुम्हें महेश से कम नहीं रखते हैं।”
“ माँ, नाजी भी आपको इतना ही स्नेह करते थे, जितना हमें हमारे पिताजी करते है ?”
“ हाँ !”
“ और नानीजी ? “
बेटी का प्रश्न सुनकर माँ की आँखें नम हो गयीं। लम्बी साँस छोडते हुए माँ ने कहा — ” उस समय गेहूँ की कम पैदावार होती थी। हमारी माँ भैया—पिताजी को सदैव गेहूँ की रोटियाँ खिलाती थीं और हम बेझड़़ ज्वार—बाजरा, चना—आदि के आटे की रोटियाँ खाया करते थे। मैं भी गेहूँ के आटे की रोटी माँगती थी, पर........! एक दिन पिताजी को इस बात का पता चल गया। उन्होंने माँ को सख्त हिदायत दी कि वे मेरे साथ भेदभाव का व्यवहार न करें। उन्होंने मुझसे भी कहा कि यदि फिर वे मेरे साथ कभी भी इस प्रकार का भेदभाव करें, तो मैं उन्हें बताऊँ !.....किन्तु माँ के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया। उन्होंने उल्टा मुझे ही समझाया — “ मर्द ऐसे ही होते हैं ! पर हम औरतें ऐसी नहीं हो सकती !” बेटी, हमसे हमारी माँ जो कुछ भी कहती थी, हम तो उसी को वेदवाक्य मानते थे। मेरे जीवन की एक घटना का जिक्र मैंने आज तक किसी से नहीं किया । उस घटना की स्मृति मुझे आज भी अंदर तक हिला देती है । तुम्हारे नानाजी स्वतंत्रता सेनानी थे । वे अक्सर गाँव से बाहर जाते रहते थे। उस दिन भी वे घर पर नहीं थे, जब यह सब हुआ था —
हमारे घर के बाहर सामने ही एक कुआँ था । उस पर सुबह चार बजे से पानी भरना शुरू हो जाता था। उस समय मेरी उम्र लगभग इतनी ही रही होगी, जितनी तुम्हारी है। उस दिन माँ बहुत दुखी थी। शायद वे रोती रहीं थीं, इसलिए उनकी आँखें लाल हो रही थीं। रात के समय उन्होंने मुझसे कहा — “तेरे पिताजी को तो देश की आजादी के अतिरिक्त कोई चिन्ता नहीं है और तू बिना बोये-सींचे बबूल की तरह बढ़ती जा रही है !” माँ की बात सुनकर मेरी भय-मिश्रित वेदना का पारावार उफनने लगा। मैंने सशंकित स्वर में माँ से बस इतना ही कहा — “ माँ, मैं इसमें क्या कर सकती हूँ।”
मेरे प्रश्न को सुनकर माँ ने अपनी पूर्वनियोजत योजना का उद्घाटन करते हुए कहा — “ तू ही सारे दुखों की जड़ है ! तू नहीं रहेगी, तो .....!”
माँ की बात सुनकर मेरे पैरों के नीचे से धरती खिसकती जा रही थी। मुझे मेरे कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था ! किन्तु वह अपनी बात कहती जा रही थी — “ सवेरे जल्दी उठकर मेरे साथ पानी भरने के लिए कुँए पर चलना ........और कुँए में कूद जाना !........मैं सबको कह दूँगी, अँधेरे में पैर फिसल गया और गिर गयी।.......... तुझे ऐसा ही करना पड़ेगा !” माँ ने सपाट शैली में कहा । इतना कठोर फैसला करते समय उनके चेहरे पर कोई भाव अंकित नहीं था, न ही जुबान में किसी प्रकार की लड़खड़ाहट थी।
अपनी योजना के अनुसार माँ ने मुझे सुबह चार बजे से पहले जगा दिया । नेंजू—डौल लेकर उन्होंने मुझे भी साथ चलने के लिए कहा । एक ओर माँ की आज्ञा दूसरी डर ! माँ के साथ कुँए पर जाऊँ या ना जाऊँ ? रात-भर इसी प्रश्न में उलझी रही थी, अब भी यही सोच रही थी । हर बार एक ही उत्तर मिला— “ माँ के साथ जाना ही होगा ! पिताजी यहाँ होते, तो मुझे बचा लेते !” मैं डरी-सहमी धीरे-धीरे माँ के साथ चल दी । .......वहाँ जाकर मैं कुँए की जगत पर जाकर खड़ी हो गयी । उस गहरे कुँए में कूदने का मुझे साहस न हुआ। ......तभी मुझे एक झटका-सा लगा — माँ ने मुझे धक्का दे दिया था और एक चीख के साथ कुछ क्षणों की यात्रा तय करके मैं कुँए में जा गिरी । मैं घंटों तक कुएँ के पानी में डूबती-उतराती रही । कुछ समय पश्चात् वहाँ पानी भरने वालों की भीड़ होने लगी, तब लोगों ने मुझे देखा और कुँए से बाहर निकाला ।.....पता नहीं, यह मेरा सौभाग्य था या दुर्भाग्य, कुँए में गिरकर भी मुझे मौत नहीं आयी ! कुएँ से बाहर आकर मैंने देखा, माँ का रो—रोकर बुरा हाल हो रहा था। वह रोते हुए चिल्ला—चिल्लाकर कह रही थी — “ मनहूस घड़ी थी, जब मैंने बेटी को अकेले कुँए पर भेज दिया । आज से पहले तो कभी दिन में भी बेटी को कुएँ पर नहीं भेजा था ।” रोती—पीटती हुई माँ मुझे वहाँ से घर ले आयी। घर आने के पश्चात् भी माँ तब तक रोती रही, जब तक वहाँ आने—जाने वाले पडोसी—स्त्री—पुरुषों का ताँता लगा रहा था। जब उनका आना—जाना कम हो गया, तब माँ ने मुझे समझाया कि मैं उस घटना की सच्चाई किसी को न बताऊँ ! पिताजी के आने पर उन्हें भी सत्य से अवगत न कराऊँ कि जो दुर्घटना हुई, वह माँ की योजना का ही परिणाम थी। मैंने माँ की आज्ञा का अक्षरशः पालन किया, पर माँ फिर भी दुखी थी। अनेक बार मैंने माँ के दुख का कारण जानना चाहा, पर माँ ने हर बार बस यही कहा — “तू बहुत छोटी है, एक औरत के टूटने की पीड़ा को अभी नहीं समझ सकेगी !”
तन्वी अपनी माँ के मुख से उनके बचपन की दर्दनाक घटना को सुनकर चेतनाशून्य—सी हो गयी। उसमें मानो सोचने—समझने की शक्ति समाप्त हो गयी थी। माँ की दर्दभरी दास्तान सुनकर तन्वी को अनुभव हुआ था कि माँ के हृदय में अपने तीनों बच्चों के लिए अगाध प्रेम है । माँ अज्ञानवश ही उनके बीच भेदभाव करती है । वह स्वयं नहीं जानती हैं कि अपने बच्चों में वह किसी प्रकार का भेदभाव करती हैं ! वे अपनी उस प्रकृति से विवश हैं, जो उन्हें उनके परिवेश से प्राप्त हुई , जब वे तन-मन से कच्ची मिट्टी थीं। वे उन्हीं संस्कारों को श्रेष्ठ मानती हैं, जिनसे नानी ने उनका बचपन सींचा था । या शायद कोई अन्य कारण भी हो सकता है, जो परोक्षतः उन्हें ऐसा व्यवहार करने के लिए विवश करता है !
कुछ क्षणोपरान्त अपनी विचारतन्द्रा में डूबी तन्वी के कानों में माँ का स्वर सुनाई दिया। वे कह रही थी, यह बात उन्होंने तब से अब तक अपने दिल में दफ़न करके रखी थी। उस समय वे छोटी थी। अपनी माँ की कही सारी बातों का अर्थ नहीं समझती थी ! पर अब वे उन बातों का केवल अर्थ ही नहीं समझती हैं, टूटने की उस पीड़ा को हर पल कदम—कदम पर सहती भी हैं ! टूटने के जिस भय और पीड़ा को माँ भोगती है, बेटी उसको नहीं समझ सकती, क्योंकि उस समय वह अबोध अपने पिता के स्नेह से अभिभूत रहती है। प्रायः सभी पिता अपनी बेटी को स्नेह करते हैं, शायद उतना ही, जितना बेटे को ! पर बेटी के जीवन में पिता के उस प्यार का कोई महत्व नहीं रह जाता, जो अन्त में अपनी सारी शक्ति बेटे को हस्तान्तरित करके बेटी को आजीवन दूसरों पर आश्रित रहने और उनके अत्याचार सहने के लिए छोड़ दे ! पराश्रित व्यक्ति पेट की भूख मिटाने के लिए अपने स्वाभिमान से समझौता करते—करते कैसे टूटता जाता है, टूटने की इस पीड़ा को केवल वही समझ सकता है, जो इस क्षण को जीता है ! कोई भी माँ यह नहीं चाहती कि उसकी बेटी जि़न्दगी के किसी भी पड़ाव पर टूट जाए, इसलिए माँ उसको मानसिक रूप से इतना लचीला बना देती है कि वह हर प्रकार की परिस्थिति में अपने अस्तित्व को बचा सके !
अतीत की स्मृतयों से निकलकर तन्वी वर्तमान में लौटी, तो अपनी बेटी मायरा के शब्द उसके कानों में गूंजने लगे । उसका अन्तःकरण चाहता था, उसकी बेटी जहाँ चाहे, आजाद पंछी की भाँति खुले आकाश में उड़े । उसके होंठ फड़कने लगे — “ मायरा उड़ना चाहती है, तो सुरक्षा का परम्परागत घेरा उसको तोड़ना ही होगा !” किन्तु बेटी की सुरक्षा का भय काली छाया बनकर उसकी चेतना को ढकने लगा । वह सोचने लगी — “ माँ के बाल्यकाल की अपेक्षा आज विज्ञान और तकनीकी का अभूतपूर्व विकास हो चुका है ; सूचना प्रौद्योगिकी ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सूचनाओं को एक चिप में सुरक्षित करने की सुविधा दी है और सूचनाओं को दुनिया के किसी भी काने में इन्टरनेट के माध्यम से अत्यन्त कम समय में भेजा जा सकता है, लेकिन इस आधुनिक युग में भी एक बेटी उसी त्रासदी को भोगने के लिए विवश है, जिसे वह सदियों पहले भोग रही थी ! इस आधुनिक युग में भी हमारा समाज स्त्री की उस स्वतन्त्रता में अवरोध उत्पन्न करता है, जो उसको प्रकृति ने दी है ? कब तक हमारा पुरुष समाज स्त्री को अपने भोग की एक वस्तु के रूप में देखता रहेगा ? कब तक एक माँ को अपनी बेटी की सुरक्षा का भय सताता रहेगा ? शायद तब तक, जब तक स्त्री सुरक्षा के परम्परागत घेरे को तोड़कर अपनी सुरक्षा की कमान स्वयं अपने हाथों में नहीं लेगी ! शायद तब तक, जब तक कि सम्पूर्ण नारी समाज एकजुट होकर अपने अस्तित्व का उद्घोष नहीं करेगा ! ”
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