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छद्म भिखारी

छद्म भिखारी

स्टेशन परिसर में प्रवेश करते ही दक्ष के कानों में रेलवे अनाउंसमेंट का स्वर गूँज उठा । अनाउंसमेंट से उसे ज्ञात हुआ, जिस गाड़ी से उसके माता—पिता आ रहे थे,वह गाड़ी अपने नियत समय से दो घंटे देरी से आठ बजे पहुँच रही थी। आठ बजने में अभी देर थी। दक्ष ने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी पर दृष्टि डाली, अभी सात भी नहीं बजे थे। घड़ी से दृष्टि हटी, तो देखा, सामने कई हाथ फैले हुए भिक्षा—याचना कर रहे हैं। छोटे—छोटे बच्चों और वृद्धों को भिखारियों के रूप में देखकर दक्ष की संवेदना जाग उठी। उसकी संवेदना कार्यरूप में परिणत हो पाती, इससे पहले ही जब उन भिखारियों को झिड़कने वाला एक चिर—परिचित स्वर उसे सुनायी पड़ा। दक्ष ने स्वर की दिशा में दृष्टि उधर घुमायी, उसके निकट ही खड़ा हुआ उसका अभिन्न मित्र प्रभात उससे कह रहा था —

“ यार ! इनकी टूटी-फटी, मैली—कुचैली वेशभूषा और याचना की दयनीय भाव-भंगिमा देखकर इनके लिए अपनी संवेदना बर्बाद मत करो ! यह सब भले लोगों को ठगने की इनकी युक्तियाँ हैं !” दक्ष ने प्रभात के कथन पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। भावशून्य दृष्टि से उसे घूरता रहा। प्रभात ने पुनः कहा — “हाँ, यार, मैं सही कह रहा हूँ ! मैं एक दिन की घटना सुनाता हूँ, तब तुझे मेरे कथन की सत्यता पर विश्वास होगा —

उस दिन बहुत गर्मी थी। स्टेशन—परिसर के बाहर गन्ने का रस निकालने वाले कोल्हू के निकट जाकर मैंने एक गिलास रस बनाने के लिए आदेश दिया। गन्ने का रस पीकर मैं कुछ समय के लिए स्टेश्न—भवन में प्रवेश करने के लिए बनी हुई सीढि़यों पर बैठ गया। कुछ ही समय पश्चात् मैने देखा, जिस व्यक्ति ने मुझे गन्ने का रस बनाकर दिया था, वही व्यक्ति अब भिक्षा माँग रहा था। मैंने अपना सिर झटका कि शायद यह मेरा भ्रम है। फिर सोचा, एक बार उसी कोल्हू के निकट जाकर देखूँ ! अन्ततः मैं वहाँ चला गया। वहाँ मैंने देखा, अब एक स्त्री और दस—बारह वर्ष का एक बच्चा उस कोल्हू का कार्यभार संभाल रहे थे। इस बार भी मैंने एक गिलास गन्ने का रस पिया और वहाँ से कुछ दूरी पर जाकर बैठ गया। लगभग एक घंटा पश्चात् मैंने देखा, कोल्हू का कार्यभार एक अधेड़ व्यक्ति ने संभाल लिया और वह स्त्री उस बच्चे के साथ भीख माँग रही थी।

प्रभात द्वारा सुनायी गयी घटना से दक्ष आश्चर्यचकित था । इस कहानी ने उसके मस्तिष्क को झकझोर कर रख दिया था। प्रभात की बातें सुनकर अचानक दक्ष को अपने दादाजी की याद आ गयी, जो भिखारियों के साथ—साथ उन्हे भिक्षा देने वालों की भी तीव्र आलोचना किया करते थे —

गाँव में उसके दादाजी ही अकेले एसे व्यक्ति थे, जो स्नातकोत्तर उत्तीर्ण करने के बाद भी कषि—कार्य में रुचि लेते थे। अन्यथा गाँव के सभी उच्च शिक्षित व्यक्ति शहर के लिए पलायन कर चुके थे। अब गाँव में जो शेष बचे थे, वे अधिकांश अशिक्षित और कुछ कम शिक्षित लोग थे। बहुत अधिक पैतृक संपत्ति के स्वामी अपने पिता की इकलौती सन्तान होन के कारण दादाजी को शहर जाने की अनुमति नहीं मिली थी, किन्तु अपने तार्किक दृष्टिकोण से प्रभावित उनकी सोच शहरी शिक्षित लागों से पीछे नहीं थी। दादी ने एक बार बताया था कि अपनी इसी सोच के चलते एक बार गाँव में दादाजी ने एक नौजवान भिखारी को फटकारते हुए उसके हाथ में फावड़ा थमा दिया था —

“ चल, मेरे साथ खेतों में काम करना ! मैं तुझे रोटी—कपड़े के साथ—साथ मजदूरी भी सवायी दूँगा। शर्म नहीं आती तुम्हें हाथ फैलाकर भीख माँगते हुए !”

दादाजी की फटकार सुनते ही वह भिखारी हाथ से फावड़ा फेंककर यह कहते हुए भाग खड़ा हुआ कि वह कठोर परिश्रम क्यों करे, जबकि उसकी जीविका भिक्षावृत्ति से ही अच्छी प्रकार चल जाती है ! दादाजी बताया करते थे, उस दिन के पश्चात् वह नौजवान भिखारी आस—पास के गाँव में कभी दुबारा दिखायी नहीं दिया। दादी द्वारा बतायी गयी एक घटना का स्मरण होते ही दक्ष के मस्तिष्क पटल पर अपने बचपन की स्मृतियाँ एक—एक करके छाने लगीं —

बचपन से ही दक्ष उदार हृदय और कोमल प्रकृति का था। दया, प्रेम, सहिष्णुता और त्याग—तपस्या का उसमे अभाव नहीं था। पीडि़तों के प्रति सहानुभूति और असहायों की सहायता करने का संस्कार उसे अपनी माँ से मिला था। उसकी माँ धार्मिक प्रवृत्ति की थी। प्रायः जब माँ भूखे भिखारियों को भोजन-वस्त्र तथा यथासामर्थ्य धनराशि आदि देकर आत्मसंतोष प्राप्त किया करती थी, दक्ष भी अपनी माँ के साथ रहकर परहिताय कार्यों में यथायोग्य सहयोग करता था । किन्तु, जब कभी उसके दादाजी को ज्ञात हो जाता था कि उनके घर में किसी भिखारी को भोजन—वस्त्र आदि दिया जा रहा है, तब क्रोधावेश में चिल्लाते हुए वे हाथ में डंडा लेकर सिर पर पाँव रखकर दौड़े आते थे —

“ तुम इन निकम्मों की सहायता करके देश का कितना बड़ा अनर्थ कर रहे हो, जरा—सा भी आभास है तुम्हे ? तुम सोचते हो, पुण्य का काम कर रहे हो ? अरे, महापाप कर रहे हो तुम ! मेरे पोते को भी इस पाप में भागीदार बना रहे हो ! यह भिक्षावृत्ति देश का कुष्ठ है, जिसे तुम जैसे लोग पुष्ट करने में लगे हुए हैं !” दादाजी को चिललाते हुए देखकर दादी की भवें खिंच जाती थी, परन्तु उनके आवेश से भयभीत दादी मुँह चिढ़ाकर मूक भाषा में ही अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करती। दादी की प्रतिक्रिया देखकर दादाजी पुनः कहना आरम्भ करते —

“ इनका स्वाभिमान मर चुका है, भीख माँगने पर इनकी आत्मा इन्हें धिक्कारती नहीं है ! परिश्रम करके धनार्जन करने में इन्हें संकोच होता है जो हाथ आज भिक्षा माँगने के लिए फैल रहे हैं, जब ये हाथ काम करने के लिए उठेंगें, तभी इनका स्वाभिमान जागेगा और देश की उन्नति में इनकी सहभागिता होगी !”

“एक ग़रीब कू दो रोटी या एक मुट्ठी आटा देने से देश की तरक्की ना रुकती है। सास्तरों में लिखा है, भिखारी कू अपने दरवाजे से खाली हाथ लौटाने वाले के घर में भगवान अन्न—धन की जगह दरिद्दरता करे है!”

“ अच्छा ! तुमने बहुत शास्त्र पढ़े हैं !”

“ सासतर नहीं पढ़े, पंडितों से तो सुना है !”

“ अन्धविश्वास हैं सब। इन निकम्मों ने भिक्षावृत्ति को पेशा बना रखा हैं। शहर में जाकर देखो, किसी भी रेलवे—स्टेशन और बस अड्डे पर भिखारियों की भीड़ हाथ फैला—फैलाकर मक्खियों के झुंड की तरह चारों ओर से घेर लेती है। ऐसे आत्मसम्मानविहीन निकम्मों की फ़ौज देश को पतन के गर्त में नहीं ले जाएगी, तो क्या उन्नति के शिखर पर ले जाएगी ? बताओ !”

दादाजी पुनः कुछ कहें, उससे पहले ही कुछ पाने की आशा में दरवाजे पर बैठा भिखारी अपना धैर्य खोकर धीरे—से वहाँ से खिसक लेता। दादाजी के इस व्यवहार से दक्ष भी सहम—सा जाता था और वह गज—भर का घूँघट ओढ़े हुए कोने में खड़ी माँ की टाँगों से लिपट जाता था। दादी भाँप लेती थी कि जो दशा दक्ष की है, वही दशा उसकी माँ की भी है। अतः वातावरण को सामान्य करने के लिए दादी दक्ष की माँ के निकट जाती और दादाजी के प्रति नाराज होने का—सा अभिनय करती हुई कहती —

“ बुढ़ापे में तेरे ससुर का दिमाग सठिया गया है, कुछ भी कहते हैं !” दादी के शब्द कानों में पड़ते ही दादाजी अपने मत को प्रमाणित करने के लिए और अधिक कठोर हाकर कहते —

“बुद्धि मेरी नहीं, तुम सास—बहू की सठिया गयी है ! तुम दोनों इस बालक की बुद्धि भी अपनी जैसी कर दोगी, दिन—रात मुझे यही चिन्ता सताती है !”

आरोप के रूप में अपने ऊपर दादाजी का पलटवार होते ही दादी की भवें तन जातीं और वे मोर्चा संभालने के लिए खड़ी हो जातीं। दादी का विकराल रूप देखकर दादाजी तुरन्त अपने व्यवहार को विनम्र बनाते हुए उन्हें समझाते —

“ एक बार विचार करके तो देखो, जिस निकम्मे व्यक्ति को तुम ग़रीब-भूखा मानकर रोटी-कपड़े या रुपये-पैसे का दान कर रही हो, यह वास्तव में दान का पात्र है भी ? यह दान का पात्र नहीं है ! यह स्वस्थ है, जवान है, मेहनत करके रोजी़—रोटी कमाकर अपनी और अपने परिवार की आवश्यकताएँ पूरी कर सकता है ! मैं गलत तो नहीं कह रहा ?”

दादाजी के समझाने से दादी को कुछ—कुछ समझ में आता, तब वे थोड़ी—नरम पड़ जाती —

“ हाँ, कह तो ठीक रहे हो जी ! पर दान-पुन्न तो धर्म का काम है ! दान—पुन्न करने की हमारी परम्परा पुराने जमाने से चली आ रही है !” दादी कुछ नरम पड़कर प्रश्नात्मक दृष्टि से दादाजी की ओर देखते हुए अपनी जिज्ञासा व्यक्त करती, तो दादाजी को अपनी विजय का रास्ता साफ दिखाई देने लगता —

“ यही ! यही मैं कह रहा हूँ ! हमारी परम्पराएँ और धर्म—शास्त्र असहायों—ज़रूरतमन्दों की सहायता करने के लिए कहते हैं ! एसे निकम्मों—बेशर्मों के लिए दान का निषेध करते हैं, जिन्होंने परिश्रम करने की क्षमता रखते हुए भी भिक्षावृत्ति को अपना व्यवसाय बना लिया है !” दादाजी के तर्कों के समक्ष दादी अब तक हथियार डालने के लिए विवश हो जाती थी और दादाजी “ अब भी तो समझी !” कहकर अपनी विजय-पताका फहराते और फिर मन—ही—मन मुस्कुराते हुए चले जाते थे।

अपने दादाजी की तर्कपूर्ण—विवकेयुक्त शिक्षाओं तथा अंधविश्वासों से पोषित माँ की धार्मिक—उदार प्रकृति के बीच संस्कारित होता हुआ दक्ष अठ्ठारह वर्षों तक गाँव में रहा था। तत्पश्चात् उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु उसको शहर में भेज दिया गया। उच्च शिक्षा प्राप्त करके पिछले दस वर्षों से वह शहर में ही नौकरी कर रहा है, परन्तु आज भी उसके चित् में गाँव की प्रत्येक घटना, प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक व्यक्ति की छवि वैसी ही अंकित है, जैसी गाँव में रहते हुए थी।

भिक्षावृत्ति पर बातचीत करते—करते वे दोनों इतने तल्लीन हो गये कि कब आठ बज गये उन्हें पता ही नहीं चला। उन दोनों की बातचीत का सूत्र तब टूटा, जब रेल उनके निकट आकर रुकी। रेल रुकते ही दक्ष उधर दौड़ा, जहाँ वह डिब्बा था, जिसमें उसके माता—पिता के लिए सीटें आरक्षित की गयी थीं। अत्यन्त शीघ्रतापूर्वक वह उनके पास पहुँचकर उन्हें अपने साथ लेकर रेल से नीचे उतर आया।

स्टेशन—परिसर से बाहर आकर दक्ष अपने माता—पिता के साथ कुछ ही दूर चला था, हाथ फैलाकर भिक्षा याचना करते हुए पुनः कई भिखारी उसके इर्द—गिर्द आ खड़े हुए। भिखारियों को देखकर दक्ष असमंजस में पड़ गया। उसके मन में आया कि वह उन्हें भिक्षा न दे , डाँटकर भगा दे । किन्तु माँ के समक्ष भिखारियों के साथ ऐसा व्यवहार करके वह माँ को आहत नहीं सकता था। कुछ क्षणों तक वह किंकर्तव्यविमूढ़-सा खड़ा रहा, तभी उसकी दृष्टि माँ के सकारात्मक भावयुक्त मुस्कुराते हुए चेहरे पर पड़ी। माँ की आँखें मूक वाणी में कह रहीं थीं — “ याचक को निराश करना अच्छी बात नहीं है ! उनके फैले हुए खाली हाथों पर कुछ तो रख दो ! ” माँ के भावों को वह समझ चुका था । अब उनका अनुपालन करना शेष था।

माँ के हृदयस्थ भावों को परखकर दक्ष ने अपनी जेब में हाथ डाला और पर्स निकाल लिया। पर्स में पाँच सौ तथा एक हजार के बड़े नोट थे। दक्ष ने अपने पर्स में से पाँच सौ का एक नोट निकाला, तभी एक भिखारी ने आगे बढ़कर उसके हाथ से पाँच सौ का नोट लेते हुए कहा — “ साहब, मैं आपको पाँच सौ के छुट्टे देता हूँ !” दक्ष ने देखा, उस भिखारी के कपड़े अत्यन्त मैले और फटे हुए थे। उसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी तथा यथोचित देखभाल एवं पोषण के अभाव में सिर के रूखे—सूखे बाल पक चुके प्रतीत होते थे। अपने ही विचरों में कहीं खोया-सा दक्ष उस भिखारी को गूढ़, स्तब्ध दृष्टि से निहारता रहा, तभी उसे अनुभव हुआ कि भिखारी छुट्टे नोट उसकी ओर बढ़ा रहा है। अपनी ओर बढ़े हुए हाथ की अंगूठी को देखकर अचानक दक्ष के चेहरे की भाव-भंगिमा बदलने लगी। उसकी आँखों के कोमल भावों का स्थान संदेह, आश्चर्य और कठोरता ने ले लिया। दक्ष की मनोदशा का अनुमान करके माँ ने चिन्तित स्वर में पूछा —

“ बेटा, क्या बात है ?”

“ कुछ नहीं, माँ !” कहकर दक्ष ने भिखारी के हाथ से पाँच सौ के छुट्टे लेकर माँ के हाथ में दे दिये। दक्ष से लेकर माँ ने अनेक भिखारियों को पैसे दिये और अपने साथ गाँव से लाया हुआ भोजन खिलाया । लेकिन दक्ष का चित्त अब दानवृत्ति से ऊब रहा था। अब न तो उसका मन शान्त था, न मस्तिष्क। अपने अन्तःकरण में वह एक विचित्र—सी बेचैनी का अनुभव कर रहा था।

घर पर पहुँचकर भी उसका चित्त बहुत अशान्त था, इसलिए माता—पिता को विश्राम करने के लिए कहकर वह यथाशीघ्र घर से निकल गया और सीधा उसी रेलवे—स्टेशन पर गया, जहाँ से उसने पाँच सौ का नोट छुट्टा कराया था। प्लेटफॉर्म पर जाकर वह इधर—उधर भिखारी को ढूँढने लगा । एक घंटा बीत जाने पर भी दक्ष उस भिखारी को नहीं ढूँढ सका । अंत में जब वह निराश होकर लौटने लगा, तब प्लेटफॉर्म के बाहर स्टेशन परिसर में उसको वह भिखारी दिखाई पड़ा। दक्ष तेज कदमों से उधर ही चल पड़ा और कुछ ही क्षणों में उसके निकट पहुँच गया। भिखारी ने दक्ष को देखते ही पूछा —

“ साहब, क्या बात है ? कुछ सामान छूट गया था क्या ?”

दक्ष ने भिखारी के प्रश्न का उत्तर नहीं दिया । घूरकर पहले उसके हाथ को देखा और फिर चेहरे को। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसेकि वह भिखारी की दाढ़ी के पीछे छिपे हुए व्यक्ति को पहचानने की कोशिश कर रहा था। कुछ क्षणों तक घूरते रहने के पश्चात् दक्ष ने भिखारी के गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया और एक भददी—सी गाली देते हुए उसकी दाढ़ी पर झपटा। थप्पड़ खाकर भिखारी सन्न रह गया, लेकिन दक्ष का हाथ दाढ़ी पर पड़ते ही वह ऊँचे स्वर में बचाओ—बचाओ चिल्लाने लगा। अब तक भिखारी की दाढ़़ी दक्ष के हाथों में आ चुकी थी। इस दृश्य को देखने वाले आस—पास लोगों में-से कुछ हँस रहे थे और कुछ आश्चर्य से आँखें फाड़कर देख रहे थे। भिखारी की आवाज सुनकर उसी समय वहाँ पर कुछ पुलिसकर्मी आ पहुँचे और बीच—बचाव करने लगे। इसी समय भिखारी ने दक्ष के हाथ से नकली दाढी-बाल लेकर शीघ्रतापूर्वक यथास्थान लगा लिये और घडियाली आँसू बहाते हुए गिड़गिड़ाकर पुलिस से शिकायत की कि युवक ने अकारण ही उसके गाल पर तड़ातड़ थप्पड़ मारना आरंभ कर दिया। उसने पुलिस से गुहार लगायी कि यदि उसकी सहायता नहीं की गयी, तो युवक उसको मार डालेगा। भिखारी की शिकायत पर पुलिस ने दक्ष को पकड़कर भद्दी गाली दी और अपने हाथ का डंडा उसकी पीठ पर मारते हुए कहा — “ स्साले, भिखारी पर जोर आजमाइश करता है ! चल, थाने में जाकर अपना जोर दिखाना तू !”

“ सर, यह वास्तव में भिखारी नहीं है, धोखेबाज है ! भिखारी का भेष धरकर यह लोगों की भावनाओं के साथ छल कर रहा है ! भले लोगों को धोखा देने के लिए इसने नकली बाल और दाढ़ी लगाये हैं, आप स्वयं देख लीजिए !”

“ अच्छा ! तू हमें बतायेगा, भिखारी नकली है या असली है ? हमें तो तू ही फ्रॉड-सा दीख रहा है !” पुलिसकर्मी ने दक्ष को डाँटकर उसका उपहास करते हुए कहा।

“ सर, मैं सच कह रहा हूँ ! मैंने इसकी उँगली में पहनी हुई अंगूठी देखकर इसको पहचाना है ! मैं इसे बहुत अच्छे से जानता हूँ ! जिस बिल्डिंग में मै किराये पर रहता हूँ, यह उसका मालिक विनय राणा है और यहाँ स्वांग भरकर भिखारी बना हुआ है !”

दक्ष चीख—चीखकर पुलिस को भिखारी का सत्य बताने का प्रयास करता रहा, किन्तु पुलिसकर्मी को जैसे उसका एक एक भी श्ब्द सुनायी नहीं दिया। कुछ भी सुनने—समझने की आवश्यकता का अनुभव किये बिना पुलिसकर्मी दक्ष को भद्दी गालियाँ देते हुए उसका कालर पकड़कर खींचते—घसीटते हुए अपनी जीप की ओर बढ़ते रहे। पुलिस के व्यवहार से क्षुब्ध होकर दक्ष ने पीछे मुड़कर एक बार भिखारी की ओर देखकर कटु भाव से कहा —

“ छोड़ूँगा नहीं मैं तुम्हें, याद रखना !”

“ स्साले ! धमकी देता है उसको ! जब तक तेरी खाल नहीं उधेड़ी जायेगी, तेरा दिमाग ठिकाने नहीं आयेगा !” पुलिसकर्मी ने पुनः दक्ष को डाँटा और अभद्र व्यवहार करते हुए बलपूर्वक उसको अपनी जीप में बिठा लिया। कुछेक मिनट बाद जीप में बैठै हुए दक्ष ने देखा, वही भिखारी जीप के निकट खड़ा हुआ पुलिसकर्मी से कह रहा है —

“ साहब इसको छोड़ना मत ! आप छोड़ देंगे, तो यह फिर यहाँ आकर मार—पीट करेगा !”

दक्ष ने भिखारी की ओर घृणापूर्वक घूरकर देखा। अब तक वह दक्ष के अत्यन्त निकट आ चुका था और निकट आकर दक्ष के कान में कहा — “ देख लिया भिखारी से पंगा लेने का परिणाम ? अभी तो आगे—आगे देखना ! हम यहाँ ऐसे ही नहीं पड़े रहते हैं ! हमारे पास यहाँ भीख माँगने का लाइसेंस है और पुलिस हमारी हिफ़ाज़त करती है, क्योंकि हमारी कमाई सारी हमारी ही नहीं रहती, इसमें से पुलिस वालों का भी हिस्सा होता है। समझे !”

भिखारी की बातें सुनकर दक्ष व्याकुल हो उठा। वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि उसकी बातों पर विश्वास करे या न करे ? एक ओर उसका बुद्धि—पक्ष था, दूसरी ओर हृदय पक्ष। पुलिस की प्रतिक्रिया देखकर उसको भिखारी की बातों में सत्य का पर्याप्त अंश प्रतीत हो रहा था। दूसरी ओर उसका हृदय कह रहा था, सभी भिखारी ऐसे धूर्त नहीं होते हैं, जैसाकि यह भिखारी है — लाचारी की आड़ लेकर लोगों के दया-भावको भुनाने वाला ! दक्ष अपने अन्तर्द्वंद्व में इतना उलझ गया कि उसको समय का कुछ बोध ही न रहा। वह अपने विचार—द्वंद्व से बाहर तब आया, जब पुलिसकर्मी ने थाना-स्थल पर पहुँचकर उसको जीप से उतरने के लिए कहा। पुलिसकर्मी के अभद्र व्यवहार से बचने के लिए दक्ष उसके निर्देशों का अनुपालन करते हुए थाना परिसर में अपराधियों के लिए बनी एक कोठरी में जाकर बैठ गया। उस समय वहाँ पर थानाध्यक्ष उपस्थित नहीं था । अतः दक्ष ने कुछ समय चुप रहना ही बेहतर समझा। कई घंटे पश्चात् जब थानाध्यक्ष वहाँ आ पहुँचा, दक्ष की आँखों में आशा की हल्की—सी चमक आयी । लेकिन अगले ही क्षण उसकी वह आशा कहीं लुप्त होने लगी, जब थानाध्यक्ष ने उसको इस प्रकार घूरकर देखा जैसेकि वह बहुत बड़ा अपराधी है। आशा-विश्वास की दरकती हुई जमीन पूर्णरूपेण धँसने से पहले उसने एक बार पुनः सच्चाई पर दृढ़ रहने का प्रयास किया और थानाध्यक्ष के समक्ष घटना की सच्चाई का यथातथ्य ब्यौरा प्रस्तुत करना आरम्भ किया। दक्ष की बात सुनते हुए थानाध्यक्ष बड़ी ही उपेक्षा और कठोर दृष्टि से उसको घूर रहा है। दक्ष अपनी बात पूरी कर पाता, इससे पहले ही थानाध्यक्ष ने कर्कश वाणी में अपनी पारखी दृष्टि का परिचय देते हुए कहा —

“ सब पता है हमें, कितना सच बोल रहा है तू ! अपराध करने वाला कभी कहता है क्या कि वह अपराधी है ? नहीं न ?”

“ नहीं सर......., पर मैं बिल्कुल सच कह रहा हूँ ! आप स्वयं वहाँ जाकर .....!”

“ चल जा, बहुत हो गया ! अब तू अपनी खैरियत चाहता है, तो चुपचाप बैठ जा ! इसी में तेरी भलाई है ! वरना, ऐसी—ऐसी धाराओं के तहत अन्दर करुँगा, पूरी उम्र तू जेल में सड़ेगा !”

थानाध्यक्ष की धमकी भरी कर्कश वाणी से दक्ष सहम-सा गया। अब चुप बैठने में ही उसको अपना हित प्रतीत होने लगा था। वह अपने किसी परिचित से संपर्क करना चाहता था, परन्तु नहीं कर सका । पुलिसकर्मी द्वारा उसका मोबाइल पावर ऑफ करके पहले ही थानाध्यक्ष की मेज पर रख दिया गया था। थानाध्यक्ष से उसने घर पर माता-पिता या अन्य किसी परिचित को संपर्क करके सूचना देने का निवेदन किया, पर अनुमति नहीं मिली । अब उसके पास एक ही विकल्प शेष था — भगवान पर भरोसा रखते हुए चुप बैठकर पुलिस वालों की गतिविधियों को देखना। मूक-बधिर पुलिस के समक्ष बार—बार अपना पक्ष रखकर अब वह उन्हें अपने प्रति और अधिक कुपित नहीं करना चाहता था। जब थाने में बैठे—बैठे दोपहर के दस से शाम के पाँच बज गये, तब पुलिस ने दक्ष को घर जाने की अनुमति दी ।

दोपहर से बेटे की कोई सूचना नहीं मिलने से दक्ष के माता—पिता बहुत चिन्तित थे। किसी प्रकार के अनिष्ट की आशंका से उनके प्राण सूखे जा रहे थे। दक्ष के घर पहुँचने पर उसकी कुशलता जानने के लिए वे दौड़कर उसके निकट आये, जैसेकि बेटे को देखकर ही उनके शरीर में रक्त का संचार हुआ था। माँ की ममता आँखों से आँसू बनकर उमड़ने लगी। कुछ समय पश्चात् घर का वातावरण सामान्य हाने पर दक्ष ने दिन में घटित घटना के विषय में यथातथ्य माता-पिता को बताया। सारी बातें सुनकर प्रभु के कोप से भयभीत माँ उदास हो गयी —

“ निर्बल की आत्मा को कष्ट देने से आज तो इतना ही दुष्परिणाम भुगतना पड़ा है, आगे न जाने कितनी विपत्तियाँ झेलनी पड़ेंगी !”

दक्ष ने माँ को समझाया — “ माँ, वह निर्बल नहीं है ! जिस फ्लैट में हम लोग बैठे हैं, इसका मालिक वही भिखारी है !”

माँ को समझाकर दक्ष ने अपने एक अधिवक्ता मित्र प्रभात से सम्पर्क किया और उसके समक्ष घटना का यथातथ्य वर्णन करके कहा — “वकील साहब ! भोले—भाले लोगों की मानवीयता और उदारता का छद्म वेश धारण करके अनुचित लाभ उठाने वाले ऐसे व्यक्ति मनुष्य के रूप में भेडि़या हैं ! ऐसे लोगों को यूँ ही तो नहीं छोडा़ जाना चाहिए ! अब इस भिखारी को दण्ड दिलाकर ही मुझे चैन मिलेगा ! यह आवश्यक भी है, ताकि असहायों की सहायता करने की हमारी प्रवृत्ति क्षीण न पड़े !”

“ दक्ष, यह विड़म्बना का विषय है कि इन निकम्मों की आय बिना मेहनत किये भी मेहनत करने वालों की अपेक्षा बहुत अधिक है। पर यह एक अकेला ऐसा भिखारी नहीं है ! यहाँ कितने ही ऐसे भिखारी हैं, जिन्होंने भिक्षावृत्ति को कमाई का साधन बनाया हुआ है ! भिखारी ही क्यों, साधुओं का चोला धारण करके लूटने वालों की संख्या कम है क्या यहाँ ? तुम किस—किसको दण्ड दिलाओगे ?”

“ किसी को तो शुरुआत करनी ही पड़ेगी, कहीं—न—कहीं से, कभी—न कभी ! फिर हम ही क्यों नहीं! इस नेक काम का शुभारंभ कर दें, आज ही अभी !”

“ तुम ठीक कह रहे हो !”

प्रभात ने उसके विचारों का पूर्ण समर्थन किया और अपने पक्ष में साक्ष्य जुटाने का परामर्श दिया ताकि उस भिखारी के विरुद्ध कार्यवाही की जा सके। अगले दिन दक्ष अपने ऑफिस से छुट्टी लेकर प्रभात के साथ भिखारी के विरुद्ध अपने पक्ष को प्रमाणित करने के लिए साक्ष्य एकत्र करने में जुट गया। सर्वप्रथम वे दोनों पुनः उस स्टेशन पर गये, जहाँ पर पिछले दिन दक्ष ने उस छद्म भिखारी के छद्म चोले को उतारा था। दोनों उस भिखारी की तलाश में घंटा-भर तक स्टेशन-परिसर के बाहर-भीतर अगल-बगल इधर-उधर भटकते रहे, परन्तु भिखारी का कहीं कुछ पता नहीं था। पर्याप्त तलाश के पश्चात् भी उस वेशभूषा में वहाँ कोई भिखारी न पाकर उनका अनुमान था कि अवश्य ही आज उस भिखारी ने अपना चोला बदल दिया होगा। अतः दानों मित्र उस भिखारी को उसके पिछले दिन के छद्म वेश से इतर उसकी चिर—परिचित आँखों की छवि और अंगूठी के आधार पर किसी भी भिखारी में पहचानने का प्रयास करने लगे। पर्याप्त समय तक परिश्रम करने पर भी अपने प्रयास में सफलता नहीं मिली । अन्ततः दोनों मित्र वापिस लौटने लगे। उसी क्षण दक्ष ने प्रभात के कंधे पर हाथ रखते हुए एक भिखारी की ओर संकेत करके कहा —

“ वह आ रहा है !” क्षण—भर के लिए दोनों मित्रों ने एक—दूसरे की ओर देखा और अपनी योजना को कार्यरूप में परिणत करने के लिए आगे बढ़ गये।

दक्ष तेज गति से आगे बढ़ रहा था और प्रभात उसके पीछे—पीछे। उस भिखारी के निकट जाकर दोनों एक क्षण लिए रुके। अभीष्ट की पहचान हेतु उन्होंने एक बार भिखारी की ओर देखा। वह कुछ समझ पाता, इससे पहले ही दक्ष ने उसको तड़ातड़ दो—तीन थप्पड़ जड़ते हुए उसकी नकली दाढ़ी और सिर की नकली लम्बी—रूखी जटाएँ एक ही झटके में अपने हाथ में ले ली। यह सब कुछ ठीक उसी प्रकार घटित हुआ, जैसेकि एक दिन पहले हुआ था । निकट खड़े प्रभात ने इस सारी घटना को अपने कैमरे में कैद कर लिया। थप्पड़ लगने तक वह समझ चुका था कि दक्ष अपना प्रतिशोध लेने के लिए लौटा है, किन्तु उसको यह ज्ञात नहीं था कि अब यह विषय दक्ष के व्यक्तिगत मान—अपमान, हानि—लाभ तक सीमित नहीं रह गया है, बल्कि इससे ऊपर उठकर जनसामान्य की सहानुभूति का अनुचित दोहन करने वालों के विरुद्ध एक बड़े संघर्ष का रूप धारण करने जा रहा है। वह चिल्लाया — “बचाओ—बचाओ !” भिखारी की चीख—पुकार सुनकर भीड़ इकटठी हो गयी। कुछ ही मिनट में पुलिस भी आ पहुँची। दक्ष ने संकेत करके प्रभात को बताया कि सभी पुलिसकर्मी वे ही हैं, जो पिछले दिन थे। पुलिसकर्मी ने दक्ष की ओर अपना डंडा घुमाते हुए चिर—परिचित लहजे में डाँटकर कहा — “ फिर आ गया तू ! इस बार ......!”

प्रभात ने पुलिसकर्मी का वाक्य बीच में काटकर अपना पहचान—पत्र दिखाते हुए कहा — “दीवान साहब, आपका वेतन सरकार के जिस खज़ाने से मिलता है, वह जनता की मेहनत की कमाई के टैक्स से भरता है ! जनता की रक्षा करना आपका कर्तव्य है ! इस भेडि़ये को दण्ड दिलाने के लिए इसके विरुद्ध मेरे इस कैमरे में पर्याप्त प्रमाण हैं ! इसको बचाने का प्रयास करने से पहले एक बार सोच लेना ! आपकी नौकरी तो जायेगी ही, पूरा जीवन कोर्ट के चक्कर लगाने में न बिताना पड़ जाए !” प्रभात की चेतावनी सुनकर पुलिसकर्मी सहम गया । चेतावनी किसी सामान्य व्यक्ति की नहीं थी, एक अधिवक्ता की थी। दूसरी ओर दक्ष अब तक उस भिखारी की वास्तविकता भीड़ को बता चुका था। पछले दिन की और आज की घटना के विषय में सत्य तथ्य बताकर उसने वहाँ पर उपस्थित बुद्धिजीवियों का समर्थन प्राप्त कर लिया था। वहाँ पर उपस्थित एक अन्य व्यक्ति रमन ने भी बतया — “ यह कभी किसी से पचास रुपये से कम स्वीकार नहीं करता ! जब मैंने इधर शिफ्ट किया था, पहली बार मुझे इस ने अपनी सूरत पर एक पिता की लाचारी का आवरण ओढ़कर ठगा था ! इसने मुझे बताया था कि इसका बच्चा अस्पताल में मौत से लड़ रहा है ! यदि उसका ऑपरेशन हो जाए, तो वह बच जाएगा ! अपने बच्चे के प्राण बचाने के लिए इसको अस्सी हजार रुपये की आवश्यकता है ! उस समय इसके दयनीय व्यवहार ने मेरे हृदय में एक निर्धन—विवश पिता के प्रति इतनी सहानुभूति जगायी कि मैंने तुरन्त इसको पाँच सौ रुपये दे दिये। एक सप्ताह पश्चात् मुझे यह पुनः यहीं पर मिला। इस बार इसकी पत्नी बीमार थी और उसके इलाज के लिए इसको अस्सी हजार रुपये की आवश्यकता थी ! इसने मुझे नहीं पहचाना था, पर मैंने इसे पहचान लिया था। उस दिन मैंने इसके साथ कुछ मिनट बातचीत करके समझ लिया था, यह फ्रॉड़ आदमी है !”

रमन के रूप में दक्ष और प्रभात को एक मजबूत गवाह मिल गया था । सप्ताह—भर में उन्होंने उस छद्म भिखारी के विरुद्ध पर्याप्त साक्ष्य एकत्र कर लिये, जिनके आधार पर उस पर आरोप सत्य सिद्ध किया जा सके। तत्पश्चात् पूर्ण आत्मविश्वास के साथ प्रभात ने कोर्ट में अपील करके उसके विरुद्ध मुकदमा दायर कर दिया।

मुकदमे की पहली सुनवाई में प्रभात और दक्ष को पर्याप्त सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त हुई। उनके विचारों से सहमत और उनकी भाँति पीडि़त कई अन्य लोग भी अब उनके पक्ष में खड़े हो गये थे। हर अगली सुनवाई में उनके साथ जुड़ने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि हो रही थी और धीरे—धीरे यह केस चर्चा का ज्वलन्त विषय बनकर एक नया रूप धारण करता जा रहा था। दक्ष बनाम छद्म भिखारी का केस अब व्यक्तिगत न रहकर सामाजिक बन गया और जागरूकता अभियान के रूप में ‘भिक्षावृत्ति के विरुद्ध एक आन्दोलन‘ खड़ा हो गया। अत्यधिक प्रसन्नता का विषय तो यह रहा कि ‘भिक्षावृत्ति के विरुद्ध एक आन्दोलन‘ को आगे बढ़ाने वालों में एक बड़ी संख्या भिखारियों की थी। ये वे भिखारी थे, जो परिश्रम से जीविकोपार्जन करते हुए स्वाभिमान के साथ जीना चाहते थे, लेकिन शिक्षा-प्रशिक्षण के अभाव में आज तक उन्हें अपनी जीविका के लिए रोजगार का अवसर नहीं मिल पाया था। इन भिखारियों ने छद्म भिखारी के विरुद्ध गवाही देकर दक्ष के पक्ष को और अधिक दृढ़ता प्रदान की। अन्ततः छद्म रूप धारण करके लोगों को ठगने के अपराध में कोर्ट ने उस भिखारी को दण्डित किया। इसके बाद प्रभात और दक्ष ने स्थानीय स्तर पर ईमानदार और परिश्रमी भिखारियों के लिए रोजगार उपलब्ध कराने का अभियान शुरु किया । उनके परिश्रम से कई गैर सरकारी संगठनों ने आगे आकर भिखारियों के लिए रोजगार उपलब्ध कराने में यथायोग्य सहयोग किया । प्रभात और दक्ष का यह अभियान अब भी अपने लक्ष्य की दिशा में निरन्तर विकासमान है ।

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