कांता बाई Ved Prakash Tyagi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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कांता बाई

कांता बाई

“कांता! काम खत्म होने के बाद मेरे सिर में तेल मालिश करके बाल सुलझा देना।” बूढ़ी अम्मा ने अपने कमरे से ही आवाज लगा कर कांता बाई से कहा तो कांता ने बहुत छोटा सा जवाब दिया, “जी माँ जी।” शांत स्वभाव वाली कांता कई वर्षों से बाल किशन के घर में सफाई से लेकर खाना बनाने तक का सारा काम करती थी।

तीन साल हो गए बाल किशन की पत्नी को गुजरे हुए, एक लड़का राजेश, बूढ़ी माँ और बाल किशन, तीन सदस्य ही थे परिवार में, कांता तीनों का ही अच्छी तरह ख्याल रखती थी, लेकिन कभी अपने लिए कुछ भी नहीं मांगती थी।

कांता की एक बेटी शुचिता, जो क्वीन्स मेरी स्कूल में पढ़ती थी, शुचिता के पिता ने ही उसका दाखिला दिल्ली के सबसे बड़े स्कूल में करवाया था। पिता की असमय मृत्यु के पश्चात कांता के लिये शुचिता को बड़े स्कूल में पढ़ाना मुश्किल हो गया था लेकिन बाल किशन जी के घर में काम मिल गया तो शुचिता की पढ़ाई जारी रह सकी थी।

काम खत्म करके कांता ने एक कटोरी में तेल लिया और माँ जी के कमरे में चली गयी। बालों को उठा उठा कर उनकी जड़ों में तेल लगाकर हथेली से सिर की हल्की मालिश कर रही थी तभी माँ जी ने पूछा , “कांता! तुम चुपचाप सारा काम करती रहती हो, कभी कुछ कहती नहीं, मांगती नहीं! बेटा! जहां तक मेरा अनुभव कहता है, तुम किसी संभ्रांत परिवार से हो, यह सब कैसे हुआ? क्या हो गया था उनको?”

कांता थोड़ी देर तो चुप रही फिर बताने लगी, “माँ जी, निलेन्द्र गाँव का सबसे सुंदर सजीला जवान लड़का था, जब भी वह मेरी गली से गुजरता था, बरबस ही मैं घर से बाहर आ जाती और उसको तब तक देखती रहती जब तक वह मुड़ न जाता। गली के मोड़ पर मुड़ने से पहले निलेन्द्र पीछे मुड़ कर मेरी तरफ देखता, उसकी वह प्यार भरी नजर मुझे उद्वेलित कर जाती।

हम दोनों छुप छुप कर मिलने लगे, रात में, दोपहर में, घर में, बाहर कहीं भी सुनसान में मिलते, लेकिन कभी भी हमारा मन नहीं भरता था एक दूसरे के बिना अधूरा अधूरा महसूस करते, एक दूसरे के बिना रहना मुश्किल लगने लगा।

हमारे दोनों के परिवार अच्छे और समृद्ध थे लेकिन दोनों परिवारों में पता नहीं कब से आपसी दुश्मनी चली आ रही थी, अतः कोई भी हमारी शादी के लिए तैयार नहीं हुआ। निलेन्द्र ने दोनों परिवारों के विरोध के बावजूद मेरे साथ शादी कर ली जिसका परिणाम यह हुआ की हमें गाँव छोडना पड़ा।

गाँव से निकल कर हम यहाँ दिल्ली आ गए, दिल्ली में हमें आप जैसे शरीफ और इज्जतदार घर में किराए पर कमरा मिल गया। निलेन्द्र ने एक कंपनी में नौकरी कर ली। कुछ समय बाद शुचिता का जन्म हुआ जिसे देखकर निलेन्द्र बड़े खुश हुए और तभी से कहते थे कि मैं अपनी बेटी को दिल्ली के सबसे बड़े स्कूल में पढ़ाऊंगा, पढ़ लिख कर मेरी बेटी डॉक्टर बनेगी।

निलेन्द्र को क्रिकेट मैच देखने का बड़ा शौक था, साथ में एक अवगुण भी था कि वह क्रिकेट मैच पर सट्टा लगाया करते थे। पहले तो वे सट्टे में जीत जाते थे लेकिन उन सब में कम पैसे ही लगाते था, उन्हे लगने लगा कि वे हमेशा सट्टे में जीतते हैं।

उस वर्ष वर्ल्ड कप पर निलेन्द्र ने बहुत बड़ा सट्टा लगाया था, कहते थे, इस बार जीत कर अपना मकान खरीद लूँगा, फिर हमारा किराए के मकान से पीछा छूट जाएगा। सारा पैसा जो उसके और मेरे पास था, यहाँ तक कि मेरे गहने भी बेच दिये थे उसने, सब सट्टे में इस आशा से लगा दिया कि जीत जाऊंगा और अपना घर खरीद लूँगा लेकिन उस वर्ष वर्ल्ड कप में भारत भी हार गया और निलेन्द्र भी।

निलेन्द्र इतना बड़ा सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाये और उसी रात उनको इतना भयंकर दिल का दौरा पड़ा कि मैं कुछ नहीं कर सकी।

देखते देखते मेरी दुनिया उजड़ गयी, हम दोनों माँ बेटी अनाथ हो गए, ना तो मेरे पास पैसे थे और ना ही हिम्मत थी। उस समय बाल किशन जी ने मेरी हिम्मत बढ़ाई और सहयोग किया उसको मैं कभी भी भूल नहीं सकूँगी। निलेन्द्र ने मुझे कभी काम नहीं करने दिया था और अचानक जब मैं एक ऐसे मोड पर आ गयी तो बाल किशन जी ने यही कहा कि कांता अगर तुम चाहो तो मेरे घर में इज्जत के साथ काम करके अपनी जीविका चला सकती हो, तुम्हें मेरे घर में घर के सदस्य जैसा ही प्यार मिलेगा, तुम्हारी बेटी को हम अपने बच्चों जैसा प्यार देंगे और उसकी पढ़ाई जारी रहेगी।”

अपनी बातें करते करते कांता विचारों में खो गयी, अम्मा ने पूछा, “क्या हुआ बेटा, क्या सोचने लगी?” कांता बोली, “कुछ नहीं माँ जी, बस निलेन्द्र के साथ गुजरे अच्छे पल याद आ गए थे।”

अम्मा बोली, “कांता बेटी, मेरा बेटा तुम्हारी बहुत इज्जत करता है, उसने भी अपनी पत्नी खोई है, अब उम्र बढ़ रही है, मेरा क्या, कब तक जिंदा रहूँ, अगर तुम चाहो तो मेरे बेटे को अपना लो। इन दोनों बच्चों की खुशी के लिए ही, मान जाओ तो मैं भी निश्चिंत हो जाऊँगी।”

एम बी बी एस करने के पश्चात शुचिता और राजेश ने एम डी में प्रवेश ले लिया, राजेश को एम डी करते समय जब हॉस्टल नहीं मिला तो फॅमिली हॉस्टल ले लिया, शुचिता और राजेश साथ साथ रहने लगे। और अपनी आगे की पढ़ाई करने लगे।

शुचिता और राजेश के बीच क्या चल रहा था इसका बाल किशन व कांता को कुछ भी पता नहीं था। दोनों बच्चे घर से बाहर हॉस्टल में थे, कभी कभी आते तब उनके बीच के रिश्ते को कांता समझ नहीं पायी क्योंकि जो रिश्ता उन दोनों बच्चों के बीच बन रहा था उस तरह से बाल किशन और कांता ने कभी सोचा भी नहीं था।

काफी दिनों तक शुचिता और राजेश घर नहीं आए तो एक दिन बाल किशन कांता को साथ लेकर बच्चों से मिलने हॉस्टल चले गए। शुचिता उस समय कमरे में ही थी लेकिन राजेश ड्यूटि पर गया हुआ था, बाल किशन ने राजेश के कमरे के बारे में पूछा तो शुचिता बोली, “माँ, हम दोनों इसी कमरे में रहते हैं।”

उस समय बाल किशन और कांता राजेश की प्रतीक्षा किए बिना और उससे मिले बिना ही घर वापस आ गए।। राजेश जब ड्यूटि से वापस आया और उसे पता चला तो वह शुचिता को साथ लेकर घर आ गया।

राजेश ने बड़ी हिम्मत करके बताया कि हम दोनों तो बचपन से ही एक दूसरे को चाहते हैं। जब मैं और शुचिता बहुत छोटे थे शुचिता मेरे पास मेरे कमरे में पढ़ने आ जाती थी तो मैं इसे पढ़ाता था और ये मुझे चिढ़ाती थी कि जब भी मैं गुड्डे गुड़िया की शादी करूंगी तब तुझे अपना गुड्डा बनाकर अपना दूल्हा बनाऊँगी और पूछती, “बनोगे ना मेरा दूल्हा?”

शुचिता कहने लगी, “माँ हम दोनों ने एक दूसरे से सच्चा प्यार किता है हमें सिर्फ आप दोनों का आशीर्वाद चाहिए, हमारे प्यार को अगर आप दोनों का आशीर्वाद मिल जाएगा तो हम समझेंगे कि हमारा प्यार वास्तव में सच्चा है अन्यथा हम तब तक प्रतीक्षा करेंगे जब तक आप दोनों राजी नहीं होंगे और हमने आज तक ऐसा कुछ नहीं किया जिस के कारण आप परेशान हों या हमारा प्यार कलंकित हो।

बच्चों के प्यार की खातिर बाल किशन और कांता ने साहसपूर्ण फैसला लिया, हमेशा के लिए अलग रहने का एवं बड़ी धूम-धाम से दोनों की शादी कर दी। राजेश ने अपने पिता के बड़े से घर में ही क्लीनिक बना लिया जहां वह शुचिता के साथ मरीजों का इलाज़ करने लगा। क्लीनिक पर सुबह से शाम तक इतनी भीड़ लगती कि खाने का समय भी वे मुश्किल से निकालते। कांता बार बार खाने के लिए संदेश भेजती मगर जवाब यही होता कि अभी आए बस, थोड़े से मरीज और हैं।

सेवा और समर्पण के भाव एवं कार्य के प्रति निष्ठा एवं विश्वास ने आज उन दोनों को जन जन का प्रिय डॉक्टर बना दिया था, ज़्यादातर मरीज उन दोनों के इलाज से ठीक हो रहे थे और यह सब उनके परिश्रम और बाल किशन व कांता के त्याग का फल था।

लेकिन कांता जीवन भर सिर्फ कांता बाई ही बन कर रही, उसी घर में पूरे सम्मान के साथ, उसी किराए के कमरे में जो निलेन्द्र ने लिया था और जहां पर उसने अपनी आखिती सांस ली थी।