बोए पेड़ बबूल के Dr kavita Tyagi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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बोए पेड़ बबूल के

बोये पेड़ बबूल के

डॉ. कविता त्यागी

गाँव में कोई सोच भी नहीं सकता था कि दो सुयोग्य—सम्पन्न बेटों और एक सुशील—संवेदनशील बेटी की माँ बेगवती का बुढ़ापा ऐसा बीतेगा कि वह अपने अकेलेपन को भोगती हुई अर्द्धविक्षिप्त हो जायेगी और अन्त समय में जब उसके प्राण निकलेंगे, तब उसकी आँखें अपने बेटे को देखने की प्यास में अपने निकट किसी अपने को तलाशती हुई प्यासी ही रह जायेंगी ! बेगवती का बड़ा बेटा जयन्त आरम्भ से भी होनहार रहा है। इन दिनों वह किसी मल्टीनेशनल कम्पनी में कार्यरत है और अपने बीवी—बच्चों को लेकर शहर में रहता है। उससे छोटी बेटी अर्चिता का कई वर्ष पूर्व विवाह सम्पन्न हो चुका है । वह भी अपनी ससुराल में सुख—शान्ति से रह रही है। छोटा बेटा बाईस वर्ष की आयु में एक दिन अचानक लापता हो गया था। आज तक यह ज्ञात नहीं हो सका है कि वह स्वयं ही घर छोड़कर कहीं चला गया अथवा किसी ने उसकी हत्या कर दी ?

आज सुबह से ही बेगवती के घर में निःशब्दता छायी हुई थी। उसकी जेठानी फूलवती ने चारपाई पर खड़े होकर चुपके से दीवार के ऊपर से झाँककर देखा, बेगवती की घर में उपस्थिति का कोई चिह्न उसको दिखायी नहीं दिया। यह घर उसके ससुर का बनवाया हुआ था। अपनी सुविधा के अनुसार अब बीच में लगभग दो मीटर ऊँची दीवार लगाकर घर के दो भाग कर लिए गये थे। एक भाग में फूलवती रहती थी, दूसरे भाग में बेगवती। दोनों में परस्पर सामान्य बोलचाल तो प्रायः रहती थी, परन्तु एक-दूसरे की परस्पर सहायता करना या सहायता की अपेक्षा करना इनकी प्रकुति के प्रतिकूल था। दानों में एक—दूसरे के प्रति द्वेष और अहंकार इतना प्रबल था कि परस्पर सहृदयता और आत्मीयता तो जैसे शेष नहीं रह गयी थी। देवरानी—जेठानी के बीच इस कटुता की वल्लरी कैसे पल्लवित हुई, इसके पीछे की भी एक लम्बी कहानी है —

फूलवती स्वभाव से भोली—भाली, बहुत परिश्रमी और छल—छद्म से कोसों दूर थी। अपने इन्हीं गुणों के कारण किसी जमाने में वह अपने सास—ससुर की लाड़ली बहू थी। विवाह के एक वर्ष पश्चात् जब फूलवती ने एक बेटे को जन्म दिया, तब से फूलवती अपने ससुर के लिए फूली बन गयी और धीरे—धीरे सारा गाँव फूलवती को फूली के नाम से जानने लगा। सास—ससुर के इस लाड—प्यार ने पारिवारिक जिम्मेदारियों के प्रति फूली का उत्साह भी बढ़ाया और जिम्मेदारियों को वहन करने की सामर्थ्य भी। इसी उत्साह और सामर्थ्य से फूली परिवार के प्रति अपना दायित्व निर्वाह करने लगी, तो समाज से सम्मान और परिवार से प्यार उसकी झोली में बिना माँगे ही भरता गया।

फूली के दो देवर थे। दो बेटे पिता के साथ खेती के काम में हाथ बँटाते थे, तीसरा पढ़ता था। पढ़ने वाले के प्रति परिवार के प्रत्येक सदस्य का दृष्टिकोण अपेक्षाकृत अधिक उदार था। उसको कभी भी घर के किसी काम के लिए नहीं कहा जाता था, न ही कभी किसी गलती पर डाँटा जाता था। उसकी प्रत्येक आवश्यकता को समय से पहले पूरा करने का प्रयास किया जाता था। फूली को उसके ससुर ने समझाया था कि घर का एक बच्चा भी पढ़—लखकर बड़ा आदमी बन जाएगा, तो वह बाकी सबका भी उद्धार कर सकता है, इसलिए छोटे की पढ़ाई में कसी प्रकार की बाधा नहीं आनी चाहिए। फूली को अपने ससुर की बात सोलह आने ठीक लगी। वह तन—मन—धन से अपने देवर छोटे को पढ़ा—लिखाकर बड़ा आदमी बनाने के लक्ष्य को प्राप्त करने में जुट गयी।

फूलवती की बड़ी देवरानी बेगवती यथा नाम तथा गुण थी। उसमें व्यवहार—कुशलता और मधुर वाणी से लेकर छल—कपट तथा चालाकी के सभी गुण विद्यमान थे। घर में आते ही वेगवती अपने सभी गुणों के साथ साम-दाम-दंड-भेद की नीति पर अमल करते हुए फूली की जगह लेने का प्रयास करने लगी । अपने विवाह के दो वर्ष पश्चात् जब वेगवती को पता चला कि वह गर्भवती है, तब उसके मन में छोटे देवर के पदचिह्न पर अपने बेटे को पढ़ा—लिखाकर बड़े नाम वाला और पैसे वाला आदमी बनाने के लिए शहर में भेजने की महत्वकांक्षा का बीज पड़ गया ।

फूलवती और वेगवती दोनों अनपढ़ थी, पर दोनों की प्रकृति में धरती-आसमान का अंतर था। फूली में उदारता, सहिष्णुता और क्षमाशीलता कूट-कूट कर भरी थी,तो बेगवती की प्रकृति उसके बिल्कुल विपरीत । विवाह होते ही जब छोटे अपनी पत्नी को अपने साथ शहर ले गया, तो वेगवती को यह बात कचोटती थी। अनेक बार उसने फूली से कहा था—

“बीबीजी, छोटे अब सहर में इतना कमा रहा है, उसको गाँव में भी तो कुछ देना चाहिए्!”

“बेगो, उसका अपना कितना खर्चा है, तुझे पता नहीं है ? अपना खर्चा चला ले, यही क्या कम है छोटे के लिए !” छोटे के प्रति अपनी आत्मीयता का परिचय देते हुए फूली अपने काम में लग जाती थी, परन्तु बेगवती के मन में चैन नहीं आता थी। पर उस समय वह अपने गर्भस्थ शिशु के भविष्य को लेकर सपने बुनने से अधिक न कुछ कह सकती थी, न कर सकती थी । धीरे—धीरे वह समय भी आ गया जब वेगवती ने एक पुत्र को जन्म दिया। वेगवती का पुत्र स्वस्थ था, सुंदर था और अपने माता—पिता की भाँति चतुर दिखाई पड़ता था। नवजात शिशु के दादा ने पंडित जी को बुलाकर उसकी कुंडली जँचवायी। पंडितजी ने बताया, बच्चा बड़ा होकर बड़ा आदमी बनेगा। पंडित जी के शब्द और अपनी कल्पनाओं के अनुरूप वेगवती को पूत के पाँव पालने में ही दिखायी देने लगे । अब उसके समक्ष लक्ष्य स्पष्ट था। पंडित जी ने कह दिया, यह बच्चा बड़ा आदमी बनेगा, तो अब उसको बड़ा आदमी बनने से कोई नहीं रोक सकता ! बच्चे के दादा भी प्रसन्न थे कि उनके दो पोते हो गये थे।

दुर्भाग्यवश उन्हीं दिनों एक बड़ी दुर्घटना घटी। फूलवती के पति की अचानक मृत्यु हो गयी। अब तक घर का स्वामित्व फूलवती के हाथों में था और बाहर का फूलवती के पति और ससुर के हाथों में था। पिता तो अक्सर मार्गदर्शक का काम ही करते थे। बड़े बेटे की अचानक मृत्यु से पिता टूट गये। अब परिस्थितिवश घर के बाहर का स्वामित्व वेगवती के पति के हाथों में आ गया और घर के अंदर का स्वामित्व वेगवती ने फूली से छीनकर अपने हाथों में ले लिया। फूलवती को इसमें कोई कष्ट नहीं था । इस समय वह पति की मृत्यु का मानसिक कष्ट भोग रही थी, उस कष्ट को सहन करने के लिए वह स्वयं पारिवारिक दायित्वों से कुछ समय के लिए मुक्ति चाहती थी, परन्तु उसका बेटा तथा सास इस स्वामित्व हस्तांतरण से संतुष्ट नहीं थे।

वेगवती अब घर में खाने—पीने जैसी छोटी—छोटी बातों से लेकर बड़े—बड़े निर्णयों में न केवल फूलवती की उपेक्षा करने लगी थी, बल्कि अवसर मिलते ही वह फूलवती का तिरस्कार और अपमान करने से भी नहीं चूकती थी। फूलवती की सास को और उसके बेटे चंदकिरन को वेगवती के इस प्रकार के व्यवहार से बहुत कष्ट होता था। ये दोनों ही वेगवती के इन व्यवहारों पर सदैव प्रश्नचिह्न लगाते थे। इसका परिणम यह हुआा कि एक दिन फूलवती और उसके पति ने स्पष्ट कह दिया — घर में आराम से बैठकर खाने वाले नीति की बड़ी—बड़ी बातें न करें ! घर में बैठकर लम्बी-लम्बी फेंकने वाले खेतों में मेहनत करेंगे, तो उन्हें आटे—दाल का भाव मालूम पड़ेगा ! फूलवती अपने देवर—देवरानी का संकेत समझती थी, परन्तु वह अपने बच्चे को स्कूल भेजना चाहती थी, खेतों में काम करने के लिए नहीं। ससुर के मार्गदर्शन में जो लक्ष्य उसने अपने देवर छोटेलाल के लिए बनाया था और हासिल किया था, वही लक्ष्य उसने अपने बेटे के लिए भी निर्धारित किया था। चन्दकिरन अपनी आयु के अनुसार पढ़ाई में उत्कृष्ट प्रदर्शन कर रहा था, इसलिए सुघड—सुशील फूलवती ने बेगवती की बातों को अनसुना कर दिया । उसने बेटे को भी समझाया कि परिवार में ऐसी छोटी—छोटी बातों को दिल पर नहीं लेते है !

फूलवती तनावरहित होकर घर में रहे और अपने मनोनुकूल अपने बेटे का पालन—पोषण करे, बेगवती के लिए यह कष्टकारक विषय था। वह चाहती थी कि विधवा फूलवती और उसका बेटा चंद्रकिरण अनाथों की भाँति जीवनयापन करें और अपनी प्रत्येक अवश्यकता की पूर्ति के लिए क्षणे-क्षणे उससे प्रार्थना करें । फूलवती और उसके बेटे को अपनी शक्ति का आभास कराने के लिए वेगवती ने उनके खाने-पीने की अनेक वस्तुओं पर प्रतिबंध लगा दिया और उन पर उनकी सामर्थ्य की अपेक्षा अधिक काम करने का अनुचित बोझ डाल दिया, परन्तु यह पर्याप्त नहीं था । धीरे-धीरे उसके अहम से प्रेरित दुर्व्यवहार अत्याचार की सीमा को छूने लगे | एक दिन ऐसा भी आया जब बेगवती ने चंद्रकिरण का स्कूल जाना बंद करा दिया और उसके नाज़ुक कंधो पर चाचा के साथ खेत में काम करने का दायित्व-भार लाद दिया |

फूलवती को अपने बेटे का स्कूल छुड़वाने पर बहुत दुख हुआ, पर वह चुप रही | वैधव्य जीवन और बेटे की बाल्यावस्था ने उसके होठों पर ताला डाल दिया | चंद्रकिरण भी अब तक पिता की कमी का अनुभव करने लगा था | असमय पिता की मृत्यु से उत्पन्न विषम परिस्थितियों ने उसको बहुत कुछ सिखा दिया था | वह समझ चुका था कि खेतों में काम किए बिना उसका और उसकी माँ का न तो पेट भर सकता है, ना ही उनका सम्मान सुरक्षित रह सकता है | अपनी पढ़ाई छोड़कर खेतों में काम करना उसके लिए सहज नहीं था, किंतु स्वयं अपनी और अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए परिस्थिति से समझौता करते हुए उसने खेतों में काम करना सहज ही स्वीकार कर लिया !

आठ वर्ष का चंद्रकिरण दो दिन तक चाचा के साथ खेतों में गया और कठोर परिश्रम किया | दोनों ही दिन घर आकर उसने देखा कि चाची के व्यवहार में अब भी आत्मीयता के स्थान पर वही कठोरता, वही उपेक्षा और भेदभाव था | उसने देखा, चाची अपने बेटे को पोष्टिक और स्वादिष्ट व्यंजन परोस रही है, जबकि चंद्रकिरण की थाली में रुखा—सूखा भोजन रखा है ! चंद्रकिरण ने संकेत करके अपनी माँ को दिखाया और आँखों ही आँखों में शिकायत की | माँ ने भी आँखों ही आँखों में संकेत करके कह दिया कि जो भोजन चाची ने दिया है, अभी सप्रेम मौन होकर ग्रहण करना ही उचित है ! फूलवती के उत्तर से एक ओर चंद्रकिरण के हृदय में माँ की सरलता के प्रति वितृष्णा उत्पन्न हो गई, तो दूसरी ओर चाचा चाची के प्रति उसका आक्रोश बढ़ने लगा | आक्रोशवश वह अपने भोजन की थाली को यथावत् छोड़कर भूखा ही उठ खड़ा हुआ | माँ ने उसे समझाने का प्रयास किया, किंतु वह समझने की मनोदशा में नहीं था और उसी समय घर से निकल गया |

रात के लगभग ग्यारह बजे चंद्रकिरण घर लौटा, तो चाचा ने उसको बहुत डाँटा | माँ ने भी समझाया, पर चंद्रकिरण चुप रहा | उसने चाचा और माँ की किसी बात का प्रतिवाद नहीं किया | चाचा ने चंद्रकिरण के मौन को अपनी जीत समझा और माँ ने बड़ों के प्रति बेटे का शिष्ट व्यवहार | चंद्रकिरण के मन और मस्तिष्क में जो तूफान चल रहा था, उसे वे दोनों नहीं भाँप सके | चंद्रकिरण को देर रात तक नींद नहीं आई | प्रातःकाल उसकी आंखों में नींद का ज्वार आया और वह समय पर बिस्तर नहीं छोड़ सका | चंद्रकिरण के समय पर बिस्तर नहीं छोड़ने से चाचा का पारा चढ़ रहा था | चाचा ने क्रोध में बड़बड़ाते हुए हुए चंद्रकिरण के लिए अनेकानेक अपशब्दों का उच्चारण करते हुए उसकी माँ से शिकायत की | माँ ने शांत मुद्रा में कहा —— " बच्चा है ! रात में देर से सोया था, अभी नींद पूरी नहीं हुई होगी! नींद पूरी हो जाएगी, तो उठ जाएगा ! जब उठेगा, मैं खेत में भेज दूँगी!

फूलवती के उत्तर ने उसके देवर का क्रोध और अधिक बढ़ा दिया | यह क्रोध केवल भतीजे के प्रति नहीं था, भाभी के प्रति भी था | भतीजे के प्रति सदैव उपेक्षा का व्यवहार करने वाले चाचा का क्रोधावेश में कर्तव्य बोध भी जाग उठा था | अतः चाचा ने सही गलत का अंतर न समझने वाले बच्चों को अनुचित राह पर चलने से रोकने के लिए शक्ति-प्रयोग की आवश्यकता बताते हुए कुछ कठोर शब्द कहे और चंद्रकिरण की चारपाई के निकट जा कर झटककर उसकी चादर उतार दी | अपने चाचा और माँ का परस्पर वाद—प्रतिवाद सुनकर चंद्रकिरण की नींद पहले ही टूट चुकी थी | ऐसा प्रतीत होता था कि वह अपने चाचा के इसी कठोर व्यवहार की प्रतीक्षा कर रहा था | चाचा द्वारा अपने ऊपर से चादर खींचते ही वह उठ कर खड़ा हो गया | आज पहली बार उसकी आँखों में चाचा के प्रति सम्मान नहीं था तथा व्यवहार में विनती नहीं थी | वह सीना तान कर खडा हो गया | उसने घोषणा करने की मुद्रा मे कहा — “ मैं खेतों में काम अवश्य करूँगा, पर किसी का गुलाम बन कर नहीं, बल्कि स्वतंत्र होकर |” चंद्रकिरण के चाचा ने अभी तक उसके शब्दों से उसका अभीप्सित अर्थ समझा भी नहीं था और वे उसको अपनी चिर—परिचित मुद्रा में डाँट ही रहे थे, तभी चंद्रकिरण ने पुनः अपने शब्दों से एक विस्पोट करके चाचा को धराशायी कर दिया — “ मैं घर-जमींन का न्यायोचित बँटवारा चाहता हूँ और अपने पिता के भाग पर स्वामित्व ग्रहण करके स्वतंत्रतापूर्वक सम्मान के साथ जीना चाहता हूँ ।” यद्यपि उसकी माँग अनुचित नहीं थी, तथापि चाचा को चंद्रकिरण से ऐसी आशा नहीं थी । चंद्रकिरण के दादा ने भी उसका समर्थन किया और बँटवारा करके ना केवल उस को स्वतंत्र कर दिया, बल्कि उसका सहयोग करने के लिए उसके साथ रहने का वचन भी दिया ।

उस दिन चंद्रकिरण चाचा के दुर्व्यवहारों से स्वतंत्र हो गया । उसके दादा ने भी अपना वचन निभाया, परन्तु तेरह वर्ष की आयु में वह अपने दादा के स्नेह से भी वंचित हो गया । दादा स्वर्ग सिधार गये और चंद्रकिरण अकेला पड़ गया । अब वह अकेला ही खेतों में परिश्रम से काम करने लगा । माँ उसको स्नेहपूर्वक भोजन कराती और जीवन में संघर्ष करने के लिए उसका उत्साह बढ़ाती । इसी दिनचर्या से धीरे—धीरे समय बीत रहा था । कुछ समय बाद चंद्रकिरण की माँ ने देखा, बेटा जवान हो रहा है, घर में बहू लाकर बेटे के लिए एक मजबूत खूँटा गाड़ दिया जाए, तो बेटे का जीवन भी सरस हो जाए और उसे भी बुढ़ापे में थोड़ा—सा आराम मिल जाए ! घर में बहू लाने के उत्साह में माँ ने समाज—बिरादरी और नाते—रिश्तेदारों से निवेदन किया कि उसके बेटे का किसी कुलीन और सुशील लड़की से विवाह कराने का प्रयत्न करें । समाज—बिरादरी और नाते—रिश्तेदारों का रुख चन्द्रकिरण और उसकी माँ के प्रति सकारात्मक था । परन्तु, चन्द्रकिरण की माँ का निवेदन सकारात्मक दिशा में फलीभूत हो पाता, इससे पहले ही चाचा किसी-न-किसी प्रकार की नकारात्मक टिप्पणी करके कन्या पक्ष के निर्णय को बदलने में सफल हो जाते । चाचा के इन नकारात्मक कार्य—व्यवहारों का चंद्रकिरण को हमेशा पता चल जाता था, पर इस विषय में वह कुछ नहीं कर सकता था ।

धीरे—धीरे चाचा का बेटा जयन्त भी बड़ा हो गया । चाचा के प्रयासों से उसका विवाह यथोचित समय पर हो गया | विवाह होते ही वह अपनी पत्नी को अपने साथ लेकर शहर में चला गया जहाँ वह नौकरी करता था | देखते ही देखते चंद्रकिरण से कई वर्ष छोटा जयन्त एक बेटे का पिता भी बन गया । इधर, चंद्रकिरण का विवाह भी नहीं हो पाया । धीरे—धीरे उसके विवाह की आशा मन्द पड़ने लगी, किन्तु उसकी माँ अब भी अपने बेटे के विवाह के जुगाड़ में यथासामर्थ्य प्रयत्नशील थी ।

परिस्थितियों के झंझावत में फँसा हुआ चंद्रकिरण अब स्वयं मान चुका था कि उसके भाग्य में पत्नी का सुख नहीं है । अपने यौवन के एकाकीपन को उसने विधाता की इच्छा मानकर स्वीकार कर लिया था । जिस दृढ़ता से चंद्रकिरण ने अपने नीरस जीवन को अपना भाग्य स्वीकार कर लिया था उसी दृढ़ता से वह अपने चाचा के परिवार से अपनी दूरी बनाकर परायेपन का निर्वहन कर रहा था ।

समय के प्रभाव के साथ—साथ परिस्थितियाँ परिवर्तित होती रही । चन्द्रकिरण की सामाजिक परिस्थिति में भी बदलाव आया । यह एक अलग बात है कि उसकी पारिवारिक स्थिति में कुछ विशेष परिवर्तन नहीं हुआ । तब से अब तक उसके चाचा की पारिवारिक दशा में अपेक्षाकृत बहुत अधिक परिवर्तन आ चुके हैं । छः वर्ष की आयु से अब तक चंद्रकिरण नीरस और कठोर संयम का जीवन जीता रहा है, जबकि उसके चाचा का परिवार उस समय से ही एक खुशहाल परिवार रहा था । वर्षों पश्चात् चन्द्रकिरण के चाचा—चाची अपने बेटे को शहर में भेजकर अकेलेपन का जीवन जीने के लिए विवश हुए, तो चंद्रकिरण को देखकर उनके हृदय में शूल उठने लगता । शायद अब वे फूलवती को अपेक्षाकृत अधिक भाग्यशाली अनुभव करने लगे थे और माँ के प्रति श्रद्धा-भाव रखने वाला सेवाभावी बेटा चंद्रकिरण अब अपने चाचा-चाची के मानसिक कष्ट में वृद्धि करने लगा था ।

लगभग पाँच वर्ष पहले चंद्रकिरण के चाचा का देहांत हो गया था, तब से उसकी चाची घर में नितान्त अकेली रहती है । देवरानी के अकेलेपन की विभीषिका का अनुभव करके फूलवती ने उसके घर पर जाना आरंभ कर दिया था और चाची की सहायता करने के लिए अपने बेटे को भी समझाया । मां के समझाने पर चन्द्रकिरण मान गया और आवश्यकता पड़ने पर चाची की सहायता के लिए तैयार हो गया | चन्द्रकिरण के इस निर्णय से सारे गाँव में चर्चा हुई थी —— "बेगवती को उसके कर्मों की सजा मिल रही है ! अभी तो आगे—आगे देखते हैं, बेगो को कैसा नर्क भोगना पड़ेगा ! फूली के लिए यह गाँव स्वर्ग है और बेगवती के लिए नर्क !”

जैसे—जैसे समय गुजरता जा रहा था, वैसे—वैसे गाँव वालों का वचन सत्य सिद्ध होता जा रहा था | बेगवती का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा था और जयन्त को अपनी माँ के स्वास्थ्य की कोई फिक्र नहीं थी | गाँव वालों के बहुत आग्रहपूर्वक समझाने पर बेगवती का बेटा जयन्त अपनी माँ को अपने साथ शहर ले जाने के लिए तैयार हो गया | किन्तु एक सप्ताह तक बहू—बेटे के साथ रहकर बेगवती वापस गाँव लौट आयी, इस निर्णय के साथ कि भविष्य में वह कभी भी बेटे के पास नहीं जाएगी | फूलवती से बेगवती ने बताया था कि उसका पोता प्रतिदिन सुबह उसकी चारपाई सड़क के किनारे डालकर कहता था कि दादी दिन—भर खाँसती रहती है ; थूक—थूक कर घर को गंदा कर देती है, इसीलिए घर के बाहर ही इनकी सही जगह है | जयन्त और उसकी पत्नी भी अपने बेटे की उचित-अनुचित हर बात का समर्थन करते थे | वे कहते थे, यहाँ रहना है तो जैसे रखा जाए वैसे रहें और चुप रह कर अपना टाइम पास कर लें | एक दिन बेगवती ने निर्धारित समय से भिन्न समय पर खाने—पीने के लिए कुछ माँग लिया, तो बहू—बेटे ने कह दिया कि शहर में उसका निर्वाह संभव नहीं है, गाँव में वापस लौट जाए !

बेगवती की दशा को देख—सुनकर फूलवती का हृदय करुणा से भर आता था और उसके अंतःकरण में अपनी देवरानी के प्रति आत्मीयता के साथ कर्तव्य—बोध जाग जाता था । अपने हृदय की करुणा और कर्तव्य बोध से प्रेरित होकर फूलवती हर समय बेगवती की सहायता करने के लिए तत्पर रहती थी । मातृभक्त चंद्रकिरण भी अपनी माँ की आज्ञा से विवश होकर बेगवती की सहायता के लिए तत्पर रहता था । चाची की दशा देखकर उसके हृदय में करुणा का ज्वार उमड़ आता था, किंतु बेगवती अपनी प्रकृति से विवश थी । वह अब भी अवसर पाते ही अक्सर अपनी पुरानी हरकतों पर उतर आती थी । चाची के पुराने कटु व्यवहरों को देखकर चंद्रकिरण को अपना कष्टमय बचपन याद आने लगा और उसको अपनी चाची से पुनः वितृष्णा होने लगी । वह चाची से दूर—और—दूर होता चला गया | चंद्रकिरण की उपेक्षा के प्रभावस्वरूप पास—पड़ोस के अन्य परिवारों ने भी बेगवती के पास आना बंद कर दिया था ।

अब वेगवती का जीवन पूरी तरह अकेलेपन से भर गया था | अकेलेपन को काटने के लिए बेगवती भगवान के भजन गाने लगी | उसके भजन और गीत ही अब उसके एकाकीपन के साथी थे, जिनसे एक ओर उसकी व्यथा को प्रकट होती थी, तो दूसरी ओर उसकी अतृप्त ममता छलकती थी | इन सभी गीतों में वेगवती का सबसे प्रिय गीत था — "मत रोवै कन्हैया लाल मेरे तुझे चंद्र खिलौना लै दूँगी !"

धीरे—धीरे बेगवती के अतृप्त वात्सल्य ने उसको अर्द्धविक्षिप्त अवस्था में लाकर पटक दिया । छोटे—छोटे बच्चों ने विक्षिप्त वेगवती को अपने मनोरंजन का साधन बनाना आरंभ कर दिया | यदि कोई बच्चा उसकी दशा पर हँसता, तो वह उसके पीछे गाली देती हुई पत्थर का टुकड़ा लेकर मारने के लिए तो दौड़ ?पड़ती और कभी कोई बच्चा माँ कह कर पुकरता, तो वह उसे घर पर रखी खाने—पीने की वस्तुएँ देकर अपने मातृत्व को तृप्त कर लेती । कभी—कभी तो वह बच्चों के माँगने पर रुपये भी दे देती । इतनी सुध बेगवती को सदैव रहती थी कि अपने विरुद्ध बोलने वाले या अपने बेटे जयन्त के विषय में कुछ भी अप्रिय कहने वाले व्यक्ति को वह कभी घर में प्रवेश नहीं करने देती ।

चन्द्रकिरण सदैव चाची के व्यवहारों का कठोर और कटु उत्तर देता आया है । आज भी वह कहता है कि चाची पागल हो गई है, तो आज भी वह अपने बहू-बेटे के बारे में कोई गलत बात क्यों नहीं सुन पाती है ? आज भी वह अपने बेटे का हित साधने के लिए दूसरों का नुकसान करने के लिए तैयार क्यों रहती है ? चन्द्रकिरण के इस दृष्टिकोण से वेगवती नाराज रहती है, इसलिए अनेक बार उसकी माँ फूलवती को वह अपने घर से अपमानित कर के भगा देती है । यह अलग बात है कि जब कोई आवश्यकता होती है, तो वह आज भी अच्छी देवरानी बनकर निःसंकोच फूलवती से सहायता माँगने के लिए चली जाती है और उसकी दयनीय दशा से द्रवित होकर फूलवती यथासंभव देवरानी की सहायता कर देती है ।

बेगवती की शोचनीय दशा के विषय में विचार मंथन करके एक दिन फूलवती ने उसकी बेटी अर्चिता को पत्र लिखवाकर सूचना दी कि उसकी माँ बीमार है ! अर्चिता सूचना पाते ही माँ के पास आ पहुँची | माँ के पास आकर जब उसको पता चला कि उसका भाई चार छः महीने में एक आधा घंटे के लिए माँ के पास आता है ; खाने के लिए थोड़े से अनाज की व्यवस्था करता है और कृषि—भूमि को किराए पर देकर सारे रुपये स्वयं ले जाता है, तब वह बहुत दुखी हुई । उसने निश्चय किया कि वह माँ के पास रहकर अपनी माँ की सेवा करेगी ! बड़ी कठिनाई से वह महीना-भर ही अपनी माँ के पास रह पाई थी, उसके बाद ससुराल वालों ने उसे अपने घर के प्रति कर्तव्यों का स्मरण कराना आरंभ कर दिया | उसके पति ने कहा कि अपने बच्चों के प्रति तथा सास-ससुर के प्रति भी उसके कर्तव्य बनते हैं, शायद वह यह भूल गई है ! वह स्वयं भी अपने बच्चों से दूर रहकर प्रसन्न नहीं थी । अतः उस ने निर्णय लिया कि वह अपनी माँ को अपने साथ ससुराल ले जाएगी | वहाँ पर माँ की देखभाल भी कर सकती है और ससुराल के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह भी कर सकती है ! साथ ही अपने बच्चों पर भी ध्यान दे सकती है । अपने इस निर्णय के पक्ष में उसने पति को भी सहमत कर लिया और अपनी माँ को उसी दिन ससुराल ले आयी । बेटी की ससुराल जाने के लिए बेगवती सहज ही सहमत नहीं हो गई थी, बार—बार आग्रह करने पर और बहुत समझाने पर ही वह बेटी की ससुराल जाने के लिए तैयार हुई थी ।

बेगवती बेटी की ससुराल आई, तो समधी—समधिन का मधुर व्यवहार और बेटी द्वारा श्रद्धा-सहित सेवा सुश्रुषा तथा दिनभर बच्चों के निश्छल निर्मल संभाषण से महकता—गूँजता आंगन उसके लिए औषधि बन गया । उसके जीवन में रस भरने लगा और स्वास्थ्य में सुधार आने लगा | वह भूल जाना चाहती थी कि यह घर उसका नहीं है, बेटी का ससुराल है ! बेटी भी यही चाहती थी कि उसकी माँ उसके घर में उसी प्रकार अपनापन अनुभव करें, जिस प्रकार अपने घर में करती थी | शारीरिक रूप से तो बेगवती पहले ही स्वस्थ थी, अब धीरे धीरे उसके मानसिक स्वास्थ्य में भी सुधार हो रहा था । अब वह अपने वीरान घर में नहीं जाना चाहती थी, लेकिन शायद विधाता ने उसके भाग्य में उस वीरान घर में रहना ही लिखा था । जब उसके बेटे जयन्त को यह ज्ञात हुआ कि उसकी माँ अर्चिता की ससुराल गई है, वह तुरंत माँ की कुशल—क्षेम पूछने के लिए वहाँ आ धमका | उसने आते ही माँ से कहा —— "माँ, बेटी की ससुराल में रहते हुए आपको शर्म नहीं आई ? या अपने बेटे को बदनाम करने के लिए यहाँ चली आई ? मैं आपको अपने साथ शहर लेकर गया था, वहाँ तो आप नहीं रह सकी ! आप यहाँ पर सुख—चैन से रह रही हैं ! वहाँ, गाँव मुझ पर थूक कर रहा है ! यही चाहती थी न आप ! माँ की मंशा पर सवाल उठाने के बाद जयन्त अपनी बहन की और मुड़ा —— " माँ को यहाँ किस हक से लाई है तू ?"

अर्चिता कुछ नहीं कह सकी । उसकी सास ने जयन्त के प्रश्न का उत्तर दिया —— "वेगवती अर्चिता की भी माँ है, तेरी अकेले की माँ नहीं है ! अर्चिता यहाँ पर अपनी माँ को हक के लिए नहीं, उस फ़र्ज के लिए लायी है, जो तेरा फ़र्ज़ था, पर तूने निभाया नहीं ! समझ में आ गया होगा अब तुझे !"

जयन्त ने अर्चिता की सास की बातों पर ध्यान नहीं दिया | वह अर्चिता की ओर मुड़कर बोला —— " अर्चिता, मैं जानता हूँ, माँ को यहाँ लाने के पीछे तेरा क्या इरादा है ? तू उस जमीन को हड़पना चाहती है, जो माँ के नाम पर है ! तेरे मन में माँ की सेवा का भाव नहीं है, जमीन का लालच है ! मैं तेरे लालच को पूरा नहीं होने दूँगा !" बेटे के कड़वे शब्द कान में पड़ते ही बेगवती उठ खड़ी हुई और अपने कपड़े समेटने लगी | माँ को वापिस जाने की तैयारी करते हुए देखकर बेटी का हृदय रो उठा | आँखों से पानी की बूंदे टपकने लगी | उसने रुँधे गले से कहा ——

" माँ, तुझे भी लगता है, मैं तेरी देखभाल जमीन के लालच में कर रही हूँ ? नहीं, माँ ! मैं लालची नहीं हूँ ! मैं तुझे यहाँ इसलिए लाई थी कि तेरा अकेलापन दूर हो सके !"

" आज मेरा बेटा मुझे लेने आया है, मेरा जाना ही ठीक है !" माँ ने भावशून्य मुद्रा में कहा | बीना ने माँ को बहुत समझाया ; पुनः पुनः प्रार्थना की कि वे वहाँ से न जाएँ ! वह चाहती थी कि निर्लोभी और माँ के प्रति सेवाभावी उसके चरित्र को उसकी माँ समझे ; उसके साथ रहे ताकि वह अपनी माँ के वृद्धावस्था के कष्टों को किसी सीमा तक कम कर सके । वह माँ को समझाने का प्रयास करती रही और माँ अपने कपड़े एक बैग में भरती रही । जयन्त ने एक बार पुनः माँ से कहा —

" माँ जल्दी करो, आप को घर पर छोड़ कर मुझे ड्यूटी भी जाना है !” बेटे की ओर से जल्दी चलने का आदेश मिलते ही बेगवती ने अपने कपड़ों से भरा हुआ बैग बेटे की ओर सरकाते हुए संकेत दे दिया कि वह तैयार है | अर्चिता की सास ने अब तक जयन्त के लिए नाश्ता तैयार कर दिया था | सास का आदेश पाकर अर्चिता ने अपने भाई से तथा माँ से आग्रह किया कि वे नाश्ता करके जाएँ, किंतु जयन्त ने बहन के आग्रह को ठुकराते हुए क्रोध में भरकर कहा —

" तू मुझे छलती रहे ; मेरी पीठ में छुरा भौंकती रहे और मैं तेरे घर नाश्ता करूँ ! मूर्ख समझा है मुझे ! पीठ में छुरा भोंकने वाली बहन के घर अब एक पल रुकना या अन्न—जल का एक कण भी ग्रहण करना हम पर लानत है !"

भाई के रूखे व्यवहार से अर्चिता के हृदय में पीड़ा का ज्वार उठने लगा । उसके अंतःकरण में अनेक संकल्प—विकल्प उभरने लगे —— " क्या चाहती थी मैं ? बस इतना ही न कि माँ की ठीक प्रकार से देखभाल हो सके ! मैं भी उसी कोख से जन्मी हूँ, जिससे भाई जन्मा है ! मुझे पैतृक सम्पत्ति में कोई अधिकार नहीं मिल सकता , यह समाज और कानून की व्यवस्था है, पर एक बेटी को माँ की देखभाल करने से भी वंचित कर देना अन्याय की अति है | यह अन्याय भाई के उस भय का परिणाम है, जो लड़के—लड़की के भेदभावपूर्ण संपत्ति—विभाजन से उत्पन्न हुआ है | पिता की संपत्ति में यदि मेरा भी कानूनी अधिकार होता, तो क्या तब भी भाई माँ को इस प्रकार यहाँ से ले जाता ? नहीं ! तब वह माँ के प्रति मेरे कर्तव्य की मुझे याद दिलाता और कहता कि मैं उसके बराबर संपत्ति की हकदार हूँ, तो माँ की सेवा चाहे—अनचाहे मुझे करनी ही पड़ेगी ! लेकिन आज माँ के प्रति मेरे अधिकार, कर्तव्य और सेवा—भाव पर प्रश्न उठा रहा है ! माँ ने भी भाई का प्रतिवाद नहीं किया ! भाई के आने से पहले वह मेरे साथ संतुष्ट थी ; प्रसन्न थी ; माँ के हृदय में मेरे प्रति न कोई शिकायत थी न शंका ! पर भाई के आते ही वह अपना बैग बांध कर उसके साथ चल दी । क्या वह भी मुझे लोभी मानती हैं ? मेरी श्रद्धा और सेवा पर संदेह करती है ? नहीं, मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए ! माँ को अपनी बेटी पर पूरा विश्वास है ! पूरा विश्वास है, तो माँ कुछ कहे बिना तुरंत भाई के साथ चलने के लिए क्यों तैयार हो गई ? शायद माँ भाई के इस आरोप को सहन नहीं कर सकी थी कि वह अपने बेटे को बदनाम करना चाहती हैं ; शायद माँ भाई का यह आरोप नहीं सह सकती थी कि मैं उनकी देखभाल जमीन के लालच में कर रही हूँ ! पर माँ का भाई के साथ जाने का निर्णय ठीक नहीं था ! भाई माँ की देखभाल अच्छी प्रकार नहीं कर सकता है ! संभव है कुछ दिन तक माँ को अपने साथ रख कर उनकी देखभाल करें और कुछ दिन बाद पुनः उनको गाँव में अकेले छोड़ दे ! अपने संकल्पों—विकल्पों में उलझती हुई अर्चिता सिर पकड़कर बैठ गयी | इसके अतिरिक्त उसके पास कोई रास्ता नहीं था | एक बार उसने सोचा कि यदि भाई ने माँ को गाँव में अकेली छोड़ा, तो वह पुनः माँ की देखभाल करने के लिए अपने पास ले आएगी । किंतु जाते समय दोबारा ऐसा नहीं करने की भाई की चेतावनी ने अर्चिता के इस विचार की धार को कुंद कर दिया |

अर्चिता का अनुमान शत——प्रतिशत सत्य सिद्ध हुआ | जयन्त माँ को मात्र एक दिन अपने साथ रख सका | अगले दिन वह उन्हें गाँव में छोड़कर उसी दिन शाम को शहर वापिस चला गया | जाते—जाते जयन्त ने अपनी माँ की देखभाल का भार अपने पड़ोसियों पर डालते हुए कहा था कि उसकी माँ का ध्यान रखें !

बेगवती पुनः अकेलेपन में जीने के लिए मज़बूर हो गयी थी | धीरे—धीरे वह इस अकेलेपन से हारने लगी और स्वस्थ होती हुई मानसिक दशा बहुत जल्दी बिगड़कर पहले जैसी हो गयी | उसकी नाजुक होती हुई हालत को देखकर फूलवती ने अपने बेटे चंद्रकिरण से कहा कि वह अर्चिता को सूचना दे कर उससे बात करे ! चंदकिरण ने न चाहते हुए भी अर्चिता से बात की, तो उसने जयन्त के रूखे व्यवहार, उसके द्वारा लगाए गये आरोपों तथा माँ को उसके घर से लेकर जाते समय दी गई चेतावनी के विषय में बताया । अर्चिता ने यह भी बताया कि उसके पति ने स्पष्ट शब्दों में कहा है —— “माँ की सेवा करना अच्छी बात है, उसमें हमें कोई आपत्ति नहीं है । किंतु नरेश का जमीन हड़पने के इरादे का आरोप असह्य है ! माँ ने भी जयन्त के आरोपों का प्रतिवाद नहीं किया था, वह चुपचाप उसके साथ चली गई थी | संभव है वह भी जयन्त से सहमत हों !"

पति की सहमति के बिना माँ को अपने साथ ससुराल में रखकर उनकी देखभाल करना अर्चिता के लिए संभव नहीं था | मायके में भाई का आरोप और ससुराल में पति पर आश्रित ! इन दोनों बाधाओं को पार करके माँ की देखभाल कैसे की जाए ? अर्चिता के समक्ष यह यक्ष प्रश्न था । उसके मस्तिष्क में बार—बार बस एक ही विचार आ रहा था —

"काश ! आज मैं आत्मनिर्भर होती, तो मैं भी थोड़ी—सी स्वतंत्र होती और अपनी माँ की देखभाल करने का निर्णय मैं स्वतंत्रतापूर्वक स्वयं कर सकती ! काश ! समाज और कानून ने मुझे भी भाई के समान अधिकार दिये होते, तो भाई मुझ पर आरोप लगाकर माँ को यहाँ से ना ले जाता और माँ चुपचाप उसके साथ नहीं चली जाती ! कानून और सामाजिक व्यवस्था से उत्पन्न अपनी विवशता के कारण अर्चिता अपनी माँ को न ससुराल ले जा सकती थी और न ही माँ के पास रहकर उनकी सेवा कर सकती थी | अतः महीने में एकाध दिन के लिए वह माँ से मिलने के लिए आने लगी ।

बेचारी बेगवती अकेलेपन से जूझती हुई पास—पड़ोस वालों पर निर्भर होकर भगवान के भजन गाकर अपने पागलपन के साथ जीवन बिताने लगी | पास पड़ोसियों को चिंता रहने लगी कि किसी दिन बेगवती के प्राण पखेरु उड़ जायेंगे, तो पता भी नहीं चलेगा | घर में अकेली पड़ी हुई बेगवती के मृत शरीर में दुर्गंध होने पर ही लोगों को सूचना ना मिले, इसलिए बेगवती की गालियाँ सुन—सुनकर भी फूलवती दिन में एक दो बार देवरानी की खैर—खबर ले ही लेती थी, कभी दीवार के ऊपर से झाँककर, तो कभी दरवाजे से आकर | आज सुबह ही बेगवती के गीत गाने और स्वयं से ही बातचीत करने या अन्य किसी प्रकार की कोई हरकत ना होने पर फूलवती को किसी अनहोनी की आशंका हुई थी | वह कई बार दीवार पर आकर बेगवती को पुकार चुकी थी, पर किसी प्रकार की कोई प्रतिक्रिया न पाकर फूलवती की आशंका बढ़ती ही जा रही थी | अब से पहले भी कई बार ऐसा होता था, जब वेगवती से फूलवती को कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलती थी, किंतु बर्तन खड़कने या बेगवती के स्वगत बड़बड़ाने से ही फूलवती को संतोष हो जाता था | आज ऐसी किसी प्रकार की ध्वनि भी नहीं आ रही थी, तो फूलवती ने एक बार फिर दीवार पर जाकर पुकारा ——

"बेगो ! बेगो ! कहाँ चली गई है ? अरी, ठीक तो है तू !

उत्तर में किसी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं मिलने पर फूलवती की चिन्ता बढ़ गई | वह मन ही मन कहने लगी —— " फूली, जाकर देख, बेगो जिंदा भी है या...! चंदू आ जाए तभी देखूँ या पहले ही जाऊँ ? आने ही वाला है चंदू अब, उसे रोटी—पानी की बूझके जाऊँगी, तो ठीक रहेगा | ऐसा ना हो, मैं घर न मिलूँ, तो चंदू का मूड़ बिगड़ जाए ! "

बेटे का मूड़ बिगड़ने का भय भी उचित ही था । चंदू गाँव से बारह किलोमीटर की दूरी पर स्थित भोले के मंदिर में पैदल चलकर जल चढ़ाने के लिए गया था | आज ही नहीं, हर सोमवार को चन्द्रकिरण या उसकी माँ भोले पर जल चढ़ाने के लिए पैदल चलकर जाते हैं | गाँव वाले उनकी आस्था पर हंसते हैं —— "फूली काकी मरते दम तक अपने घर में बहू लाने का सपना जिंदा रखेंगी और चंदू भी माँ का सपना पूरा करने के लिए नंगे पाँव जाकर भोले को दूध से तब तक नहलाता रहेगा, जब तक भोलेनाथ उसकी माँ की झोली में बहू का दान न डाल दें !"

फूलवती और चंद्रकिरण पर गाँव वालों के उपहास का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था | माँ-बेटे के एकरस जीवन में भोले की आस्था का जैसा सहारा था, वैसा अन्य कोई सहारा नहीं था | भोले के प्रति आस्था ही उन्हें बेगवती के प्रति अपने कर्तव्य का बोध कराती थी और जीने का बहाना भी भोले का नाम ही था ।

चंदू के आते ही फूलवती ने थाली में रोटी—सब्जी परोसकर उसको बेगवती के विषय में बताया और शीघ्रतापूर्वक घर से बाहर निकल गयी | घर से निकलते ही फूलवती एक पड़ोसन को लेकर बेगवती के घर पहुँची | वहाँ जाकर उन दोनों ने देखा — बेगवती चारपाई से नीचे पड़ी थी । उसक़ी साँसें और धड़कनें बंद हो चुकी थी और मुँह पर मक्खियाँ भिनभिना रही थी । इस समय इन दोनों ने बेगवती के विषय में परस्पर एक शब्द भी मुँह से नहीं कहा न कान से सुना और अपने मन ही मन में प्रश्न करती रही — “ पता नहीं कब से मृत पड़ी है ? शायद रात में प्राण निकले होंगे ? हो सकता है कल शाम ही प्राण निकल गए हों ?” फूलवती ने अपनी हथेली से वेदवती की खुली आँखों को बंद किया और मुँह पर भिनभिनाती मक्खियों को उड़ाकर मुँह पर कपड़ा डालकर कमरे में से ही चंदू को पुकारा ——

"अरे चंदू ! बच्चा, तेरी चाची गई !" यह कहते हुए फूलवती की आँखों में आँसू उमड़ आए । वह होंठों ही होंठों में बड़बड़ाने लगी —— " पता नहीं, भोलेनाथ मुझे कब तक कष्ट झेलने कू जिंदा रखेंगे ! भगवान, मेरे चंदू का घर बसा के मुझे भी उठा ले !" माँ की आवाज सुनते ही चंद्रकिरण भोजन को छोड़कर दौड़ा आया । चाची के निकट जाकर उसने निश्चित किया, माँ का कथन सौ प्रतिशत सत्य है ! तत्पश्चात् उसने पास—पड़ोसियों को यह शोक समाचार दिया और बेगवती के बेटे जयन्त को सूचना दी |

शाम के पाँच बजे तक पास—पड़ोस के अनेक लोग बेगवती के घर पर बैठकर जयन्त की प्रतीक्षा करते रहे | कुछ लोगों ने अपना विचार प्रकट किया कि उसके आने तक दाह-संस्कार की तैयारी कर लेनी चाहिए, ताकि सूर्यास्त होने के पहले ही दाह संस्कार किया जा सके | अधिकांश लोगों का मत इसके विपरीत था | उनका कहना था कि जयन्त के दिमाग और जुबान का विश्वास नहीं किया जा सकता, वह किसी व्यक्ति पर कब कौन सा आरोप लगा दे |

कुछ समय तक इसी विषय पर वाद—विवाद चलता रहा | अंत में चन्द्रकिरण ने आगे बढ़ कर कहा— “दाह संस्कार तो करना ही है, इसलिए जयन्त के आने तक सभी तैयारियां कर ली जाएँ, तो बेहतर होगा !” चन्द्रकिरण के आगे आते ही गाँव के अनेक लोग उसके साथ आ गये और दाह संस्कार की तैयारियां करने में जुट गये | शाम के छः बजे जयन्त अपनी पत्नी के साथ गाँव पहुँचा | आते ही जयन्त की पत्नी ने मल्हार—मल्हार कर शोक मनाया और आँसू भी बहाये | दाह-संस्कार की पूरी तैयार देखकर जयन्त के चेहरे पर क्षण-भर के लिए गाँव वालों के प्रति कृतज्ञता के भाव उभर आये | अगले क्षण उसके कानों में किसी वृद्ध व्यक्ति का स्वर गूंज उठा —— "चलो-चलो, जल्दी करो ! अब तो बेगवती का बेटा भी आ गया है, जिसकी बाट जोह रहे थे ! सूरज डूबने से पहले ही दाग देना ठीक रहेगा, नहीं तो सारी रात बेगवती की लाश घर में रखनी पड़ेगी !" वृद्ध के शब्द कानों में पड़ते ही जयन्त के चेहरे से कृतज्ञता के भाव ऐसे गायब हो गये, जैसे तूफान आने पर आकाश से बादल गायब हो जाते हैं । वह क्रोध से भड़क उठा ——

" मेरी माँ का देहान्त हुआ है और आप लोगों को दाग का काम निबटाने की जल्दी पड़ी है ! मैंने अपने बहू-बेटे को फोन कर दिया है ! वे दोनों माँ के अंतिम दर्शन कर लेंगे, तब ही मेरी माँ का दाह संस्कार होगा ! आप में से किसी को भी यह निर्णय करने का हक नहीं है कि मेरी माँ का दाह संस्कार कब होगा ? यह अधिकार केवल मुझे और मेरे बेटे को है ।”

जयन्त का कथन सत्य था, किंतु कटु था और मर्यादा का उल्लंघन करते हुए कहा गया था | यह सभी जानते थे और स्वयं जयन्त भी जानता था कि वहाँ पर उपस्थित कोई भी व्यक्ति उसके अधिकार-क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर रहा था, बल्कि सभी लोग उसकी सहायता करने के लिए अपना—अपना काम छोड़ कर यहाँ पहुँचे थे | दोपहर से वे सभी अपने घर का महत्वपूर्ण काम छोड़कर एक व्यक्ति की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना कर रहे थे, लेकिन जयन्त के अभद्र व्यवहार तथा कटु शब्दों को सुनकर धीरे-धीरे लोग वहाँ से खिसकने लगे । दस मिनट में पूरा घर खाली हो गया | अगले दिन दोपहर लगभग ग्यारह बजे जब जयन्त का पुत्र और पुत्र—वधू वहाँ पहुँचे, तब बेगवती का दाह-संस्कार किया गया ।

दाह-संस्कार करने के बाद विधिवत अंत्येष्टि-संस्कार संपन्न करने के विषय में चर्चा करने के लिए पुरोहित को घर पर बुलाया गया | चर्चा चल रही थी, तभी घर के अंदर से आवाज आई — "पंडित जी, तेरहवीं और बरसी वगैरा की सारी रस्में आज ही पूरी करा लेना ! शहर में घर को अकेला छोड़कर हमारे लिए यहाँ रहना बड़ा कठिन हो जाएगा ! बेटे की भी छुट्टियाँ नहीं है, जिसने दाग लगाया है ! अब आप ही बताइए, इतने दिनों तक कोई अपना काम छोड़ कर यहाँ कैसे रह सकता है ?"

" आपका कहना ठीक है ! पर तेरहवीं तो तेरह दिन में ही होती है |" पंडित जी ने विनम्रतापूर्वक कहा।

" पंडित जी, नए युग में सब कुछ नए ढंग से होता है ! कंप्यूटर का जमाना है अब ! जो काम पहले वर्षों में होते थे, अब कंप्यूटर मिनटों में कर देता है ! आप अभी तक पुरानी बातों में पड़े हुए हैं !" इस बार जयन्त के बेटे ने पंडित जी को तर्क दिया |

" पर बेटा, पूर्वजों के श्राद्ध-तर्पण तो श्रद्धा से किये जाते हैं !"

" पंडित जी ! आप अपनी दक्षिणा लीजिए और जैसे आप चाहें वैसे कर लीजिए !" जयन्त के बेटे ने कहा |

" बेटा, तर्पण तो तुम्हारे हाथों से ही होना चाहिए !"

" पंडित जी, विदेशो में रहने वाले लोग इंटरनेट पर तर्पण कर देते हैं, हम तो फिर भी यहाँ तक आए हैं ! आप अगले एक घंटे में सभी रस्में पूरी कर लीजिए, इसका आपको पूरा पारिश्रमिक मिलेगा ! आप कर सकते हैं, तो बताइए, वरना हम किसी दूसरे पंडित से करा लेंगे ! दैट्स ऑल !"

" ठीक है, बाबूजी ! आप मेरी दक्षिणा दे दीजिए, बाकी जैसा आप चाहेंगे वैसा ही हो जाएगा ! जैसा आप और आपकी मम्मी चाहते हैं, मैं आज ही यहाँ की सारी रस्में पूरी कर दूँगा और शेष रस्में मैं मंदिर में कर लूँगा !"

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