चुनौती
डॉ. कविता त्यागी
एक छोटे-से कस्बे में जन्मी नीना की बुद्धि बचपन से ही बहुत प्रखर और सपने बहुत बड़े थे । पुरुष-सत्तात्मक समाज में स्त्री की दोयम दशा को देखकर एक स्त्री के रूप में अपने अस्तित्व को सिद्ध करने की महत्त्वाकांक्षा का बीज बचपन में ही उसके मनःमस्तिष्क में अंकुरित हो गया था । समय के बीतने के साथ जैसे-जैसे वह बड़ी होती गयी, वैसे-वैसे उसकी यह आकांक्षा भी अधिक बलवती होती गयी ।
शाम के लगभग तीन बजे थे | रविवार की छुट्टी होने के कारण उस दिन हम सभी घर पर मौजूद थे और घर का सारा काम संपन्न करके सब साथ बैठकर गप्पे मार रहे थे । अचानक हमारे दरवाजे पर दस्तक हुई । मैं दरवाजा खोलने के लिए उठ खड़ी हुई, किन्तु मुझे रोकते हुए मेरे पति यह कहकर दरवाजे की ओर बढ़ गये — " रुको तुम, मैं देखता हूँ ! "
'कौन आया होगा इस समय ?' यह जानने के लिए मैं वहीं रुक गयी और उत्सुकता के साथ दरवाजे की ओर टकटकी लगाकर आगन्तुक की प्रतीक्षा करने लगी । दरवाजा खोलकर कुछ क्षणोपरान्त पति वापिस लौटे, तो उनके साथ हमारे पड़ोसी गुप्ताजी ने चिन्ता के भार से बोझिल चेहरा लिए हुए प्रवेश किया । गुप्ताजी के प्रवेश के साथ ही हमारे गप्पों का सिलसिला रुक गया और बातों का विषय गम्भीर हो चला । बच्चे, जो अभी तक हरेक बात में अपनी प्रबल उपस्थिति दर्ज करा रहे थे, अब धीर—धीरे वहाँ से हटने लगे |
गुप्ताजी और हम वर्षों से एक—दूसरे के पड़ोसी रहे हैं, किन्तु विवाह आदि उत्सवों-कार्यक्रमों के अलावा उन्होंने कभी हमारे घर के अन्दर प्रवेश किया हो, मुझे स्मरण नहीं है | जब कभी गुप्ताजी को अपने घर या ऑफिस से सम्बन्धित किसी कार्य के विषय में इनके साथ कोई आवश्यक चर्चा करनी होती है, तब प्रायः वे इन्हें (मेरे पति को) आवाज देकर बाहर ही बुला लेते हैं । आज हमारे घर में कोई उत्सव नहीं था, फिर भी सामान्यतः घर के अन्दर न आने वाले गुप्ताजी आज हमारे घर आये थे, वह भी बिना किसी पूर्व सूचना के, ललाट पर चिन्ता की रेखाएँ तथा चेहरे पर उदासी लेकर । यह देख—सोचकर हम सभी चिन्तित हो उठे ; हमारे चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी | औपचारिक अभिवादन—शिष्टाचार का निर्वाह करने के पश्चात् बातचीत का सिलसिला आरम्भ हुआ, सामान्य गति से आगे बढ़ा और धीरे—धीरे समाप्त भी हो गया । लगभग एक घंटे तक चली बातचीत का सार यही था कि मंहगाई के इस युग में आम जन के लिए जीवन की आवश्यक आवश्यकताओं को पूरा करना बहुत कठिन हो गया है । इस एक घंटे की चर्चा में मध्यमवर्गीय किसी भी आम व्यक्ति के सन्दर्भ में होने वाली प्रत्येक बात गुप्ताजी के मर्म को आहत कर रही थी और वे बड़ी ही सफाई से अपनी मनोदशा को छिपाने के प्रयास में सफल हो जाते थे । उनकी शोचनीय स्थिति का हमें भी तब आभास हुआ, जब उन्होंने कहा ——
" भाई साहब ! आप तो जानते ही हैं, नौकरी छूटने के बाद मैंने अपना काम शुरू किया, पर पूँजी की कमी के कारण वह काम अभी बढ़िया नहीं चल रहा है और सिर पर कर्ज का बोझ इतना बढ़ चुका है कि साँस तक लेना दूभर हो गया है | "
" गुप्ताजी, तनाव लेने से कुछ नहीं होगा | आप बस ऐसे ही मन लगाकर काम करते रहिए, सब कुछ ठीक हो जाएगा, आप कर्ज भी चुका दोगे ! "
" भाई साहब, आज मेरे खाते में चैक से कुछ रुपये आने की आशा थी | इसी आशा के सहारे मैंने अपने किसी मिलने वाले को उसके पैसे लौटाने का वचन दे दिया, पर वह चैक बाउंस हो गया | यदि आप मुझे कुछ दिन के लिए दस हजार रुपये दे सकें तो ......! बड़ी आशा और विश्वास लेकर आपके पास आया हूँ, निराश मत कीजिएगा ! प्लीज... !!!" गुप्ताजी ने दयनीय मुद्रा में कहा |. उनके व्यवहार में विनय और आँखों में चिंता इतनी अधिक थी कि मेरे पति ने उन्हें उसी क्षण दस हजार रुपये दे दिये | यद्यपि वे रुपये घर में अति आवश्यक कार्य के लिए रखे हुए थे, तथापि एक पड़ोसी की विषम परिस्थिति में सहायता से अधिक आवश्यक कार्य मेरे पति के लिए कुछ नहीं हो सकता था |
मुझे बाजार से रसोई का कुछ सामान लाना था | गुप्ताजी को विदा करने के बाद पति को घर पर बैठे छोड़कर मैं बाजार चली गयी | अगले दिन करवाचौथ का त्योहार था, इसलिए बाजारों की रौनक अपने चरमोत्कर्ष पर थी | प्रत्येक दुकान पर सामान खरीदने वालों की विशेष भीड़ थी, जहाँ से बहुत ही कष्टपूर्वक मैंने अपने घर की आवश्यकता का सामान खरीदा | उससे भी अधिक भीड़ थी पार्लर में | वहाँ आने वाली सभी स्त्रियाँ अपने सौन्दर्य में चार चाँद लगाने के लिए आतुर दिख रहीं थीं | मेंहदी लगाने वालों की दुकानों पर तो सौभाग्यवती स्त्रियों की भीड़ और भी अधिक थी | मैंने देखा, स्थायी जूस कॉर्नर के बाहर निकट ही सड़क पर मेंहदी की एक अस्थायी दुकान लगी है, जहाँ स्टूल पर बैठे कुछ लड़के मेंहदी लगा रहे हैं | मैं कुछ और अधिक निकट गयी, देखा, सभी लड़के सुन्दर डिजाइन बनाकर मेंहदी लगा रहे थे, लेकिन भीड़ बहुत अधिक थी | स्टूल पर बैठकर कुछ स्त्रियाँ हाथों की उंगलियों के नाखूनों से बाजू और कंधों तक तथा पैरों के नाखूनों से घुटनों तक मेंहदी से डिजाइन बनवा रही थी, तो कुछ स्त्रियाँ लम्बी पंक्ति में खड़ी होकर अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रही थी | मैंने मेंहदी लगा रहे एक लड़के से पूछा — " भैया, मेंहदी लगाने का कितना रुपया लेते हो ? " " डिजाइन के हिसाब से और जितना मेंहदी लगवाओगे, उस हिसाब से —— दो सौ, पाँच सौ, एक हजार, दो हजार !"
मैं उस लड़के से बातें कर रही थी, तभी पीछे से किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा | पीछे मुड़कर मैंने देखा, गुप्ताजी की पत्नी नीनाजी कह रही थी —— " भाभी, यहाँ बैठकर मेंहदी लगवाओगी ? मेरे साथ चलो पार्लर में, वहाँ ए सी रूम में बैठकर आराम से सारा शृंगार कराना |"
नीनाजी के साथ मैं पार्लर में गयी, वहाँ पर मेंहदी लगाने का शुल्क डिजाइन के अनुसार एक हजार से पाँच हजार तक था | फेशियल, ब्लीचिंग, मसाज आदि के साथ हल्का—फुल्का शृंगार करने का चार्ज दस हजार से कम नहीं था | इतनी बड़ी धनराशि सौंदर्य— प्रसाधनों पर एक ही दिन में व्यय करने के विचार मात्र से मैं विचलित हो गयी | अतः श्रीमती गुप्ता को वहीं पर छोड़कर मैं यथाशीघ्र अपने घर लौट आयी और अन्य सामान्य दिनों की भाँति घर के काम करने में जुट गयी |
अगले दिन दोपहर के लगभग ग्यारह बजे गुप्ताजी के घर के बाहर एक व्यक्ति ने अचानक आकर यह कहते हुए हंगामा कर दिया कि गुप्ताजी ने दो वर्ष पहले मुझसे लाखों रुपये उधार लिये थे, जिसकी पहली किश्त आज देने का वचन दिया था, पर हमेशा की तरह आज भी यह अपने वचन से पलट रहा है | वह गुप्ताजी के लिए अपमानजनक शब्दें का प्रयोग करते हुए भद्दी—भद्दी गालियाँ देने लगा | धीरे—धीरे वहाँ पर भीड़ एकत्र हो गयी | भीड़ में से कुछ लोग विषय को समझने का प्रयास कर रहे थे, कुछ लोग उस व्यक्ति के अभद्र व्यवहार की भर्त्सना कर रहे थे, परन्तु गुप्ता जी सबकुछ देख—सुनकर भी मौन रहकर अपराधियों की भाँति सिर झुकाये हुए खड़े थे | कॉलोनी वालों के लिए वह व्यक्ति सर्वथा अपरिचित था और गुप्ताजी के शील—स्वभाव से हम सब भली—भाँति परिचित थे, इसलिए गुप्ताजी के साथ सभी की सहानुभूति थी | उन सबका प्रतिनिधित्व करते हुए मेरे पति ने आगे बढ़कर कहा ——" गुप्ताजी, एक बाहरी व्यक्ति घर पर आकर इतनी अभद्रता करे, यह असहनीय है ! आप कुछ कहिए, हम सब आपके साथ हैं ! " " हाँ, हाँ, हम सब आपके साथ हैं ! "—— भीड़ का समवेत स्वर गूंज उठा | किन्तु गुप्ताजी अभी भी मौन थे | कुछ देर तक गाली—गलौंच करके वह व्यक्ति चला गया | धीरे—धीरे भीड़ भी छँट गयी | तब गुप्ता जी का मौन टूटा — " भाई साहब, आज वह सज्जन मुझे गालियाँ दे रहे थे, क्योंकि मैंने उनसे लिया हुआ पैसा समय पर नहीं चुकाया ! उन्होंने मेरे बुरे वक्त पर मेरा साथ दिया था, पर मैं .... ! कल मैं आपसे दस हजार रुपये उन्हें देने के लिए ही लाया था, लेकिन ..... !"
" लेकिन ...? आपने उन्हें रुपये नहीं दिये ? क्यों ? "
"....... !" गुप्ता जी एक लम्बी साँस लेकर मौन आह के रूप में निश्वास छोड़ते हुए चुप हो गये | उस समय गुप्ताजी की मौन आह और उदासी के सागर में डूबी हुई उनकी आँखों ने एक दिन पहले का दृश्य मेरी स्मृति में पुनः चित्रित कर दिया, जब गुप्ताजी हमारे घर आये थे और उसके कुछ घंटे पश्चात ही श्रीमती गुप्ता मुझे पार्लर लेकर गयी थी |
गुप्ता जी की पीड़ा का अनुभव करके मैं पिछले दिन की घटनाओं को पूर्वापर संश्लिष्ट करते हुए अनुमान लगाने लगी, हो न हो आज की घटना का कारण कल पार्लर में किया गया अपव्यय है ! किन्तु, ऐसी विषम परिस्थिति में किसी के लिए उपदेश अथवा टिप्पणी करना उचित नहीं है, यह सोचकर मैं चुप रही और सहानुभूति प्रकट करके कुछ समय पश्चात उनके व्यक्तिगत जीवन में रुचि न दिखाने के व्यवहारिक औचित्य का निर्वाह करते हुए हम अपने घर लौट आये |
गुप्ताजी के घर से आने के पश्चात हम उनकी विषम परिस्थिति के विषय में ही बातें कर रहे थे कि तभी अप्रत्याशित ढंग से रोने—चीखने का स्वर सुनायी दिया | वास्तविकता का अनुमान करने के लिए दरवाजा खोलकर हम बाहर निकले, तो पता चला कि रोने —चीखने का स्वर गुप्ताजी के घर से आ रहा है | तत्पश्चात् शीघ्रातिशीघ्र हम तथा कुछ अन्य पड़ौसी उनके घर पहुँच गये | वहाँ जाकर हमने देखा, श्रीमती नीना गुप्ता की हथेलियों तथा बाहों पर रक्त छलछला था | वह निरन्तर चीख—चीखकर रो रही थी | ऐसा प्रतीत हो रहा था कि दम्पति के परस्पर सामान्य क्रोध ने असामान्य रूप धारण कर लिया है | नीनाजी की भयाक्रान्त अश्रुपूरित आँखों में अनिष्ट की आशंका स्पष्ट दिखायी पड़ रही थी, क्योंकि फर्श पर रक्त बह रहा था और गुप्ता जी धरती पर पड़े हुए छटपटा रहे थे | उनके मुँह से आवाज नहीं निकल पा रही थी, धीरे—धीरे उनकी चेतना लुप्त हो रही थी और शायद अधिक रक्तस्राव होने के कारण बहुत ही शीघ्र गुप्ताजी अचेत हो गये |
परिस्थिति की संवेदनशीलता के अनुरूप अधिकांश पड़ौसी पूर्णतः समर्पित भाव से सहयोग के लिए तत्पर रहते हुए तथा कुछ औपचारिकता का निर्वाह करते हुए तुरन्त ही गुप्ताजी को अस्पताल लेकर चल दिये और उनके नाते—रिश्तेदारों को फोन द्वारा सूचना देकर स्थिति से अवगत करा दिया गया | श्रीमती गुप्ता रोती—चीखती हुई अस्पताल गयी | वह तब तक निरन्तर रोती रही, जब तक उनके निकट सम्बन्धी वहाँ पहुँचे | श्रीमती गुप्ताजी की हथेलियों और बाँहों से अब तक रक्त छलक रहा था | पड़ोसियों, मित्रों सहित उनके सभी निकट सम्बन्धियों ने उनसे मर्रहम—पट्टी कराने का आग्रह किया, किन्तु उन्होंने किसी की न सुनी | मैनें उनसे पूछा ——
" नीनाजी, कैसे हो गया यह सब ? कल तक तो सबकुछ ठीक था ! जो हुआ, सो हुआ, अब अपने रक्तस्रावित हाथों पर दवाई लगवाकर पट्टी क्यों नहीं बँधवा रही हो ? " श्रीमती गुप्ता ने कोई उत्तर नहीं दिया | बस, भाव शून्य दृष्टि से मुझे घूरती रही | कुछ क्षणोपरान्त वह वहाँ से उठकर किसी से कुछ बोले बिना बाहर की ओर चल दी | मैंने पूछा, "कहीं जा रही हो ?" "हाँ ! अभी, जल्दी ही लौट आऊँगी !" मैं श्रीमती गुप्ता को जाते हुए तब तक देखती रही, जब तक वह मेरी आँखों से ओझल नहीं हो गयी और उसी क्षण से उनके लौटने की प्रतीक्षा भी करने लगी | मेरी प्रतीक्षा के क्षण मिनट में और मिनटस् घंटे मे परिवर्तित होने लगे, किन्तु, वह नहीं लौटी | तब श्रीमती गुप्ता की संवेदना और समझ—बूझ पर संदेहात्मक दृष्टिकोण से मैं सोच रही थी, "कैसी औरत है यह ! कल पति द्वारा आवश्यक कार्य के लिए उधार लेकर रखे हुए दस हजार रुपये साज—शृंगीर पर खर्च कर दिये ; आज उस व्यक्ति से अपमानित होने के पश्चात पति ने आवेश में कुछ कह दिया होगा, तो श्रीमती जी ने अपने हाथों को घायल कर लिया ! अब पति अस्पताल में मृत्यु से संघर्ष कर रहा है और पत्नी घायलावस्था में .......!"
धीरे—धीरे नीनाजी के अस्पताल से जाने की बात मित्रों—संबंधियों में फैली | कुछ देर तक इस विषय पर सभी लोग परस्पर गुपचुप ढंग से इस प्रकार बातें करते रहे, जैसे वर्षा होने से पहले हल्के बादल आकाश पर दिखाई देते हैं और जब निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि वर्षा होगी ही या बादल लौट जायेंगे | शीघ्र ही उनकी गुपचुप बातों ने उग्र रूप धारण कर लिया और अस्पताल में हड़कंप मच गया, नीनाजी की कुशल—क्षेम के लेकर | नीना के मायके वालों ने गुप्ताजी के परिजनों पर आरोपों की बारिश कर दी | उनहोंने यह तक कह दिया कि गुप्ताजी द्वारा आत्महत्या का प्रयास अपनी पत्नी के विरुद्ध षड़यन्त्र है, क्योंकि वह जानते थे कि भावात्मक रूप से कमजोर पड़कर नीना आत्महत्या कर लेगी और अस्पताल में भर्ती होने के कारण उनके प्राणों पर कोई संकट नहीं रहेगा | अब परिस्थिति ने कुछ ऐसा पलटा खाया कि पड़ोसियों, मित्रों और सभी रिश्तेदारों की चिन्ता का केन्द्र—बिन्दु बदल गया | सभी के मस्तिष्क में गुप्ताजी के स्थान पर श्रीमती गुप्ता प्रतिष्ठित हो गयी | गुप्ताजी बेचारे आई सी यू में डॉक्टर्स की टीम से घिरे हुए अभी तक अचेत हैं | उनकी स्थिति अभी तक चिन्ताजनक बनी हुई है, दूसरी ओर सभी शुभचिन्तक उनकी पत्नी की खोज में इधर—उधर भटक रहें | गुप्ताजी की ससुराल—पक्ष के एक—दो लोग अब भी दामाद और उनके परिजनों पर आरोप लगाते हुए अपने अहं को संतुष्ट करनेे में लगे हैं, जैसेकि समस्या का अन्तिम समाधान यही हो | ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें न नीनी की चिन्ता है, न ही उसके पति की |
नीना को ढूँढ—ढूँढकर सभी परिजन निराश होने लगे और उसके सकुशल लौटने की प्रतीक्षा करते—करते शाम हो गयी, परन्तु उसका कहीं कुछ पता नहीं चला | अन्त में शाम के लगभग छः बजे वह स्वयं ही अस्पताल लौटी, सकुशल और स्वस्थचित्त किन्तु शारीरिक रूप से अत्यन्त हारी थकी | अब तक गुप्ताजी होश में आ चुके थे और उनके प्राणों पर से संकट टल चुका था | नीना बाहर से आकर किसी से कुछ नहीं बोली, सीधी उस कमरे में गयी, जहाँ गुप्ता जी बिस्तर पर लेटे थे | उसके चेहरे पर चिन्ता नहीं थी, एक दृढ़ता थी, विश्वास था | जिस समय नीना वहाँ पहुँची, गुप्ता जी के हाथ में मेरे पति का हाथ था और वे उनसे कह रहे थे ——
" क्यों बचा लिया आपने मुझे ? मुझे मर जाने दिया होता ! "
"आपको ऐसी नासमझी का कदम नहीं उठाना चाहिए था, गुप्ता जी !"
अब तक नीना भी गुप्ता जी के निकट पहुँच चुकी थी और गुप्ता जी की दृष्टि उस पर पड़ चुकी थी | गुप्ता जी ने मेरे पति से जो कहा, नीना ने उसका एक—एक शब्द सुना | उसने प्रत्युत्तर में कुछ नहीं कहा, किन्तु वह शिकायत वाली मुद्रा में कठोर दृष्टि से गुप्ता जी को घूरने लगी | नीना की इस भाव—भंगिमा से साक्षात्कार होते ही गुप्ता जी के चेहरे पर भाव— परिवर्तन स्पष्ट परिलक्षित होने लगे | अपनी पीड़ा को छिपाने के लिए मुस्कुराने का प्रयास करते हुए उन्होंने अपनी पत्नी को लक्ष्य करके मेरे पति के आरोप का उत्तर दिया ——
" ऐसी नासमझी का कदम नहीं उठाता, तो क्या करता ? क्या करता, जब.... ? ..मैं मेरी पत्नी नीना के बिना नहीं जी सकता और अब ते इसके साथ रहना भी कठिन हो गया है ! लेकिन ..इसको सजने—सँवरने और से अवकाश नहीं !...इसके जीवन में मेरा कोई महत्त्व ही नहीं है ! इसको तो बस पार्लर चाहिए ; रोज नये—नये डिजाइन के आभूषण और कपड़े चाहिएँ ! मैं कहीं किसी से अपमान सहूँ ; किसी कर्जदार से पिटूँ या मरूँ, इसे कोई फर्क नहीं पड़ता !" श्रीमती गुप्ता, जो अभी तक चुप थी, पति के आरोपों से तिलमिला गयी | उसका वर्षों का असंतोष ज्वालामुखी बनकर फूट निकला ——
"पार्लर जाने का और नये—नये कपड़ों—आभूषणों का शोक मेरा अपना शोक नहीं है ! यह शोक तुमने, तुम्हारी माँ ने और रूढ़ियों से जकड़े हुए इस समाज ने मेरे ऊपर जबरन डाला है, जो मुझे ढोना पड़ता है ! मैं सजती—सँवरती नहीं, तो तुम्हारी माँ कहती है, मै उनके बेटे की शुभाकांक्षी नहीं हूँ ! समाज कहता है, मैं परम्पराओं की अवहेलना करके समाज का अपमान कर रही हूँ ! और आप ! ...रंग—बिरंगी तितलियों की भाँति सजी—धजी लड़कियों की ओर आकर्षित होकर आप किस स्तर तक नीचे गिर सकते हैं, क्या यह भी बताने की आवश्यकता है ? " नीना जी अबाध गति से बोलती जा रही थी, गुप्ता जी किसी छोटे बच्चे की भाँति सम्मोहित—से चुपचाप उसकी ओर देख रहे थे | एक लम्बी साँस लेते हुए क्षण—भर के लिए रुककर नीना ने पुनः कहना आरम्भ किया —— " आप कहते हैं कि आपको कर्जदीरों द्वारा अपमानित होते देखकर मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ता ! मुझ पर फ़र्क पड़ता है, इसलिए मैने हर बार आपकी सहीयता करने का प्रयास किया | कितनी बार आपसे आपकी चिन्ता का कारण पूछा, लेकिन आपने एक बार भी मुझे इस योग्य नहीं समझा कि अपनी समस्याओं को मेरे साथ साझा कर सको ! आपने मेरे प्रश्न के उत्तर में हर बार यही कहा —— ' कुछ नहीं, तुम अपना काम करो ! ' आपकी दृष्टि में मेरी औकात बस इतनी ही रही है कि मैं चुप रहकर परिवार की सेवा करती रहूँ ! "
" ऐसी बात नहीं है, तुम... !" गुप्ता जी अपना वाक्य पूरा नहीं कर पाये, तभी उन्होंने देखा कि एक व्यक्ति ने कमरे में प्रवेश किया और वह मुस्कुराता हुआ उनकी ओर बढ़ चला आ रहा है | यह वही व्यक्ति था, जिसने सुबह गुप्ता जी के घर पर आकर हंगामा किया था | निकट आकर उस व्यक्ति ने कहा — "सॉरी गुप्ता जी ! मैं सुबह के अपने व्यवहार के लिए शर्मिंदा हूँ !"
" नहीं—नहीं, आप क्यों सॉरी कहते हैं ! सॉरी तो मुझे कहना चाहिए ! मैं खुद ही बहुत शर्मिंदा हूँ ! मैं आपके रुपये शीघ्र ही लौटा दूँगा ! " गुप्ता जी ने विनम्रतापूर्वक कहा |
"गुप्ता जी, आप रुपये—पैसे की चिंता छोड़िए ! आप बस अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखिए !" व्यक्ति की सहानुभूति देखकर गुप्ताजी आश्चर्यचकित थे | वे सोच रहे थे कि रुपयों के लिए जो व्यक्ति सुबह इतना हंगामा कर रहा था, वह अब इतना उदार और विनम्र कैसे बन गया ? उस व्यक्ति के चेहरे की प्रसन्नता और उसके मधुर व्यवहार को देखकर गुप्ताजी निरंतर असमंजस में पड़ते जा रहे थे | गुप्ता जी ने पुनः कहा — "मैंने अपने घर को गिरवी रखने का फैसला कर लिया है ! जैसे ही अस्पताल से निकलूँगा, घर गिरवी रखकर आपका सारा कर्ज लौटा दूँगा !"
"अरे भाई, कहा ना, तुझे पैसे की चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है ! भाभी जी ने मेरा ही नहीं, तेरे ऊपर जितना कर्ज था,सबका हिसाब चुकता कर दिया है!"
"नीना ने ?" गुप्ता जी होंठों ही होंठों में बुदबुदाये |
"हाँ, मैंने !" निकट ही खड़ी नीना ने कहा |
"पर कैसे ? कहाँ से तुमने इतने रुपए ... ? "
"मेरे पास कुछ रुपए जमा थे, बाकी कुछ गहने बेच दिये ! तुम्हें अस्पताल के बिल की भी चिंता करने की आवश्यकता नहीं है, जल्दी जल्दी स्वस्थ हो जाओ और घर चलो !"
" घर जाकर लड़ोगी तो नहीं ?"
" क्यों नहीं लड़ूँगी ! यदि स्त्रियों के प्रति तुमने अपना नकारात्मक दृष्टिकोण नहीं बदला तो, हर रोज लड़ूँगी ! अब तुम्हें लड़ाई से बचना है, तो अपने पूर्वाग्रहों को छोड़कर स्त्री जाति का महत्त्व समझना होगा ! विशेष रूप से मेरा, यानि अपनी पत्नी का ! समझे ! हाँ, मैं पार्लर नहीं जाऊँगी ! " यह कहते हुए नीना धीरे—से मुस्कुरा दी |
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