मेरे प्रियतम !
कविता त्यागी
यह सर्वविदित सत्य है कि सभी के जीवन का परम ध्येय सुख अर्जित करना एवं दुखों से मुक्ति पाना है । यद्यपि सभी व्यक्तियों के सुख अनुभूति के अपने विषय भिन्न भिन्न हो सकते हैं, तथापि प्रेम ऐसा मनोभाव है, जिससे सभी का भाग्य उदित होता है ; प्रत्येक व्यक्ति प्रेम पाकर मुदित होता है । प्रेम पाकर सदैव प्रसन्नता ही होती है । गुरुजनों, अभिभावकों, यथा - नाना-नानी, दादा-दादी, माता-पिता भाई-बहन, पत्नी, प्रेमिका, मित्र आदि किसी से भी मिले कोई फर्क नहीं पड़ता । अतिशयता हर चीज की बुरी होती है, भले ही वह प्रेम ही क्यों न हो । प्रेम की सहज-सुलभ आतिशय उपलब्धता व्यक्ति को उसी प्रकार मानसिक रूप से विकारग्रस्त कर देता है, जिस प्रकार गरिष्ठ भोजन की आतिशयता से उदर-विकार उत्पन्न हो जाते हैं । इसके विपरीत, जिस प्रकार संतुलित मात्रात्मक-गुणात्मक भोजन भौतिक शरीर को स्वस्थ रखता है, उसी प्रकार व्यक्ति को मिलने वाला संतुलित मात्रात्मक-गुणात्मक त्याग-विश्वासयुक्त प्रेम उसको मानसिक विकृतियों से बचाता है । जिस प्रकार भूख में खाया गया आवश्यकता से अधिक भोजन अपच के कारण विषैला और दुर्गन्धयुक्त होकर उल्टी के रूप में उदर से बाहर निकलता है, उसी प्रकार वर्तमान समाज में हम देख रहे हैं कि आवश्यकता से अधिक प्रेम हर आयु-वर्ग के व्यक्ति के विकृत व्यवहारों में प्रकट रहा है ।
मेरा जीवन आज सुख-संपदा और प्रेम-आनंद से संपन्न है । दूसरे शब्दों में कहें, तो मेरे जीवन में भौतिक-आध्यात्मिक संतुलन है, जिसका शरीर में आप के अतिरिक्त किसी को नहीं दे सकती । छोटी-छोटी बातों पर अपनी नाराजगी व्यक्त करके आपने मुझे व्यवहार करना सिखाया । शब्द रहित मूक वाणी में आपने मुझे बताया, चूँकि व्यवहार सदैव दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच का क्रिया व्यापार है, इसलिए मात्र अपनी भावनाओं के अनुसार व्यवहार नहीं किया जा सकता । व्यवहार का संबंध केवल व्यवहार करने वाले व्यक्ति की भावनाओं तक सीमित नहीं हो सकता, बल्कि अपने समक्ष उपस्थित व्यक्ति की भावनाओं को भी उतना महत्व देना आवश्यक है, जितना अपने मनोभावों तथा अपने भावों की अभिव्यक्ति को ।
आपकी उस शांत, किंतु कठोर दृष्टि को मैं कभी-कैसे भूल सकती हूँ, जो प्रायः परिवार के किसी भी सदस्य के प्रति मेरे अनपेक्षित व्यवहार अथवा शब्दों की प्रतिक्रिया होती थी । आपकी उस प्रतिक्रिया को देख-समझकर ही मुझे अपनी गलती तथा आपकी अप्रसन्नता का एहसास होता था । और फिर दौर शुरू होता था, आपको मनाने का ; आपको प्रसन्न करने का । एक घंटे, दो घंटे अथवा एक दिन, दो दिन तक आपको मनाने ; प्रसन्न करने की प्रक्रिया चलती थी । इस समयान्तराल में इधर भी, उधर भी, दोनों और प्रेम की भूख जागृत होकर तीव्र से तीव्रतर होने लगती थी, जिसका परिणाम होता था हमारे दांपत्य जीवन में पुनः आनंद रस का संचार होना । यह ठीक वैसे ही होता था, जैसे एक-आधा दिन के उपवास के पश्चात् अति साधारण भोज्य-पदार्थ भी किसी विशिष्ट व्यंजन अपेक्षा अधिक स्वादिष्ट, तुष्टिदायक एवं शरीर में अवर्णनीय शक्ति का संचार करने वाला सिद्ध होता है ।
छोटी-छोटी बातों पर रूठकर आपका मुझे शांत-कठोर दृष्टि से घूरना और मेरे द्वारा आपको मनाना, हमारे जीवन में आज भी ऐसे ही चल रहा है, जैसे आज से पच्चीस वर्ष पहले चलता था । बीते हुए कल और आज में मात्र इतना अंतर आया है कि उस समय मेरी छोटी-छोटी गलतियाँ तुम्हारे भाई-बहनों के प्रति होती थी, आज हमारे बच्चों के प्रति होती हैं । सच कहूँ, तो कभी-कभी ऐसा लगता है, आप अपने रूठने की आदत से मजबूर हैं और मैं आपको मनाने के अपने स्वभाव से विवश हूँ, ये छोटी-छोटी गलतियाँ तो हमारे स्वभाव को संतुष्ट करने का माध्यम मात्र हैं । संभवतः हमारे यही स्वभाव हमारे दांपत्य-सूत्र को इतना सुदृढ़ ; इतना माधुर्यपूर्ण बनाता है कि आज हमारे मित्रों-परिचितों तथा रिश्तेदारों में हम उदाहरण बन चुके हैं ।
सारे घटना-क्रम का विश्लेषण करती हूँ, तो सोचती हूँ, कल जो था और आज जो है, बहुत-बहुत अच्छा है, क्योंकि प्रेम जब त्याग-तपस्या से अर्जित किया जाता है, तभी व्यक्ति उसके मूल्य को समझता है । बिना त्याग-तपस्या के मिले हुए सहज-सुलभ प्रेम का मूल्य लोग नहीं समझ पाते हैं, शायद इसीलिए रिश्तो की मिठास समाप्त हो जाती है ; विवाह-विच्छेद तक की नौबत आ जाती है । मेरा प्रेम मेरी अर्जित संपत्ति है, मैं उसका मूल्य समझती हूँ । आप के साथ बिताए हुए प्रत्येक मधुर क्षण का एहसास है मुझे, किंतु 'धन्यवाद' जैसा कोई भी औपचारिक शब्द हमारी गहन आत्मीयता के बीच अवरोधक-सा प्रतीत होता है, इसलिए हमारे अनौपचारिक आत्मीय मधुर रिश्ते के बीच औपचारिक शब्द धन्यवाद नहीं कहूँगी ।
आपकी प्रियतमा, कविता