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बिना खंजर के हत्यारे! - National Story Competition –Jan

बिना खंजर के हत्यारे!

जाह्नवी सुमन

दिल्ली की एक आलिशान न सही लेकिन एक अच्छी या फिर यूँ कहूँ कि ,थोड़ी सी महँगी कॉलोनी में है, मेरा मकान।

यहाँ मकान का किराया झेलना हर किसी के बस की बात नही। इसलिए कुछ नवयुवक जो दिल्ली शहर में नौकरी तलाशते यहाँ आ पहुँचते हैं, वह अक्सर छत पर बनी बरसाती ही किराये पर ले लेते है।ऐसे ही पड़ोस में गुप्ता जी की चौथी मंजिल पर फैली छत औऱ उसके एक कोने में दुबकी हुई छोटी सी बरसाती में झांसी से सौरभ नामक नवयुवक आ बसा।

सौरभ के माता पिता खेती बाड़ी संभालते थे और उसी की कमाई से बच्चों की पढ़ाई लिखाई व लालन पालन कर रहे थे। बीते वर्ष फसल अच्छी नही हुई सो घर में रुपये पैसे की तंगी हो गई उस पर बूढ़ी दादी की दवा दारू ने सौरभ को पढ़ाई छोड़ कर शहर आ कर नौकरी करने पर मजबूर कर दिया ।सौरभ होनहार लड़का था, उसे एक प्राइवेट कंपनी में कंप्यूटर ऑपरेटर की नौकरी जल्दी ही मिल गई।लेकिन इस को उस का दुर्भाग्य कहूँ या जल्दबाज़ी मे लिया गया निर्णय? उस कंपनी की वित्तीय हालात काफी ख़राब थी ,कई महीनों से अपने कर्मचारियों को वेतन नहीं दिया था कुछ तो नौकरी छोड़ कर चले गए थे और कुछ मालिक के झूठे आश्वासन पर टिके थे।

सौरभ भी बस फँस गया था उस भवँर में एक के बाद दो और दो के बाद तीन महीने बीतते चले गए ,वह उँगलियों पर गिनता रहा कि अब उसको कितना वेतन मिलेगा और अपनों के लिए गॉव में पैसे भिजवायेगा।

शहरी ज़िंदगियाँ आमतौर पर घरों में ही कैद हो जाती है दूसरोँ के घरों में ताँक झांक करना असभ्यता का सूचक लगता है।

मम्मी इसके विपरीत थी ,वो अक्सर सौरभ के हाल चाल पूछ लेती थी । शाम की चाय के लिए बुला लेना और फिर रात को उसके लिए खाना पहुँचा देना मम्मी की आदत बन चुका था। मम्मी ने उसके बदले उस से कभी कुछ अपेक्षा नही की।

वह भी मम्मी को अपना सच्चा हम दर्द समझ बैठा था, अब तो वह बीच बीच में बस के लिए किराया भी माँगने लगा था, जिसका मम्मी ने कभी हिसाब भी नही रखा था।

पहली बार सौरभ के कारण मम्मी पापा की बहस उस दिन छिड़ गई जब पापा ऑफिस से घर आये तो मम्मी घर पर नहीं मिलीं ।मम्मी सौरभ को दवा दिलवाने गई थी ,सौरभ कुछ दिनों से बीमार चल रहा था।

पाप ने मम्मी को डपटते हुए कहा था, "सारी दुनिया का ठेका तुम ही ने ले रखा है क्या?" मम्मी रसोई में सुबक रही थी और बड़ बड़ा रही थीं, "किसी की थोड़ी मदद कर दो तो क्या हर्ज है।"हम भाई बहिन बुरी तरह से सहम गए थे। कभी मम्मी सही दिखाई देती थीं तो कभी पापा।मम्मी ने सौरभ की मदद करना छोड़ा नहीं था। हाँ,जब पापा घर में होते थे तब उन्हें ,सौरभ की मदद करने में थोड़ी हिचकिचाहट रहती थी।

धीरे धीरे हम भाई बहन भी पापा के ही रंग में रंग गए। हम को ऐसा लगता था कि मम्मी हम से अधिक ध्यान सौरभ का रखती है।

हमें सौरभ से ईर्ष्या होने लगी थी। जब भाई के कुछ पुराने कपड़े मम्मी ने भाई को बिना बताए सौरभ को दे दिए और उसका अंदाजा हम भाई बहिनो को लग गया तब तो बस मम्मी के विरुद्ध गुप् चुप हम भाई बहिनों की पंचायत बैठने लगी। क्या हो गया है ,मम्मी को ? गैर के लिए कोई इतना करता है क्या?

एक दिन रसोई घर से बेसन भुनने की खुशबू आ रही थी, मैंने मम्मी से पूछा, “क्या बन रहा है?” मम्मी ने जवाब दिया, “अरे उस बिचारे के लिए दो लड्डू बना रहीं हूँ। “

बेचारा कौन, वो सौरभ ? बोलते हुए एक अगन सी मेरे शरीर में दौड़ गई।

मम्मी ने कहा, “ हाँ अपनी माँ को बहुत याद कर रहा था।”

“तो गॉंव क्यों नही लौट जाता?” मेरा स्वर बिल्कुल रूखा हो गया था।”

लेकिन मम्मी के आगे हमारी कहाँ चलती थी।

मम्मी ने लड्डू का बर्तन सौरभ को पहुंचाने को दे दिया।

मैंने भाई को आवाज लगाई,,’चलो भैया सौरभ महाराज को लड्डू देने चलते हैं। “

एक शाम मम्मी पेड़ पौधों में पानी डाल रही थीं, पिछली गली की मिसिज़ मल्होत्रा से मम्मी की दुआ सलाम हुई और फिर सौरभ के बारे में बात छिड़ गई।

मिसिज़ मल्होत्रा ने भी मम्मी की ऐसी मदद पर आश्चर्य व्यक्त किया। उन्होंने तो मम्मी को पूरी तरह से उससे दूर रहने के लिए कहा कि अकेला लड़का है।घर बार का पता नही औऱ तुम्हारे घर में लड़कियाँ हैं। उससे मेल मिलाप रखना सही नही।

मम्मी उनकी बातों को ठुकराते हुए बोलीं ,” मैंने भी दुनिया देखी है। अच्छा बुरा पहचानती हूँ।”

लेकिन चारों ओर से विरोधी स्वर उठने लगे तो मम्मी टूट गई और एक दिन सुबकते हुए बोलीं ,”सबको बुरा लगता है तो नहीं करूँगी उसकी मदद।

क्या स्वार्थी ज़माना आ गया किसी को किसी की मदद करने पर भी ईर्ष्या होतो है।’

अब मम्मी सौरभ के सामने पड़ने से कतराने लगीं। शाम को जिस समय उसे चाय पिलाती थी, अब उस समय बाज़ार में सब्जी लेने निकल जाती थी।

रविवार के दाल भात उसके घर पहुचाने बंद हो चुके थे। बचे हुए खाने को देख मम्मी बडबडाती अवश्य थी।

“इतना खाना रोज़ बचता है, फैकने में जाता है,किसी ग़रीब को मिल जाये तो क्या बुराई है।’’

सौरभ हमारे घर के सामने से निकलता तो उसकी निगाहें मम्मी को तलाशती रहती थीं।

एक दिन वह मम्मी से मिलने घर पर आया। पापा भी घर पर थे ।उसने पूछा, ‘आजकल आंटी दिखाई नहीं देती?”

मम्मी ने जवाब में कहा, “ हाँ बेटा! आजकल मेरी तबियत ठीक नही रहती है।”

सौरभ स्वाभिमानी था, वह शायद समझ गया था कि तीन महीने से रोज शाम की चाय , किराया माँगना, खाना पीना हमें खलने लगा है। उस दिन मम्मी ने उसे चाय पिलाने के लिए बहुत रोकना चाहा , पर वह नहीं रुका।

अब सौरभ कम ही नज़र आता था। कब ऑफिस जाता कब वापिस आता पता ही नहीं चलता था।

शहर की ज़िंदगी अपनी रफ्तार से दौड़ती रही।

शहर के एक कोने में पड़ी हुई सिसक रहीं थीं, गाँव से शहर पहुँची कुछ आशाएँ औऱ उम्मीदें। गाँव में ग़रीबी है लेकिन मानवता अभी ज़िंदा है।

शहर में लगता है केवल ज़िंदा लाशें दौड़ रही है।

कुछ दिन सौरभ का घर बंद रहा । एक दिन मालिक मकान ने किराया वसूलने के लिए दरवाजा खटखटाया तो कोई जवाब नही मिला। दरवाजा तुड़वाया गया।

अंदर का नजारा देख सब की आंखें फटी की फटी रह गई। सौरभ फर्श पर गिरा हुआ था और उसके सिर से खून बहकर फर्श पर सूख भी चुका था।

पुलिस पोस्मार्टम के लिए सौरभ को ले गई।

कंपनी से मिले मोबाइल को पड़ताल के लिए ले जाया गया।

अपने दोस्तों के साथ पिछले दिनों जो सौरभ ने चैट की थी उसे पढ़कर सब सन्न रह गए।

सौरभ को चार महीने से वेतन नहीं मिला था , वह पिछले दस दिनों से केवल दो बिस्किट प्रतिदिन खाकर जी रहा था।ऑफिस का बॉस उससे जमकर काम करवा रहा था।

इस जवाब में किसी दोस्त ने दुखी चेहरा बना कर भेजा था तो किसी ने यह कह कर मजाक उड़ा रखा था,”चलो अच्छा है डा’इटिंग हो जाएगी।’

किसी ने ‘सो सेड’ का इमोजी लगा कर अपनी ज़िम्मेदारी समाप्त कर दी थी।

किसी ने हँसी का इमोजी लगाकर लिखा था, ‘मंदिर के बाहर कटोरा लेकर बैठ जा।’

किसी दोस्त ने नोट की गड्डी का चित्र भेजा, जिस पर लिखा, ‘ले मौज कर ले।’

किसी दोस्त ने करोड़ रुपए का नकली चेक चित्र रूप में भेजा था। ‘ले यार मैंने तुझे करोड़पति बना दिया।”

पोस्टमार्टम की रिपोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि सौरभ शारीरिक कमजोरी के कारण चक्कर खा कर गिर गया था।

मम्मी बिलख कर रो रहीं थीं। हम बहन भाई एक कोने में अपराधी की भांति खड़े थे। हम हत्यारे हैं सौरभ के।

हम ने बिना खंजर हाथ में उठाये हत्या कर दी थी ,उस नवयुवक की।

मन में निरंतर चिंतन बना रहा। बिना खंजर के हत्यारों की सूची में औऱ नाम जुड़ते चले गए।

क्या शहर के पढ़े लिखे लोग , उसके फर्म के मालिक से मिल कर उसका वेतन भुगतान करने का दबाव नही डाल सकते थे?

किसी भी दोस्त ने उसे गंभीरता से नहीं लिया। फिर ऐसी दोस्तों की भीड़ भाड़ रखने से क्या फायदा।

समाज का वो वर्ग जो मंदिरों में तो चढ़ावा बड़ी शान से चढ़ाता है, लेकिन उन्हें इंसानों के बीच छिपा ईश्वर दिखाई नहीं देता।

सबसे बड़े हत्यारें है लड़कियों पर बुरी दृष्टि रखने वाले जिनके के कारण हर नवयुवक संदेह के घेरे में खड़ा हो जाता है।

मम्मी ने सौरभ की मदद करना तभी बन्द किया जब मिसिज़ मल्होत्रा ने उनको यह कह दिया था, ‘आप के घर में लड़कियां है और सौरभ का क्या भरोसा।’

सौरभ के बारे में सोच कर मन बहुत दुःखी था। गॉंव में उसके माँ बाप को केवल इतना कहकर बुलाया गया कि सौरभ बीमार है।

अगली सुबह एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति हमारा घर खोजता हुआ आ पहुंचा, उसने अपने सिर से उतारकर एक पोटली हमारे आंगन में रख दी जिसमें कुछ किलो चावल और गुड़ की भेलियाँ थी। हम ने अंदाज़ा लगाया कि वह शायद सौरभ के पिता है। हमारा अनुमान सही था।

वह हॅंसते हुए बोले ,’सौरभ ने कहा था जब शहर आओ तो शर्मा आंटी के लिए कुछ ले आना, वो बहुत अच्छी महिला हैं। माँ की तरह मेरी देख भाल करती हैं। अरे, सौरभ बीमार पड़ गया तो क्या हुआ ,आप सब हैं तो सही उसकी देख भाल के लिए, ठीक हो जाएगा।

मम्मी फ़ूट फूट कर रो पड़ीं।

हम सब की निगाहें शर्म से झुक गईं।

ऐसा लग रहा था कोई हमें चीख चीख कर कह रहा है, ‘बिना ,खंजर के हत्यारे।’

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