प्रलय और प्यास - National Story Competition-Jan Dr kavita Tyagi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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प्रलय और प्यास - National Story Competition-Jan

प्रलय और प्यास

डॉ. कविता त्यागी

16 जून 2013 की शाम 7:30 बजे थे । केदारनाथ मंदिर के प्रांगण में आस्था में सराबोर सभी भक्त महाशिव का जयघोष करते हुए भजन गा-गाकर भक्ति-सागर में डुबकी लगा रहे थे । उसी समय उत्तरकाशी में बादल फटने और तेज बारिश होने से विनाशकारी भूस्खलन हुआ । पानी के साथ मिट्टी और पत्थरों का तीव्र प्रवाह अनेकानेक भक्तों को अपने साथ बहाकर ले गया। किसी को पलक झपकने का भी समय नहीं मिल सका । जिन्हें तैरना आता था, वे भी स्वयं को बाढ़ के प्रकोप से नहीं बचा सके । मिट्टी-पत्थर और पानी का प्रवाह इतना तीव्र था कि न तो भक्तों को तैरकर प्राण बचाने का अवसर मिला और न ही शक्ति । क्षण-भर में ही अनेक भक्त उस पथरीली बाढ़ के बहाने अदृश्य में विलीन हो गए । उनका चिन्ह-मात्र भी शेष न बचा ।

मनोहर और उसके साथियों ने यह भयावह दृश्य प्रत्यक्षतः देखा था । उन्होंने देखा, काल के अदृश्य जाल से बचे हुए भक्त अपनी रक्षा के लिए भगवान को पुकारते हुए संभावित संकट से बचने का उपाय खोज ही रहे थे कि कुछ क्षणोपरांत पुनः बाढ़ का पहले से भी तीव्र बहाव आया । पलक झपकने से पहले ही अनेक भक्त उस प्रवाह में गुम हो गए । मनोहर की माँ भी उस बहाव की चपेट में थी । माँ को बचाया जा सके, इस आशा से कुछ ऊँचे स्थान पर स्थिर होकर मनोहर और उसकी पत्नी ने दृढ़तापूर्वक माँ का हाथ थामकर उन्हें खींचने का प्रयास किया । उसी क्षण मनोहर और उसकी पत्नी ने सुना-देखा कि एक स्त्री जो कुछ क्षण पूर्व अपने पति के असमय चिर-वियोग पर विलाप कर रही थी, अब स्वयं प्रवाह में पड़ी विवशतापूर्वक अपने आठ-दस वर्षीय बच्चे की सहायता के लिए क्रदन कर रही थी । मनोहर की पत्नी ने माँ को बचाने का दायित्व-भार अपने कंधों पर लेते हुए चिल्लाकर पति से मात्र इतना कहा -

"उसका बच्चा ...!"

मनोहर को अपनी पत्नी की शक्ति और मातृभक्ति पर पूर्ण विश्वास था । वह जानता था, उसकी पत्नी माँ को पथरीले गंदले पानी के प्रलय-प्रवाह से अवश्य बचा लेगी । अतः पत्नी का सांकेतिक आग्रह स्वीकारते हुए मनोहर ने अविलम्ब बच्चे की ओर मुड़कर उसे दृढ़तापूर्वक थाम लिया । बच्चा अपनी माँ का हाथ पकड़कर उसे बचाने का असफल प्रयास कर रहा था । किंतु..., उसी क्षण पुनः मिट्टी-पत्थर और पानी का एक और अत्यंत तीव्र प्रवाह आया, जिसमें कई अन्य भक्तों के साथ-साथ मनोहर की माँ, उसकी पत्नी और उस बच्चे की माँ काल का ग्रास बन गयी । वह बच्चा और मनोहर देखते ही रह गये । बच्चे को दृढ़तापूर्वक थामे हुए मनोहर के कान में उस क्षण उस प्रलय-प्रवाह में से क्रंदन-निमज्जित बस एक ही अधूरा-सा वाक्य गूँजा था और फिर गूंजता ही रहा -

"भैया ! मेरा बच्चा ...!"

बाढ़ का प्रभाव कुछ धीमा होने पर मनोहर ने बच्चे का नाम पूछा । बच्चे ने उत्तर दिया -

"आनंद !"

"महाशिव तुम्हारे जीवन को आनंदमय रखे !"

मनोहर ने बच्चे को शुभाशीष दिया और बड़बड़ाते हुए स्वगत कहा -

"जिसके माता-पिता बचपन में ही काल का ग्रास बन गए हों, उसका बचपन का आनन्द तो प्रभु ने छीन ही लिया है !" कहते हुए मनोहर बच्चे का हाथ पकड़कर किसी सुरक्षित स्थान की खोज में चल दिया । उस समय मनोहर के हृदय में एक ओर माँ तथा पत्नी के चिर-वियोग की पीड़ा का ज्वार उठ रहा था, तो दूसरी ओर उस बच्चे की सुरक्षा का गुरु-भार अनुभव हो रहा था।

अगले दिन मनोहर आठ-दस वर्षीय बच्चे आनंद का हाथ पकड़कर धीमे-धीमे कदमों से चला जा रहा था । कहाँ जाना है ? कुछ ज्ञात नहीं, फिर भी उसके चरण यंत्रवत् अपना कार्य कर रहे थे । बच्चा कई बार पानी के लिए निवेदन कर चुका था -

"अंकल बहुत प्यास लगी है !"

"थोड़ा-सा आगे चलकर तुम्हें पानी पिलाएँगे !"

"अंकल, अब नहीं चला जाता ! प्यास से मेरे प्राण निकल रहे हैं !"

"बस बेटा, थोड़ी-सी दूर और...!"

"अंकल थोड़ी दूर कहते-कहते आप मुझे बहुत दूर ले आए हैं ! अब मैं और नहीं चल सकता !" यह कहकर बच्चा धम्म से धरती पर बैठ गया ।

"नहीं-नहीं ! ऐसा नहीं कहते !" बच्चे के होठों पर उंगली रखते हुए मनोहर ने कहा और फफक-फफककर रोने लगे । मनोहर को रोते हुए देखकर बच्चा मायूस होकर बोला -

"अंकल, आपको भी प्यास लगी है ? मम्मी कहती हैं, अच्छे बच्चे रोते नहीं हैं ! इसलिए मैं बहुत प्यास लगने पर भी नहीं रोया । आपको भी नहीं होना चाहिए !" मनोहर ने अपने आँसू पोंछ लिये और कृत्रिम स्मिति की मुद्रा धारण करके बोले -

"हूँ-ऊँ ! ठीक है, अब नहीं रोऊँगा !"

मनोहर ने बच्चे को तो वचन दे दिया था, किंतु वह समझ नहीं पा रहा था, कैसे अपने आँसुओं पर नियंत्रण रख सकेगा । उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि चार धाम की यात्रा करने की इच्छुक उसकी पत्नी और मांँ शिव के धाम में आकर शिव की भेंट चढ़ जाएँगी । वह बार-बार बस एक ही बात सोच रहा था कि बच्चों को क्या उत्तर दूँगा, जब वह पूछेंगे - "पापा, माँ को कहाँ छोड़ आये ? दादी कहाँ है ?"

प्यास से बेहाल आनंद पानी की जरूरत-चाहत लिए हुए मनोहर का हाथ थामे चल रहा था और मनोहर अपने सद्यः अतीत की स्मृति में खोया हुआ था । उसका सद्यः अतीत जीवंत होकर चलचित्र की भाँति उसकी आँखों में तैर रहा था और कदम यंत्रवत आगे बढ़ रहे थे । अतीत की स्मृतियों में विचरित मनोहर की तन्मयता तब भंग हुई, जब उसके कानों में आनंद का दयनीय स्वर पड़ा -

"अंकल ! वह देखो, उन लोगों के पास पानी है । वे मुझे थोड़ा-सा पानी देंगे, तो ...! आप उनसे कहिए ना !"

कुछ ही दूरी पर बैठे हुए दो भक्तों के हाथ में पानी की बोतल देखकर मनोहर तेज कदमों से वहाँ पहुँचा और प्यास से बेहाल आनंद की दशा का वर्णन करते हुए पानी के लिए निवेदन किया । किंतु, पानी न मिल सका । उन भक्तों ने बताया कि कुछ क्षण पूर्व आते, तो बच्चे की प्यास बुझाने के लिए अवश्य ही पर्याप्त मात्रा में पेय जल मिल जाता । अब उनका पानी समाप्त हो चुका है । निराश होकर मनोहर और आनंद आगे बढ़ गये। उस समय उन्हें ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य पेय जल की खोज करना रह गया है । शायद अब पानी की आशा में ही उनके प्राण शरीर में अटके हैं ।

चलते-चलते कुछ ही दूरी तय की थी, बच्चे को पुनः किसी भक्त के पास पानी की बोतल दिखाई पड़ी । पानी देखते ही बच्चे की आँखों में चमक आ गयी । वह प्रसन्नता से चिल्ला उठा -

"अंकल, पानी ! वहाँ देखिए !"

मनोहर ने देखा, एक युग्म लगभग दस वर्षीय बच्चे को लिये हुए बैठा था, शायद वे भी केदारधाम में शिव के दर्शनार्थ आये थे। मनोहर ने स्वगत संभाषण किया -

"यही भक्त महाशिव के सच्चे कृपापात्र हैं ! उसकी असीम कृपा से यह परिवार न केवल प्रलय के प्रकोप से बच गया है, बल्कि इस विषम परिस्थिति में इनके पास जीवन के पर्याय पेय जल भी उपलब्ध है !" मनोहर बच्चे को लेकर उनके निकट गये और विनम्र भाव से पानी के लिए प्रार्थना की -

"भाई साहब, पिछले कई घंटे से यह बच्चा प्यास से व्याकुल है । कृपया अपने पानी में से दो घूँट पानी इस बच्चे को पिला दीजिए !"

मनोहर की प्रार्थना सुनकर पुरुष ने स्त्री की ओर देखा । पुरुष की भंगिमा से स्पष्ट हो रहा था कि वह स्त्री से पानी देने की अनुमति माँग रहा था । प्रत्युत्तर में स्त्री ने भौंहें सिकोड़कर संवेदनाहीन मुखमुद्रा बनाते हुए कठोर शब्दों में कहा-

"नहीं ! न जाने कब तक हमें यहाँ रहना पड़े, अपना पानी इसे देकर हम प्यासे रहेंगे !"

मनोहर ने पुनः याचना की -

"बहन जी, इस बच्चे के माता-पिता को पथरीली बाढ़ लील गयी । कई घंटे से यह प्यास से तड़प रहा है । इसको पानी नहीं मिला, तो यह दम तोड़ देगा !"

"तोड़ देगा, तो हम क्या करें ! इसके लिए हम अपना पानी देकर अपने बच्चे को और स्वयं को संकट में तो नहीं डाल सकते !" इस बार पुरुष ने अपनी संवेदनहीनता का परिचय देते हुए कहा । मनोहर ने पुनः उन्हें समझाने का प्रयत्न किया-

"आपके ऊपर ईश्वर की कृपा रही है कि आप प्रलय का रूप धरकर आयी बाढ़ से बच गये ! उसकी दया दृष्टि आप पर सदैव बनी रहे ! आपको और आपके बच्चे को ईश्वर लम्बी आयु दे ! कृपा करके दो घूँट पानी आप इस बच्चे को भी दे दीजिए ! आपकी दया से इस बच्चे के प्राण भी बच जाएँगे ! आपको पुण्य प्राप्त होगा !"

"हमें पुण्य नहीं कमाना है ! आप जाइए ! हमारा पीछा छोड़कर कहीं और जाकर पुण्य बाँटिए !" स्त्री ने कहा । पुरुष ने अपनी पत्नी का समर्थन किया -

"ठीक कह रही हैं यह ! आप जाइए यहाँ से, हमें मत सिखाइए !" दंपत्ति के निर्ममतापूर्ण व्यवहार से क्षुब्ध मनोहर ने निराश दृष्टि से बच्चे की ओर देखा, जो अब तक प्यास के कारण अचेत हो चुका था । बच्चे की दयनीय दशा देखकर मनोहर के मुख से मात्र ये शब्द निसृत हुए-

"भगवान जैसे स्वयं पत्थर का है, वैसे ही पाषाण हृदयी मनुष्यों पर उसकी कृपा बरसती है !" यह कहते हुए मनोहर किंकर्तव्यविमूढ़-सा सिर पकड़कर बच्चे के निकट ही धरती पर बैठ गया । उसे समझ में नहीं आ रहा था, क्या करे ? क्या न करे ? उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह चली थी । उससे कुछ ही दूरी पर बैठा एक युवक इस घटना का अविरल भाव से अवलोकन कर रहा था और उनकी सारी बातों को ध्यानपूर्वक सुन रहा था । मनोहर की निराशा को भाँपकर वह उठा, उसके निकट आया और उसको झिंझोड़ते हुए बोला -

"भगवान पत्थर का नहीं है । वह तो सर्वव्यापी है । किंतु, स्वयं को भक्त कहने वाले कुछ पाषाण-हृदय लोग अपनी संकुचित सोच के कारण भगवान को पत्थर में तो देखते हैं, उसीके बनाए हुए जीते-जागते मनुष्य में वे उसके दर्शन नहीं कर पाते । आप उठो और इस बच्चे की माँ को दिए हुए अपने वचन का निर्वाह करो !"

युवक का वाक्य सुनकर मनोहर की आँखें विस्मय से फैल गयी । वह प्रश्नात्मक दृष्टि से युवक की ओर निर्निमेष देखने लगा। मनोहर की जिज्ञासा को शान्त करते हुए युवक ने पुनः कहा -

"मुझे इस प्रकार मत देखो ! मैं कोई अंतर्यामी सिद्ध पुरुष नहीं हूँ । जिस समय आप इस बच्चे को उस रेले में बहने से बचा रहे थे, उसी समय मैं भी अपनी मृत्यु से संघर्ष कर रहा था । इसकी माँ की आर्द्र पुकार अब भी मेरे कानों में गूँज रही है ।"

"मैं जानता हूँ, इस बच्चे के प्राण बचाना हमारा कर्तव्य है ! लेकिन इस विषम क्षण में कैसे ...?" मनोहर ने उदास स्वर में कहा ।

"आप चिंता मत कीजिए ! बच्चे के प्राण हम नहीं, वही सर्वव्यापी बचाएगा, जिसने इसको बाढ़ में बहने से बचाया है ! वही विधाता अब भी इसकी रक्षा करेगा ! अंतर बस इतना है, तब आप निमित्त थे ! अब शायद मैं ...!" यह कहते हुए युवक उस परिवार की ओर बढ़ा, जो पेयजल की एकाधिक बोतले रखते हुए भी बच्चे को दो घूँट पानी पिलाने की मनोहर की प्रार्थना को अस्वीकार कर चुका था । उनके निकट पहुँचकर युवक उनसे बिना पूछे उनकी पानी की बोतल उठाने लगा । स्त्री ने उसका विरोध किया, तो युवक ने अत्यंत विनम्र शैली में कहा -

"बच्चा प्यास के कारण अचेत हो गया है ! उसके प्राण बचाने के लिए आपको पानी देना ही होगा !" युवक का आदेशात्मक स्वर सुनकर स्त्री के पति ने कड़क स्वर में कहा -

"आप कौन होते हैं, हमसे जबरदस्ती पानी लेने वाले ! हमारी मर्जी है, हम अपना पानी किसी को दें या न दें !"

"नहीं ! न पानी आपका है, न पानी देने में आपकी मर्जी चलेगी ! कभी-कभी जब परमात्मा अपनी शक्तियों का साधनभूत किसी अपात्र को बना देता है, तब अपने निर्णय में यथाशीघ्र परिवर्तन करके वह उन शक्तियों को किसी सुपात्र को हस्तांतरित कर देता है, ताकि धरती से परोपकार की भावना पूर्णरूपेण नष्ट न हो जाए और सज्जनों की उसके प्रति आस्था बनी रह ! संभवतः वह सुपात्र मैं हूँ !" यह कहकर युवक ने पुनः पानी की बोतल उठाने का प्रयास किया । इस बार स्त्री ने अपनी वाणी द्वारा युवक का विरोध किया, तो पुरुष ने शारीरिक बल का प्रयोग करके युवक को पानी की बोतल लेने से रोकने का प्रयास किया । युवक ने एक बार घूरकर पुरुष की ओर इस आशा से देखा की पानी की बोतल लेने दें, अन्यथा ...! पुरुष पर उस मूक चेतावनी का कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता देख युवक ने बाएंँ हाथ से बोतल पकड़े रखी और दाएँ हाथ से पुरुष के गाल पर एक के बाद एक कई जोरदार थप्पड़ जड़ दिए । गाल का पर थप्पड़ पड़ते ही बोतल पर पुरुष की पकड़ ढीली पड़ गयी और स्त्री की जुबान जड़ हो गयी ।

युवक पानी की बोतल लेकर ज्यों ही मनोहर तथा अचेतावस्था में पड़े बच्चे आनंद की ओर मुड़ा, उस दंपत्ति के बच्चे ने युवक.की ओर पानी की एक और बोतल बढ़ाते हुए कहा -

"अंकल यह भी ले जाइए ! आपको भी प्यास लगी होगी, पी लेना ! हमारे पास हमारे लिए अभी दो बोतल पानी और रखा है ।" युवक ने अपने हाथ में पकडी हुई पानी की बोतल मनोहर के हाथ में थमा दी । तत्पश्चात् बच्चे की संवेदनशीलता को प्रोत्साहित करते हुए उसके सिर पर स्नेह से हाथ फेरकर कहा -

"बेटा, अपने इस मनुष्य रूप को सदैव निर्मल बनाए रखना ! इस समाज का अस्तित्व इसी मानवता पर टिका है और इसकी नींव आप जैसे संवेदनशील मनुष्य ही बनते हैं, मानव शरीरधारी राक्षस प्रवृत्ति के लोग नही । सदैव प्रसन्न रहो !"

***