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बिन पानी सब सून

बिन पानी सब सून

दिल्ली की झुग्गी-बस्ती की संकरी गली के एक छोटे—से घर में पली—बढ़ी आयुषी एक माह पूर्व माता—पिता की मृत्यु के पश्चात् अपने छोटे भाई को लेकर दादा—दादी के पास गाँव में आ गयी थी। गाँव में आने से पहले उसने सोचा था कि शहर की अपेक्षा गाव में पर्याप्त शुद्ध जल एवं शुद्ध हवा होगी ; गाँव के निवासियों में अपेक्षाकृत अधिक त्याग-तपस्या और परस्पर प्रेम—भाव होता होगा तथा गाँव की भूमि प्रदूषण-मुक्त तथा पेड़ों से हरी-भरी होगी। परन्तु गाँव में आने के पश्चात् अब धीरे—धीरे उसको अनुभव हो रहा था कि उसकी कल्पना मिथ्या थी। अब उसकी कल्पनाओ का स्वर्ग धीरे-धीरे बदरंग हो रहा था। पिछले पन्द्रह दिनों में उसने अनुभव किया था कि गाँव में भी अब जीवन उतना सरल एवं सुखी नहीं रहा गया है, जितना उसने सोचा था। गाँव में हवा तो शुद्ध थी, किन्तु जीवन जीने की अन्य सुविधाएँ शहर की संकरी—पतली गलियों के छोटे—से मकान से भी कम हैं।

जून की दोपहर के लगभग ग्यारह बजे थे। दादी ने आयुषी को आवाज देकर कहा था — “ बेटी भैया कब से पानी माँग रहा है, इसे एक गिलास पानी लाकर दे दे !”

“अम्मा, मुझे भी सुन रहा है, भैया पानी माँग रहा है, पर कहाँ से लाऊँ मैं पानी?” आयुषी ने झुँझलाते हुए उत्तार दिया और फिर अपने आँसू पोंछने लगी। पोती के आसुओं को देखकर दादी की आँखें भर आयीं थीं, किन्तु बचचों के समक्ष रोकर वे अपनी दुर्बलता प्रकट नहीं करना चाहतीं थीं, इसलिए आँसू पोंछकर आयुषी को स्नेह से डाँटते हुए बड़बड़ायी— “ फिर रोने लगी तू ! ऐसी कौन—सी कड़वी बात की दी है मैंने ? कैसे सम्हालूँ मैं इस नन्ही—सी जान कू ?”

जब तक दादी के होठों से कुछ स्पष्ट—अस्पष्ट शब्द निकलते रहे, तब तक उनका पोता उन शब्दों को सुनता रहा। परन्तु दादी के मुख से ध्वनि निकलना बंद होते ही पोते ने पुनः पानी के लिए चिल्लाना आरंभ कर दिया।

कुछ क्षणों तक दादी अपने आँसुओं को पीती रही और मौन होकर सुनती रही। शायद वे निश्चय नहीं कर पा रहीं थीं, क्या करें ? परन्तु कब तक चुप बैठी रह सकतीं थीं, जबकि उनका आठ साल का बीमार पोता निरंतर पानी—पानी चिल्ला रहा था। अन्त में दादी ने पुनः आयुषी से पानी देन के लिए कहा —”बिटिया ! नल में दो हत्ते मारके एक गिलास पानी दे दे भैया कू ! अपने बीमार भैया पै थोड़ा—सा तरस खा !”

कुछ क्षण पहले जब दादी ने आयुषी से पानी देने के लिए कहा था, तब से अब तक वह निरंतर रोये जा रही थी। अब पुनः दादी के मुख से उसी आदेश को सुनकर आयुषी की पीड़ा भी बढ़ गयी और क्रोध भी। उसने अपने आँसुओं पर नियंत्रण करके दादी के समक्ष अपना पक्ष रखना चाहा, किन्तु उसके आँसू और अधिक तीव्रता के साथ उसकी पीड़ा को प्रकट करने लगे। पीड़ा के साथ ही झुँझलाहट और का्रेध से उसका स्वर भी तीव्र हो गया। उसने दादी से कहा —

“अम्मा, दो हत्ते मारकर नल से पानी निकल आता, तो मैं भैया को कब का पानी दे चुकी होती ! नल में पानी नहीं आ रहा है ! इस नल में हत्ते मार—मारकर मेरी हथेलियों में गाँठें पड़ चुकी है ! देखिए मेरा हाथ ! जब से इस गाँव में आयी हूँ, इस नल में हत्ते मार रही हँ ! अब तक इस नल में से बूँद—बूँद करके पानी निकल आता था, पर कल शाम से तो वह भी बंद है ! फूली दादी के घर भी पानी लेने के लिए सुबह से दो बार जा चुकी हूँ, पर उनकी नल में भी पानी आना बंद हो गया है। दादी कह रहीं थी कि पिछले साल भी इन दिनों में गाँव की ज्यादातर नलों में पानी आना बंद हो गया था। जब तक गर्मी और धूप अधिक रहेगी, तब तक नल में पानी आने की संभावना कम है। बताओ अम्मा, अब क्या करुँ मैं ?”

आयुषी के सुकोमल हाथों को अपने हाथों में लेकर दादी ने उसकी हथेलियों में पड़ी गाँठों को देखा, तो उनका हृदय चीत्कार उठा — “ हाय ! हाय ! पानी ने मेरे बेटे—बहू की जान ले ली ! दो बूँद पानी कू मेरा बीमार पोता तरस रहा है और पानी की कमी में मेरी पोती के नाजुक हाथ इतनी पीड़ा भोग रहे है !”

पानी की समस्या गम्भीर थी। समस्या का समाधान करना भी तुरन्त आवश्यक था। बीमार बच्चे को पानी नहीं मिलेगा, तो...। दादी सोचकर ही घबराने लगी। वे अति शीघ्रता से उठी और हाथ में एक जग लेकर बाहर निकल गयी। कुछ ही मिनटों में दादी जग भरकर पानी ले आयी और पोते को पिलाने के लिए एक गिलास में उड़ेलते हुए बोली — “रहिमन पानी राखयो, बिन पानी सब सून।”

दादी के मुख से रहीम का दोहा सुनकर उनका बीमार पोता हँसने लगा — “दादी तुमने कहाँ से सीखा ?”

“बेटा, इस जिंदगी ने सब कुछ सिखा दिया है तेरी दादी कू ! पता नहीं, अभी और क्या—क्या सीखना बाकी है ? कौन—कौन से दुख देखने पड़ेंगे इन बूढ़ी आँखों को अभी ?”

आयुषी ने दादी के मुख से रहीम का दोहा सुनकर किसी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं दी, परन्तु जिस दोहे को उसने आज से पहले पुस्तकों में पढ़ा था, अब वह उसको जीवन में यथार्थतः अनुभव कर रही थी। आयुषी को मौन स्थिति में देखकर दादी ने गाँव में पानी की कमी के विषय में पुनः कहना आरंभ किया —

दो साल पहले की बात है। सबकी नलों ने पानी देना बंद कर दिया था। सभी ने अपनी—अपनी नल ठीक करने के लिए खूब भागदौड़ कर ली, पर किसी की नल में पानी नहीं आया। पानी आता भी कैसे ? सेहा मिस्त्री ने बताया, भूमिगत जल का स्तर बहुत नीचे चला गया है। अब नल (हैंडपंप) से तभी पानी निकाला जा सकता है, जब पंपिंग सिस्टम गहरा किया जाएगा। जिस नल का पंप नीचे सरकाया जाएगा, उसी से पानी निकलेगा, बाकी सब नलें बेकार। गर्मी के मौसम में पानी के संकट से सब परेशान थे। न मनुष्यों के लिए पानी था, न जानवरों के लिए। नहर—नाले और तालाब सूख रहे थे, जिससे जंगल में जंगली जानवरों की जान पर बन आयी थी ओर गाँव में पालतू पशु बेहाल थे। दूध देने वाले पशुओं का दूध सूख गया था। ऐसे समय चंदू ने समझदारी का और उदारता का परिचय दिया। उसने अपनी जेब से कुछ पैसा खर्च करके और भागदौड़ करके गाँव में सरकारी नल लगवाने का बीड़ा उठाया। चन्दू के प्रयास से गाँव में सरकारी नल तो कई लगे थे, परन्तु एक बार बिगड़ने के बाद उन्हें किसी ने ठीक नहीं कराया। धीरे—धीरे एक के बाद एक करके वे सब ठप्प हो गए।

“दादी, पानी के संकट से गाँव वाले गर्मी के मौसम में परेशान थे, नल सर्दियों में लग पाया था, फिर उस समय पानी का संकट केसे दूर हुआ ?” आयुषी के मुख से प्रश्न सुनते ही दादी की बूढ़ी आँखों में चमक आ गयी। यही तो चाहती थी दादी। दादी ने पुनः बताना आरंभ किया कि किस प्राणघातक गर्मी में पानी का संकट दूर हुआ और लोगों की प्यास बुझी थी —

पूरे गाँव में लगे हैंडपंपों में पानी आना बंद हो गया था। जिस हैंडपंप में पानी आ रहा था, वह भी सबकी प्यास नहीं बुझा सकता था, क्योंकि उसका भी पानी बहुत कम हो गया था। घंटा—भर तक हुचक—हुचक करते रहकर चार—पाँच लीटर पानी निकलता था। हैंडपंप चलाने वाले के हाथ में नल के हैंडल से पड़े हुए छाले उस पानी कांे और भी अधिक मूल्यवान बना देते थे। पानी की कमी से लोगों का नहाना—धोना तो लगभग बंद—सा ही हो गया था। बड़ी कठिनाई से लोग अपनी और अपने पशुओं की प्यास बुझा पा रहे थे। ऐसे समय में चंदू ने गाँव के निकट जंगल में स्थित अपनी ट्यूबवैल से गाँव—भर की प्यास बुझाने का बीड़ा उठाया। गाँव में बिजली कम आने के कारण चंदू अपनी ट्यूबवैल को डीज़ल इंजन से चलाता था। वह दोपहर होते ही गाँव—भर में कहता फिरता था कि पानी आ रहा है, नहाओ–धोओ और अपने पशुओं को भी नहलाओ। चंदू की सूचना मिलते ही गाँव वाले वहाँ आकर लाइन लगाकर अपने—अपने बर्तनों में पानी भरने, नहाने—धोने और अपने पशुओं को पानी पिलाने के लिए अपना नंबर आने की प्रतीक्षा करने लगते थे। जब तक वहाँ पर खड़े हुए सब लोग संतुष्ट नहीं हो जाते थे, तब तक चंदू अपना इंजन बंद नहीं करता था। दादी की कहानी सुनकर आयुषी की आँखों से आँसू टपकने लगे। दादी उस पीड़ा को समझ सकती थी, किन्तु उस पीड़ा को दूर करना उनके वश में नहीं था, इसलिए वे चुप हो गयी। दादी की आँखों में भी आँसू भर आये। नम आँखों से आयुषी उस दुखद घटना के विषय में सोचने लगी, जिससे उसने यह समझ लिया था कि पानी जीवन का पर्याय है। पानी है, तो सब कुछ है, पानी नहीं, तो कुछ नही। पानी ही तो वह समस्या थी, जिसने उसके माता—पिता को निगल लिया था।

उस दिन पानी के अभाव में कॉलोनी के सभी बच्चे बूढ़े और जवान, सभी स्त्री—पुरुष हाहाकार कर रहे थे। कई दिनों से नलों में पानी नहीं आया था। प्यास से बेहाल लोगों को फौरी राहत देने के लिए नगरनिगम की ओर से पानी के टैंको की व्यवस्था की गयी थी। उस दिन पानी का टैंक आया, तो कॉलोनी के स्त्री—पुरुषों और बच्चों की भीड़ पानी लेने के लिए उमड़ पड़ी। आयुषी और उसकी माँ भी उस भीड़ का अंग बनीं थीं। पानी लेने के लिए आये हुए सभी लोग पंक्तिबद्ध खड़े होकर अपना नम्बर आने की प्रतीक्षा कर रहे थे, किन्तु कुछ समय पश्चात् वहाँ पर एक स्त्री ने पंक्ति में खड़े होकर अपने नम्बर की प्रतीक्षा करने का नियम भंग कर दिया। उस समय आयुषी की माँ अपना नम्बर आने पर पानी ले रही थी। उस स्त्री ने आयुषी की माँ को धक्का देकर उसका पानी का बर्तन एक ओर फेंक दिया और पानी की धार के आगे अपना बर्तन लगाकर पानी लेने लगी। आयुषी की माँ को यह सहन नहीं था कि कोई उसका अपमान करके उसके नम्बर पर पानी ले। यदि वह स्त्री विनम्रतापूर्वक निवेदन करती तो आयुषी की माँ सहज ही अलग हट जाती, किन्तु अन्याय को सहन करना वह अपराध मानती थी, इसलिए उस स्त्री को धक्का देकर पुनः अपना स्थान ग्रहण किया और अपने पात्र में पानी लेने लगी। उस स्त्री ने पुनः आयुषी की माँ को धक्का दिया और गाली देते हुए कहा —

“नीच जात की ! कमीनी—कुतिया ! मेरे सामने अड़ेगी ! जिन्दी कू गाड़ दूँगी इसी जगह, अबकी बार मेरे बर्तन कू छुआ भी तो !”

“आधे घंटे से मैं अपना नंबर आने के इंतजार में लाइन में खड़ी थी ! तू अभी आयी और अभी पानी लेकर चली जाएगी ? मैं तुझे अपने नंबर पर पानी नहीं लेने दूँगी !”

“मुझे पानी नहीं लेने देगी और तू पानी ले जाएगी ! तुझे मैंने आज एक बूँद भी लेने दिया, तो मैं असल बाप की औलाद नहीं !” यह कहते हुए उस औरत ने आयुषी की माँ को थप्पड़ जड़ दिया। आयुषी की माँ थप्पड़ खाकर चुप बैठने वाली नहीं थी। उसने भी सामथ्र्य—भर प्रतिकार किया। अब पानी की लड़ाई अहं की लड़ाई बन चुकी थी, इसलिए दोनों स्त्रियाँ पानी को भूलकर अपने—अपने अहं को संतुष्ट करने के लिए आमने—सामने आ गयीं। अन्य सभी लोग, जो पानी लेने के लिए आए थे, पानी लेने लगे। आयुषी दोनो स्त्रियों की निरर्थक लड़ाई को बंद करने के लिए बार—बार अपनी माँ को समझा रही थी और उस स्त्री से भी प्रार्थना कर रही थी। बीच—बचाव करने में उसे कुछ चोट भी आयी थी, किन्तु वह अपने प्रयास में तल्लीन थी। अपने प्रयास में जब उसको सफलता मिली, तब तक उसकी माँ तन—मन से बहुत चोट खा चुकी थी और पानी का टैंक भी पूरी तरह खाली हो चुका था।

लड़ाई—झगड़े की सूचना पाकर अब तक वहाँ पर आयुषी के पिता भी पहुँच गये थे। पत्नी की लहूलुहान दशा देखकर आयुषी के पिता अपना नियंत्रण खो बैठे और उस स्त्री के ऊपर अपना हाथ छोड़ दिया। आयुषी के पिता का हाथ उठने के बद वह स्त्री और भी अधिक खूँखार हो गयी। उसने चेतावनी देते हुए कहा —

“मेरे ऊपर हाथ उठाना तुझे बहुत महँगा पड़ेगा ! देख अब मैं क्या करती हूँ !” गुस्से से आगबबूला होती हुई वह स्त्री उसी समय वहाँ से चली गयी। उसके जाने के पश्चात् आयुषी और उसके माता—पिता भी अपने घर लौट आये।

घर में एक बूँद भी पानी नहीं था। आयुषी का भाई प्यास से तड़प रहा था। भाई को प्यास से तड़पते देखकर पंद्रह वर्ष की आयुषी से न रहा गया। उसकी आँखों में आँसू भर आये। वह माँ से रुँधे स्वर में बोली—

“ मम्मी ! क्या जरुरत थी उस औरत से उलझने की ! घर में एक भी बूँद पानी नहीं है ; आपका बच्चा प्यास से तड़प रहा है और आप वहाँ पानी की चिन्ता छोड़कर.....!” यह कहते हुए आयुषी ने एक छोटा—सा जग उठाया और घर से बाहर निकलते हुए कहा — “मन्नू आंटी से एक जग पानी ले आऊँ, उन्हें शायद मिल गया होगा पानी !”

आयुषी अपनी पड़ोसन मन्नू आंटी के घर से पानी ले रही थी, तभी उसके कानो में चीख—पुकार का स्वर सुनायी पड़ा था। उसको आभास हुआ था कि यह चीत्कार—भरा स्वर उसके घर से आया था, किन्तु उसने इसको गम्भीरता से नहीं लिया। कुछ ही क्षणों पश्चात् जब वह वापिस घर लौटी, उसका भाई रो रहा था, किन्तु उसके गले से आवाज नहीं केवल हिचकियाँ निकल रही थीं और दोनों आँखों से आँसुओं की गंगा—यमुना बह रही थी। उसके माता—पिता धरती पर रक्तरंजित अवस्था में पड़े हुए कराह रहे थे। अपने घर का कारुणिक दृश्य देखकर आयुषी को समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब क्या ? कैसे ? और क्यों हुआ है ? और आगे क्या होने वाला है ? अब तक घर में पास—पड़ौस के लोगों की भीड़ इकट्ठी होने लगी थी। घर के सामने गली पार स्थित घर में रहने वाली स्त्री कह रही थी — “दो—तीन आदमी हाथों में हथियार लिए हुए घर में घुसे थे और चार—पाँच मिनट बाद ही बाहर आ गये। इस बीच घर से चीखने की आवाज आयी थी, पर डर के मारे मैं अपने घर की दहलीज पर ही खड़ी रही।”

उस स्त्री की बात सुनकर आयुषी को आभास होने लगा था कि उसके माता—पिता की इस दशा का जिम्मेदार कौन हो सकता है ? किन्तु उसके मुख से शब्द नहीं निकल रहे थे। उसने पानी का जग अपने छोटे भाई के हाथों में दे दिया और रक्तरंजित माँ के निकट बैठ गयी। निकट ही पिता का मरणासन्न शरीर पड़ा था। माँ ने कराहते हुए पश्चाताप भरी दृष्टि से आयुषी की ओर देखा और कहा — “बेटी उसने...!” कहते—कहते आयुषी की माँ के प्राण—पखेरु उड़ गये और वाक्य अधूरा ही रह गया।

माँ के अधूरे वाक्य को पास—पड़ौस के लोगों ने पूरा करते हुए बताया कि आयुषी के माता—पिता की हत्या उसी औरत ने करवायी है, जिसने लाइन तोड़कर आयुषी की माँ के साथ झगड़ा किया था। किन्तु आयुषी का चित् उनसे सहमत नहीं था। उसका मन—मस्तिष्क बस एक ही बात बार—बार कह रहा था — “मेरे मम्मी—पापा के प्राण पानी की कमी से गये हैं ; सहनशीलता की कमी ने और संवेदनहीनता ने उनको निगल लिया है।”

लगभग एक माह पहले घटित दुर्घटना की स्मृति चित् में आते ही उसका हृदय चीत्कार उठा। वैसे तो आयुषी अपने माता—पिता की हत्या का दृश्य एक क्षण के लिए भी नहीं भूल पाती थी, किन्तु आज उसका घाव हरा हो गया और वह अज्ञात से भावों से अनुपूरित होकर काँपने लगी। अब उसके हृदय में पीड़ा और क्रोध के मिले—जुले भावों के साथ—साथ कुछ कल्याणकारी करने का उत्साह उमड़ रहा था। कँपकपाते होठों से उसने दादी से पूछा —

“ दादी गाँव में कोई तालाब भी नहीं है ?”

“ बेटी, अब तालाब—पोखर कहाँ ! कुछ साल पहले तक गाँव के बाहर गाँव के तीन ओर एक—एक तालाब थे, पर इंसानियत के दुश्मन धींगड़ों ने उन तालाबों में मिट्टी डाल—डालके उस जगह पर अपनी इमारत खड़ी कर लीं।”

“ उन्हें किसी ने रोका नहीं ऐसा करने से ?”

“ धींगड़े से कौन दुश्मनी करे ?”

“ दादी, मैं अड़ूँगी उनके आगे ! दादी, मैंने पढ़ा है तालाबों की जमीन पर अपना अधिकार करके वहाँ पर इमारत बनाना अपराध है ! हम इन सबकी शिकायत करेंगे और दोबारा वहाँ पर तालाब बनवाएँगें !”

आयुषी की बातें सुनकर दादी के होठों पर पीड़ायुक्त हँसी छिटक आयी—

“ तू करेगी इनका मुकाबला ? बेटी, हमारी इतनी औकात ना है ! तू अभी बच्ची है, बड़ी हो जाएगी, तो समझ जाएगी !”

“ नहीं, दादी ! पानी के पीछे मैंने मेरे माँ—बाप को खोया है ! अब मैं इस एक महीने में इतनी बड़ी तो हो गयी हूँ कि तालाब पर अपना अधिकार करके इमारत बनाने वाले दबंगांे को ऐसा सबक सिखा सकूँ, जिसे उनकी आने वाली एक—दो पीढ़ी अवश्य याद रखेंगी !”

आयुषी की दृढ़ता देखकर उसकी दादी को एक प्रकार के अद्वितीय सुख का अनुभव हो रहा था, किन्तु साथ—साथ एक अनजाने—अनिष्ट की आशंका उन्हें घेरने लगी। दादी ने अपने भय को छिपाने का असफल प्रयास किया और धीमे स्वर में बोली—

“ बेटी, हमें उन लोगों से उलझने की कुछ जरुरत ना है ! बड़े खराब लोग हें वे सब !”

आयुषी ने दादी की बात का कोई उत्तर नहीं दिया। कोई प्रतिक्रिया नहीं की, मानों उसने कुछ सुना ही नहीं हैं। उसको शांत—उदासीन देखकर दादी भी विषय को विस्तार देना आवश्यक न समझकर चुप हो गयी।

अगले दिन प्रातः शीघ्र उठकर आयुषी घर से निकल गयी। दादी बिस्तर से उठी, तो आयुषी को घर में न पाकर चिन्तित हो उठी। दादी ने इधर—उधर ढूँढा, आयुषी नहीं मिली। कई घंटे बीत गये, किन्तु आयुषी का कुछ पता नहीं चला। धीरे—धीरे उनके मन—मस्तिष्क पर चिंता के बादल घिरने लगे कि गाँव के दबंग और असामाजिक तत्वों ने उनकी पोती के साथ कुछ अकरणीय न कर दिया हो ?

एक सप्ताह पश्चात् दोपहर के लगभग ग्यारह बजे पुलिस की जीप ने आयुषी के साथ गाँव में प्रवेश किया। पुलिस जीप को देखते ही गाँव मे हड़कंप मच गया। कुछ क्षणों में गाँव में यह समाचार जंगल की आग की भाँति फैल गया कि आयुषी की शिकायत पर पुलिस गाँव के मानचित्र में निर्धारित तालाबों का सर्वे करा रही है। एक ओर तालाबों का सर्वे आरंभ हो गया था, तो दूसरी ओर सरकारी संपत्ति पर अवैध स्वामित्व करने वाले दबंग ग्रामीणों के हिंसक विरोध के साथ छद्म योजनाएँ आरंभ हो चुकी थीं। इधर आयुषी के सकुशल घर लौट आने से दादी में भी हिम्मत आ गयी थी। दादी ने आयुषी के साथ घर—घर जाकर पुलिस के समर्थन में मत जुटाना आरंभ किया। गाँव वाले आगे आने से डरते थे, किन्तु आयुषी और दादी की बातों से वे सभी सहज सहमत हो जाते थे। आयुषी ने गाँव वालों को समझाया कि पुलिस इस गाँव में गाँव वालों के हितों के लिए आयी है, इसलिए पुलिस के साथ सहयोग करने से गाँव वालों का ही भला होगा।

दस दिन पश्चात् चुनिंदा दबंग ग्रामीणों का विरोध, पुलिस और प्रशासन की समुचित न्यायपूर्ण कठोर कार्यवाही तथा सामान्य ग्रामीणों में आयुषी तथा दादी की प्रेरणा चरम पर थी। जिस समय दबंग ग्रामीणों और उनके भाड़े के लठैतों ने पुलिस पर लाठी—पत्थर तथा देशी तमंचों से हमला किया, उसी समय आयुषी की प्रेरणा से गाँव वालों में अत्याचार के प्रति उत्साह भर गया और गाँव के सभी स्त्री—पुरुष लाठी—डंडे लेकर पुलिस के साथ आ गये। गाँव वालों के सहयोग से पुलिस ने अपराधियों को बंदी बना लिया और तालाबों की जमीन पर बनी इमारत को गिराकर खुदाई आरंभ कर दी। जिस समय ग्रामीणों की सहायता से सरकार द्वारा तालाबो का पुननिर्माण कार्य सम्पन्न हुआ, उस समय सभी की आँखों में प्रसन्नता की चमक थी। सभी लोग परस्पर बधाई दे रहे थे, परन्तु सभी की जुबान पर आयुषी का नाम था।

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