मेरा विश्वास Ved Prakash Tyagi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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मेरा विश्वास

मेरा विश्वास

दिल्ली में बच्चों को स्कूल आने जाने में बड़ा समय लगता है, बस मैं बैठे बैठे बच्चे भी परेशान हो जाते हैं, इस समस्या को हल करने के लिए मैंने स्कूल के सामने घर बना लिया।

मेरे घर के दायीं तरफ हिन्दू आबादी थी और बाईं तरफ मुस्लिम आबादी, जो आपस में मिल जुल कर रह रहे थे। मैंने उस समय सिर्फ बच्चों की सुविधा देखी थी।

मैं बचपन से ही संघ का स्वयं सेवक हूँ अतः नजदीक ही शाखा में जाने लगा और धीरे धीरे मुझे वहाँ के नगर कार्यवाह का दायित्व सौंप दिया गया।

मेरे नगर में लगने वाली सभी शाखाएँ मजबूत एवं नियमित थी, जिनमे ज़्यादातर तरुण स्वयं सेवक थे। मुस्लिमों से भी मेरा अच्छा परिचय था लेकिन उस क्षेत्र के कुछ कोंग्रेसी नेता मुझसे चिढ़ने लगे जिसका मुझ पर कोई असर नहीं हुआ।

मैंने भारत में होने वाले हिन्दू-मुस्लिम दंगों के बारे में एक किताब पढ़ी और जान पाया कि अलीगढ़ का दंगा, मुरादाबाद का दंगा, जमशेदपुर का दंगा, मेरठ का दंगा और अहमदाबाद 1969 का दंगा काँग्रेस के शासन काल में सुनिओजित तरीके से एक षड्यंत्र के तहत करवाए गए और बदनाम संघ को किया गया एवं मुस्लिमों को संघ और हिंदुओं से डराया गया। इस किताब के लेखक एक वामपंथी थे अतः इसमें पक्षपात की भी गुंजाइश नहीं थी, इसलिए मैं अपने क्षेत्रीय कोंग्रेसी नेताओं की गतिविधिओं से सतर्क रहने लगा।

मेरी सतर्कता पूरे क्षेत्र के लिए तब वरदान बन गयी जब राम मंदिर व बाबरी मस्जिद ढांचा गिराए जाने के बाद पूरे क्षेत्र में जगह जगह हिन्दू मुस्लिम दंगे हो रहे थे।

मेरा घर एक बड़े स्कूल के गेट के सामने था और स्कूल गेट पर बने सुरक्षा गार्ड वाले कमरे में पुलिस ने अपनी चौकी बना ली। पुलिस वालों को चाय, पानी, कंबल, दरी, चादर, चारपाई जो भी चाहिए होता मेरे घर से ले जाते यहाँ तक कि कभी रसोई में स्वयं जाकर चाय बना लेते थे। अतः मुझे उनकी सभी गतिविधिओं के बारे में पता रहता था। वेलकम, जाफराबाद जैसे क्षेत्रों में दंगों जैसी स्थिति थी और वहाँ पर पुलिस मुठभेड़ में कुछ लोग मारे भी गए थे।

हमारी कॉलोनी के पीछे की तरफ एक कब्रिस्तान था और कब्रिस्तान से लगती हुई एक हरिजन बस्ती। हरिजन बस्ती से कुछ महिलायें कब्रिस्तान में शाम के समय शौच के लिए जाया करती थीं। उस दिन हरिजन बस्ती से औरतें कब्रिस्तान में गयी तो थोड़ा अंधेरा हो चुका था, तभी पुलिस बल के साथ कुछ लोग कब्रिस्तान में उन लोगों के मृत शरीर दफनाने पहुंचे जो लोग जाफराबाद और वेलकम में दंगा करते हुए मारे गए थे। अंधेरे में अचानक इतनी भीड़ को कब्रिस्तान की तरफ बढ़ती देख कर वो सभी औरतें घबरा गयी एवं यह सोच कर वहाँ से भाग खड़ी हुईं कि दंगाई आ गए हैं।

‘आ गए, आ गए’ का शोर करते हुए भाग कर सभी औरतें तो अपने अपने घर में घुस गयी और दरवाजे अंदर से बंद कर लिए, किसी को कुछ बताया भी नहीं, न ही दरवाजा खोला। यह नजारा देखकर कर लोग भड़क उठे एवं यह अफवाह पूरे मोहल्ले में फैल गयी और लोग अपने घरों से हथियार लेकर सड़कों पर आ गए।

इधर मेरे घर के सामने से पुलिस के सभी जवान अचानक गाड़ी में बैठ कर तेजी से कब्रिस्तान की तरफ दौड़े चले गए लेकिन जाने से पहले मुझे सब बता गए।

कॉलोनी में किराये पर रहने वाला एक व्यक्ति दौड़ता हुआ आया और शोर मचाने लगा, “आ गए, आ गए” और उसने शोर मचा कर अपने कमरे में घुस कर दरवाजा अंदर से बंद कर लिया जो काफी खटखटाने पर भी नहीं खोला।

अभी मैं यह सब नजारा देख ही रहा था कि मेरी नजर एक भीड़ पर पड़ी जो स्कूल के गेट की तरफ बढ़ी चली आ रही थी, सबके हाथ में हथियार थे। तभी मैंने दूसरी तरफ निगाह दौड़ाई तो दूसरे समुदाय की भी उतनी ही भीड़ उसी तरह हथियारों से लैस दिखाई दे रही थी।

हम सब घबरा गए, बच्चों को लेकर श्रीमतीजी घर के अंदर चली गयी और दरवाजा अंदर से बंद कर लिया, सभी लाइटें बंद कर दीं। श्रीमतीजी बार बार गुस्से में मुझे बोल रहीं थीं कि अंदर आ जाओ, लेकिन मैं सोच रहा था कि अगर मैं अंदर चला गया तो आज गलत फहमी और अफवाहों के कारण बहुत बड़ा दंगा हो जाएगा, बहुत से निर्दोष मारे जाएंगे, कुछ अपंग हो जाएंगे और न जाने कितने घरों को लूट लिया जाएगा या आग के हवाले कर दिया जाएगा।

यह सब सोच कर ही मेरी आत्मा काँप गयी और मैं घर से बाहर सड़क पर आ गया तभी श्रीमतीजी ने गुस्से में आकर दरवाजा अंदर से बंद कर लिया लेकिन मुझे एक स्वयं सेवक होने के नाते स्वयं पर पूरा विश्वास था कि मैं अपने क्षेत्र में किसी तरह का दंगा नहीं होने दूंगा।

मेरे दायीं तरफ भी भयंकर अनियंत्रित भीड़ हथियारों से लैस पूर्ण रूप से उग्र और बाएँ तरफ दूसरे समुदाय की भी वैसी ही उतनी ही भीड़ खड़ी थी, मुझे लगा जैसे दोनों तरफ दो विरोधी सेनाएँ तैयार खड़ी हैं, मौका मिलते ही पल भर में एक दूसरे पर टूट पड़ेंगी।

मैंने साहस किया और और दोनों के बीच में अपने हाथ फैला कर खड़ा हो गया, एक स्वयं सेवक का विश्वास और शायद भगवान की ही कृपा थी कि दोनों तरफ की भीड़ वहीं रुक गयी। मैंने हिंदुओं से पूछा, “क्या हो गया है?” तब उन्होने कहा, “कब्रिस्तान में इन्होने हमारी औरतों को छेड़ा है।”

मैंने जब उनको समझाया कि कब्रिस्तान में भारी पुलिस बल के साथ कुछ लोग वेलकम और जाफराबाद के दंगों में मारे गए लोगों को दफनाने आए थे जिन्हें दंगाई समझ कर वहाँ पर शौच करने गयी हुई औरतें देख कर भाग गईं एवं डर कर शोर मचाती हुई अपने घर में घुस कर अपने घरों के दरवाजों अंदर से बंद कर लिए, किसी को कुछ भी बताया नहीं जिससे लोगों को गलत फहमी हुई एवं इस तरह की अफवाह पूरे क्षेत्र में फैल गयी जिसे सुनकर आप लोग दौड़े चले आए।

अब मैंने दूसरे समुदाय से पूछा तो वे बोले, “हमारे समुदाय का परिवार जो स्कूल के सामने रहता है उनकी हत्या कर दी गयी।” मैंने उस समुदाय के लोगों से उस घर में जाकर तसल्ली करने को कहा, उन्होने दरवाजा खुलवा कर तसल्ली की और सब कुछ ठीक ठाक पाया।

अब तक दोनों तरफ की भीड़ शांत हो चुकी थी एवं ज़्यादातर लोग वापस जाने लगे थे। पाँच सात लोग अभी भी वहीं पर खड़े थे मुझसे बात करना चाह रहे थे। ये सब वहाँ के छुट भइये नेता थे जो मेरे नजदीक आकर कहने लगे, “त्यागी जी! आपने आज यह सब क्यों रोक दिया? आज तो हो जाने देते, हमें काट लेने देते कुछ लोगों को, आपने बेकार में ही रोक दिया।”

मैंने कहा, “तुम उनको काटते, वो तुम्हें काटते, आपस में कटुता बढ़ती और दंगों में सब लोग झुलसते, अब आप ऊपर वाले का धन्यवाद करो और घर जाओ।” उस समय तो वे भी वापस चले गए और हमने सूझ बूझ से एक दंगा होने से बचा लिया।

रात में एक व्यक्ति दूसरे समुदाय के घर में हथियार लेकर औरतों के बीच घुस गया जिसको उन लोगों ने पकड़ लिया और उसको लेकर सीधे मेरे पास आ गए। उनमे से एक व्यक्ति कहने लगा, “त्यागी जी! ये लोग यहाँ हमें शांति से रहने नहीं देंगे, ये लोग भरपूर प्रयास करेंगे कि किसी तरह यहाँ पर दंगा हो जाए।”

मैंने पूछा, “आप क्या चाहते हैं?” उसने कहा, “हम तो दंगा नहीं चाहते हैं।” मैंने अपने और उनके कुछ समझदार जवान लोगों की टोलियाँ बनाई और पहरा देने लगे।

इस तरह हमने मिल कर दंगाइयों के मंसूबों पर पानी ही नहीं फेरा बल्कि अपने क्षेत्र में शांति बनाए रखी एवं उस क्षेत्र के सभी मुस्लिमों को यह विश्वास भी दिला दिया कि हम संघ के लोग कभी भी दंगा नहीं चाहते और न ही दंगा करते लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम किसी भी तरह से कमजोर हैं।

‘यह था मेरा विश्वास, एक स्वयं सेवक का विश्वास’