आपकी प्रतीक्षा में
सुमन शर्मा ‘जार्विीं'
हिन्दी अकादमी, दिल्ली के सौजन्य से
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समर्पित
मैं अपना यह उपन्यास, डॉ हेम भटनागर को सपर्पित कर रही हूँ।
वह केवल मेरी ही नहीं, अनेकों महिलाओं की प्ररेणास्त्राोत रहीं हैं।
अपनी संस्था 'संस्कार' के माध्यम से उन्होने, कई नवोदित लेखिकरओं का प्रोत्साहन बढ़ाया है।
—सुमन शर्मा ‘जार्विीं'
आभार
मैं उन सभी पाठकों के प्रति अभारी हूँ, जिन्होने मेरे प्रथम उपन्यास ‘चन्द्रमौलि शुभा का' को तथा हास्य व्यंगा ‘मुस्कान एक लम्हा' को पढ़कर अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रियाएँ भेजीं। आपकी प्रतिक्रियाएँ मुझे लिखते रहने के लिए प्रेरित करती हैं।
—सुमन शर्मा ‘जार्विीं'
मेरी बात
प्रिय पाठकों,
हमारा देश एक विकासशील देश है। जब तक यह पूर्ण रुप से विकसित नहीे हो जाता, तब तक हमें बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। गरीबी हमारे देश में एक बहुत विकट समस्या है। हमारे देश की लगभग आध्ी जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर कर रही है। गरीबी के कारण परिवार में लड़की के जन्म को अभिशाप सा समझा जाता है। जहाँ लड़के, ध्नोपार्जन का साध्न समझे जाते हैं। वहीं लड़कियाँ व्यय का कारण समझी जाती हैं। कहीं— कहीं तो लड़कियों को जन्म लेते ही मार दिया जाता है।
सच तो यह है कि परिवार में खुशहाली लड़कियाँ ही लाती हैं। लड़कियाँ लड़कों से अध्कि संवेदनशील होती हैं। वह घर के सदस्याें का भी संज़ीदगी से ख़्याल रखतीं हैं और बाहर का काम भी मेहनत से करती हैं। स्त्राी जाति के बिना, इस जगत की कल्पना करना भी असंभव है। मगर कैसी विडम्बना है? जगत की जननी के जन्म पर ही जगत जश्न नहीं मनाता। लड़कियों की हर क्षेत्रा में उपेक्षा की जाती है।
आप सोच रहे होगे, कि इस विषय पर पहले भी बहुत लोग बोल चुके हैं। इसमें नया क्या है? इसमें नया यह है, कि न तो मैं आपको महिलाओं के अध्किारों के लिए नारे बाजी लगाने के लिए कह रही हूँ , न ही कोई आन्दोलन शुरु करने के लिए कह रही हूँ और न ही कोई कानून बनवाने या उसमें संशोध्न करने हेतु ध्रना व प्रदर्शन करने का सुझाव दे रही हूँ। मेरी तो आपसे बस इतनी सी प्रार्थना है, कि आप जिस भी क्षेत्रा में हों, अपने आस—पास की लड़कियों और महिलाओं को पूरा सहयोग दें। उन्हें हतोत्साहित न करें। लड़कियों के जन्म पर भी उत्सव मनाएँ। क्या आपके घर की लड़कियाँ, आप के घर के उत्सव और त्यौहारों में चार चाँद नहीं लगातीं?
कहीं—कहीं महिलाएँ भी स्वयं महिलाओं की विरोध्ी देखी गई हैं। शायद इसके पीछे उनकी कुण्ठा छिपी हा,े कि वह स्वयं जो कुछ प्राप्त करना चाहती थी, उन्हें नहीं मिला—इस कारण वह कुछ ईर्ष्या ग्रस्त हो जाती हों। महिला वर्ग को भी इस ओर एक दूसरे का सहयोग देना चाहिए। क्योंकि एक महिला की उन्नति में ही घर की, समाज की तथा देश व संसार की उन्नति छिपी है।
मेरे उपन्यास की कहानी पूरी तरह से काल्पनिक नहीं है। मैं एक ऐसे परिवार के संपर्क में आई, जहाँ पूरे परिवार को, अपने परिवार के एक पुरुष सदस्य की प्रतीक्षा में, बहुत लम्बा समय व्यतीत करना पड़ा। उस परिवार में अध्कितर महिलाएँ थीं। इसलिए परिवार को अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा था। क्योंकि जीवन में सकारात्मक सोच रखनी चाहिए, इसलिए कहानी का अन्त, पाठकों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए बदल दिया गया है। सभी पात्रा भले ही काल्पनिक हैं, मगर उनकी भावनाएँ यथार्थ सेजुड़ी हैं।
इस उपन्यास को पढ़ने के बाद आप का समाज के उस वर्ग से भी परिचय हो जाएगा, जो गरीबी के चलते अपनी हर इच्छा का दमन कर जीवन व्यतीत कर रहा है।
आपके सुझाव एवं आपकी प्रतिक्रिया की मुझे प्रतीक्षा रहेगी।
— सुमन शर्मा ‘जार्विीं'
अध्याय एक
दीपावली का त्यौहार समीप आ रहा था। घरों में रंगाई—प्ुाताई का काम ज़ोरों—शोरों से चल रहा था। बाज़ारों को आकर्षक ढंग से सजाया जा रहा था। सभी दुकानों पर बहुत चहल—पहल दिखाई दे रही थी।
इस चहल— पहल से कुछ ही दूर पर शैला, जो कि केवल पाँच वर्ष की थी—अपने घर के बाहर कच्ची सड़क पर खड़ी होकर, घर के सामने वाले बाज़ार के नुक्कड़ पर बनी दर्जी की छोटी सी दुकान को बड़े ध्यान से देख रही थी।
‘बाप रे बाप! कितनी भीड़ लगी हुई है।' वह बुदबुदाई। दर्जी छन्नुमल का बड़ा बेटा, इंचटेप से कपड़े नाप कर रखता जा रहा था। छन्नुमल ग्राहकों के इच्छानुसार कपड़े सिलने के लिए उनका नाप ले कर उनसे विचार विमर्श कर रहा था। कपड़े सिलवाने वालों का तांता लगा हुआ था। दोनाें के पसीने छूट रहे थे। दुकान ज़्यादा बड़ी न थी इसलिए कुछ लोग दुकान के बाहर भी खड़े थे। छन्नुमल के बूढ़े पिताजी कमर झुकाए बीच— बीच में अपनी राय दे रहे थे।
शेैला सुन्दर— सुन्दर कपड़ो को निहार रही थी। वह सोच रही थी, ‘इस बार दीपावली को मैं क्या पहनूँगी? पिछली दिवाली को तो माँ ने अपनी गोटे—सितारों वाली साड़ी में से मेरे लिए प्रफॅाक सिलवा दी थी, लेकिन इस बार मैं नहीं चाहती, कि माँ अपनी एक और सुन्दर साड़ी मेरी प्रफॉक के लिए खराब करे।'
वह एक लम्बा साँस छोड़ते हुए सोचती है, ‘बाबूजी यहाँ होते, तो दिवाली का कुछ और ही मज़ा होता। बाबूजी तो शहर जाकर हमें भूल ही गए। शहर पहुँच कर बाबूजी ने अपनी कोई खैर खबर तक नहीं भेजी। माँ और दादाजी कितने परेशान रहते हैं।'
दो वर्ष पहले गाँव में एक कार्यालय खुला था, जो गाँववालों कोे विदेश में नौकरी दिलवाने का कार्य कर रहा था । शैला के बाबूजी ने भी विदेश जाने की लालसा में अपना नाम वहाँ दर्ज़ करवाया था। बाद में वह कार्यलय वहाँ से हट गया था और बाबूजी को विदेश जाने का निमन्त्राण दिल्ली से आया था। शैला की माँ ‘कात्यायनी' ने अपने सारे गहने बेच कर, शैला के बाबूजी के विदेश जाने का प्रबन्ध् किया था। बूढ़े दादाजी ‘दीनानाथ' ने भी तो अपनी सारी जमा पू़ँजी लगा कर विदेश जाने के प्रबन्ध् में अपने बेटे की सहायता की थी। लेकिन दीनानाथ के बेटे ‘चक्रध्र' ने गाँव से जाने के बाद एक पत्रा भी नहीं भेजा। अब तो बड़ी कठिनता से दीनानाथ की पेंशन से घर का गुजारा चलता था।
वह अपने विचारों में लीन थी, तभी भीतर से शेेेेेेेैेला की माँ ने शैला को आवाज़्ा लगाई। ‘शैला! औ शैला!'
शैला भागती हुई अन्दर गई, तो माँ ने कहा, ‘तरकारी धे कर काट दे बिटिया! दादाजी के लिए खाना बनाना है।' शैला ने तरकारी धेते—धेते माँ से सवाल किया, ‘ माँ दिवाली के त्यौहार को कितने दिन रह गये हेैं?' माँ ने उँगलियों पर गिनना शुरू किया ‘एक, दो, तीन और कहा, पूरे दस।' शैला ने पिफर माँ से सवाल किया, ‘ माँ बाबूजी दिवाली के त्यौहार पर तो घर आ जाएँगें?' ‘पता नहीं।' कहते हुए, कात्यायनी के चेहरे पर कुछ देर के लिए निराशा आ गई। एक लम्बी आह भरते हुए वह बोली, ‘किस देश में गए हैं? मैं तो यह भी नहीं जानती।' शैला ने तरकारी के बर्तन के पास चाकू सखते हुए अपनी माँ की निराश अाँखों की ओर देखा, जिनमें अश्रुओं के साथ—साथ हृदय की पीड़ा भी झलक रही थी।
कात्यायनी तरकारी के बर्तन को अपनी ओर सरकाते हुए बोली, ‘रामदीन चाचा शहर से आए हैं। कल तेरे दादाजी सुबह उनसे मिलने जाएँगे और पूछ कर आएँगे कि उस कार्यालय से क्या जानकारी मिली, जिसका पता दादाजी ने उन्हें दिया था।'
शैला माँ से जा लिपटी और बोली, ‘तुम कभी शहर मत जाना माँ।' कात्यायनी ने पूछा, ‘क्यों?'' शैला बोली, ‘नहीं तो तुम भी बाबूजी की तरह शहर की भीड़ में खो जाओगी।' ‘नहीं जाउँफगी।' कहते हुए कात्यायनी की अाँखे पिफर से डबडबा गईं। माँ की आँखों की उदासी शैला को भी उदास कर देती थी। शैला ने गाँव में लगने वाले मेले का पर्चा दिखाते हुए माँ से कहा, ‘बाबूजी जब आ जाएँगे तब हम मेला देखने जाएँगे।' कात्यायनी ने हामी में सिर हिला दिया। तरकारी के बर्तन को उठाते हुए उसने शैला से कहा. ‘जा तू बाहर जाकर खेल ले।'
नन्ही शैला कूदती पफाँदती पिफर से घर के बाहर बनी कच्ची सड़क पर आ कर खड़ी हो गई। उसकी निगाह हलवाई की दुकान पर टिक गई। वहाँ लड्डू के थाल के थाल उतर रहे थे। गुलाब जामुन, इमरती, बपर्फी और बालूशाही के भी बड़े —बड़े थाल सजे हुए थे।
शैला के घर में तो दो समय के भोजन का प्रबन्ध् भी बहुत कठिनाई से हो पाता था, मिठाई ख़रीदने की तो वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी। शैला ने दोपहर के एक बजे भोजन किया था। शाम ढलने वाली थी। सामने सजी हुई मिठाईयाँ उसकी भूख को ओर भी बढ़ा रहीे थी। वह सोच रही थी, ‘इतने सारे लड्डू कौन ख़रीदता होेगा?' उसने अपने सवाल का स्वयं ही जवाब ढूँढ लिया, ‘शायद सरपंच जैसे अमीर लोग। जब बाबूजी विदेश से वापिस आ जाएँगें तो हम भी बहुत सारी मिठाईयाँ खरीदेगे।' हलवाई के कारीगर मिठाई के डिब्बों को रंग बिरंगे कागज़ों में लपेट रहे थे। शैला कल्पना कर रही थी, कि बाबूजी के वापिस आने पर वह भी सुन्दर—सुन्दर कागज़ों में लिपटि मिठाई के डिब्बे घर—घर में बाँटने जाएगी।
साँय ध्ीरे ध्ीरे अपना अाँचल समेट रही थी। शेैला बाजार की रोैनक को अपने नयनो में समेटे, घर के अन्दर आ गई। माँ सिल—बटटे पर लहसुन की चटनी पीस रही थी। बिजली के बल्ब का पीला प्रकाश चारों ओर प़फैल रहा था। शैला के बूढ़े दादाजी अाँगन में बिछी खटिया पर लेटे खाँस रहे थे। शरीर से बहुत कमज़ोर हो गए थे। सपफ़ेद कुर्ता, पज़ामा पहने हुए थे, लेकिन कपड़ो की सपफ़ेदी अब पीलेपन में बदल चुकी थी। जीवन से थक चुकी, नीरस आँखों में केवल, अपने बेटे से मिलने की उम्मीद झलक रही थी।
शैला के अन्दर आते ही कात्यायनी ने उससेे कहा, ‘बिटिया जरा दादाजी के लिए खाने की थाली तो लगा दे।' इतना कह कर वह चूल्हे पर रोटियाँ सेकने चली गई। शैला ने रसोईघर में लगे बर्तनों में से दो कटोरियाँ, एक तश्तरी व एक गिलास निकाला। एक कटोरी में तुरई की सब्जी ओैर एक कटोरी में लहसुन व लाल मिर्च की चटनी परोसी, मिट्टी की सुराई से पानी के गिलास को भरा और माँ के पास खड़ी होकर रोटी सिकने का इन्तजार करने लगी। कात्यायनी मिस्सी रोटी को चिमटे से पकड़ कर चारों ओर से सेक रही थी। रोटी के सिकते ही उसने उसे ससुर जी की थाली में रख दिया। शैला थाली को संभालती हुई दादाजी की चारपाई तक पहुँच गई। चारपाई के पास रखी चौकी पर उसने थाली रख दी और वहाँ रखे लोटे से दादाजी के हाथ ध्ुलवाए। दीनानाथ ने काँंपते हुए हाथों से थाली को पकड़ लिया। और खाना खाना शुरू कर दिया। कात्यायनी ने तब तक शैला की खाने की थाली लगा दी। श्ैाला चूल्हे के पास बैठ कर खाना खाने लगी। माँ के हाथ की बनी लहसुन की चटनी, तुरई की सब्जी और मिस्सी रोटी शैला को अमृत के सामन लग रही थी। शैला अपना भोजन समाप्त करके दादाजी के पास जाकर बैठ गई। दादाजी के दाँत नहीं थे इसलिए दादाजी ध्ीरे ध्ीरे खा रहे थे। शैला बड़े ध्यान से दादाजी की तरपफ देख रही थी। वह दीनानाथ से बोली, ‘दादाजी आपको खाना खाने में इतना समय क्यों लगता है?' दीनानाथ ने कहा, ‘मेरे दाँत नहीं हैं ना, इसलिए खाना चबाने में समय लग जाता है।' शैला उदास स्वर में दादाजी से प्रश्न करती है, ‘क्या मेरे बाबूजी के भी दाँत टूट जाएँगें?' दीनानाथ पोपले मुँह से हँसते हुए बोला, ‘नहीं तेरे बाबूजी के दाँत कभी नहीं टूटेगें' शैला ने भोलेपन से पूछा, ‘बाबूजी के बाल भी सपफ़ेद नहीं होगें ना?' दीनानाथ ने कहा, ‘नहीं तेरे बाबूजी तो विलायत जाकर अंग्रेज़ बन गये हैं।'
दादाजी के खाना समाप्त करते ही शैला उनकी थाली माँ को दे आई। कात्यायनी ने रसोई साप़फ करके बर्तनों को व्यवस्थित किया। सभी कार्यो को समाप्त कर वह खाना खाने बैेठ गई। उसके लिए केवल दो रोटियाँ और थोड़ी सी चटनी ही शेष रह गई थी।
खाना खाकर दादाजी अपनी चारपाई पर लेट गए। शैला भी माँ के साथ घर के कार्यो में हाथ बँटाने के बाद थक चुकी थी। वह भी दादाजी के पास बिछी हुई चारपाई पर चादर व तकिया लेकर लेट गई। आकाश एकदम स्वच्छ और नीला था। सैकड़ो तारे आकाश में झिलमिला रहे थे। शैला बडे़ ध्यान से उन तारों को देख रही थी। कुछ तारे बहुत चमक रहे थे और कुछ तारे ध्ुँध्ले थे। कुछ तारे नीले रंग का प्रकाश दे रहे थे, तो कुछ हल्की लाली लिए हुए थे। जब तारो की चमक ही एक जैसी नहीं, तो भला हम इन्सानों की किस्मत एक जैसी केैसे हो सकती है? शायद यही विचार उठ रहे थे, नन्ही शैला के मन में। रात का सन्नाटा ध्ीरे—ध्ीरे अपने पैर पसार रहा था। बाजार की चहल—पहल समाप्त हो चुकी थी। आसपास के घरों के दरवाजे बन्द हो चुके थे। पास में रेलवे स्टेशन था। सन्नाटे को चीरता हुआ जोरदार रेलगाड़ी का हार्न बजा और छुकछुक करती हुई, एक गाड़ी स्टेशन पर आकर रुक गई। कात्यायनी ने अन्दाज़ लगाया, कि दस बज गए हैंं। शैला सोच रही थी यह रेलगााड़ी रोज़ इतने सारे लोगों को लाती है, न जाने मेरे बाबूजी को कब लाएगी? ऐसे ही बहुत से सवालों के जवाब ढूँढते—ढूँढते शैला गहरी नींद में सो गई। कात्यायनी ने अपने घर का सारा काम समाप्त किया और वह दरवाज़ा—जो गली में खुलता था, उसकी चटखनी लगा दी। चटखनी की ज़ोरदार आवाज़ से एक बार तो शैला की अाँख खुल गई लेकिन वह करवट लेकर दुबारा सो गई। दीनानाथ भी खाँसो हुआ उठ बैठा और कम्बल ओढ़ कर पिफर से सो गया। कात्यायनी ने बल्ब के स्विच को बन्द किया और ध्ीरे से शैला के पास सिमट कर सो गई। रात ठन्डी होती जा रही थी। कात्यायनी सोच रही थी अगले महीने तक तो ठन्ड बहुत ही बढ़ जाएगी, बरामदे में सोना ठीक न होगा। कमरे में ही सोने की जगह बनानी पड़ेगी। उन के पास केवल एक छोटा सा कमरा व रसोईघर था। रात की स्याही पूरे गाँव पर छा गई थी। कात्यायनी पूरे दिन का काम करके थक गई थी। उसे लेटते ही नीद आ गई।
सुबह के चार बजे थे। आकाश में तारे अभी भी झिलमिला रहे थे। न तो अभी मुर्गे ने बाँग दी थी और न ही पक्षियों ने चहकना शुरू किया था। कात्यायनी अपना बिस्तर छोड़ उठ बैठी। हाथ मुँह धेकर, दूध् का बर्तन उठाया और दूध् लाने के लिए निकल गई। जब वह दूध् लेकर लौट रही थी तो गाँव में सुबह की हलचल शुरू हो चुकी थी। पूर्व में सूरज की लालिमा दिखाई देने लगी थी। गायों का रंभाना सुना जा सकता था। पीपल के पेड़ पर बैठे कोैए काँव—काँव कर रहे थे। मुर्गोर् ने बाँग देना शुरू कर दिया था। बहुत सी महिलाएँ घड़े सिर पर रख कर कुँओं से पानी भरने जा रही थी। कोयल अपनी मीठी आवाज में कूह—कूह कर रही थी। कात्यायनी ने घर वापिस आकर दूध् गर्म करके सब से पहले ससुरजी को उठ।कर दूध् का गिलास थमाया। शैला भी माँ की आवाज से उठ गई। आज दादाजी को रामदीन चाचा के पास जो जाना था बाबूजी के बारे में जानकारी लेने। भला पिफर शैला को नींद कहाँ आती। दीनानाथ ने दूध् पीने के बाद अपने इस्त्राी करवाए हुए कपड़े निकाले और अपने जूतों को एक पुराने कपड़े से सापफ करने लगा। कात्यायनी घर की झाड़ू बुहारी में व्यस्त हो गई। दीनानाथ नहा धेकर तैयार हो गया। नीले रंग के कुरते पशामे के साथ उसने काले जूते पहने थे। अपने सपफेद बालों में उसने खुशबूदार तेल भी मला। वह चमड़े के छोटे से पर्स को बगल में दबाकर घर के बाहर निकल गया। शैला खुशी से पफुदक रही थी। वह बार—बार कात्यायनी से आकर लिपट जाती, ‘माँ आज पता चल जाएगा, बाबूजी कहाँ हैं?' उसे बाबूजी के वापिस आने के दिन समीप दिखाई दे रहे थे।
उध्र दीनानाथ कच्ची सड़क पर खुद को सम्भालते हुए पक्की सड़क पर पहुँचा। कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद एक बैल गाड़ी वहाँ पर आ गई। हाथ का इशारा देकर दीनानाथ ने उसे रोका और अगले मोड़ तक छोड़ देने का उससे आग्रह किया। बैल गाड़ी के मालिक ने आग्रह स्वीकार करते हुए बैठने का इशारा किया। दीनानाथ बड़ी मुश्किल से बेैल गाड़ी पर सवार हो गया। बैल गााड़ी खचर—खचर की आवाश करती हुई आगे बढ़ गई। अगले मोड़ पर जा कर गाड़ी रुक गई। दीनानाथ गाड़ी से उतर कर कच्ची सड़क के सहारे एक गली में मुड़ गया। इसी गली में रामदीन रहता था। रामदीन का घर आने से पहले ही दीनानाथ जोर जोर से चिल्लाने लगा, ‘रामदीन! ओ रामदीन!' रामदीन भी दीनानाथ की आवाज सुनकर गली में खुलने वाले दरवाजे को खोल कर बाहर आया और बोला, ‘आओ दीनानाथ काका।' वह दीनानाथ को सहारा देकर अन्दर ले गया। उसने अाँगन में रखी हुई कुर्सी पर दीनानाथ को बैठने का इशारा किया। दीनानाथ ने कुर्सी पर बैठते ही रामदीन से पूछा, ‘रामदीन! मेैंनेे तुझे चक्रध्र के बारे में जानकारी लाने के लिए, एक कार्यलय का पता दिया था। तूने दिल्ली जाकर क्या जानकारी प्राप्त की?' रामदीन बड़ी बेप़िफक्री से बोला, ‘अरे काका! वो कागज जिस पर पता लिखा था, मेरे से कहीं खो गया।' दीनानाथ के उफपर तो जैसे बिजली ही गिर पड़ी हो, वह बोला, ‘अरे रामदीन! मैं तो बड़ी आशा से तेरे पास आया था। तूने तो मेरी सारी उम्मीदों पर पानी पफेर दिया।' रामदीन बोला, ‘अरे काका! नाराज़ क्यों होते हो? तीन महीने बाद मुझे पिफर से दिल्ली जाना है। दुबारा पता लिख कर दे देना। इस बार जरफर जानकारी प्राप्ज कर आउफँगा।' अब दीनानाथ को वहाँ ठहरने में कोई रूचि न थी। वह अपनी लाठी सम्भाल कर उठ गया। रामदीन बोला, ‘अरे काका लस्सी तो पीकर जाना।' दीनानाथ का मुँह गुस्से से लाल हो चुका था। वह बोला, ‘‘ना भई ना। मुझे तो घर वापिस जाना है।' दीनानाथ रामदीन के घर से बाहर निकल आया और तेजी से अपने घर की ओर बढ़ गया। इस बार उसने किसी बेेैलगााड़ी का इन्तजार नहीं किया।
शैला गाँव के चोेेेैड़े मैदान में अपनी सहेलियों के साथ खेल रही थी। दादाजी को आते देखकर शैला अपनी सहेलियों को बिना कुछ कहे घर की ओर दौड़ी। ‘माँ! माँ! दादाजी वापिस आ गए।' वह खुशी से चिलाई। ससुरजी के घर में घुसते ही कात्यायनी ने बड़ी आशा भरी दृष्टि से उनकी ओर देखा। दादाजी निढाल होकर चारपाई पर बैठ गए। उन्होने बोलना शुरू किया, ‘अरे बहू! वह रामदीन तो निकम्मा निकला। लापरवाह कहीं का। उसने तो वो कागज ही खो दिया जिसमें मैंने चक्रध्र का पता लिख कर दिया था। अरे!उसे क्या मालूम हम लोगो पर क्या बीत रही है?' दीनानाथ की वर्षों से सूखी आँखों से आज अश्रु लुकड़ कर गालों पर आ गए थे। कात्यायनी सिर पर पल्लू लिए सब बातें सुन रही थी। दादाजी बोले, ‘चक्रध्र के बिना एक—एक दिन एक—एक बरस जैसा लग रहा है। अब तो मुझे स्वयं ही शहर जाना पड़ेगा। श्ैाला कात्यायनी के पास खड़ी सब सुन रही थी उसके मुँह पर भी निराशा का भाव साप़फ नज़र आ रहा था। वह तो अपनी सहेलियों से कह चुकी थी कि वह अपने बाबूजी के साथ दिवाली का मेला देखने जाएगी। कात्ययानी भीतर ही भीतर टूट चुकी थी। लेकिन उसने अपने ससुर को ध्ीरज बँधते हुए कहा, ‘ मैं अपने भाई कालीचरण से बात कँरूगी। वह आपके साथ शहर चला जाएगाा। दीनानाथ बोला, ‘ दिवाली का त्यौहार बीत जाए, थोड़ी सी भीड़—भाड़ कम हो जाए, पिफर जाएँगे शहर।' शैला ने दादाजी को पानी का गिलास थमाया और अपने हाथों से दादाजी के गाल के अश्रु पोंछ दिए। वह दीनानाथ की ऐसी स्थिति देखकर, कमरे के भीतर जाकर सुबकने लगी। कात्ययानी उसके साथ—साथ भीतर चली गई। शैला माँ से लिपट गई और पूछने लगी, ‘माँ! क्या इस दिवाली तक बाबूजी नहीं आएँगें?' कात्यायनी का गला भी रूँध् गया था वह क्या जवाब देती?
आज उसे वह दिन याद आ रहा था, जब शैला का जन्म हुआ था। सारा परिवार पुत्रा के जन्म की आशा में, उत्सव मनाने की तैयारी कर रहा था। भाई कालीचरण, पफल और मिठाईयों के दो टोकरे ले आया था। शैला के बाबूजी ने ढोल वाले को बुलवा लिया था। नाच गाना करने के लिए शैला के बाबूजी के दोस्त भी आ गए थे। लेकिन दार्ई ने जैसे ही पुत्राी के जन्म की सूचना दी, घर में सन्नाटा छा गया था। ससुरजी ने सारा गुस्सा कालीचरण पर उतारा था। उन्होने कालीचरण को पफटकारते हुए कहा था, ‘वापिस ले जा यह पफल और मिठाई।'
लेकिन आज घर के सन्नाटे को दूर करने के लिए नन्हीं शैला, घोर अँध्यारे में दीये की तरह टिमटिमा रही थी।
बस अब तो कात्ययानी को उस दिन का इन्तजार था, जब कालीचरण और ससुरजी शहर जा कर उस के पति के विषय में कुछ अच्छी ख़बर लाएँगें।
अध्याय दो
आज दिवाली का त्यौहार था। कात्यायनी सुबह से घर को झाड़ पोंछ रही थी। शैला माँ के काम में हाथ बँटा रही थी। इसी काम में दोपहर हो गई। कात्यायनी ने शैला से कहा कि वह जाकर नहा ले। दीनानाथ भी नहा—धेकर तैयार हो गया था। बरसों से सम्भाल कर रखी हुई शेरवानी, पहनी थी आज दीनानाथ ने। वह चमड़े की जूतियाँ पहन कर अपने दोस्तों को दिवाली की शुभकामनाएँ देने चला गया। कात्यायनी दोपहर का खाना बनाने लगी। आज वह खाने में पूरियाँ, हलवा, आलू की सब्जी ओेैर बेसन के लड्डू बना रही थी। शैला जब नहा कर बाहर आई तो कात्यायनी ने कहा, ‘बिटिया! अन्दर जा कर देख तेरे लिए पलंग पर कुछ रखा है। ' शेैला ने उत्सुकता से पूछा, ‘क्या रखा है माँ?' कात्यायनी ने कहा, ‘तू जाकर तो देख। ' शैला उत्सुकता से अन्दर भागी। वह कल्पना कर रही थी, ‘अवश्य ही बाबूजी का पत्रा आया होगा। भला ऐसा हो सकता है? दिवाली का त्यौहार हो और बाबूजी हमें याद न करें।' शैला कमरे के अन्दर पहुँची। पलंग पर एक सुन्दर पफ्रॅाक रखी थी। प्रफॉक इतनी सुन्दर थी कि शैला कुछ पल के लिए बाबूजी के पत्रा के विषय में भी भूल गई। उसने बाहर आकर माँ से पूछा, ‘माँ यह प्रफॉक कहाँ से आई? कहीं तुमने पिफरसे ़़़़़़ ़' कात्यायनी ने शैला की बात को बीच में काटते हुए कहा, ‘तेरी बुआ दे कर गई हैं।' शैला ने आश्चर्य से पूछा, ‘बुआ कब आयी?' ‘बस आयी थीं एक दिन। तू उस दिन बाहर खेलने गई हुई थी।' कात्यायनी झूठ बोलते हुए अपना मुँह छिपा रही थी। कात्यायनी ने अपनी एक और सुन्दर साड़ी को त्याग दिया था— शैला की पफ्रॉक के लिए। शैला नई पफ्रॅाक पहन कर बहुत खुश थी। वह भागकर अपनी सहेलियों के पस चली गई। उसकी सहेलियाँ भी सुन्दर—सुन्दर पोशाकों में सजी हुईं थीं। सबसे सुन्दर पोशाक तो राध्किा की थी। उस गुलाबी पफॉक में राध्किा बिल्कुल परी जैसी लग रही थी।
घर वापिस आकर शेैला और बाबूजी ने जमकर खाना खाया। पूरा गाँव त्यौहार की खुशी में सरोबार था। शैला को आज हर वस्तु खुशी में झूमती हुई सी नज़र आ रही थी। अगर कुछ कमी थी तो सिपर्फ बाबूजी की।
शाम होते—होते पूरे गाँव में अिातशबाजियाँ चलने लगी। इक्के—दुक्के अमीर लोगो के घर बिजली के बल्बों की रंग बिरंगी लड़ियाँ में झिलमिला रहे थे। सभी घरों में लक्ष्मी पूजन की तैयारी शुरू हो गई थी। घर की मुंडेरों पर दीये सजाये जा रहे थं। शैला के पास केवल एक पफूलझड़ी का पैकेट था। वह उसी में इतनी खुश थी मानों उस के पास कुबेर का खज़्ााना हो। वह प्रतीक्षा कर रही थी कब उसकी सहेलियाँ आएँ और कब वह उनके सामने उन्हें चलाए। कात्यायनी ने पूजन की तैयारी करके शैला और ससुरजी को बुलाया और तीनों ने मिल कर लक्ष्मी पूजन किया। पूजन समाप्त होते ही शेैला अपनी पफूलझड़ी का पैकेट लेकर अपनी सहेलियों के पास चली गई। सहेलियों के साथ उसने बहुत मज़ा किया और पिफर घर वापिस आ गई। कात्यायनी ने सबको रात का खाना परोसा और स्वयं भी खाना खाने के बाद यह सोच कर मीठी नींद में सो गई कि एक दिन उसकी जिंदगी की अमावस्या भी समाप्त हो जाएगी, उस दिन जिंदगी दिवाली के दीपक की तरह झिलमिलाएगी।
दिवाली के अगले दिन अन्नकूट था और उससे अगले दिन भैयादूज। कात्यायनी न केवल अपने भाई के आने से प्रसन्न थी अपितु उसे अपने पति के विषय में जानकारी मिलने के दिन भी नज़दीक आते दिख रहे थे। भैयादूज वाले दिन वह सुबह पास के बाजार से तरकारी लेने चली गई। वापिस आई तो उसका भाई कालीचरण दीनानाथ से बातें कर रहा था। दोनों ने शहर जाने का दिन और समय भी तय कर लिया था। कात्यायनी ने तिलक करने के लिए थाली सजा ली ओैर भाई को तिलक करने के बाद उसने भाई को ध्न्यवाद दिया कि वह अपने काम काज से समय निकाल कर ससुरजी के साथ शहर जा रहा है। कालीचरण ने कहा, ‘अरे पगली कैसी बातें कर रही है? क्या चक्रध्र मेरा कुछ नहीं लगता?' कात्यायनी सुबक रही थी। कालीचरण उसे ढाँढस ब्ाँधते हुए बोला, ‘तू चिंता मत कर बहना। मैं शहर जा कर सब कुछ पता लगा लूँगा।' कालीचरण ने शैला को एक गुड़िया भेंट दी और कात्यायनी को एक साड़ी। खाना खाने के बाद वह दादाजी से आज्ञा लेकर अपने घर लौट गया।
आखिर वह दिन भी आ गया जब दीनानाथ और कालीचरण को शहर जाना था। दीनानाथ सुबह बहुत जल्दी उठ गया थ।। कात्यायनी ने शहर जाने के लिए रोटियाँ बना दी थी। रोटियो को उसने कपड़े की एक छोटी सी पोटली में बाँध् दिया। उसने एक छोटी सी डिब्बी में कचरी की चटनी बना कर भी रख दी। सुबह के पाँच बजे थे। दादाजी तैयार होकर कालीचरण के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। तभी लम्बे—लम्बे डग भरता हुआ कालीचरण आ पहुँचा और बोला, ‘चलिए बाबूजी पहली बस से ही निकल चलते हैं।' दीना नाथ लाठी के सहारे उठते हुए बोला, ‘चलो भाई जल्दी चलो मेेैं तो प्रतीक्षा में ही बैठा था।' शैला ने रोटी की पोटली और चटनी की डिब्बी दादाजी को पकड़ा दी। दादाजी ने उन्हें कपड़े के थैले में रख लिया। दोनो पैदल ही गाँव से कुछ दूर पर बने बस अडडे की ओर निकल गए। कालीचरण ने दीनानाथ को एक कोने में खड़ा किया और स्वयं दिल्ली जाने वाली बस ढूँढने लगा। पिफर वह एक बस के पास पहुँचा जो चलने को तैयार थी। कालीचरण ने डाईवर से पूछा, ‘ क्या यह बस दिल्ली जाएगी?' डाईवर ने कहा, ‘हाँ जल्दी आओ।' कालीचरण ने दूर से ही आवाश लगाई, ‘जल्दी आओ बाबूजी!' दीनानाथ लाठी टिकाते हुए बस की ओर बढे। कालीचरण ने सहारा देकर दीनानाथ को बस में चढ़ाया। दोनो के बैठते ही बस हरे भरे खेतों के बीच बनी छोटी सड़क पर ध्ीरे ध्ीरे चलने लगी और कुछ ही देर में छोटी सड़क से निकल कर बड़ी सड़क पर पहुँच गई। गाँव की चहल पहल दूर रह गई थी। सड़क पर चारों ओर वाहन ही वाहन दिखाई दे रहे थे। बस तेशी से आगे बढ़ रही थी। कुछ देर बाद ही बस एक कस्बे में जा कर रफकी। कुछ यात्राी बस में चढे़ और कुछ बस से नीचे उतरे। बस पिफर से अपने गन्तव्य की ओर बढ़ गई। दिल्ली आने से पहले कई और छोटे—छोटे गाँव व कस्बे आए। दिल्ली बस अड्डे पर बस के रफकते ही कालीचरण ने दीनानाथ को सहारा देकर नीचे उतारा। दिल्ली शहर की रौनक देखकर दोनों की आँखे चकाचौंध् हो गईं। उन्होने एक सज्जन से पूछा, ‘भेेेेेैया आज़ाद मार्किट जाने के लिए बस कहाँ से मिलेगी?' वह सज्जन बोले, ‘यहाँ से सड़क पार करके सामने चले जाओ। वहाँ सड़क के पार बस स्टैंड पर 703 नम्बर मिलेगी।' दीनानाथ ने उसको बहुत—बहुत ध्न्यवाद दिया। दोनो सड़क पार करके वहाँ बने बस स्टॉप पर आकर खड़े हो गए। 703 नम्बर बस आई लेकिन बस में इतनी भीड़ थी कि लोग बस के दरवाशे़ पर लटक रहे थे। दीनानाथ और कालीचरण तो आँखे पफाड़े बस को देखते ही रह गए। ऐसी कई बसें आई और चली गईं। पास बैेठा पनवाड़ी बहुत देर से उन्हे देख रहा था। उसने इशारे से कालीचरण को अपने पास बुलाया और बोला, ‘अरे भेैया दिल्ली सहर मा पहली बार आए हो का?' कालीचरण ने कहा, ‘ हाँ भाई क्या बताए बहुत मज़बूरी में आएँ हैं।' ‘तुम लोग तिपहिया स्कूटर लेकर काहे नही चले जाते? इन बसों में चढ़ना बहुत मुस्किल है।' पनवाड़ी ने कहा। कालीचरण ने उसकी बात मानी ओैर साठ रफपये में आशाद मार्किट के लिए स्कूटर तय कर लिया। दादाजी के लिए यह रकम बहुत बड़ी थी। दोनो स्कूटर में बैठ कर आशाद मार्किट की ओर चल दिए। स्कूटर की तेज़ गति से दीनानाथ बार—बार सीट पर लुढ़क रहा था। आशाद मार्किट आ जाने पर दादाजी ने अपनी जेब से वह कागश़्ा निकाला, जिसमें उस कार्यालय का पता लिखा था, जहाँ से चक्रध्र को बुलावा आया था। वह कार्यलय भी उन्हें मिल गया, लेकिन वहाँ के चपड़ासी से लेकर बड़े अपफसर तक किसी से चक्रध्र के विषय में कोई जानकारी नहीं मिली।
दादाजी बिल्कुल निढाल हो चुके थे, सोच रहे थे, ‘क्या मुँह दिखाउफँगा जाकर बहू को और पोती को।' कालीचरण ने दीनानाथ से कहा , ‘चलो कहीं बैठकर खाना खा लेते हैं।' दीनानाथ को कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। उनके मुँह से एक निवाला भी नीचे नहीं उतर रहा था। कालीचरण ने उन्हें ध्ीरज रखने को कहा। मगर दीनानाथ का तो ध्ीरज का बाँध् टूटा जा रहा था। वह पफपफक—पफपफक कर रोने लगे। दोनो सुस्त कदमो से गाँव लौट गये।
गाँव पहुँचते—पहुँचते रात हो गयी थी। शैला की अाँखों में नींद घुल रही थी लेकिन वह दादाजी और मामाजी के वापिस आने का इन्तशार कर रही थी। दरवाजे पर दस्तक होते ही वह खुशी से दौड़ी ‘माँ! माँ! दादाजी वापिस आ गए।' वह ज़ोर से चिल्लाई। माँ सिर पर पल्लू लेकर दरवाज़ा खोलने चल पड़ी। दरवाज़्ाा खुलते ही दीनानाथ और कालीचरण मुँह लटकाकर भीतर घुस गये। उनके लटके चेहरे देखकर कात्यायनी भीतर ही भीतर सिहर गयी। दीनानाथ अन्दर आते ही बोला, ‘बहू चक्रध्र का वहाँ कुछ पता नहीं चला।' दीनानाथ बिलख—बिलख कर रोने लगा, ‘अब में चक्रध्र को ढूँढने कहाँ जाउफँ?' कात्यायनी के मुँह से कोई शब्द नही निकल रहा था। शैला तो ठगी हुई सी सब को देख रही थी। कालीचरण भी बेबस दिख रहा था। उस ने बहिन से आज्ञा ली और अपने घर की ओर निकल गया।
नवम्बर का महीना था । गुलाबी ठंड पड़नी शुरू हो गई थी। दीनानाथ ध्ूप में बैठे हुआ था। कात्यायनी अपने रोज़ के कामों में व्यस्त थी। शैला अपने घर के बाहर खेल रही थी। तभी दो महिलाएँ हाथ में रजिस्टर लिए कात्यायनी के घर में घुसीं। शैला भी उनके पीछे—पीछे घर में घुसी। दीनानाथ को प्रणाम करके वह महिलाएँ उनके पास बेेैठ गईं। उन्होने दादाजी से पूछना शुरू किया, ‘क्या इस घर में दस साल से कम उम्र का बच्चा है जो स्कूल न जाता हो?' दीनानाथ ने कहा, ‘हाँ मेरी पोती है। लेकिन हमें उसे स्कूल नहीं भेजना।' दोनो महिलाओं ने आश्चर्य से पूछा, ‘क्यों? अब तो सरकार की तरपफ से आठवीं तक की शिक्षा निशुल्क है।' दादाजी ने कहा, ‘लड़कियाँ पढ़ लिख कर क्या करेगीं?' उन महिलाओं ने दीनानाथ को बहुत समझाने की कोशिश की कि पढाई लिखाई से रोज़मरा के कार्यो में भी बहुत मदद मिलती है। लेकिन दीनानाथ अपनी हठ पर अड़ा था। कात्यायनी तो शैला को स्कूल भेजना चाहती थी, लेकिन ससुरजी के सामने बोलने की उसकी हिम्मत नही थी। शैला भी सब कुछ सुन रही थी। उसे तो स्कूल जाने का शौक था। वह दादाजी से लिपट गई और बोली, ‘दादाजी मैं पढ़ना चाहती हूँ। मैं स्कूल जाउँगी।' दीनानाथ बार—बार इन्कार करता रहा। शैला भी दादाजी से निरंतर आग्रह करती रही। आखिर दीनानाथ ने पोती के सामने अपनी हार मान ली और शैला का नाम दर्ज़ करवाने की अनुमति दे दी। महिलाओं ने शैला का नाम रजिस्टर में लिखा और कात्यायनी को यह बताया कि गाँव के पास पड़ी खाली जगह पर स्कूल बनेगा। अप्रैल में कक्षायें शुरू हो जाएँगी। उन्होने एक पफॅार्म भरकर कात्यायनी से उस पर हस्ताक्षर करवाने के लिए आगे बढ़ाया तो दादाजी जा़ेर से चिल्लाये, ‘इस घर का मुख्यिा मैं हूँ। मेरे पास लाओ यह पफॅार्म।' दोनो महिलाएँ खबरा गईं और पफॅार्म दीनानाथ को दे दिया। दीनानाथ का मुँह गुस्से से लाल हो गया था। उसने छट से पफॅार्म लिया अपने थैले में से अपना चश्मा निकाला और पफॅार्म को पढ़ कर, उस पर हस्ताक्षर कर दिए। दोनो महिलाएँ पफार्म लेकर तेज़ी से बाहर चली गईं।
शैला खुली अाँखो से पाठशाला जाने के सपने देखने लगी। कितना सुन्दर सपना देखा था, शैला ने—बाबूजी कंधे पर शैला का बस्ता टाँंगे हुए हैंं। शैला बाबूजी का हाथ थामे खेतो के बीच कच्चे रास्ते पर चली जा रही है। खेतो की मिटटी से, खेतों को सींचने के बाद जैसी, सोंधी—साेंधी ख़्ाुशाबू आ रही हैंं। ठंडी—ठंडी हवा चल रही है।
लेकिन सपने तो पानी के बुलबुले की तरह, एक ही क्षण में टूट जाते हैं। पिफर वास्तविकता से हमारा परिचय हो जाता है और वास्तविकता अाँखों में शीशे की तरह चुभनें लगती है। इस समय मासूम शैला की भी यही स्थिति थी।
कात्यायनी ने शैला को बाहर खेलने भेज दिया, ताकी उसका दिल बहल जाए। वह सोच में डूब गई, कि उसने शैला को स्कूल भेजने का निर्णय लेकर कुछ बुरा तो नही किया? ‘क्या गाँव के इस वातावरण में शैला को स्कूल भेजना ठीक होगा?' अनेकों आशंकाओं से उसका मन घबरा रहा था। अभी तो स्कूल खुलने में चार महीने का समय शेष था। यह सोच कर उसने ठंडी साँस भरी। अभी तो वह केवल अपने भाई की शादी के विषय में ही सोचना चाहती थी। अगाले महीने के पहसे सप्ताह में ही तो होनी थी, उसके भाई की शादी।
अध्याय तीन
दिसम्बर महीने की दूसरी तारीख़ थी। आज कात्यायनी को उसका भाई लिवाने के लिए आ रहा था। दीनानाथ अपनी सन्दूक में से कुछ ढूँढ रहा था, शायद अपनी धर्मपत्नी के कुछ गहने। गहने, जो उसने बहुत सम्भाल कर रखे थे। अपना पत्नी की एकमात्रा निशानी थी उसके पास। वह उन्हे कात्यायनी को सोपना चाहता था। ताकि वह भी अपने भाई की शादी में सज धज ले।
शैला तो कब से तैयार होकर अपनी सहेलियों से मिलने चली गई थी, क्यों कि वह अपने ननिहाल पूरे पन्दह दिन के लिए जा रही थी।
ठीक ग्यारह बजे कालीचरण आ पहुँचा। कात्यायनी तो पहले से ही बक्सा तैयार कर, भाई के आने की प्रतीक्षा में थी। भाई के आते ही, उसके पाँव में तो जैसे घुँघरू बंध् गए। जल्दी से गिलास में छाछ उडेली उसमें थोड़ा सा नमक मिलाया और थोड़ी सी सूखे पोदीने की पत्तियाँ मसल कर बुरक दीं। पिफर स्वयं शैला को बुलाने के लिए गली की ओर दौड़ गई। ‘शैला! ओ शैला! मामाजी आ गए हैं, जल्दी आ।' माँ की आवाज़ सुन कर शैला दौड़ती हुई चली आई और आते ही मामाजी से लिपट गई। कात्यायनी ले जाने वाले सामान को, बरामदे में रखती जा रही थी।
वह पड़ोस की लक्ष्मी के पास गई और बोली , ‘लछमी ओ लछमी'' लक्ष्मी बोली, ‘आओ काती बहिन! कैसी हो?' ‘मैं तो ठीक हूँ। तुम कैसी हो?' कात्यायनी ने जवाब में कहा। लक्ष्मी ने आकाश की ओर देख कर कहा, ‘उसकी दया हैं।' ‘मैं तुम्हें यह कहने के लिए चली आई थी, कि तुम कुछ दिनो के लिए दो समय के भोजन की व्यवस्था ससुर जी के लिए कर देना।' कात्यायनी ने कहा। ‘तुम चिंता मत करो। तुम्हारे पीछे से ससुरजी को कोई परेशानी नहीं होगी।' लक्ष्मी का जवाब था। कात्यायनी के वापिस आने पर, तीनों निकल पड़े—शैला के ननिहाल की ओर।
बन्द घर में तो ठंड का अहसास नही हो रहा था। खुले खेतों में पहुँचते ही, ठंंड से तीनों कँपकँपाने लगे। शैला ने माँ से पूछा, ‘माँ क्या शहर में भी इतनी ठंड पड़ती है?' कात्यायनी कुछ बोलती, उससे पहले कालीचरण बोलने लगा,‘‘हाँ, हाँ शहर में भी ठंड होती हैै। कुछ में कम और कुछ में अध्कि ठंड पड़ती है। किसी किसी शहर में तो आसमान से बप़र्फ भी बरसती है।'‘ ‘आसमान से बप़र्फ?' शैला ने आश्चर्य से पूछा। वह बोली, ‘तो क्या लोगों का सिर नहीं पफूटता बप़र्फ से।' कालीचरण जोर— जोर से हँसने लगा और बोला, ‘बप़्ार्फ की सिल्लियाँ थोड़े ही गिरती हैंं, पगली! रूई की तरह हल्की—हल्की पफुहार गिरती है।' मामाजी के हँसने से शेैला रूँआसी होकर माँ से लिपट गई और बोली, ‘माँ मामाजी मेरी बात पर हँस रहे हैं।' कात्यायनी ने बात को टालते हुए कहा, ‘नानाजी और नानीजी को वहाँ पहुँच कर नमस्ते कहना।' लेकिन शैला तो कल्पना कर रही थी कि आसमान से बप़्ार्फ कैसे गिरती होगी? अचानक उसकी आँखें खुशी से चमक उठीं वह बोली, ‘माँ बाबूजी कहीं बप़्ार्फ वाले शहर तो नही चले गए?' तब तक कालीचरण ने अपने गाँव जाने वाली बस को हाथ देकर रुकवा लिया था। तीनों बस में सवार होकर चल दिए। खेत खलियानो से बस ध्ीरे—ध्ीरे निकल रही थी। शैला ने कालीचरण से पूछा, ‘मामाजी नानी का घर कितनी देर में आएगा।' ‘अभी तीन घंटे बाक़ी हैं।' कालीचरण ने जवाब दिया। थोड़ी देर में एक कस्बा आ गया। बस रफकी तो यात्राी वहाँ खानेे पीने के लिए उतर गए। एक मूँगपफली बेचने वाला बस में चढ़ गया। कालीचरण ने शैला को दस रफपये की मूँगपफलियाँ ख़्रीद कर दीं। शैला खिड़की के पास बैठकर बड़े चाव से मूँगपफली खाने लगी। बस के यात्राी वापिस आकर बस में बैठ गए। कुछ दूर तक ध्ीरे—ध्ीरे चलने के बाद बस ने गति पकड़ ली। बस से बाहर की दुनिया देखते देखते कात्यायनी अपनी बीती दुनिया में गुम हो गई। जब उसकी डोली उस गाँव से इस गाँव में आयी थी।
‘कितनी भयंकर गर्मी थी, उस दिन। आसमान से जैसे आग जमीन पर बरस रही हो। कितना भारी लहँगाा पहना हुआ था— मैंने। पसीना—पसीना हो रही थी मै। उफपर से इतना लंबा घूँघट। शर्म से भी दोहरी हुई जा रही थी। ससुराल में आकर किसी केा ध्यान भी नहीं था, कि नयी नवेली दुल्हन को भी प्यास लग रही होगी? सब लोगों को शर्बत बाँटा गया, मगर मुझे तो केवल गुलाब के शर्बत की खुशबू ही आई । शाम को अचानक गंगा जीजी को याद आया था तब वह ‘हाय दईया' कहती हुई रसोईघर की ओर भागीं थीं और शर्बत का बड़ा सा गिलास लेकर मेरी ओर बढ़ाया था। शर्म से दो तीन बार इन्कार करने के बाद मैंने झट से गिलास अपने हाथों में ले लिया था। प्यास इतनी अधिक लग रही थी, कि मैं पूरा जग ही पी जाउँ, मगर और माँगने में लजा आ रही थी।' पुरानी बातें याद कर कात्यायनी के होठों पर मुस्कान थिरकने लगी। लेकिन शीघ्रा ही उसके चेहरे पर उदासी छा गई। उसने लम्बी आह भरी, ‘जिस व्यक्ति के लिए अपना सब कुछ छोड़ कर आई थी, वह ही मुझे छोड़ कर चला गया।'
कालीचरण ने बस की सीट के नीचे से संदूक खिसकाया और बोला, ‘जल्दी आ जाओ अपने गाँव का बस स्टैंड आ गया।' कालीचरण और शैला आगे—आगे चल दिए। कात्यायनी एक भारी सा थैला सम्भालतें हुए उनके पीछ—ेपीछे चल रही थी। बस से उतर कर यात्राी उफँट गाड़ी में बैठने लगे। ‘तिजारा की सवारी' एक उफँठ गाड़ी वाला चिल्ला रहा था। शैला का ननिहाल राजस्थान के छोटे से गाँव ‘तिजारा' में था। ‘ऐ भाई रफकना।' कालीचरण ने गाड़ी वाले से कहा। शैला को गोदी में उठाकर कालीचरण ने गाड़ी में बैठा दिया। शैला को गोदी में लेकर कात्यायनी भी बैठ गई। कालीचरण ने संदूक अपनी गोदी में रखी और सिकुड़ कर बैठ गया। उफँट गाड़ी खेत खलियानों के बीच बने कच्चे रास्ते पर चर्र—मर्र की आवाज़ करती हुई चल दी। कड़ाके की ठंड थी। कात्यायनी ने शैला से कहा, ‘अपने दायीं ओर देख। अभी तेरे नानाजी का खेत आने वाला है।' शैला बड़ी उत्सुकता से अपने दायीं ओर देखने लगी। नानाजी के खेत में चने की पफ़सल लहलहा रही थी। कालीचरण बोला, ‘पिछली बार तो चने की खेती को पाला मार गया था।' कात्यायनी ने कहा, ‘इस बार प्रभु किसानों पर दया बरसायें।' बातों बातों में रास्ता कब तय हो गया पता ही नहीं चला। उफँट गाड़ी शैला के ननिहाल के एकदम समीप आकर रफक गई। शैला के नाना, नानी पहले से घर के बाहर खड़े थे। उन्हें देखते ही कात्यायनी की अाँखों से आँसू बह निकले। वह अपनी माँ से लिपट कर बहुत रोई। शायद बहुत दिन का गुब्बार भरा था उसके हृदय में। घर के अन्दर गई, तो बैठक में बहुत से मेहमान बैठे हुए थे। मौसीजी और चाचीजी एक साथ बैठी हुई थीं। कात्यायनी ने शैला को कहा, ‘सबको नमस्ते करो।' चाचीजी ने शैला को प्यार किया और पूछने लगी, ‘तुम्हारे पिताजी साथ नहीं आए?' इस पर मौसीजी ने मुँह बिगााड़ कर चाचीजी से कहा, ‘तुम्हें सब कुछ तो मालूम है, पिफर क्यों बच्ची के ज़ख्म कुरेद रही हो।' इस पर चाचीजी तैश में आ गई, ‘हम कहाँ किसी के ज़ख्म कुरेद रहें हैं। क्या किसी का दुख दर्द बाँटना बुरी बात है? अब शादी ब्याह में आए हैं तो मुँह सिल कर तो नहीं बैठ जाएँगें।' मौसी जी कहाँ चुप बैठने वाली थीं। बोलीं, ‘दर्द बाँटना अलग बात ़़ ़ ' इसी बीच मौसाजी ने मौसीजी की बात को काटते हुए कहा, ‘बाहर बप़र्फीली हवा चल रही है। कात्यायनी और शैला दोनो बाहर से आई हैं। उनके लिए अदरक वाली गर्मा गर्म चाय बनाओ।' मौसीजी घुटनों प्रा हाथ रखते हुए उठने लगीं। कात्यायनी ने कहा, ‘आप बैठिए मौसी जी मैं सबके लिए चाय बना कर लातीं हूँ। शैला नानाजी की उँगली थामे पूरे घर में घूम रही थी। चाय के साथ सबको गर्मा गर्म मटर की कचौड़ियाँ परोसी गईं। कचौड़ियाँ बनाने का काम सम्भाले हुए थे कात्यायनी के बड़े मामाजी जो पेशे से हलवाई थे। आँगन में तन्दूर और अँगीठी जल रहे थे। एक बड़ी सी कढ़ाई में तिल के तेल में बीसीयों कचौड़ियाँ एक साथ तली जा रहीं थीं। सभी मेहमान बहुत दूर—दूर से आए थे, इसलिए शैला की नानीजी मेहमानदारी में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती थी। शैला ने देखा वहाँ लडृडू और गुलाब जामुन बन रहे थे। वह नानाजी से पूछने लगी, ‘क्या आपके पास इन्हें खरीदने के लिए पैसे हैं?' नानाजी उसके भोलेपन पर हँसने लगे। वह बोले, ‘इन्हें खरीदना नहीं है, यें तो मेहमानों के लिए बनवा रहें हैं। शैला के चेहरे पर प्रश्न भाव आ गया वह बोली, ‘क्या ‘मेहमानों' किसी राक्षस का नाम है? वह इतने सारे गुलाब जामुन और लड्डू खाएगा।' नानाजी पिफर ज़ोर ज़ोर से हँसने लगे। शैला नाराज़ स्वर में बोली, ‘सब मेरी बात पर हँसते क्यों हैं? नानाजी ने शैला को गोदी में उठा लिया और बोले, ‘तू बात ही ऐसी करती है।' शैला गोदी में से उतर कर कात्यायनी के पास दौड़ गई। मौसीजी शैला से बोलीं, ‘आजा बेटी मेरे पास कम्बल में बैठ जा नहीं तो ठंड लग जाएगी।' शैला ने कहा, ‘नहीं मुझे ठंड नहीं लग रही। मैं तो मामाजी के पास जा रही हूँ।' हँसी ठहाकों के बीच पूरा दिन बीत गया। रात को भोजन मेंं पुरियाँ, आलू—गोभी की सब्जी, सीतापफल की सब्जी, बूंदी का रायता सबको आदर के साथ परोसा गया। ठिठुरती ठंड के कारण मेहमान जल्द ही बिस्तरों में दुबक गए। ताउफजी और चाचाजी ने रात भर जाग कर पेहरा दिया। गाँवों में डाकूओं और लुटेरों का ख़तरा बहुत अध्कि रहता है।
अगले दिन से शादी की रस्में शुरु हो गईं। पचीस किलो गेहूँ सुहागनों को मिलकर साप़फ करने व पीसने थे। सात सुहागनों की कलाई पर लाल धगा बाँध जाना था। यमुना ताईजी चौकड़ा मार कर आँगन में बैठीं थीं। वह सभी औरतें, जो शादी तक कार्य करने में स्मर्थ थीं, आँगन में एकत्रा हो गईं थींं। ताईजी उनके हाथ में शगुन का धगा बाँध्ती जा रहीं थीं। जब कात्यायनी ने शगुन का धगा बँध्वाने के लिए हाथ आगे किया तो ताईजी ने अपना हाथ पीछे कर लिया और बोलीं, ‘बुरा मत मानना बेटी लेकिन यह शगुन का काम है। सुहागने ही इस काम को करती हैं। इतने दिनों से चक्रध्र के विषय में कोई जानकारी नहीं मिली पता नहीं३ण्' ‘बस कीजिए ताईजी!' कहते हुए कात्यायनी अन्दर कमरे की ओर भागी। वह तकिए में सिर छिपा कर पफूट—पफूट कर रोने लगी। कात्यायनी की माँ भी सब कुछ देख रही थी। वह कात्यायनी के पीछे—पीछे भीतर आई, उसने कात्यायनी की पीठ पर हाथ रखा और बोली,‘अपनी भावनाओं पर नियन्त्राण रखो। इस समाज में भाँति—भाँति के व्यक्ति हैं। हर व्यक्ति का अलग सोच होता है। यदि किसी व्यक्ति का सोच हम से नहीं मिलता, तो हम उस के लिए स्वयं को चोट क्यों पहुँचाए?' ‘लेकिन माँ!' कात्यायनी ने सुबकते हुए कहा, ‘ताईजी और चाचीजी हमेशा इनके विषय में कुछ ऐसा कहती हैं, जो मुझे अच्छा नहीं लगता।' तभी मौसीजी का कमरे में प्रवेश होता है। उनके चेहरे पर भी नाराज़गी थी। वह कात्ययानी की माँ से बोलीं, ‘रमा तेरी जेठानी बहुत कड़वा बोलती है।' कात्यायनी की माँ ने कहा, ‘जीजी हम सब के मुँह पर ताला तो नहीं लगा सकते। कात्यायनी अपने अश्रु पाेंछ कर सामान्य होने की कोशिश कर रही थी। ताईजी की पिफर बाहर से आवाज़ आई, ‘रमा गेहूँ साप़फ कराके क्या अपनी गोदी में रवाउफँ? कोई बोरी तो भिजवा।' रमा बोरी लेने चली गई। आँगन में सुहागने गेहूँ साप़फ करते हुए, मंगल गीत गा रहीं थीं। कात्यायनी जितने उत्साह से भाई की शादी में आई थी, वह ताईजी और चाचीजी के व्यवहार से ठंडा पड़ गया था। कात्यायनी की माँ और मीैसी भी आँगन में जाकर बैठ गई थीं। कात्यायनी कमरे में ड़िकी के पास जाकर ड़ी हो गई। घर के सामने पफैैले ुले मैदान मैं ेल रहे बच्चों को देकर उसे अपना बचपन याद आ गया। ‘कितना निश्चिंत होता है—बचपन, दुनिया के दुों से अनजाना। काश! समय को पीछे ध्केलना संभव होता, तो वह वर्तमान के काँटों से अपना दामन छुड़ा कर, अतीत की गोद में अपना सिर छुपा लेती। ‘लौट जाना चाहती हूँ, मैं अपने बचपन में। उस समय में जब मैं हमेशा प्रसन्न रहती थी।' सोचते—सोचते कात्यायनी पिफर से सुबकने लगी।
‘माँ! ओ माँ! िड़िकी से बाहर क्या दे रही हो? माँ!' शैला ने कात्यायनी की कमर में दोनों हाथ डालकर पूछा। कात्यायनी ने पल्लू से अपनी दोनों आँखें पोंछ कर होठों पर बनावटी मुस्कुराहट बिखेरते हुए कहा, ‘कुछ नहीं बस ऐसे ही।' शैला ने खिड़की से बाहर देखते हुए पूछा, ‘माँ क्या तुम्हें भी खिड़की से बाहर झाँकने पर ऐसा लगता है, कि शायद सामने से बाबूजी आते दिखाई देगें।' कात्यायनी ने शैला के सिर पर प्यार से हाथ पफेरा और बोली, ‘इतना अध्कि क्यों सोचती है? जा जाकर बच्चों के साथ खेल।' लेकिन भीतर ही भीतर कात्यायनी का कलेजा पफटा जा रहा था वह नन्ही शैला को कैसे कहे कि उसकी निगाह तो हमेशा ही दरवाज़े पर लगी रहती है।
कई दिन तक विभिन्न रस्में चलती रहीं। दिन—प्रतिदिन मेहमानों की संख्या बढ़ती जा रही थी। एक रात महिला संगीत का आयोजन किया गया। शैला तो बच्चों के साथ यहाँ—वहाँ खेलती घूम रही थी। शैला के नानाजी अपने दो भाईयों के साथ घर के बीचों बीच बने अीँगन में कुर्सी डाले बैठे थे। शैला खेलते खलते उनकी गोदी में आकर बैठ गई। वह अपने नानाजी से बोली, ‘ये सब कितने अच्छे गीत गा रही हैं।' नानाजी बोले, ‘गाना तो तेरे बाबूजी गाया करते थे। कितनी मीठी आवाज़ थी। जब गिरिध्र गाना शुरु करता था, तब जैसे समय भी कुछ पल के लिए रुक जाता था।' ‘बाबूजी भी गाना गाते थे?' शैला ने आश्चर्य से पूछा। ‘हाँ बहुत अच्छा गाते थे।' नानाजी ने कहा। ‘लेकिन दादाजी ने तो मुझे कभी बताया ही नहीं।' शैला ने जवाब में कहा। उसके नन्हें से चेहरे पर थोड़ी सी गम्भीरता दिखई दे रही थी। ‘तुम्हारे दादाजी को उसका गाना बजाना पसंद नहीं थां।' नानाजी ने कहा, ‘जब भी वह गाता था उसकी बैंत से पिटाई करते थे, तुम्हारे दादाजी।' नानाजी बोलते ही जा रहे थे। ‘तुम्हारे दादाजी बैंत मार—मार कर पूछते थे, ‘गाना सीख कर क्या गवईया बनेगा?' शैला को तो जैसे रुलाई आ गई। वह नानाजी से बोली, ‘मैं दादाजी से बहुत नाराज़ हूँ। मैं उन्हसे कभी बात नहीं करुँगी।' नानाजी के बड़े भाई नानाजी से बोले, ‘क्यों बच्ची से ऐसी बांते कर रहे हो?' दूसरे भाई साहिब ने कहा, ‘बिटिया जा कर बच्चों में ेल। इन बड़े लोगों की बातों से तुझे क्या लेना देना।' शैला बच्चों के साथ ेलने तो चली गई लेकिन वह यह ही सोच रही थी कि दादाजी क्यों बाबूजी को गाना गाने से मना करते थे। गाना तो सभी लोग गाते हैं। पिफर बाबूजी की पिटाई क्यों होती थी। वह ेलते ेलते कात्यायनी के पास गई और बोली, ‘माँ तुम्हें पता है बाबूजी बहुत अच्छा गाना गाते थे?' कात्यायनी ने कहा, ‘हाँ मुझे पता है।' शैला ने कहा, ‘और जब भी बाबूजी गाना गाते थे, दादाजी उनकी पिटाई किया करते थे।' कात्यायनी ने कहा ‘‘हाँ मुझे यह भी मालूम है।' शैला ने कहा, ‘मुझे तो तुमने कभी बताया ही नहीं।' तभी वहाँ कात्यायनी की ममेरी बहिन आ गई और उसका हाथ ींचते हुए बोली, ‘चल मेरे साथ रसोईघर में, सबके लिए चाय बनानी हैा'
आरि घुड़चढ़ी का दिन भी आ गया। सुबह के ग्यारह बजे थे। कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। सूर्य भी जैसे सर्द हवाओं से सिहर कर कोहरे की चादर में दुबका हुआ था। आँगन में बहुत बड़े बर्तन में पानी गर्म किया जा रहा था। बड़ी—बड़ी लकड़ियाँ जलाई गईं थीं, क्योंकि आज तो सभी रगड़—रगड़ कर नहाना चाहते थे। बाराती बन कर लड़की के द्वार जो जाना था। क्या बच्चे और क्या बूढ़े सभी स्वयं को निारने में व्यस्त थे।
कात्यायनी की चाचीजी कंघा हाथ में लिए ताईजी के पास ड़ी, हाथों को नचा—नचा कर बतिया रही थीं। बड़े ताउफजी नहाने के बाद गुसल़ाने से बत्तीसी निकालते हुए ऐसे बाहर आ रहे थे, जैसे ध्रती पर स्नान करने वाले वह पहले व्यक्ति हों। कात्यायनी की माँ सेहरा बँध्ी की तैयारियों में व्यस्त थीं। बड़े हॉल में नाश्ते का कार्यक्रम चल रहा था। कान्ययानी भी शैला के साथ हॉल में उपस्थित थी। कात्यायनी की ममेरी और चचेरी बहनें भी आ पहुँची थीं। उनके साथ मिलकर वह अपने बचपन के लम्हों को पुन जीवंत पा रही थी। माँ को प्रसन्न देकर आज शैला भी बहुत प्रसन्न थी। आज से प्हले उसने माँ को इतना अध्कि हँसते हुए कभी नहीं देा था। कालीचरण भाईयों और दोस्तों से घिरा बैठा था। आज तो उसके दाँत होठों की ओट में छिप ही नहीं रहे थे। उसकी शेरवानी और सुनहरी जूतियाँ लेकर कब से मामाजी तैयार ड़े थे, लेकिन दोस्तों की नोक—झोंक समाप्त ही नहीं हो रही थी। घुड़चढ़ी का समय दोपहर एक बजे का निर्धरित किया गया था। दुल्हन का गाँव एक सौ बीस किलोमीटर दूर था। वहाँ तक पहुँचते—पहुँचते शाम हो जाने की संभावना थी। शहनाई वाले भी आ पहुँचे और शहनाई पर मध्ुर ध्ुने निकालने लगे। एक सजी—ध्जी घोड़ी भी घर के बाहर ड़ी थी। शहनाई के बजते ही मेहमानों में तैयार होने की हलचल अध्कि बढ़ गई। कात्यायनी ने शैला को गुलाबी रंग का लहँगा पहना कर उसके बालों में गुलाबी रंग के रिबन से पफूल बनाया। शैला आज स्वयं को किसी राजकुमारी से कम नहीं समझ रही थी। वह अपने हम उम्र बच्चों के बीच शान से घुम रही थी। शैला की नानीजी घोड़ी के लिए पहले से भीगो कर री हुई चने की दाल उसे लिाने के लिए ले जा रहीं थीं। घर के पास दो बसें आकर ड़ी हो गईं थीं। कालीचरण की सेहरा बंध्ी की तैयारी चल रही थी। प्ंडितजी ने कालीचरण के जीजाजी को सेहरा बाँध्ने के लिए आने को कहा। कुछ देर के लिए सब के होठों पर चुप्पी छा गई। पिफर कात्यायनी की चचेरी बहिन ने अपने पति से कहा, ‘आप आगे जाकर कालीचरण को सेहरा बाँध्ने की तैयारी कीजिए।' कालीचरण को सेहरा बँध्ते ही महिलाएँ सेहरा बँध्ी के गीत गाने लगीं।
बच्चों ने बसों में बैठना शुरू कर दिया। बुजुर्ग भी नवयुवकों का सहारा लेकर बसों में स्थान ग्रहण कर रहे थे। कालीचरण दोस्तों के समूह के साथ ध्ीरे—ध्ीरे आगे बढ़ रहा था। ढोल और नगाड़ो के साथ दोस्त थिरक रहे थे। कालीचरण अपने जीजाजी का सहारा लेकर घोड़ी पर चढ़ गया। सबने उस के उफपर गुलाब की प्ांुड़ियाँ बरसा दीं। शहनाई, ढोल, और नगाड़ो के साथ बारात पास के मंदिर की ओर बढ़ गई। मंदिर से ईश्वर का आशीर्वाद लेने के बाद, कालीचरण दुल्हन के घर जाने के लिए एक कार में सवार हो गया। उसी कार में शैला और कात्यायनी भी सवार हुए। अब दोनों बसें और तीन चार कारें, सभी बारातियों को लेकर दुल्हन के गाँव की ओर चल पड़ीं।
तीन घंटे के सपफर के बाद जब बारात दुल्हन के गाँव पहुँची तो जनमासे में बारात का भव्य स्वागत हुआ। शैला की निगाहें वहाँ भी अपने बाबूजी को ढूँढ रहीं थीं। शायद बाबूजी को भी समाचार मिल गया होे कि कालीचरण मामाजी की शादी है और वह भी शादी में सम्मिलित होने के लिए आ जाएँ। बाराती जल पान में व्यस्त थे और कात्यायनी से शैला प्रश्न पर प्रश्न पूछ रही थी। ‘माँ बाबूजी कौन से रंग की कमीज़ पहन कर गए थे?' शैला के इस प्रश्न पर कात्यायनी थोड़ा सा तुनक कर बोली, ‘तुम्हारे बाबूजी अभी तक उसी कमीज़ में थोड़े ही घूम रहें होगें।' यह सुनकर पास बैठी कात्यायनी की बहिन जोर—जोर से हँसने लगी। एक बार पिफर से शैला झेंप गई।
जनमासे से दुल्हन के घर की ओर बारात ने प्रस्थान किया। कालीचरण के दोस्त बड़े जोश से नाच रहे थे। सड़क पर तरह— तरह की आतिशबाजियाँ चलाई जा रहीं थीं जो आकाश में जा कर विभिन्न प्रकार की रोशनी छोड़ रही थीं। जनमासे से दुल्हन के घर तक के रास्ते को छोटे—छोटे रंग बिरंगे बल्बों की लड़ियों से सजाया गया था। कुछ ही देर में बारात दुल्हन के घर पहुँच गई। बारातियों के स्वागत के लिए सब पफूल माला लेकर ड़े थे। बारातियों को आदर के साथ सुन्दर शामियाने में ले जाया गया। सबसे पहले उन्हें सुगन्ध्ति मीठा जल पीने के लिए दिया गया। दुल्हा—दुल्हन के लिए बनाए गए विशेष मंच पर ‘जयमाला' का आयोजन किया गया। रात्रिा के भोजन में नाना प्राकार के व्यजंन बनाए गए थे। कुछ लोग भोजन करने में व्यस्त हो गए, तो कुछ लोग दुल्हा—दुल्हन को आशीर्वाद देने के लिए मंच के इर्द गिर्द एकत्रा हो गए। कैमरे पर पफोटोग्रापफर तस्वीरें उतार रहा था। एक ओर ‘पफेरों' के लिए वेदी सज रही थी। शैला ने अपने जन्म के पश्चात यह पहली शादी देखी थी। शैला माँ से पूछना तो चाहती थी कि क्या वह भी बाबूजी के साथ ऐसे ही दुल्हन बनकर मंच पर बैठी थी? लेकिन नगाड़ो और ढोल का शौर इतना अध्कि था कि किसी को कानपड़ी सुनाई नहीं दे रही थी। रात्रिा के एक बजे पफेरे शुरू हो गए। कड़ाके की ठंड पड़ रही थी इसलिए मेहमानों के लिए मोटे—मोटे गद्दे बिछाए गए थे तथा ओढ़ने के लिए रजाईयाँ रखी गईं थीं। अध्कितर मेहमान तो बिस्तरों में घुसकर उफँघने लगे थे। कुछ पफेरों का आनन्द ले रहे थे और दुल्हा— दुल्हन से छेड़ छाड़ कर, रात के सन्नाटे को चिढ़ा रहे थे। गर्मा—गर्म चाय व केसर बादाम का दूध् निरन्तर मेहमानों के बीच बाँटा जा रहा था।
सुबह के चार बजे दुल्हन को विदा कर दिया गया। कात्यायनी का परिवार, दुल्हन को लेकर सभी बारातियों सहित अपने गाँव की ओर रवाना हो गया। कात्यायनी की माँ व कुछ महिलाएँ घर पर ही ठहरी हुईं थीं। वह दुल्हन के स्वागत की तैयारी करने लगीं। आरते का थाल सजाया गया। छोटे से कलश में चावल भरकर चोखट पर रखकर चोखट पर आम के पत्तों की ‘बंदनवार' बाँध्ी गई।
पफूलों से सजी कार, जिसमें दुल्हन सवार जब गाँव पहुँची तो गाँव के बच्चे उसके पाछे—पीछे ऐसे चल दिए, जैसे वहाँ कोई नौटंकी होने वाली हो। दुल्हन के कार से नीचे उतरते ही कात्यायनी की चचेरी बहिन आरते का थाल ले आई और उसने दुल्हा—दुल्हन की आरती उतारी। दुल्हन ने घर में प्रवेश करने से पहले, चोखट पर रखे चावल के कलश को सीध्े पाँव से हल्का सा लुड़का दिया। दुल्हा दुल्हन के घर में प्रवेश करतें ही, घर में खुशी की लहर दौड़ गई। अनेकों रस्में निभाई गई।
मेहमानों के अपने घर वापिस लौटने का सिलसिला शुरू हो गया। अगली सुबह कात्यायनी को भी अपने ससुराल वापिस जाना था। वह अपना सामान एकत्रा कर रही थी। कात्यायनी के ‘बजरंगी' मामा उसे छोड़ने जा रहे थे। कात्यायनी की माँ ने सात किलो भाजी बाँध् कर रख दी थी। शैला इतने दिनो तक हँसी खुशी के वातावरण में रहने के बाद वापिस घर जाने के नाम से कुछ उदास थी। लेकिन दादाजी से इतने दिनो के बाद मिलने की खुशी थी।
सुबह सात बजे ही निकल पड़े— कात्यायनी,बजरंगी मामा और शैला। कात्ययाानी के माता—पिता दरवाजे पर खड़े उन्हें दूर तक हाथ हिलाते रहे। माँ ने रास्ते में खाने के लिए पूरियाँ और आलू की सब्जी भी दी थी। दादाजी के लिए थोड़ी सी कचौड़ियाँ अलग से बाँध् कर दीं थीं। उफँट गाड़ी पर सवार हो वह सब बस अडडे की तरपफ निकल गए। उफँट गाड़ी ध्ीरे —ध्ीरे आगे बढ़ती गई। कात्यायनी का मायका पीछे छूटता गया। शादी में बिताए सुनहरे पलों की यादें नींद के साथ, शैला की आँखों में तैर रहीं थीं। शैला माँ की गोदी में सिर रख कर सो गई।
उध्र दीनानाथ बहु और पोती के आने की बाट देख रहा था। उनकी पड़ौसन लक्ष्मी दीनानाथ से पूछने आई कि वह दोपहर को भोजन में क्या खाना पसंद करेगें? दीनानाथ ने जवाब में कहा, ‘आज कात्यायनी दोपहर तक आ जाएगी, वही आकर कुछ बना लेगी।' लक्ष्मी ‘बहुत अच्छा' कहकर अपने घर लौट गई। दोपहर का एक बज गया था। कात्यायनी अभी तक घर नहीं पहुँची थी। दीनानाथ ने रात की बची हुुईं मिस्सी रोटी व लाल मिर्च की चटनी खाकर पानी पी लिया।
दोपहर लगभग दो बजे दरवाजे़ पर दस्तक हुई। दीनानाथ के शिथिल शरीर में उत्साह की लहर दौड़ गई। डगमगाते कदमों से आगे बढ़कर उसने दरवाज़ा खोला। दरवाजे़ के खुलते ही कात्यायनी के बजरंगी मामाजी ने दीनानाथ को हाथ जोड़ कर प्रणाम किया। कात्यायनी ने सिर पर पल्लू लेकर ससुरजी के पाँव छुए। शैला दादाजी से लिपट गई। बजरंगी ने सारा सामान कमरे में रख दिया। शैला ने सबसे पहले दादाजी से सवाल किया, ‘दादाजी आप बाबूजी को गाना गाने पर क्यों पीटा करते थे?' कात्यायनी रसोईघर में मामाजी के लिए चाय बना रही थी। वह रसोईघर से बाहर आई और उसने शैला को चुप रहने का इशारा किया। शैला सहम कर चुप हो गई। उसने अपने हृदय में यह निश्चित कर लिया कि वह इस प्रश्न को भविष्य में दादाजी से अवश्य पूछेगी। बजरंगी ने चाय पीकर अपना दुशाला ओढ़ा और वापिस जाने के लिए दीनानाथ से आज्ञा ली। शैला और कात्यायनी बजरंगी को छोड़ने दरवाज़े तक गईं।
कात्यायनी शाम तक पड़ोस में मिठाई बाँटने में व्यस्त रही। शैला दादाजी के साथ शादी की बातें करती रही। दिसम्बर का अंतिम सप्ताह चल रहा था। कात्यायनी का पूरा सप्ताह घर को व्यवस्थित करने में बीता। दिसम्बर के महीने का अंतिम दिन था। कात्यायनी पड़ी लिखी तो थी नहीं लेकिन गाँव में सभी लोग कह रहे थे कि कल से नव वर्ष प्रारम्भ हो रहा है। अर्ध् रात्रिा को कुछ बम्ब पटाखे पफूटने की आवाज़ भी सुनाई दी। कात्यायनी मन में गहरी निराशा लिए सोच रही थी, ‘शैला के बाबूजी के बिना एक वर्ष और बीत गया।'
अध्याय चार
गाँव के बड़े मैदान में पाठशाला बनने का काम शुरु हो गया था। बड़े बड़े टैम्पो भरे हुए थे ईंटों से, बालू से और रेत से। सैंकड़ो मजदूर वहाँ ुदाई का काम कर रहे थे। मैदान के एक ओर मजदूरों की छोटी—छोटी झोपड़ियाँ बन गईं थीं। पुरफष व महिलाएँ लगातार कार्य कर रहे थे, जबकि उनके बच्चे झोपड़ियों के बाहर ेल रहे थे। शैला अपनी सहेलियों को लेकर प्रतिदिन वहाँ जाती थी और देती थी कि पाठशाला की इमारत कब बनेगी?
ध्ीरे—ध्ीरे पाठशाला की इमारत भी बन कर तैयार हो गई। इमारत की रंगाई पुताई के बाद तो उसकी सुन्दरता में चार चाँद लग गए। मार्च में दालिा भी शुरु हो गया। कात्यायनी ने शैला का पफॉर्म अपने ससुरजी से भरवाया और जमा करवाने चली गई। कई कमियों के कारण पफॅार्म वापिस कर दिया गया। कात्यायनी ने नया पफॅार्म ले कर उसे एक अध्किारी की मदद से पूरा किया। छोटी—मोटी कठिनाईयों के बाद दालिे की प्रक्रिया पूरी हो गई।
गाँव के पास एक शीतला माता का मंदिर था। वहाँ हर वर्ष पफाल्गुन का मैला लगता था। इस वर्ष भी मार्च के महीने के मघ्य में यह मैला शुरु हो गया। कात्यायनी ने शैला से कहा, ‘शैला बेटी! इध्र आ।' शैला आँगन में कच्चे पफर्श की मिटटी में बैठी, अंगुली से चित्रा बना रही थी। वह अध्ूरा चित्रा छोड़कर भागी— भागी कात्यायनी के पास गई, ‘हाँ माँ!'
कात्यायनी ने बोलना शुरु किया, ‘अगले महीने से तूझे स्कूल जाना है।' उध्र हवा से शैला का मिट्टी में बनाया चित्रा पूरी तरह से बिगड़ चुका था। शैला माँ पर हल्के से बिगड़ते हुए बोली, ‘माँ तुम्हारे कारण मेरा चित्रा बिगड़ गया।' कात्ययानी बोली, ‘जो ज्ञान तुम्हें पाठशाला जाकर मिलेगा, उसे न तो हवा बिगाड़ पाएगी न ही पानी।' उसने प्यार से शैला को गोद में बिठा लिया और बोली, ‘पाठशाला के लिए तुम्हे कुछ वस्तुओं की अवश्यकता होगी। एक बस्ता भी चाहिए। ' शैला के चेहरे पर ुशी छा गई। कात्यायनी ने कहा, ‘बाबूजी से आज्ञा पाकर, लक्ष्मी मौसी को साथ लेकर हम मेले में चलतें हैं।' शैला ने कहा, ‘मैं अभी दादाजी से पूछ कर आती हूँ।' शैला पफूदकती हुई दादाजी के पास पहुँची। वह बोली, ‘दादाजी! माँ पूछ रही हैं, कि क्या वह लक्ष्मी मौसी के साथ मेले से कुछ सामान रीद लाएँ? दादाजी ने कहा, ‘बहू से कहना, यदि वह मेले में जाना चाहती है तो कल सुबह जाए। आज मुझे पेंशन लेने सरकारी कार्यलय जाना है।' शैला ‘ठीक है।' कह कर वहाँ से माँ के पास आ गई। कात्यायनी सब कुछ सुन चुकी थी। वह पड़ोस की लक्ष्मी के पास चली गई। दोनो ने मिलकर मेले में जाने के लिए अगले दिन दस बजे का समय तय कर लिया।
अगले दिन शैला सुबह जल्दी उठ गई। मेले जाने के उत्साह में उसने माँ के साथ जल्दी—जल्दी कार्य में हाथ बँटवाया। वह नहाकर तैयार होने लगी। उसने वही प्रफॅाक पहनी थी, जो उसकी माँ ने उसके लिए दिवाली को बनवाई थी। लक्ष्मी भी सज ध्ज के बगल में थैला दबाकर वहाँ पहुँच गई। कात्यायनी ने अलमारी में बिछे अबार के नीचे से तीन सौ रुपये निकाले और एक टोकरी लेकर शैला को आवाज़ दी। शैला अपने बालों में रिबन लगाती हुई आई। कात्यायनी नाराज़ होते हुए बोली, ‘तू अभी तक तैयार नहीं हुई?' शैला ने झुंझलाते हुए कहा, ‘ये रिबन बार बार ुल जाता है।' लक्ष्मी जो कि पास ही मेंं टिया पर बैठी हुई थी बोली, ‘इध्र आ! मेरे पास, मैं रिबन ठीक कर देती हूँ।' शैला ने लक्ष्मी से रिबन का पफूल बनवा लिया। दादाजी से आज्ञा ले तीनों मेले में जाने के लिए चल दीं।
मेले में जाने के लिए गाँव से विशेष बैलगाड़ियाँ जा रहीं थीं। एक बैलगाड़ी उनके पास भी आकर रुकी गाड़ी वाला चिल्ला रहा था, ‘शीतला माता मेला, शीतला माता मेला। दस रुपये सवारी,दस रुपये सवारी।' कात्यायनी ने गाड़ी वाले से पूछा, ‘दो बड़े और एक बच्चे का कितना भाड़ा?' ‘सबका दस—दस रुपया।' गाड़ी वाला बोला। कात्यायनी बोली, ‘सौ के नोट में से कितना रुपया वापिस मिलेगा?' वह बोला, ‘पचास और बीस। सतर।' कात्यायनी ने कहा, ‘इतने रुपये में तो एक सप्ताह का आटा आ जाएगा।' बैलगाड़ी वाले ने कहा, ‘मेरा समय बर्बाद मत करो, चलना है, तो चलो।'
अभी तक चुपचाप ड़ी लक्ष्मी बोली, ‘तीनों के दस रुपये लोगे?' बैलगाड़ी वाला बैलों को हाँकता हुआ बोला, ‘नहीं—नहीं।' बैलगाड़ी आगे निकल गई। वह तीनों पैदल ही निकल गईं। गाँव के और भी कई लोग पैदल ही जा रहे थे। शैला तो चलते—चलते थक गई थी। उसे रुपयों का हिसाब तो समझ नहीं आया। लेकिन वह इतना तो समझ गई थी, उसकी माँ के पास पैसों का अभाव है। बैलगाड़ी में सवार होना उनके सामर्थ्य से बाहर है।
एक लम्बा रास्ता तय करने के बाद दूर मेले की रौनक दिाई देने लगी। शैला के निष्क्रिय पैरों में जैसे किसी ने प्राण पफूँक दिए हों। वह प्रसन्नता से बोली, ‘माँ मेला दिाई दे रहा है।' शैला और कात्यायनी के साथ चल रही लक्ष्मी भी प्रसन्न हो गई। वह बुदबुदाई, ‘थकान भरे रास्ते का अंत तो हुआ।'
मेले के मुख्य द्वार पर दो हाथी ड़े थे। अन्दर सैकड़ो छोटी—छोटी दुकानें सजी हुईं थीं। शैला की अोँं तो स्कूल का बस्ता ोज रहीं थीं। मेेले में दुकान लगाने वाले भी जानते थे, कि अगले महीने यहाँ स्कूल ुल रहा है, इसलिए इस बार मेले में बस्तों की कई दुकाने थीं। बस्ते तो बहुत तरह के थे, परन्तु एक गुलाबी रंग का बस्ता जिसमें, सुनहरी रंग की छड़ी लिए एक परी बनी थी—शैला के “दय में समा गया। कात्यायनी के पास इतने रुपये कहाँ थे? जो वह शैला की पसंद का बस्ता उसे ़रीद कर देती। अपनी पसंद का बस्ता माँ के न ़रीदने पर शैला सुबकने लगी। वह रोते हुए बोली, ‘मेरी पसंद का बस्ता नहीं ़रीदना था, तो मुझे इतनी दूर पैदल क्यों चलाया?' कात्यायनी चाह कर भी वह बस्ता नहीं रीद सकती थी, क्योंकि उस बस्ते की जितनी क़ीमत थी, उतने रुपये तो कभी कात्यायनी के हाथ में आये ही नहीं थे। उसने शैला को बहुत समझाया— बुझाया। लक्ष्मी भी समझा कर हार गई, लेकिन कभी किसी वस्तु का हठ न करने वाली शैला न जाने आज क्यों नहीं मान रही थी। शायद बाबूजी के साथ न होने की पीड़ा, जो उसके “दय में सर्वथा रहती थी, आज आोँं के रास्ते लगातार बह रही थी। कात्यायनी ने मेले के कोने में जहाँ भीड़—भाड़ कम थी, शैला को ले जाकर समझाया, कि जब बाबूजी आ जाएँगें, तब वह उसे उसकी पसंद का बस्ता दिलवाएगी। शैला दूसरा बस्ता लेने को तैयार होे गई, लेकिन उसने कहा, ‘मैं एक गुल्लक भी लूँगी।' कात्यायनी ने कहा, ‘ठीक है। एक मिटटी की गुल्लक ले दूँगी।' वह तीनों पिफर से मेले में घूमने लगीं। लक्ष्मी ने लकड़ी का चकला और बेलन रीदा। कात्यायनी ने मसाले रने के लिए कुछ डिब्बे ़रीदे। वह एक अच्छी लालटेन भी ़रीदना चाहती थी। पीने का पानी रने का बर्तन भी ़रीदना ज़रूरी था। कात्यायनी ने लक्ष्मी से पूछा, ‘लछमी! तू मुझे दो सौ रुपये उधर दे सकती है?' लक्ष्मी ने पल्लू में कस कर बाँध्े हुए रुपये खोले और दो सौ रुपये गिनकर कात्यायनी को दे दिए। शैला पूरी तरह थक चूकी थी, वह कुछ देर के लिए मैदान में घास पर बैठ गई। लक्ष्मी ने बिजली का पां और कुछ घंटे तक बप़र्फ को सुरक्षित रखने वाला आईस—बॉक्स ख़्ारीदा। वापिस जाने के लिए लक्ष्मी ने तय किया कि वह सारा सामान लेकर बैलगाड़ी से जाएगी। कात्यायनी और शैला पैदल ही चल दीं। शैला ने कात्यायनी से सवाल किया, ‘क्या मेला ऐसा होता है? तुम तो मौसी के साथ घर का सामान ख़्ारीदतीं रहीं। कात्यायनी ने कहा, ‘हम यहाँ घूमने थोड़े ही आए थे। घर का जरुरी सामान रीदना था।' शैला ने रुँध्े गले से कहा, ‘सुबह से कुछ नहीं ाया। मेले में ाने पीने का कितना सामान मिल रहा था।' तभी वहाँ एक केले वाला आकर रुका वह आवाज़ लगा रहा था, ‘केले लेलो! केले। मीठे केले। दस रुपये के चार केले।' कात्यायनी ने शैला से पूछा, ‘केले ाएगी?' शैला तुनक कर बोली, ‘केले तो गाँव में भी मिलतें हैं।' दूर एक रेड़ा ड़ा हुआ था, जिसमें रंग बिरंगी बोतलें सजी हुईं थीं। एक व्यक्ति बपर्फ़ घिस रहा था दूसरा व्यक्ति बप़र्फ के गोले बना कर उसमें एक तिल्ला घुसाता हुआ, बोतलों में रे सुगन्ध्ति मीठे घोल से गोलों को आकर्षित ढंग से सजा रहा था। कात्यायनी ने शैला से पूछा, कि क्या वह बप़र्फ का गोला ाना चाहती है? शैला ने ुशी से हाँ कर दी। कात्यायनी ने उसे एक बपर्फ की गोला ़रीद कर दिया। दोनो घर को ओर चल दीं। रास्ते में शैला दोनो ओर के लोगों को दे रही थी। मेले में जाने वाले और मेले से वापिस लौट रहे लोगों को। कुछ बच्चे अपने पिता के कँध्े पर चढ़ कर घर जा रहे थे। शैला ने कात्यायनी से कहा, ‘तुम तो मुझे कँध्े पर भी नहीं बैठा सकतीं।' कात्यायनी ने कहा,‘आज थोड़ा और चल ले। अगली बार जब मेले में आएगें तो बैलगाड़ी में ही आएँगें।' शैला ने जैसे तैसे घर तक का रास्ता तय कर लिया और घर आते ही वह टिया पर लेट गई। कात्यायनी ने आँगन में सिमटी हुई ध्ूप से अनुमान लगाया कि शाम के पाँच बज गए। उसका कलेजा ध्क से रह गया। वह दोपहर के ाने का कुछ भी प्रबन्ध् नहीं कर गई थी। दीनानाथ एक बजे ाना ा लेता था। तभी उसने कात्यायनी को आवाज़ लगाई, ‘बहू! ओ बहू!' वह घबराती हुई ससुरजी के पास आई। दीनानाथ बोला, ‘रात को मैं तकिये के नीचे चार सौ रुपये र कर सोया था। सोचा था, सुबह मेले में रीदारी के लिए तुम्हें दे दूँगा, लेकिन सुबह भूल गया।' कात्यायनी कुछ बोलती उससे पहले शैला बोल उठी, ‘माँ ने लक्ष्मी मौसी से तीन सौ रुपये उधर ले लिए।' दादाजी ने कहा, ‘बहुत अच्छा किया। तुमने मेले में कुछ ाया या नहीं?' शैला ने कहा, ‘नहीं। मेले से बाहर आकर बस एक बप़र्फ का गोला ाया।' दादाजी ने कहा, ‘अरे कुछ नहीं ाया?' वह कात्यायनी की ओर देकर बोले, ‘बहू! तुम सबके लिए चाय बनाओ। मैं सामने वाले हलवाई से समोसे और जलेबी लेकर आता हूँ।' दीनानाथ पेंंशन मिलने के बाद, एक बार अवश्य बाज़ार से कुछ मिठाई लाता था। दीनानाथ के वहाँ से जाते ही डाकिया एक पत्रा दे गया। कात्यायनी पढ़ी लिी नहीं थी। उसे समझ नहीं आ रहा था, चिटठी कहाँ से आई है। दीनानाथ के वापिस आने तक वह पत्रा अनबुझ पहेली बना रहा। दीनानाथ ने आकर पत्रा देा तो सिर पकड़ कर बैठ गए। पत्रा में लिा था, ‘आपको कई बार नोटिस दिये जाने पर भी आपके द्वारा बिजली का बिल जमा न कराये जाने के कारण तत्काल प्रभाव से आप की बिजली काटी जा रही।' शैला इस उलझन से बेबर समोसे और जलेबी का स्वाद ले रही थी।
रात घिर आई थी बिजली का बल्ब नहीं जल रहा था। मेले से लाया गया लालटेन झिलमिला रहा था। अगले महीने से गाँव की पाठशाला शुरू होने वाली थी। क्या शिक्षा का प्रकाश इस घर के अन्ध्कार को दूर कर पायेगा?
अध्याय पाँच
अप्रैल की पहली तारी़ थी। आज रविवार का दिन था। सोमवार से पाठशाला ुल रही थी। पूरा ही गाँव इससे उत्साहित था, क्योंकि लगभग प्रत्येक घर से कोई न कोई नयी पाठशाला में जा रहा था। इससे पहले भी बच्चे पढ़ने तो जाते थे, लेकिन पाठशाला गाँव से बारह किलोमीटर दूर थी। केवल लड़के ही पढ़ने जाते थे। इस गाँव की लड़कियों के लिए यह पहला अवसर था। गली का नुक्कड़ हो या पनघट हर स्थान पर चर्चा का एक ही विषय था ‘पाठशाला'। शैला अपने घर के बाहर सहेलियों के साथ खेल रही थी, तभी पार्वती की माँ शैला के घर दाखिल हुइर्ं। शैला और पार्वती भी पीछे पीछे आ गईं। कात्यायनी ने पार्वती की माँ को अन्दर बैठाया और शर्बत का गिलास पीने को दिया। पार्वती की माँ ने कात्यायनी से प्रश्न किया, ‘पाठशाला से अभी वर्दी तो मिली नहीं है, पिफर कल बच्चों को पाठशला भेजना है या नहीं?' कात्यायनी ने कहा, ‘जरूर भेजना है। सारे गाँव के बच्चे जाएँगे।' पार्वती ने शैला से कहा, ‘तू क्या पहन कर जाएगी?' शैला ने कहा, ‘अभी माँ संदूक में से निकाल कर देंगी।' पार्वती की माँ ने कहा, ‘चल पार्वती! घर चल। तेरे भी कपड़े निकाल कर तैयार कर दूँ। पता नहीं वर्दी कब मिलेगी।' शाम ढलते—ढलते सभी घरों के चूल्हों पर रोटियाँ सिकने लगीं। सभी बच्चों को जल्दी खिला पिला कर जल्दी सुला देना चाहते थे, ताकि सुबह उन्हें पाठशाला समय पर भेजा जा सके। शैला ने अपनी नीली प्रफॉक को हल्का सा पानी लगाकर तय किया और उसकी सलवटें दूर करने के लिए बिस्तर के नीचे दबा दिया। अपने बस्ते में कॉपी, किताबें, पैंसिल व रबर तरीके से रखे। अपने काले जूतों को सरसों के तेल की हल्की सी बूंद टपका कर पुराने कपड़े से चमकाए। पाठशाला कैसी होगी? इस कल्पना में खोकर वह मीठी नींद सो गई।
सुबह पाँच बजे जब कात्यायनी ने उसे उठाया तो माँ की सुरीली आवाज़ भी उसे बहुत कर्कश लग रही थी। परन्तु जैसे ही उसे याद आया कि आज पाठशाला जाना है, वह बिस्तर छोड़ कर खड़ी हो गई। कात्यायनी ने कुछ लोगों से सुना था कि दोपहर का भोजन सरकार की ओर से मिलेगा। वह असमंजस में थी कि भोजन के लिए कुछ रखना चाहिए? कि नहीं? खटिया में लेटे ससुरजी भी शायद यही सोच रहे थे, वह कात्यायनी से बोले,‘बहू! आज पाठशाला का प्रथम दिवस है। न जाने भोजन का प्रबन्ध् कैसा होगा। शैला के लिए एक रोटी रख देना।' कात्यायनी ने कहा, ‘बहुत अच्छा बाबूजी!'
कात्ययानी ने एक जौ की रोटी के साथ थोड़ा सा आम का आचार एक कागज़ में लपेट कर उसने शैला के बस्ते में ठूँस दिया। शैला ने नीले रंग की प्रफॉक व काले जूते पहने, माँ से दो चोटियों में रिबन लगवाया। बस्ता कँध्े पर लटाकर वह दादाजी का आशीर्वाद लेने गई। दादाजी ने आशीर्वाद देने के बाद कहा, ‘पाठशला में पढ़ाई शुरु करने से पहले, ईश्वर का स्मरण अवश्य कर लेना।' शैला ने हामी भरी और खुशी— खुशी माँ के साथ पाठशाला की ओर चल दी।
गाँव के सभी कच्चे रास्तों से बच्चे पाठशाला की ओर जाते दिखाई दे रहे थे। पाठशला के मुख्य द्वार पर दो अघ्यापिकाएँ दिशा निर्देशन के लिए खड़ी थीं। किस छात्राा को कौन सी कक्षा में जाना है? बच्चे पाठशला के अन्दर और अभिभावक पाठशाला के बाहर खड़े रह गए। शैला अपने कमरे की ओर बढ़ रही थी, तभी पार्वती ने पीछे से उसकी पीठ पर हाथ मारा। शैला ने मुड़ कर देखा। पार्वती ने पूछा, ‘कौन सा कमरा बताया है?' शैला ने कहा, ‘प्रथम ‘अ' में जाने के लिए कहा है।' पार्वती हर्षित होकर बोली, ‘मुझे भी।' दोनों अपने कमरे की ओर चल दीं। कमरे के भीतर टाट की दरी बिछी हुई थी। कुछ छात्रााएँ पहले से ही वहाँ बैठी हुईं थीं। शैला दरी पर सबसे आगे जाकर बैठ गर्ई। पार्वती ने उससे कहा, ‘आगे क्यों बैठ गई? चल पीछे बैठते हैं।' शैला ने कहा, ‘नहीं। आगे ही बैठ जाते हैं।' पार्वती मुँह बना कर आगे तो बैठ गई, लेकिन वह गर्दन घुमा—घुमा कर पीछे वाली छात्रााओं से बातें करने लगी।
एक छात्राा ने आकर कहा, ‘सब पंक्ति बना कर बाहर चलो।' शैला पंक्ति में भी सबसे आगे जाकर खड़ी हो गई। एक छात्राा ‘कजरी' बोली, ‘तू क्या नेता है? जो बार बार आगे आकर खड़ी हो जाती है।' सारी छात्रााएँ हँसने लगीं। शैला ने भोलेपन से उत्तर दिया, ‘जब मेरे बाबूजी मुझे देखने पाठशाला आएँगे, तब मैं उन्हें कैसे दिखाई दूँगी?' पार्वताी ने कहा, ‘शैला तू कितने दिनों से कह रही है, मेरे बाबूजी आएँगे। आख़्िार कब आएँगे तेरे बाबूजी?' सामने खड़ी अघ्यापिका ने आँखे दिखा कर मुँह पर उँगली रखने का इशारा किया। सभी कक्षाओं से छात्रााएँ पंंक्ति बना कर मैदान में एकत्रा हो गई। संगीत की अघ्यापिका ने मंच पर खड़े होकर अपने पीछे—पीछे प्रार्थना दोहराने के लिए कहा। वह गाने लगी ‘ऐ मालिक तेरे बंदे हम, ऐसे हों हमारे करम।' छात्रााएँ भी एक सुर में गाने लगीं।
प्रार्थना समाप्त होने के बाद सभी छात्रााएँ अपनी—अपनी कक्षा में चली गईं। अघ्यापिकाएँ भी कक्षाओें मे चली गईं। शैला की कक्षा में भी ‘सरिता' नाम की शिक्षिका ने प्रवेश किया। शिक्षिका के प्रवेश करते ही सभी छात्रााओं ने खड़े होकर शिक्षिका का अभिवादन किया। शिक्षिका ने सबका परिचय लेने के बाद ‘क' ‘ख' ‘ग' पढ़ाना शुरु किया। ग्यारह बजे भोजनावकाश हो गया। अंकुरित मूँग और आध—आध कुलचा सभी को दिया गया। भोजनावकाश के बाद दुबारा पढ़ाई शुरू हो गई। शैला की शिक्षिका ‘सरिता' ने छात्रााओं को एक कहानी सुनानी शुरू की, जिसका शीर्षक था ‘अल्लादीन व जादू का दीपक'। छात्रााएँ मंत्रामुग्ध् हो कर कहानी सुनने लगीं। जब यह प्रंसग आया कि ‘अल्लादीन ने दीपक को रगड़ा और उसमें से एक जिन्न प्रकट हो गया, जो अल्लादीन के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया और कहने लगा, ‘क्या हुक्म है? मेरे आका।' बस पिफर क्या था, शैला खुली आँख से सपना देखने लगी। उसके पास भी एक चिराग है और वह उसे रगड़ रही है। रगड़ते ही एक जिन्न हाज़िर हो गया वह हाथ जोड़कर कमर झुका कर शैला से पूछने लगा, ‘क्या हुक्म है? मेरे आका!' शैला मुस्कुरा कर जिन्न से पूछती है, ‘क्या तुम मेरे बाबूजी को ढूँढ कर ला सकते हो?' जिन्न ने जवाब दिया, ‘अभी लेकर हाज़िर होता हूँ मेरे आका!' शैला अपनी ही दुनिया में खोई हुई प्रसन्न मुद्रा में बैठी थी, तभी उसके गाल पर एक ज़ोरदार तमाचा पड़ता है। उसके सुनहरे सपने ध्ुँआ बनकर उड़ गए। सामने शिक्षिका क्रोध्ति हुई पूछ रही थी, ‘तुम्हारे मस्तिष्क में कौन सी शैतानी चल रही है?' शैला निशब्द रह गई। शिक्षिका ने अपनी उँगली नचाते हुए भविष्य के लिए चेतावनी दी,‘अगर कक्षा में चित लगाकर नहीं बैठोगी तो कक्षा से बाहर निकाल दूँगी।' सभी छात्रााएँ सतर्क हो कर बैठ गइर्ं।
चपरासी ‘रामदयाल' ने टन—टन—टन छुट्टी की घंटी बजा दी। सभी छात्रााएँ कक्षा को छोड़कर पाठशाला के गेट की ओर भागीं। शैला भी अपना बस्ता लेकर ध्ीरे—ध्ीरे पाठशाला से बाहर निकल आई। पार्वती और कजरी बातें करती हुई जा रहीं थीं। शैला चुपचाप चल रही थी। एक खेत को पार करने के बाद उसे सामने से अपनी माँ को आते हुए देखा। वह दौड़ी हुई गई और माँ से लिपट कर रोने लगी। कात्यायनी ने रोने के कारण पूछा, लेकिन शैला ने कुछ नहीं बताया। उसने घर पहुँचते ही जूते उतार कर खटिया के नीचे घुसा दिए। बस्ते में से किताबें निकाल कर अलमारी में रख दीं। बस्ते को खूंटी पर टाँग दिया। वह रोते हुए कात्यायनी से कहती है,‘मैं कल से पाठशला नहीं जाउफँगी।' कात्यायनी आश्चर्यचकित हो जाती है और उससे कारण पूछती है। दीनानाथ उस समय घर पर नहीं था। शैला एक तकिया लेकर खटिया पर सो गई। सोने से पहले उसने कात्यायनी से कहा, ‘माँ दादाजी से भी कह देना, मैं कल से पढ़ने नहीं जाउफँँगी। मैं भी आपकी तरह घर का काम काज करूँगी।'
शाम के चार बजे थे। कात्यायनी दूध् लाने के लिए घर से बाहर निकली। गाँव में एक बार पिफर सब ओर एक ही चर्चा का विषय था ‘पाठशला'। कात्यायनी को पार्वती की माँ रास्ते में ही मिल गई। वह कात्यायनी से बोली, ‘शैला तो पहले दिन ही पाठशला में तमाचा खाकर आई है।' ‘तमाचा?' कात्यायनी के माथे पर त्यौरियाँ चढ़ गईं। पार्वती की माँ ने बात को बढ़ा चढ़ा कर पेश करते हुए कहा, ‘सुना है बड़ा हल्ला मच्चा रखा था कक्षा में। बहिनजी के बार—बार मना करने पर भी नहीं मानी आखिर तंग आकर बहिनजी ने तमाचा जड़ दिया।' कात्यायनी की आँखों के आगे एक पल के लिए अंध्ेरा सा छा गया। दूध् लेकर वह सीध घर की ओर चल पड़ी। दीनानाथ पहले ही घर पहुँच गया था। शैला भी नींद से जाग गई थी। कात्यायनी ने शैला से क्रोध् भरे स्वर में कहा, ‘आज मुझ से खाने के लिए कुछ मत माँगना।' शैला ने माँ का ऐसा व्यवहार पहले कभी नहीं देखा था। वह चिंतित होकर बोली, ‘क्यों माँ' कात्यायनी ने कहा, ‘आज जो शरारत तूने पाठशाला में की है उसके कारण हमारा सिर शर्म से झुक गया।' ‘ऐसा क्या कर दिया शैला ने?' बाबूजी के झुर्री भरे चेहरे पर तनाव की लकीरें भी शामिल हो गईं। शैला रोने लगी, ‘मैंने कोई शरारत नहीं की माँ।' उसने रोते हुए कहा। ‘पिफर बहनजी ने तुझे तमाचा क्यों मारा?' कात्यायनी ने प्रश्न करते हुए शैला को घूर कर देखा। शैला ने सुबकते हुए पूछा, ‘तुम्हें किसने बताया?' ‘गिरिजाा मौसी ने।' कात्यायानी ने जवाब दिया। दीनानाथ ने बहू से कहा, ‘पहले शैला से तो पूछ लो, क्या हुआ पाठशाला में?' शैला दादाजी से आकर लिपट गई। रोते रोते उसने सारा किस्सा सुना दिया। दादाजी ने गर्दन हिलाते हुए कहा, ‘अच्छा तो यह बात है।' उन्हाेंने उसे समझाया, कि शिक्षिका ने तेरी भलाई के लिए ही तमाचा मारा, ताकि तू कक्षा में पूरा मन लगाकर बैठे और उनकी बात को सुने और समझे। लेकिन शैला अपनी बात पर अड़ी हुई थी, कि वह कल से पाठशाला नहीं जाएगी। दीनानाथ बोला, ‘मैंने तो पहले ही कहा था, लड़कियाँ पढ़ लिख कर क्या करेंगीं।' कात्यायनी ने कहा, ‘लेकिन बाबूजी गाँव की सभी लड़कियाँ पाठशाला जा रहीं हैं।' दीनानाथ ने जवाब में कहा, ‘एक दो दिन का शौक है। सब शैला की तरह रोती हुई लौटेगीं।' कात्यायनी कुछ निराश हो गई। दीनानाथ अपनी बात को आगे बढ़ाता हुआ बोला,‘पाठशाला जाना लड़कियों के बस की बात नहीं। सजा मिलती है तो मुर्गा बनना पड़ता है। छड़ी से पिटाई होती है। कई दिनो तक मार दुखती रहती है।' शैला ने कहा, ‘इतनी भयानक होती है पाठशाला? मुझे नहीं जाना पाठशाला।' कात्यायनी मन ही मन पश्चाताप कर रही थी कि उसने घर आते ही कौन सी जंग छेड़ दी? उसने शैला को अपने पास प्यार से बुलाया और खाना खिलाया। बाद में उसने शैला को समझाना शुरू किया कि पढ़ने के कितने लाभ हैं। कात्यायनी ने कहा, ‘जब तेरे बाबूजी वापिस आएँगे तब वह कितना खुश होगें यह जानकर कि उनकी बिटिया ने पाठशाला जाना शुरू कर दिया।' शैला ने कुछ देर सोचने के बाद कहा, ‘माँ मैं पाठशाला जाउफँगी। लेकिन तुम्हे मेरी एक बात माननी पड़ेगी।' कात्यायनी मुस्कुराते हुए बोली,‘कौन सी बात?' शैला ने कहा, ‘ तुम बाबूजी को नहीं बताओगी कि पाठशाला में मुझे बहिन जी से तमाचा पड़ा।' कात्यायनी ने कहा, ‘अच्छा नहीं बताउफँगी' शैला अन्दर जाकर अपना बस्ता व किताबें ले आई और लालटेन के नीचे बैठकर अपना पाठशाला में किया हुआ अध्ूरा कार्य पूरा करने लगी। दीनानाथ बिजली का बिल जमा करवाने के लिए रुपया जुटा रहा था। लेकिन कुछ रुपया कम रह गया था इसलिए कुछ समय से यह परिवार लालटेन से ही गुजारा कर रहा था।
अगले दिन सुबह शैला नई उम्मीद लेकर पिफर से पाठशला की ओर चल दी। इस बार वह पहले दिन की तरह उत्साहित नहीं थी। वह सहमी हुई सी कक्षा में जाकर बैठ गई। शिक्षिका को बहिनजी कहने की परम्परा न जाने कैसे चल गई। कुछ छात्रााएँ आदर से बहिनजी के पीछे एक और जी लगाकर बहिनजी जी कहने लगीं। कुछ तो और दो कदम आगे निकल गईं, अध्कि आदर के चक्कर में जी बहिनजी जी कहने लगीं।
कक्षा शांतिपूर्ण चल रही थी। शैला श्यामपट पर लिखे शब्द अपनी कॅापी पर उतार रही थी। कजरी को न जाने क्या शरारत सूझी, उसने पीछे से पार्वती की चोटी खींच ली। पार्वती गुस्से से इध्र उध्र देखने लगी। शैला ने उसे बताया, कि उसकी चोटी कजरी ने खींची है।
तभी शिक्षिका की निगाह शैला पर पड़ गई। वह शैला पर क्रोध्ति होकर बोली, ‘ऐ लड़की खड़ी हो जाओ। कल भी तुम्हारा मन पढ़ाई में नहीं लग रहा था। कल का तमाचा भ्ूाल गई? शैला भय से काँपने लगी। शायद शिक्षिका ‘सरिता' ऐसा समझती थी कि कक्षा में अनुशासन बनाए रखने के लिए भय उत्पन्न करना अवश्यक है। तभी चपरासी कक्षा में प्रवेश करता है और पूछता है, ‘शैला श्रेष्ठ कौन है।'
‘मैं हूँ,' शैला ने रोते हुए दांया हाथ उफपर किया। चपरासी ने कहा, ‘तुम्हे प्रथम ‘ब' में बैठना है।' शैला की शिक्षिका ‘सरिता' ने कहा, ‘कितनी नालायक लड़की है। इसे इतनी भी समझ नहीं है, कि किस कक्षा में बैठना है।' वह उँगली नचाते हुए शैला से बोली, ‘अपना बस्ता उठाओ और साथ वाले कमरे में जाओ।' शैला डरती हुई चपरासी के साथ अगले कमरे में चली गई। उस कक्षा की शिक्षिका ‘सरस्वती देवी' ने बड़े प्यार से उसे बैठने को कहा। शैला को दूसरे कमरे से अभी भी सरिता बहिनजी की आवाज आ रही थी। वह अन्य छात्रााओं से कह रहीं थीं, ‘उस लड़की जैसा कोई और नमूना तो यहाँ नही बैठा?'
सरस्वती देवी नर्म हफदय वाली शिक्षिका थी। वह छात्रााओं की छोटी मोटी शरारतों पर बिगड़ती नहीं थी। आज का दिन शैला का अच्छा बीता। दस तक गिनती लिखने पर बहिनजी ने उसे शबाशी भी दी।
इस कक्षा में उसको एक और सहेली मिल गई राध्किा। राध्किा रामदीन चाचा की लड़की है। छुटटी के बाद वह थोड़ी दूर तक शैला के साथ चली बाद में दोनो के रास्ते अलग हो गए। शैला प्रसन्नचित घर पहुँची। आज उसने पाठशाला की बहुत सी बातें माँ और दादाजी को सुनाईं।
शनिवार का दिन था। पूरे सप्ताह पाठशाला चलने के बाद पहला रविवार का अवकाश आ रहा था। जहाँ छात्रााएँ अवकाश को लेकर उत्साहित थीं वहीं शिक्षिकाएँ दोगुना कार्य घर के लिए देना चाहतीं थीं।
अर्ध् अवकाश के समय छात्रााओं में चर्चा का विषय अगले सप्ताहों में आने वाले अवकाश थे। रामनवमी, गुडप्रफाईडे और महावीर जयन्ती आने वाले थे। शैला तो सोच रही थी कि वह अवकाश के दिन माँ के काम में हाथ बँटाएगी।
दोपहर के साढ़े बारह बजे चपरासी ने जब टन टन घंटी लगातार बजाई तो आज छात्रााओं में कुछ अध्कि ही हलचल थी वह एक दूसरे से ऐसे विदा ले रहीे थीं जैसे एक दिन के लिए नहीं बल्कि महीनों के लिए बिछुड़ रहीं हों। आज खोमचे वालों के पास भी अीध्क भीड़ थी।
भल्ले पापड़ी, मूँग की दाल की पकौड़ी और कुल्पफी के खोमचे छात्रााओं से घिरे हुए थे। शैला उन खोमचे की ओर देखती भी नहीे थी क्योंकि वह अपने घर की आर्थिक स्थिति से सुपरिचित थी। राध्किा भी चाट का एक दोना बनवाकर लाई। उसने शैला से कहा, ‘शैला थोड़ा सा तू भी ले ले।' शैला ने कहा, ‘नहीं मुझे यह सब पसंद नहीं।' राध्किा ने कहा, ‘तेरा मन नहीं ललचाता इन वस्तुओं की ओर?' शैला ने कहा, ‘छोड़ इस बात को। तू शाम को मेरे घर पर आ जाना दोनो मिलकर दो का पहाड़ा याद करेंगे।' राध्किा ने कहा, ‘नहीं, मैं नहीं आ सकती। मेरे पिताजी मना करतें हैं।' शैला बोली, ‘अगर मेरे बाबूजी होते तो कभी मना नहीं करते।' तभी वहाँ कजरी और पार्वती आ गईं। चलते—चलते दुराहा आ गया। यहाँ से दोनो के रास्ते अलग हो जाते थे।
रविवार का दिन था। पाठशाला खुलने के बाद प्रथम अवकाश का दिन था। इसी खुशी में शैला सुबह जल्दी उठ गई क्योंकि वह पाठशाला से मिला कार्य शीघ्र समाप्त करके माँ के काम में हाथ बँटाना चाहती थी। वह सुबह का नाश्ता करके दो का पहाड़ा याद करने लगी।
दो एक दो किसान अनाज बो
दो दो चार माँ ने डाला अचार
दो तीन छ भारत की बोलो जय
दो चार आठ राजा का देखो ठाठ
दो पाँच दस सड़क पर दौड़ी बस
दो छ बारह जंग में दुश्मन हारा
दो सात चौदह लगाओ नन्हा पौध
दो आठ सोलह एक है ईश्वर मौला
दो नौ अठारह लकड़हारे ने उठाया गठठरह
दो दस बीस पहाड़े की चक्की पिफर से पीस
पाठशाला से मिला कार्य समाप्त करते—करते दोपहर ढल गई। माँ ने अकेले ही घर का काम निपटा लिया। दोपहर का भोजन करते समय शैला ने माँ से कहा, ‘माँ आज मेरे नाखून काट देना। जिनके नाखून लम्बे होते हैं उन पर बहिनजी बहुत बिगड़ती हैं।' दादाजी बोले, ‘रीछ बनकर पाठशाला आऐगीं, तो बहिनजी बिगड़ेगीं ही।' शैला यह सुनकर खिलखिला हँस पड़ी।
इसी तरह पढ़ाई करते करते दिन और महीने बीत गए।
वार्षिक परीक्षा का समय भी आ गया, लेकिन न तो शैला के बाबूजी लोटे और न ही उनका का कोई पत्रा ही आया। वार्षिक परीक्षा के परिणाम भी घोषित हो गए और छात्रााएँ नई कक्षाओं में चढ़ गईं। नया सत्रा शुरू होने के कुछ दिन बाद ग्रीष्मावकाश घोषित हो गया। गर्मी के लम्बे और उदास दिन काटे नहीं कटते थे। शैला ने माँ से कहा ,‘अगर बाबूजी यहाँ होते, तो हम गर्मियों में उस शहर में चले जाते जहाँ आसमान से बपर्फ गिरती है।' शैला की बात सुन कात्यायनी उदास हो गई और उसने कहा, ‘ अब तो मेरी आँखे भी थक गईं, तेरे बाबूजी का इन्तजार करते—करते। पता नहीं, इन आँखो से३' अपनी बात पूरी करे बिना ही, वह सुबकने लगी। शैला माँ के लिए घड़े में से एक गिलास पानी ले आई। ,दीना नाथ ने शैला की ओर देखकर कहा, ‘इतने वर्षो में कितनी सारी बातें एकत्रा हो गईं हैं। जब चक्रध्र आएगा तब पता नहीं मुख से कुछ शब्द भी निकल सकेगें या नहीं।' शैला ने कहा,‘जब में मामाजी की शादी में गई थी तब नानाजी ने मुझे एक डायरी दी थी। दादाजी! अब तो मुझे लिखना आ गया है। मैं इस डायरी में वह सब बातें लिख दूँगी, जो हम बाबूजी को बताना चाहते हैं। ‘बहुत बढ़िया' दीनानाथ ने कहा।
शैला ने डायरी के प्रथम पन्ने में लिखना शुरू किया ‘बाबूजी! माँ तुम्हें बहुत याद करती है। पड़ोस का कालू मुझे रोज़ चिढ़ाता है। जब भी मैं घर के बाहर कच्ची सड़क पर खड़ी होती हूँ तब वह मुझे कहता है, ‘तेरे बाहर खड़े रहने से तेरे बाबूजी नहीं आ जाएँगें।'
शैला बहुत कुछ लिखना चाहती थी तभी कात्यायनी ने शैला को आवाज दी, ‘शैला ओ शैला देख कौन आया है?' शैला को एक क्षण के लिए ऐसा लगा की बाबूजी आ गए हैं। वह दौड़ कर आँगन में गई तो वहाँ कालीचरण मामाजी खड़े थे। कालीचरण कात्यायनी से कह रहा था, ‘पास के गाँव में किसी काम से आया था सोचा तुम सब से मिलकर जाउफँ।' कालीचरण ने शैला को एक चित्राों की पफाईल व एक रंग का डिब्बा दिया।
शैला ने कालीचरण से कहा, ‘मामाजी आप को तो बहुत अच्छे चित्रा बनाने आते आप एक चित्रा बाबूजी का बना दो।' ‘अभी बनाता हूँ। पहले यह बिजली का पंखा लगा दूँ, जो मैं तुम्हारे लिए खरीद कर लाया हूँ।' कालीचरण ने बोलते—बोलते पंखे का डिब्बा खोला। दीना नाथ ने अंगोछे से मुँह का पसीना पोंछते हुए कहा, ‘भाई कालीचरण हमारी तो दो ढाई महीने से बिजली कटी हुई है।' कालीचरण ने आश्चार्य से कहा, ‘अभी तक मुझे क्यों नहीे बताया?' उसने कांत्ययानी की ओर देखा और कहा, ‘ लाओ बहना बिल ले आओ। मैं भुगतान कर देता हूँ।' कात्यायनी के जवाब देने से पहले दीनानाथ बोला, ‘नहीं भैया बिजली बहुत मंहगी हो गई है। प्रत्येक महीने किस के आगे हाथ पफैलाएँगे।' कालीचरण ने हठ करके बिजली का बिल माँग लिया और बोला, ‘काका गर्मी तो सुगमता से निकल जाए।'
एक सप्ताह बाद शैला कमरे के पफर्श पर लेटी हुई बिजली के पंखे को निहार रही थी। तभी पंखे की पंखुड़ियाँ हौले हौले हिलीं और पिफर पंखे ने गति पकड़ ली। शैला भाग कर कात्यायनी के पास आई। वह खुशी से चिल्ला रही थी, ‘माँ बिजली आ गई।' कात्यायनी भी एक नन्ही बच्ची की तरह खुशी से प्ांखा देखने अन्दर दौड़ पड़ी। दीनानाथ भी कहाँ रुकने वाला वह भी लाठी टेकता—टेकता भीतर आ गया और छत की ओर मुँह कर पंखे को देखने लगा। इस बिजली के पंखे ने उनके घर को कुछ क्षण के लिए खुशियों से भर दिया।
गर्मी की तपती दोपहर में समय व्यतीत करने के लिए शैला को अच्छा रास्ता मिल गया था, बाबूजी के लिए डायरी में महत्वपूर्ण बातें लिखना।
ऐसी ही एक गर्म दोपहर को जब बाहर लू चल रही थी, शैला डायरी लिखने में मग्न थी। दीना नाथ दोपहर का खाना खा कर सुस्ता रहा था। कात्यायनी उध्ड़े कपड़ो को सिल रही थी। कोई बाहर से दरवाजे़ को ज़ोर जो़र से पीटता रहा था। कात्यायनी कपड़े को पफर्श पर ही छोड़ कर दरवाजा़ खोलने दौड़ती है। रामदीन की पत्नी घबराई हुई खड़ी थी। कान्ययानी उससे सवाल करती है, ‘क्या हुआ राध्किा की माँ इतनी घबराई हुई क्यों हो?' रामदीन की पत्नी उत्तर में कहती है, ‘ शैला की माँ क्या बताउफँ। राध्किा के पिताजी को बहुत घातक बिमारी हो गई है। उन्हें ऑपरेशन के लिए दिल्ली ले जा रहे हैं। ऑपरेशन के बाद शायद वह कभी बोल नहीं पाएँगे। वह दीनानाथ काका से जरूरी बात करना चाहते हैं।' ‘अभी भेजती हूँ।' कात्यायनी घबराई हुई बोली। वहाँ से कात्यायनी भीतर आ गई और ससुरजी से बोली, ‘बाबूजी! रामदीन काका बहुत जरुरी काम से तुम्हें बुला रहें हैं।' इतनी भरी गरमी में क्या काम आन पड़ा?' कहता हुआ दीनानाथ उठकर खटिया पर बैठ गया। ‘शैला मेरा अंगोछा गीला कर के दे दे।' दीनानाथ ने छड़ी से खटिया के नीचे रखी अपनी जूतियाँ बाहर निकालीं। गीले अंगोछे से सिर से ढक लिया। दीनानाथ लाठी टेकता हुआ रामदीन की पत्नी के साथ चल पड़ा। रास्ते भर दीनानाथ सोच रहा था आखिर रामदीन को क्या बात करनी होगी? मई महीने की गर्मी मे अम्बर से जैसे आग बरस रही थी और ध्रती भी पूरी तरह से तप रही थी। तिस पर लू के थपेड़े कपड़ो को भी चीर कर छाती में चुभ रहे थे। दीनानाथ गर्मी की मार झेलता, हाँपफता रामदीन के घर पहुँचा। रामदीन बिस्तर पर पड़ा हुआ था।
सारा परिवार उसको घेरे हुए था। दीना नाथ के वहाँ पहुँचने पर महिलाएँ वहाँ से हट गईं। रामदीन ने लेटे लेटे ही दीना नाथ को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। दीना नाथ ने भी हाथ जोड़ कर प्रणाम का जवाब दिया। रामदीन बिलखने लगा। वह कह रहा था, ‘काका मुझे मापफ कर दो मुझ से बहुत बड़ी भूल हो गई।' ‘लेकिन हुआ क्या मुझे भी तो पता चले।' दीनानाथ ने परेशान होकर पूछा, ‘काका चक्रध्र' इतना कहकर रामदीन चुप हो गया। ‘क्या हुआ चक्रध्र को दीना नाथ चिल्लाया।' रामदीन ने पिफर बोलना शुरू किया, ‘चक्रध्र विदेश नहीं गया।' ‘तो कहाँ है चक्रध्र?' दीनानाथ ने पूछा। रामदीन ने पानी के गिलास की तरपफ ईशारा किया। राध्किा ने पानी का गिलास अपने पिता को पकड़ा दिया। रामदीन ने पानी पीकर पिफर से बोलना शुरू किया, ‘चक्रध्र विदेश जाने का पफार्म भरकर डेढ़ लाख रुपया नकद लेकर दिल्ली के आपिफस के बाहर पफार्म जमा करवाने के लिए बैठा अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहा था। मैं भी अपने ममेरे भाई का पफार्म जमा कराने के लिए वहीं बैठा था। वह अपना वही मनपसंद गाना गुनगुना रहा था, ‘चिंता एक चटोरी चिड़िया, चट चट चुगले चित का चैन' उसकी बगल में एक आदमी बैठा था। चक्रध्र का गाना सुनकर वह वाह वाह करने लगा। वह चक्रध्र से बोला, ‘इतनी अच्छी आवाज़ है मेरे साथ मुम्बई क्यों नहीं चलते? विदेश जा कर क्या मिलेगा?' चक्रध्र उसकी बातों मैं आ गया। वह मेरे पास आकर बोला, ‘भाई रामदीन मेरे बाबूजी को गाँव जाकर मत कि मैं मुम्बई जा रहा हॅूँ। अब तो मैं गायक बन कर ही बाबूजी से मिलूँगा। बचपन से ही मुझे गाने के लिए मना करते थे। डाँटा करते थे। अब गायकी में अपना नाम बना लॅूँ तभी बाबूजी से मिलूँगा।' दीनानाथ ने कहा, ‘तो क्या बन गया चक्रध्र गायक? रामदीन बोला, ‘नहीं वह आदमी धेखेबाज़ निकला। वह चक्रध्र को मुम्बई तो ले गया लेकिन उसने चक्रध्र के सारे रुपये छीन कर उसे कहीं का ना छोड़ा।'
दीना नाथ ने रामदीन से कहा, ‘तू क्यों मापफी माँग रहा है। तूझे तो चक्रध्र ने मना किया था, कि तू मुझे कुछ न बताए।' ‘नहीं काका मुझसे एक ओर बड़ी गल्ती हो गई।' रामदीन बोला। दीनानाथ की आँखे पफटी रह गईं। उसने प्रश्न किया, ‘ और क्या कर दिया तूने?'
रामदीन बोला, ‘कुछ दिनों बाद चक्रध्र का मनीआर्डर और पत्रा मेरे पास आया पत्रा में लिखा। ‘भाई रामदीन! मुम्बई में ठेला चलाना शुरू कर दिया है। थोड़े से पैसे बहुत कठिनाई से एकत्रा किए हैं। तुम पर भरोसा करके तुम्हारे पते पर भेज रहा हूँ। मेरे बाबूजी को यह कह कर दे देना कि चक्रध्र ने यह विदेश से भेजें हैं। गाँव में किसी को कुछ मत बताना अन्यथा सब खिल्ली उड़ाएगें।' रामदीन की आँखों में अश्रु छलछला उठे थे। वह बोला, ‘लेकिन काका मेरे हफदय मैं लालच आ गया। चक्रध्र महीने दो महीने में रुपया भेजता रहता और मैं उसे अपने प्रिवार पर खर्च कर देता। एक दिवाली को उसने शैला के लिए बहुत सुन्दर पफ्रॉक भेजी लेकिन मैंने वह राध्किा को दे दी।' राध्किा भी वहाँ खड़ी सब बातें सुन रही थी। वह शर्मिन्दा होकर वहाँ से चली गई। दीनानाथ ने कहा, ‘रामदीन मन तो ऐसा कर रहा है तेरे टुकड़े टुकड़े कर दूँ।' दीनानाथ उठने लगा, तो रामदीन बोला मेरी बात पूरी नहीं हुई काका। उसने कहना शुरू किया, ‘ एकदिन चक्रध्र छुपता छूपाता अपने परिवार को देखने गाँव आया शाम ढल चुकी थी। चारों ओर से अंध्ेरा घिर आया था। वह मेरे खेतों की खड़ी पफसल में छिपा हुआ था। मेरे चौकीदार ने उसे चोर समझ कर पीट डाला।' दीनानाथ यह सुनकर भौचका सा रह गया। रामदीन रुंध्े गले से बोला, ‘चक्रध्र ने गिड़गिड़ा कर कहा, कि वह चोर नहीं है। उसने चौकीदार से कहा तुम्हारा मालिक ‘रामदीन' मुझे जानता है।
चौकीदार मुझे बुलाकर ले गया। लेेकिन मैंने चक्रध्र को पहचानने से सापफ इंकार कर दिया। चौकीदार उसे पीट पीट कर गाँव से बाहर खदेड़ आया। उसके बाद चक्रध्र का कोई पत्रा नहीं आया। थोड़े दिनों के पश्चात किसी जानने वाले ने मुझे सूचना दी कि चक्रध्र मुम्बई छोड़ कर, कहीं ओर चला गया' दीनानाथ क्रोध् से काँप रहा था। अब दीनानाथ के लिए रामदीन के घर पर ठहरने का कोई औचित्य नहीं था। वह यहाँ वहाँ देखने लगा पिफर यकायक उठकर बाहर की ओर चल दिया। वह लाठी टेकता हुआ तेजी से अपने घर की ओर बढ़ रहा था। दोपहर ढल चुकी थी। ध्ूप की तेजी समाप्त हो गइै थी। हवा अभी गर्म थी। दीना नाथ भीतर क्रोधग्नि में चल रहा था और बाहर मौसम की गर्मी झेल रहा था। वह घर पहुँचने से पहले ही चक्कर खाकर गिर गया। आस पास से कुछ लोग दौड़े चले आये ,‘अरे देखो कोई गर्मी से बहोश हो गया है।' पास के नुक्कड़ पर खड़ा पनवाड़ी का लड़का ठंडा पानी लेकर आया और दीना नाथ के चेहरे पर झिड़कने लगा। दीनानाथ आँखे पफाड़ कर इध्र उध्र देखने लगा। पनवाड़ी भी तब तक वहाँ पहुँच चुका था वह बोला, ‘यह तो लाल दरवाजे वाले बाबूजी हैं। जाओ दो आदमी इनके घर तक जाकर इन्हें छोड़ आओ।' दो व्यक्ति दीना नाथ को सहारा देकर घर ले गए। उन्हानें दरवाजा़ खटखटाया। कात्यायनी ने दरवाज़ा खोला पीछे—पीछे शैला भी आई। दोनों दीनानाथ की यह हालत देखकर बुरी तरह घबरा गइर्ं। दीनानाथ को खटिया पर बैठा कर दोनो व्यक्ति वहाँ से चले गए। कात्यायनी ने दीनानाथ से पूछा, ‘क्या हुआ बाबूजी? राध्किा की माँ ने क्यों बुलाया था?' बाबूजी पफूट—पफूट कर रोने लगे। कात्यायनी ससुर के लिए दूध् गर्म कर के ले आई। दूध् पीने के बाद दीनानाथ के भीतर थोड़ी सी हिम्मत जागी। उसने बताना शुरू किया। शैला भी सब कुछ सुन रही थी। वह उदास मन से घर के बाहर चबूतरे पर बैठ गई। पूरी बात बताने के बाद दीनानाथ खटिया पर लेट गया। कात्यायनी अभी तक तो हफदय को बहुत मजबूत रखे हुए थी, लेकिन अब वह बिल्कुल टूट चुकी थी। उसे चारों ओर केवल अंध्कार दिखाई दे रहा था। कैसी विडम्बना है सौ करोड़ की आबादी वाले देश में भी कहीं न कहीं कोई व्यक्ति अकेला रह जाता है।
इस घटना के बाद दीनानाथ कुछ बीमार रहने लगा। घर के खर्चे बढ़ते जा रहे थे। कात्यायनी कुछ ऐसा कार्य करना चाहती थी, जिससे थोड़ी आमदनी हो जाए। उसे कोई उचित व्यक्ति नहीं सूझ रहा था, जिससे वह सही मागदर्शन प्राप्त कर सके। ऐसे में उसे भाई कालीचरण की याद आई। उसने शैला से अपने भाई के नाम पत्रा लिखवाया। वह पत्रा लेकर डाकखाने पहुँची। वहाँ जाकर वह एक कर्मचारी से बोली ‘इस पत्रा पर टिकट लगवानी है।' डाक कर्मचारी ने सवाल किया, ‘कहाँ भेजना है यह पत्रा?' कात्यायनी ने कहा, ‘अपने भाई कालीचरण के पास।' कर्मचारी बोला, ‘लेकिन तुम्हारा भाई कहाँ रहता है? गाँव का नाम व जिला तो लिखो।' ‘वह सब तो मुझे नहीं मालूम।' कात्यायनी दुखी होकर बोली। ‘‘तब तो यह पत्रा अपने पास रखो।' डाक कर्मचारी ने कहा। कात्यायनी घर लौट आई। अब कात्यायनी को इन्तजार था, श्रावन मास का। कालीचरण हर वर्ष श्रावन में तीज के त्यौहार पर कात्यायनी के पास आता था।
अध्याय छह
कात्यायनी ने कागज़ के लिपफापफे बनाने का कार्य करना प्रारम्भ कर दिया। वह घर का काम समाप्त करके कागज़ के अध्कि से अध्कि लिपफापफे बनाने की कोशिश करती थी। दीनानाथ को चक्रध्र के घर न लौटने का दुख भीतर ही भीतर खाए जा रहा था। वर्ष पर वर्ष बीतते गए। सुबह से उसकी आँखे दरवाज़े पर टिक जातीं और हर रात्रिा वह उदासी भर आँखे मूँद लेता।
शैला आंठवीं की परीक्षा दे रही थी। गाँव का स्कूल आठवीं तक ही था। आगे की पढ़ाई करने की इच्छुक लड़कियों को दूसरे गाँव की पाठशला में जाना था। अध्कितर परिवार लड़कियों को आगे न पढ़ाने का निर्णय ले चुके थे। कात्यायनी अभी तक असमंजस में थी, कि वह क्या करे? शैला की पढ़ाई आगे करवाए या नहीं।
होली का त्यौहार आ रहा था। कात्यायनी थोड़ी सी गुंजियाँ बनाने की सोच रही थी। उसने मैदा और तेल खरीदने के लिए शैला को बाजार भेजा और कहा, कि इसके पैसे भी वह दुकानदार के खाते में दर्ज करवा दे। वह महीना समाप्त होने पर हिसाब कर देगी। शैला ने परचूने की दुकान से सौदा ख़्ारीदा और पूछा, ‘चाचाजी कुल कितना रुपया हो गया उधर का?' ‘पहले साढ़े तीन सौ रुपये थे। आज का सामान जोड़कर हो गए पूरे पाँच सौ।' दुकानदार बोला। ‘पाँच सौ?' शैला ने आश्चर्य से पूछा। दुकानदार ने रजिस्टर आगे करके कहा, ‘हाँ हाँ पाँच सौ।' शैला ने मैदा के पैकिट पर अंकित पच्चीस रुप्ए और तेल पर अंकित पचास रुपए जोड़कर कहा, ‘चाचाजी कुल चार सौ पचीस रुपए बनतें हैं।' दुकानदार ने क्रोध्ति होकर सामान वापिस ले लिया और बोला, ‘नहीं दूँगा उधर तुम जैसे लोगों को। अपनी माँ से कहना पहले का हिसाब चुकता कर जाए। बड़ी आई मुझे हिसाब सिखाने वाली।' शैला रुआंसी होकर घर लौट गई। घर अकर उसने रोते रोते सारी बात माँ को सुनाई। दीनानाथ भी सब कुछ सुन रहा था, वह पोती से बोला, ‘इध्र आ बेटी! क्यों रो रही है।' शैला सुबकते हुए बोली, ‘दादाजी! यदि हमारे पास पैसा नहीं, तो क्या हमारे अन्दर भावनाएँ भी नहीं हैं?' कोई भी कभी भी हमें बेइज़्ज़त कर देता है।' शरीर से लाचार दीनानाथ खटिया पर बैठे—बैठे बोला, ‘मेरी सन्दूक से गुल्लक निकाल कर ला आज उसे तोड़ देता हूँ।' शैला उधर चुकता करने के लिए आतुर थी। वह भाग कर गुल्लक ले आई। दीनानाथ ने गुल्लक को तोड़ दिया। शैला ने रुपये गिनने शुरू किए। पाँच, दस, पचास, सौ और पूरे एक सौ बीस। ‘यह तो केवल एक सौ बीस रुपए हैं दादाजी। हमें तो उधर के तीन सौ पचास रुपए चुकाने हैं।' दीनानाथ सोच में पड़ गया। शैला को यकायक कुछ घ्यान आया। वह खुशी से बोली, ‘मैं भी तो मेले से एक गुल्लक खरीद कर लाई थी। जब भी मामाजी पैसे देकर जाते थे, मैं गुल्लक में डाल देती थी।' शैला ने भी अपनी गुल्लक लाकर तोड़ दी। शैला की गुल्लक में निकले एक सौ तीस रुपए। अब कुल हो गए थे दो सौ पचास रुपए। सौ रुपए कहाँ से लाएँ? तीनों इसी उध्ेड़ बुन में थे। तभी कात्यायनी कई तह में मोड़ा सौ का नोट ले आई और उसने बताया, ‘मैंने सोचा था, शैला के बाबूजी जब लौट आएँगे, कपिलदेव जी के मन्दिर में एक सौ एक रुपए का प्रसाद चढ़ाउफँगी।' अभी यह रुपए भी हिसाब चुकाने के लिए प्रयोग कर लो।' शैला ने कहा, ‘अब हो गए पैसे पूरे। अभी में जाकर हिसाब चुकता करती हूँ।' दीनानाथ बोला, ‘उसकी किताब से हिसाब भी कटवा देना कहीं दुबारा पैसे माँग ले।'
शैला गर्व से पैसे लेकर दुकानदार के पास पहुँची और बोली, ‘लो चाचाजी अपने पैसे ! हिसाब की किताब में से हमारा हिसाब काट देना।' दुकानदार ने अाँखे तरेरकर शैला को देखा और रुपए हाथ से लेकर गिनने शुरू कर दिए। पिफर उसने कलम लेकर उस स्थान पर काटा लगा दिया जहाँ लिखा था ‘लाल दरवाजे़ वालों का उधर'।
शैला खुशी—खुशी घर लौट आई। उसने माँ से कहा, ‘माँ होली पर भलई गुजियाँ न बने, लेकिन हमारे सिर से उधर का बोझ तो हठ गया। कात्यायनी ने कहा, ‘कुछ ना कुछ तो बनाउफँगी। इतना बड़ा त्यौहार है।' दीनानाथ ने कहा, ‘सारे तीज त्यौहार अमीरों के लिए ही आते हैं। हमें तो बस वेदना देकर चले जातें हैं।' शैला भी स्वयं को असहाय महसूस कर रही थी। कुछ देर के गम्भ्ीर चिंतन के बाद शैला ने कहा, ‘माँ मैं आगे पढूँगी।' कात्यायनी ने कहा, ‘कैसे जाएगी रोज बारह कौस दूर?' ‘वह सब मैं देख लूँगी।' शैला का जवाब था।
आठवीं का नतीजा आ गया। शैला अच्छे अंको से उतीर्ण हो गई थी। वह अपने गाँव की अकेली लड़की थी जो आठवीं से आगे की पड़ाई कर रही थी। वह सुबह साढ़े पाँच बजे घर से निकल जाती और तीन बजे घर लौटती थी। उसने शाम के समय छोटे बच्चों को पढ़ाना भी शुरू कर दिया था। छोटे बच्चे सवालो के जाल में उलझा देते थे शैला को एक लड़की कूष्माष्डा जिसे शैला ने हिन्दी की मात्रााएँ सिखाई थीं, शैला से सवाल करने लगी, ‘दीदी! अ में अगर एक डंडा लगाओ तो आ बनता है। अगर दो डंडे लगाऐं तो क्या बनेगा? स और म में उ की मात्राा नीचे लगकर सु और मु बनता है तो र में उ की मात्राा नीचे क्यों नहीं लगती वह ‘रु' क्यों नहीं लिखा जाता। ओ का मात्राा के लिए े की मात्राा के नीचे एक डंडा होता है तो औ की मात्राा के लिए दो डंडे ‘ाा' क्यों नहीं होते?' शैला ने अपनी माँ से कहा, ‘माँ! कूष्माण्डा या तो सिर पिफरी है या पिफर जीनियस है।' कात्यायनी कहा, ‘जिज्ञासु स्वभाव की है। लगता है बड़ी होकर कुछ अवश्य करेगी।'
दीनानाथ पर दवाईयों का खर्चा बढ़ता जा रहा था। गाँव में कोई अच्छा डॅाक्टर नहीं था। दीनानाथ के ईलाज के लिए दूर के गाँव में जाना पड़ता था। कई बार तो पैसे की तंगी के चलते दीना नाथ स्वयं ही डॉक्टर के पास जाने से मना कर देता था। शैला ने मन ही मन निश्चय किया कि वह कड़ी मेहनत करके विज्ञान विषय में दाखिला लेगी और डॉक्टर बनकर गाँव वालों की सेवा करेगी।
ग्यारवीं कक्षा में शैला को विज्ञान विषय मिल गया। केवल पाँच छात्रााएँ थीं विज्ञान विषय में। दिन रात कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी शैला को। माँ के काम में भी हाथ बँटाती थी। दादाजी की दवा के समय का में भी ख्याल रखती थी।
बारवीं की परीक्षा देने के बाद अवकाश चल रहा था। एक दिन शैला बाजा़र से लौटी तो माँ एक पत्रा हाथ में लिए उदास बैठी थी। ‘क्या हुआ माँ उदास क्यों बैठी हो?' शैला ने पूछा। कात्यायनी ने कहा, ‘यह पत्रा मैंने तेरी छात्राा से पढ़वा लिया है। तू भी मुझे छोड़कर दिल्ली जा रही है?' ‘मैं कहाँ दिल्ली जा रही हूँ?' शैला ने आश्चार्य से पूछा। अच्छा यह पत्रा तो दिखाओ। कात्यायनी ने शैला को पत्रा थमा दिया। शैला ने पत्रा पढ़कर कहा, ‘ यह तो डॉक्टरी में प्रवेश पाने की केवल चयन परीक्षा है। मैंने तो केेवल अनुभव प्राप्ति के लिए पफॉर्म भर दिया था।' दिल्ली जैसे बड़े शहर में मुझे दाखिला थोड़े ही मिलेगा।' कात्यायनी ने पूछा, ‘कब जाना है?' शैला ने कहा, ‘अगले महीने की इक्कीस तारीख को।' कात्यायनी ने पूछा, ‘किसके साथ जाएगी?' शैला ने कहा, ‘छाया ताई का भानू भी दे रहा है यह परीक्षा।' ‘लड़के के साथ जाएगी, तो गाँव भर मेंं बदनामी हो जाएगी।' कात्यायनी ने कहा। ‘कैसी बदनामी, माँ! मैं तो केवल परीक्षा देने जा रही हूँ माँ।' शैला ने कहा। अब तक चुप बैठा दीनानाथ बोला, ‘गाँव वाले राई का पहाड़ बना देते हैं।' ‘तो माँ तुम चलना साथ में।' शैला ने कात्यायनी से कहा। ‘मैं कैसे जाउफँगी इतने बड़े शहर में।' कात्यायनी ने हल्की सी घबराहट दिखाते हुए कहा। दीनानाथ ने कहा, ‘इसमें घबराने की क्या बात है? दिल्ली में भी हमारे जैसे इन्सान रहते हैं।' कात्यायनी ने कहा, ‘ठीक है मैं दिल्ली चलूँगी' अब वह थोड़ी सी उत्साहित थी। ‘ओ मेरी अच्छी माँ।' कहकर शैला माँ से लिपट गई।
डॉक्टरी के लिए दाखिला लेने की प्ररीक्षा का दिन आ गया था। परीक्षा सुबह नौ बजे शुरू होनी थी। इसलिए गाँव से पाँच बजे की गाड़ी मेें बैठना था। शैला और कात्यायनी साढ़े चार बजे ही घर से पैदल निकल गईं। वह स्टेशन पहुँची तो वहाँ भानु व राध्किा पहले से ही खड़े थे। भाने शैला से बोला, ‘चाचीजी को क्यों साथ ले आई? हम भी तो जा रहेंं हैं।' शैला ने कहा, ‘माँ भी इस बहाने दिल्ली देख लेंगीं। हमारा कोई नाती रिश्तेदार तो यहाँ रहता नहीं।' शैला ने राध्किा की ओर देखकर कहा, ‘तुम भी यह परीक्षा दे रही हो मुझे इसकी जानकारी नहीं थी।' राध्किा ने कहा, ‘मैं तो बचपन से ही डॉक्टर बनने का सपना देखती थी।' तभी गाड़ी के आने का हॉर्न सुनाइै दिया। और ध्ड़ध्ड़ाती गाड़ी प्लेटपफार्म पर आकर रुक गई। चारों गाड़ी में सवार हो गए। साढ़े सात बजे गाड़ी पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहुँच गई। चारों स्टेशन से बाहर निकल आए। कात्यायनी और शैला पहली बार शहर देख रहीं थीं। सुबह से ही शहर में बहुत भीड़ भाड़ दिखाई दे रही थी। चारों सपफदरजंग जाने वाली बस में सवार हो गए। बस स्टैंड से परीक्षा केन्द्र ज्यादा दूर न था। परीक्षा केन्द्र में छात्रा छात्रााओं की बहुत बड़ी संख्या थी। शैला ने कात्यायनी से कहा, ‘देखा माँ कितने छात्रा व छात्राएँ यहाँ परीक्षा के लिए आए हैं। मेरा नाम तो डॉक्टरी मैं आना असंभव है। शहर में पढ़ाई के बहुत से साध्न हैं। गाँव में सुख सुविधएँ नहीं हैं।'
शैला माँ का आशीर्वाद ले परीक्षा भवन में चली गई। दो घंटे की परीक्षा देकर तीनों बाहर आ गए। तीनों प्रश्न पत्रा चर्चा कर रहे थे। शैला परीक्षा भवन में अपना पहचान पत्रा भूल आई थी। वह उसे लेने हॉल में पहुँची तो एक अध्ेड़ उम्र का व्यक्ति बिजली के तारों की पिफटिंग कर रहा था। शैला की तरपफ उसकी पीठ थी। वह वही गाना गुनगुना रहा था जो शैला के बाबूजी गाया करते थे ‘चिंता एक चटोरी चिड़िया' कुछ देर शैला वहाँ ठहरी। पिफर वह कात्यायनी के पास दौड़ कर आई और बोली, ‘माँ अन्दर एक व्यक्ति, बाबूजी वाला गाना गा रहा था।' कात्यायनी ने कहा, ‘कहाँ! जल्दी मुझे वहाँ ले चल।' ‘चलो माँ!' भानु और राध्किा भी उनके साथ चल दिए। दो सुरक्षाकर्मी वहाँ खड़े थे। उन्होने कहा, ‘परीक्षा समाप्त हो चुकी है अब आप लोग अन्दर नहीं जा सकते।' शैला ने कहा, ‘हमें अन्दर जाने दो। हम अपने बाबूजी को ढूँढ रहे हैं।' एक सुरक्षाकर्मी बोला, ‘अगर वह अन्दर रह गए हैं, तो स्वयं बाहर आ जाऐगें।' कात्यायनी ने कहा, ‘नहीं भाईसाहब वह कई वषोर्ं से घर वापिस नहीं आए हैं।' दूसरा सुरक्षाकर्मी हँसने लगा। ‘कई वर्षों से घर नहीं आए, तो क्या परीक्षा भवन में छुप कर बैठे हैं?' पहला कर्मी बोला। शैला ने कहा, ‘एक व्यक्ति यहाँ वही गाना गा रहा था जो हमारे बाबूजी गाते थे।' पहले कर्मी ने कहा, ‘गाना तो कोई भी गा सकता है।' वह दोनो आपस में बात करने लगे, ‘ इन गाँव वालों को कोई बात ही समझ में नहीं आती।' एक कर्मी ने डंडा हिलाते हुए कहा, ‘चलो—चलो बाहर निकलो! गेट बन्द करना है।' चारों बाहर आ गए। शैला ने कात्यायनी से कहा, ‘माँ सुना था दिल्ली दिलवालों का शहर है, किन्तु यहाँ तो तंग दिल लोग रहतें हैं।' भानु बोला, ‘केवल कुछ लोगों को देखकर हम पूरे शहर को बुरा नहीं कह सकते।' राध्किा ने कहा, ‘नहीं, यह ठीक नहीं। यहाँ कुछ अच्छे लोग भी रहतें हैं।'
चारों बस द्वारा गाँव की ओर रवाना हो गए। बस में शैला ने कात्यायनी से कहा, ‘माँ मुझे अब दादाजी से अवश्य पूछना है, कि वह बाबूजी को गाना गाने के लिए क्यों मना करते थे।' कात्यायनी कहती है, ‘लेकिन ऐसे पूछन कि तुम्हारे दादाजी को बूरा ना लगे।' ‘ठीक है माँ।' शैला ने जवाब दिया। भीड़— भाड़ भरी दिल्ली से बस छोटे से गाँव में पहुँच गइै। अंध्ेरा घिर आया था। चारो उतर के अपने घर की ओर चल दिए। शैला के घर पहुँचते ही दीना नाथ ने पूछा, ‘कैसा हुआ पर्चा?' शैला ने कहा, ‘एक दो गल्तियाँ हो गईं दादाजी।' दीना नाथ ने कहा , ‘डॉक्टरी में दाखिला तो मिल जाएगा?' शैला ने कहा, ‘दादाजी पहले तो आप पाठशाला जाने के लिए मना करते थे। अब मेरे डॉक्टर बनने का इन्तज़ार कर रहे हो।' दीना नाथ बोला, ‘ पहले में अंध्ेरे में था। तूने मुझे रोशनी दिखा दी।'
अगले दिन सुबह अवसर मिलते ही शैला ने दादाजी से पूछा, ‘दाादाजी आप बाबूजी को गाना क्यों नहीे गाने देते थे?' दादाजी गहरी सांस छोड़ते हुए बोले, ‘इसके पीछे भी एक गहरी दर्द भरी कहानी है।' ‘बताइए, ना दादाजी!' शैला ने कहा। दीनानाथ ने बोलना शुरू किया, ‘मेरा छोटा भाई था ‘भोला नाथ' वह गाने का बहुत शौकीन था। उसने संगीत की शिक्षा ली। वह कई कार्यक्रमों में भाग लेने जाता था। मगर उसकी आमदनी से घर का खर्चा नहीं चल पाता था। वह यह सोच कर उधर लेता रहा कि एक दिन वह बड़ा कलाकार बन जाएगा तब उसके पास बहुत सा पैसा होगा और वह अपना कर्जा उतार लेगा। लेकिन उसके उफपर कर्जे का बोझा भड़ता रहा। गायिकी से उसे इतनी आमदनी नहीं होती थी कि वह अपना कर्जा उतार पाता। अंत में उसने तंग आकर आत्महत्या कर ली। वह दुख मेरे हफदय से नहीं निकला है अभी तक। इसलिए मैं चक्रध्र को गाना गाने नहीं देता था। मुझे डर था हमारे परिवार में यह इतिहास ना दोहराया जाए।' शैला यह सब सुनकर सोच में डुब गइै। पहले वह भीतर ही भीतर दादाजी से नाराज़ थी। अब वह दादाजी से बहुत अध्कि नाराज़ नहीं थी परन्तु उसे कहीं न कहीं यह बात कष्ट दे रही थी कि दादाजी अगर बाबूजी को डांटते नहीं और प्यार से समझाते तो बाबूजी अवश्य घर लौट आते। दादाजी के कड़े रुख के कारण बाबूजी नहीं लौट रहे हैं।
डॅाक्टरी में दाखिले की परीक्षा का आज परिणाम घोषित हो रहा था। भानु ने सब के अनुक्रमांक लिख लिए थे। वह दिल्ली जा रहा था तीनों के नतीजे देखने के लिए। कात्यायनी सुबह से ही ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि शैला इस परीक्ष में उतीर्ण हो जाए। कात्यायनी के दूर दूर के रिश्तेदारों में कोई लड़की तो क्या कोई लड़का भी डाक्टर न था। उसका रोम रोम यह सोच कर पुलकित हो जाता था कि शैला डॉक्टर बन जाएगी तो समाज में उनके परिवार की इज़्जत कितनी बढ़ जाएगी। दादाजी बार बार शैला को पुकार रहे थे, ‘ डॉ शैला श्रेष्ठ' शैला का तो समय काटे नहीं कट रहा था। वह भानु के वापिस आने की राह देख रही थी।
शाम के सात बजे भानु वापिस आ गया। शैला और राध्किा भानु के घर पहुँची। दोनों के माथे पर प्रश्न चिन्ह था। भानु ने राध्किा से कहा, ‘मिठाई खिला राध्किा तेरा डॉक्टरी में नम्बर आ गया। शैला दो अंक से और मैं पाँच अंको से पीछे रह गया।' शैला के पाँव तले से जमीन खिसक गई। डॉक्टर बनने का उसका सपना चूर चूर हो गया था। भानू ने बताया, ‘ग्रामीण एवं पिछड़े क्षेत्राों के लिए आरक्षित सीटों में राध्किा का चयन हुआ है। इस महीने की तीस तारिख तक पफीस जमा करवानी है।' वह शैला की ओर देखकर बोला, ‘अगले महीने दस तिथि को दूसरी सूची लगेगी, लेकिन हम दोनों में से किसी का भी नाम आना असंभव है। ग्रामीण क्षेत्रा की सीटें पहली ही सूची में भर जातीं हैं।' शैला राध्किा को बधई देकर अपने घर लौट गई। कात्यायनी व दीना नाथ नतीजा जानने के लिए बेसब्र हो रहे थे। शैला मुँह लटका कर लौटी। कात्यायनी उसका चेहरा देखकर ही समझ गई कि ईश्वर ने उसकी यह इच्छा भी पूरी नहीं की।
शैला ने जयपुर और मुम्बई में भी दाखिला लेने के लिए परीक्षा दी थी। दो दिन बाद जयपुर का और पाँच दिन बाद मुम्बई का नतीजा आना था।
जयपुर के नतीजे से शैला को बहुत उम्मीद थी। कालीचरण मामाजी गए थे नतीजा देखने लंकिन वह अपने साथ निराशा ही लेकर लौटे। भानु ने बताया कि मुम्बई के नतीजे समाचार पत्रा में निकलेंं हैं। भानु ने भाग दौड़ के समाचार पत्रा का प्रबन्ध् किया। शैला ने बहुत घ्यान से अपना अनुक्रमांक ढूँढा। एक बार नहीं चार पाँच बार देखा। मुम्बई में भी शैला का चयन नहीं हुआ था। शैला ने अपनी माँ से कहा, ‘माँ विधता ने हमारे भाग्य में किसी भी प्रकार की खुशी नहीं लिखी है।' कात्यायनी ने कहा, ‘कभी तो ईश्वर हम गरीबों की ओर भी देखेगा।' शैला ने कहा, ‘माँ शायद तब तक बहुत देर हो जाएगी। हमारी सारी इच्छाएँ दम तोड़ देगीं।' दीनानाथ ने कहा, ‘ईश्वर दुख देकर हमारी परीक्षा लेता है।' ‘कैसी परीक्षा दादाजी? मैं तो इन्सान की बनाई हुई परीक्षा में भी पास नहीं हुई। पिफर ईश्वर की कड़ी परीक्षा में कैसे उतीर्ण हो सकती हूँ।'
दिल्ली में डॉक्टरी के दाखिले की दूसरी सूची लगने का दिन आज दूसरा दिन था। यदपि भानु और शैला के नाम आने की संभावना ना के बराबर थी पिफर भी भानु दिल्ली जा रहा था सूची देखने के लिए।
शाम को भानु ने शैला के घर का दरवाजा खटखटाया। कात्यायनी ने दरवाजा खेला तो भानू बोला, ‘चाचीजी बधई हो! शैला को डॉक्टरी में दाखिला मिल गया है।' ‘क्या सच?' कात्यायनी ने आश्चर्य से पूछा। भानु ने कहा, ‘हाँ पता नहीं कैसे हो गया यह चमत्कार? ग्रामीण क्षेत्रा से किसी एक छात्रा ने पफीस जमा नहीं करवाई। इस कारण शैला का नाम आ गया।'। दीनानाथ बोला, ‘ कोई हमारी तरह गरीब होगा तो पैसे का प्रबन्ध् नहीं कर पाया होगा।' भानु ने शैला से कहा, ‘तूने तो पैसे का प्रबन्ध् कर रखा है ना।' शैला ने भोलेपन से कहा, ‘मैं बैंक से कर्जा ले लूँगी।' भानु ने कहा, ‘केवल पाँच दिन में पफीस जमा करवानी है। इतनी जल्दी बैंक से कर्जा थोड़े ही मिलता है।' शैला की आखों के आगे अंध्ेरा छा गया। इतना शीघ्र रुपयों का प्रबन्ध् कैसे होगा? कात्यायनी भी सोच में पड़ गई। ‘कितने रुपयों की आवश्कता है?' दीनानाथ ने सवाल किया। भानू बोला, ‘राध्किा से पूछ लेना।' उसने पफीस जमा करवाई होगी।
शैला अगले दिन राध्किा के घर पहुँची। राध्किा की माँ ने दरवाजा खोला। ‘आओ शैला भीतर आ जाओ।' वह बोली। ‘नहीं काकी! मुझे तो बस राध्किा से एक बात पूछनी थी।' शैला ने जवाब दिया। ‘राध्किा तो अपनी नानी के घ्र गई है।' राध्किा की माँ का जवाब था।
शैला ने पूछा, ‘राध्किा ने डॉक्टरी के लिए कितना पैसा जमा करवाया?' ‘डॉक्टरी में?' राध्किा की माँ ने आश्चर्य से पूछा। ‘वह तो कह रही थी मुझे डॅाक्ठरी में, दाखिला नहीं मिला।' राध्किा की माँ ने कहा। शैला ने जवाब में कहा, ‘उसका तो पहली सूची में ही नाम आ गया था।' राध्किा की माँ सोच में पड़ गई। शैला घर लौट गई।
शैला ने घर आकर माँ और दादाजी को सारी बात बताई। दीनानाथ बोला, ‘बहुत खर्चा होता है डॉक्टरी में। भला लड़कियों पर कौन खर्चा करेगा। लड़कियों को तो आखिर ससुराल जाना है।' कात्यायनी बोली, ‘ लेकिन बाबूजी यदि शैला डॉक्टर बन गई तो हमारा सिर गर्व से उफँचा हो जाएगा।' ‘सही कहती हो, बहू!' दीनानाथ बोला। कात्यायनी कुछ देर किसी उध्ेड़ बुन में लगी रही। गहरी सोच के बाद वह बोली, ‘ मैं लछमी के साथ साहुकार के पास जाती हूँ शायद वह कुछ मदद कर दे।' वह लक्ष्मी को साथ लेकर साहुकार के पास पहुँची। साहुकार पहले ही किसी बात पर जला भुना बैठा था। कर्ज का नाम लेते ही वह बोला, ‘मैंने क्या पैसों का पेड़ लगा रखा है? जो कोई भी मुँह उठाकर उधर लेने चला आता है।' वह अपने चपड़ासी को पफटकार के बोला, ‘सब को अन्दर आने देता है यहाँ क्या नौटंकी चल रही है?' बाप रे बाप इतना अपमान! लक्ष्मी दाँत में पल्लू दबाकर बोली। कात्यायनी की पलकें गीली थीं वह बोली, ‘शैला के बाबूजी लौट आते, तो यह दिन न देखना पड़ता।'
घर में तनाव भरा वातावरण था। कुछ न कुछ उपाय तो ढूँढना ही था। दीना नाथ ने अपनी संदूक में से कुछ टटोला और लाठी टेकता हुआ दरवाजे की ओर बढ़ा और बोला, ‘बहू दरवाजा बन्द कर लो मैं बाज़ार जा रहा हूँ।'
शैला ने अपनी डायरी निकाली। बाबूजी के नाम एक और पन्ना लिख दिया, ‘बाबूजी! आज दादाजी मेरी पफीस भरने के लिए दादी की आखिरी निशानी ‘उनके कंगन' बेचने गए हैं।'
अध्याय सात
शैला आज एमण् बीण् बीण् एसण् करने के लिए दिल्ली रवाना हो रही थी। सुबह के नौ बजे थे। कात्यायनी उसके साथ सामान रखने की तैयारी भी करा रही थी और अपनी क़ीमती सलाह भी दे रही थी। वह शैला से कह रही थी, ‘रास्ते में किसी अनजान व्यक्ति से बात—चीत मत करना। जाते ही अपने पहुँचने की खबर देना। हॉस्टल के बाहर अकेले मत जाना।' शैला ने कहा, ‘माँ तुम चिंता मत करना किसी भी बात की। अपना ख्याल रखना। मेरे पत्रा का जवाब मेरे किसी छात्रा से लिखवा लेना। दादाजी को जो दवा सुबह देनी है उस पर मैंने सूर्य बना दिया है। और रात वाली दवा पर चाँद बना दिया है।' कात्यायनी ने कहा, ‘तूझे कभी अकेले कहीं नहीं भेजा इसलिए मेरा दिल बहुत घबरा रहा है।' शैला ने कहा, ‘माँ तुम्हारा दिल बहुत कमजोर है। ध्ीरज रखो माँ! सब ठीक रहेगा।'
कात्यायनी ने नमकीन पारे और नारियल की बपर्फी का डिब्बा शैला को देकर कहा, ‘इन्हें जरूर खा लेना। मैंने बड़ी मेहनत से बनाए हैं।' शैला ने कहा, ‘क्यों किया यह सब तुमने। माँ तुम्हें तो घर के इतने सारे काम करने होते हैं।'
सारी तैयारी पूरी होने पर शैला का सामान उठा कर कात्यायनी उसे बस में बैठाने उसके साथ चल दी। रास्ते मैं कात्यायनी ने शैला से कहा, ‘मुझे शहर से बहुत डर लगता है।' शैला ने कहा, ‘क्यों माँ?' कात्यायनी ने कहा, ‘जो शहर जाता है, वो वहीं का होकर रह जाता है।' ‘नहीं माँ मैं गाँव वापिस आउफँगी। हमारे गाँव में कोई चिकित्सक भी नहीं है। दादाजी को हमेशा यह दुख रहता है, यदि दादीजी को समय पर कोई चिकित्सक मिल जाता तो उनकी ज़िन्दगी बचाना संभव था।' बातें करती—करती दोनो गाँव से बाहर निकल आई। यहाँ विभिन्न राज्यों की ओर जाने वाली बसे खड़ीं थीं। कात्यायनी ने एक व्यक्ति से पूछा, ‘भैया दिल्ली कौन सी बस जाएगी?' व्यक्ति के जवाब देने से पहले ही शैला बोली, ‘माँ मैं स्वयं देख लूँगी।' एक बस वहाँ आकर रुकी जिसमें कुछ सवारियाँ पहले से बैठी थीं। उस पर लिखा था, ‘जयपुर से दिल्ली'। शैला ने कहा, ‘माँ इसी बस में बैठ जाती हूँ।' कात्यायनी से सामान लेकर शैला उसी बस में बैठ गई। एक दो सवारी ओर चढ़ी और बस घड़ घड़ की आवाज़ के साथ ध्ीमी गति से चल दी। शैला ने बस की खिड़की से माँ को हाथ हिलाया। कात्यायनी ने भी हाथ हिलाया। बस ने गति पकड़ ली। कात्यायनी बस के आँखों से ओझल होने तक बस को देखती रही। उसकी आँखे अश्रुओं से भर गईं थीं। न जाने इस दुख से कि शैला उससे दूर जा रही थी या इस खुशी से कि शैला चिकित्सक बनकर गााँव लौटेगी। वह घर की ओर लौट गई।
पूरे दिन कात्यायनी उदास मन से घर का काम करती रही। दीना नाथ का भी मन विचलित था। शाम होते होते कात्यायनी को रुलाई ही आ गई। वह थोड़ी देर के लिए लक्ष्मी के पास मन हल्का करने चली गई। लक्ष्मी ने तो उसके मन का बोझ और भी बढ़ा दिया। वह बोली, ‘ तुमने शैला को अकेले शहर भेज कर अच्छा नहीं किया।' कात्यायनी ने पूछा, ‘यदि शैला का खत ना आया, तो क्या तुम मेरे साथ शहर चलोगी?' लक्ष्मी बोली, ‘अरे ना! मेरे सास ससुर कहाँ जाने देगें दिल्ली शहर। मुझे मायके तक तो जाने नहीं देते।' कात्ययानी घर लौट आई। उसने अपने ससुर से पूछा, ‘बाबूजी दिल्ली से खत आने में कितने दिन लगतें है?' दीनानाथ बोला, ‘तीन चार दिन तो लग जाएँगे।' ‘अगर इस शुक्रवार तक शैला का खत न आया तो मैं कालीचरण के साथ दिल्ली चली जाउफँगी।' कात्यायनी ने ससुरजी से कहा। दीनानाथ बोला, ‘ऐसा मत कह बहु! मेरा दिल बैठा जा रहा है।'
उध्र जब शैला दिल्ली शहर पहुँची तो उसे हॉस्टल ढूँढने में बहुत कठिनाई हुई। हॉस्टल में पहुँच कर शैला ने स्वागत कक्ष में अपना पहचान पत्रा दिखाकर अपना कमरा नम्बर पूछा। उसे कमरा नम्बर 27 बताया गया। कमरा दूसरी मंजिल पर था। वह अपना सामान लेकर जब दूसरी मंजिल पर पहुँची तो कुछ लड़कियाँ वहाँ समूह में खड़ी थीं। शैला को देख कर वह ज़ोर ज़ोर से हँसने लगीं। शैला के गाँव में सिलवाए कपड़े और तेल लगाकर गूंध्ी लाल रिबन वाली चोटियाँ, शहर वाली लड़कियों को अजूबा लग रहीे थीं। शैला ने पूछा कमरा नम्बर सताईस कहाँ है? एक लड़की ने अन्य लड़कियों की ओर देखकर कहा, ‘सताईस कितना होता?' दूसरी लड़की ने कहा, ‘टवन्टी सैवन।' एक अन्य लड़की माल्ती बोली, ‘माई गुडनेस ! इज़ शी माई रूम मेड?' मुझे अपना रूम चैंज करवाना पड़ेगा।' स्वाति ने कहा,‘कमॉन यार रोज तेरा प्रफी में एन्टरटैंनमेंट होगा।' सभी लड़कियाँ जोर— जोर से हँस रहीं थीं। शैला अपने अपमान को चुपचाप सह रही थी। उसे तो सामने केवल अपना लक्ष्य दिखाई दे रहा था। वह जानती थी उसे अभी एक लम्बा पथ तय करना है और उस पथ में अनगिनत कांटे हैं। उसने कमरे में प्रवेश किया वहाँ दो बिस्तर थे। खिड़की की तरपफ वाले बिस्तर पर पहले से ही सामान रखा था। शैला ने दूसरा बिस्तर ले लिया। माल्ती भी पीछे पीछे आ गई। उसने शैला से पूछा, ‘विच स्टेट डू यू बिलाँग?' शैला ने जवाब दिया, ‘ राजस्थान।' माल्ती कटीली मुस्कान के साथ शैला को देख रही थी। शैला ने अपने सामान में से कागज व कलम निकाल कर अपनी माँ को पत्रा लिखना शुरु किया।
मेरी अच्छी माँ !
मैं दिल्ली सकुशल पहुँच गई हूँ। यहाँ सब लोग बहुत अच्छे हैं। तुम मेरी चिंता मत करना। दादाजी के विषय में लिखना। अपना ख्याल रखना। तुम्हारी बहुत याद आ रही है। लक्ष्मी मौसी को नमस्ते कहना।
तुम्हारी बेटी
शैला
माल्ती ने कहा, ‘अपने डैड के लिए कुछ नहीं लिखा?' शैला ने उदास स्वर में अपने बाबूजी के विषय में सब कुछ बता दिया। माल्ती ने कहा, ‘हाओ सैड!' माल्ती बाहर अन्य सहेलियों के पास चली गई। शैला अपना सामान जचाने लग गई।
अगले दिन सुबह आठ बजे एमण् बीण् बीण् एसण् की प्रथम व्याख्यान के लिए सब हॉल में एकत्रा हुए। शैला के हॉल में पहुँचने पर, अध्कितर छात्रा छात्रााएँ मुँह दबाकर हँस रहे थे। शैला को समझ नहीं आ रहा था, उसमें ऐसा हास्यस्प्रद क्या है। व्याख्यान समाप्त होने के बाद एक घंटे का विराम हुआ। शैला माँ का खत डाकखाने में डालने चली गई। जब वह वापिस लौटी तो कुछ लड़कियाँ पिज़्ज़ा का आनन्द ले रहीं थीं। शैला ने उस रात अपनी बाबूजी वाली डायरी में लिखा, ‘बाबूजी शहर में रोटी और सब्जी अलग अलग नहीं मिलती। मोटी मोटी रोटियों पर सब्जी सजा कर देते हैं।' मिताली ने भी यह सब पढ़ लिया वह हँसते हँसते लोट पोट हो गई।
अगले दिन मालती ने भरी कक्षा में कहा, ‘गर्ल्स एंड बॉयज़ इपफ आई विल टैल यू व्हट शैला हैज़ डिपफाईन पिज़्ज़ा एैज़ यू ऑल विल लॉपफ। ' मालती के बताने पर सब छात्रा छात्राएँ जो़र जो़र से हँसने लगीं। एक छात्रा प्रपफुल को यह बात खल रही थी।
स्वाति ने जब यह बात शैला को नाक सिकोड़ते हुए कही, ‘शैला यार तू इतना सरसों का तेल सिर में मत लगाया कर पूरे क्लास रुम में बदबू पफैल जाती है।' तो शैला भीतर ही भीतर तड़प उठी। अपमान सहने की भी एक हद होती है। शैला कक्षा के बाहर जाकर रोने लगी। वह सोच रही थी ‘यह सब चिकित्सक बनने के लिए आए हैं? इन्हें तो न किसी से हमदर्दी है न ही किसी की भावनाओं को समझते हैं। मैं तो चिकित्सक को बड़े सम्मान की निगाहों से देखती थी। यह लोग चिकित्सक बन कर मरीज के दर्द को क्या समझेगें। सामने से प्राघ्यापक को कक्षा की ओर आते देख शैला ने अपनी आखों के आंसू पोंछ लिए। वह अपनी सीट पर अन्दर जाकर बैठ गई।
कक्षा समाप्त होने के बाद प्रपफुल लड़कियों के उस समूह के पास पहुँचा जहाँ मिताली और स्वाति खड़ीं थीं। वह वहाँ जाकर बोला, ‘शैला पिछड़े हुए ग्रामीण क्षेत्रा से आई है। हमें उसकी मदद करनी चाहिए। हमें उसका उत्साह बढ़ाना चाहिए। भारत की राजधनी दिल्ली को लोग बहुत आदर देतें हैं। शैला अपने गाँव में जाकर क्या बताएगी?' वह शैला के पास जाकर बोला ,‘ तू इन सब बातों को अपने चित में मत लेना। यदि तू इन बातों को अपने भीतर ले जाएगी तो यह तेरी बन जाऐगीं और लक्ष्य से भटका देगीं।' शैला ने कहा, ‘ हाँ मैं प्रयास तो करती हूँ। इन बातो पर ध्यान न दूँ । लेकिन घर से दूर हूँ, इसलिए यह सब बाते सुनकर माँ और दादाजी बहुत याद आतें हैं।' प्रपफुल ने कहा, ‘जिंदगी में कुछ भी आसानी से नहीं मिलता। कुछ भी पाने के लिए बहुत कुछ खोना पड़ता है।' प्रपफुल के साथ वार्तालाप से शैला के हफदय को थोड़ी राहत मिली।
उध्र गाँव में कात्यायनी हर दिन डाक के समय बाहर जा कर खड़ी हो जाती। उसकी गली से डाकिया अगली गली में जब मुड़ जाता तो वह निराश होकर अन्दर आ जाती। शुक्रवार का दिन था। अभी कात्यायनी को डाक के समय का ख्याल भी न था कि डाकिए की घंटी के साथ पट की आवाज़ के साथ एक लिपफापफा आँगन में आ गिरा। कात्यायनी ने साड़ी के पल्लू से हाथ पोंछा और झट से लिपफापफा उठा लिया। वह पढ़ना लिखना जानती नहीं थी। उसे पूरा विश्वास था कि यह शैला का ही पत्रा है। उसकी आँखे छलछला रहीं थीं। वह ससुर के पास पहुँची, ‘बाबूजी देखना यह पत्रा किसका है?' दीनानाथ खटिया पर लेटा था वह उठ कर बैठ गया उसने तकिये के नीचे से अपना चश्मा निकाला और आँखों पर चढ़ा कर पत्रा हाथ में लेकर वह बोला, ‘अरे शैला बिटिया का है।' कात्यायनी उत्सुकता से बोली, ‘जल्दी से पढ़कर बताओ बाबूजी क्या लिखा है?' दीनानाथ ने बड़े आनन्द के साथ पत्रा पढ़ा। थोड़ी देर के लिए ही सही उनके घर में खुशी की लहर दौड़ गई। कात्यायनी को लग रहा था शैला उसके आस पास खड़ी है।
शाम को वह गली में निकली तो गणेश कंचे खेल रहा था। वह बोली गणेश से बोली, ‘ऐ गणशीया इध्र आ!' गणेश मिटटी से सने हाथ पेरों से भागता हुआ आया, ‘क्या बात है चाचीजी!' वह बोला। ‘बेटा तनिक हमारी शैला के पत्रा का जवाब तो लिख दे।' वह वापिस भागता हुआ बोला, ‘मुझे नहीं आता पत्रा लिखना।' कात्यायनी बड़बड़ा रही थी, ‘शैला ने कितनी मेहनत की इसे पढ़ाने के लिए लेकिन इसको अभी तक लिखना नहीं आया।' कोई पत्रा लिखने के लिए तैयार नहीं हुआ। आखिर दीनानाथ ने काँपते हाथों से पत्रा का जवाब लिख दिया।
शैला अपने विषय में कड़ी मेहनत कर रही थी। प्रथम आंतरिक परीक्षा में उसने अच्छे अंक प्राप्त किए। उसकी कुछ सहेलियाँ भी बन गईं थी। दिल्ली के वातावरण में शैला स्वयं को ढालने की कोशिश कर रही थी।
एक अक्तूबर से पन्द्रह अक्तूबर तक अवकाश का नोटिस हॉस्टल में लग चुका था। हॉस्टल की सभी लड़कियाँ घर जाने के लिए उत्साहित थीं। शैला ने एक बार तो निर्णय लिया कि वह घर वापिस जाने आने में पैसे बर्बाद नहीं करेगी। लेकिन उसे बाद में ज्ञात हुआ कि कोई भी हॉस्टल में नहीं ठहरेगा। शैला ने सोचा वह माँ को अपने आने की सूचना नहीं भेजेगी। अचानक जाकर चौंका देगी।
तीस सितम्बर की दोपहर को शैला दिल्ली से अपने गाँव के लिए रवाना हो गई। वह बस में बैठी कल्पना कर रही थी कि माँ और दादाजी उसे देख कर कितना खुश होगें। वह भी तो कितने दिनों के बाद अपने गाँव को देख रही थी। माँ के हाथ की बनी चूल्हे की रोटियाँ कितने दिनों बाद खा रही थी। यही सोचते सोचते सपफर कब तय हो गया पता ही नहीं चला। गाँव पहुँचते पहुँचते शाम ढल गई। शैला बस से उतर कुछ देर वहाँ खड़ी ही रह गई गाँव के वातारण में मन को विशेष शान्ति प्रप्त होती है। वह पैदल ही घर काी ओर रवाना हो गई। घर का दरवाजा खुला हुआ था। वह दबे पाँव घर में दाखिल हुई। माँ कमरे के पफर्श पर बैठी हुई लिपफापफे बना रही थी। ‘माँ कितनी कमजोर हो गई!' शैला बुदबुदाई। कात्यायनी बार—बार दीवार का सहारा ले रही थी। दादाजी बेसुध् पड़े थे। इससे पहले कि शैला माँ से जाकर लिपटती कात्यायनी चकर खा कर ज़मीन पर गिर गई। ‘माँ तुम्हें क्या हो गया?' शैला अपना सामान वहीं छोड़कर माँ की ओर दौड़ी। उसने माँ को सहारा देकर उठाया और बाहर ले जाकर खटिया पर बैठा दिया। कात्यायनी जब कुछ सहज़ हुई तो उसने शैला से कहा, ‘अरे तू कहाँ से आ गई?' सब कुछ ठीक तो है न वहाँ? ‘माँ वहाँ तो सब ठीक है। लेकिन यहाँ तुम बिल्कुल ठीक नहीं लग रहीं हो। चलो मेरे साथ मैं तुम्हे चिकित्सक के पास लेकर चलती हूँ।' शैला ने चितिंत होकर कहा। कात्यायनी ने कहा, ‘नहीं मैं ठीक हूँ। ऐसे चकर तो मुझे रोज आते रहतें हैं।' शैला ने कहा, ‘नहीं, मा!ँ यह ठीक नही।' किसी ने दरवाज़ा खटखटाया। शैला ने दरवाजे़ पर जाकर देखा। एक व्यक्ति लिप़फाप़ेफ लेने के लिए खड़ा था शैला ने लिप़फाप़फे गिने पूरे पाँच सो थे। शैला ने लिप़फाप़फे व्यक्ति को थमा दिए, उसने बदले मैं दस रुपऐ दिए। सिप़र्फ दस रुपए? सोचती हुई शैला अन्दर गई। ‘माँ कल से तुम यह काम मत करना।' शैला ने कहा। ‘तो घर का खर्चा कैसे चलेगा।' कात्यायनी बोली। ‘माँ मैं आगे पढ़ाई नहीं करुँगी।' ‘क्यों?' कात्यायनी ने सवाल किया। ‘माँ मुझसे तुम्हारी यह हालत देखी नहीं जाती। मैं तुम्हें खोकर कुछ भी नहीं पाना चाहती।' शैला ऐसा कहकर रोने लगी। शैला को कात्यायनी ने कहा, ‘तूझे अपनी माँ से बहुत प्यार है ना?' शैला ने कहा, ‘हीँ माँ!' कात्यायनी ने शैला को समझाया, ‘इस गाँव के बहुत से बच्चे हैं, जो अपनी माताओं से प्रेम करतें हैं और उनकी माताएँ अस्वस्थ रहतीं हैं। उन सब का स्वस्थ रहना भी बहुत आवश्यक है। कुछ वर्ष मैं कष्ट में निकाल दूँगी। लेकिन जब तू चिकित्सक बन जाएगी इस घर के ही नहीं अपितु गाँव के हज़ारों लोगों की समस्याएँ दूर हो जाएगीं।' बातचीत सुनकर दीनानाथ भी उठ गया। ‘अरे यह तो शैला बैटी की आवाज़ है।' खुशी उसके चेहरे से सापफ झलक रही थी। शैला दादाजी से जाकर लिपट गई।
पन्द्रह दिन कात्यायनी ने शैला को उसकी पसंद का खाना खिलाया और शैला ने भी माँ की बहुत सेवा की। वह दूसरे गाँव में माँ के साथ गई और वहाँ की डिस्पेन्सरी में भी माँ के खून की जांच करवाई। चिकित्सक ने चक्कर का कारण बताते हुए कहा, ‘अत्याध्कि कार्य का दबाव व पोष्टिक आहार में कमी के कारण ऐसा हुआ है।' शैला ने माँ को लिप़फाप़फे बनाने के लिए गम्भीरता से मना कर दिया। उसने बैंक से कर्जा लेने के लिए बैंक में अर्जी दे दी।
समय को जैसे प्ांख लग गए हों। शैला का दिल्ली वापिस जाने का दिन आ गया था। कात्यायनी को अब थोड़ी सी राहत थी कि शैला अवकाश में पिफर से गाँव आएगी। दीना नाथ उदास था। जब शैला रवाना होने लगी तो वह पफूट—पफूट कर रोने लगा। वह शैला को गले लगाकर बोला, ‘ जब तक तू यहाँ थी, समय का कुछ आभास ही नहीं होता था। कब सूर्य पूर्व से उगता और कब पश्चिम में लुप्त हो जाता पता ही नहीं चलता था। अब पिफर से दिन लम्बा बहुत लम्बा हो जाएगा।' शैला ने दीना नाथ को ढाढँस बँधते हुए कहा, ‘दादाजी मैं कुछ महीने बाद पिफर से गाँव आउफँगी। आप तब तक स्वस्थ हो जाईए। हम दोनों लुडो खेलेगें।' दीनानाथ ने कहा, ‘बस एक बार इन नेत्राों से चक्रध्र को देख लेता। अब यह जीवन नीरस हो गया है।' शैला ने माँ और दादाजी को दिवाली की शुभकामनाएँ दीं और कहा, ‘दिवाली को आप दोनों की बहुत याद आएगी।'
दिल्ली आकर शैला पिफर से पढ़ाई में जुट गई। एक बार उसे वाद—विवाद की प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए जाना था। कई और छात्रा छात्रााएँ भी साथ में गए हुए थे। कॉलेज के एक बड़े से हॉल में प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था। अभी प्रतियोगिता प्रारम्भ नहीं हुई थी। सभी छात्रा छात्रााएँ इध्र उध्र भ्रमण कर रहीं थीं। शैला ने बिजली के तारों को लाउफडस्पीकर से बाँध्ते हुए उसी व्यक्ति को देखा जो परीक्षा भवन में वही गाना गा रहा था जो शैला के बाबूजी गाते थे। शैला ने झिझकते हुए अपनी सहेली को यह बात बताई। शैला की कुछ ही दिन पहले घनिष्ठ मित्रा बनी सोनाली ने उस व्यक्ति से जाकर उसका नाम पूछा। उस व्यक्ति ने अपना नाम ‘दया शंकर।' बताया। शैला सोच में पड़ गई। ‘इस व्यक्ति की शक्ल दादाजी से मिलती है। यह जो गाना गुनगुनाता है, इसे बाबूजी ने लिखा था। क्या इसका हमारे बाबूजी के परिवार से कोई संबंध् है? आखिर मैं जानकर ही रहूँगी।' उसने अपनी सहेली से कहा, ‘जा पूछ कर आ क्या वह ‘दीनानाथ श्रेष्ठ' को जानते हैं।' सहेली तुरन्त वहाँ पहेुँच गई। उसने जैसे ही ‘दीना नाथ श्रेष्ठ' नाम लिया वह व्यक्ति आश्चर्य से कुछ देर खड़ा रहा। उसने अपना सामान समेटा और हॉल से बाहर निकल गया।
वाद—विवाद प्रतियोगिता समाप्त हो गई। कुछ समय बाद ‘कॉपफी ब्रेक' हुआ। शैला अपनी सहेली के साथ बाहर गई वहाँ दो कर्मचारी बात कर रहे थे। एक ने कहा, ‘आज दया शंकर काम से इतनी जल्दी वापिस चला गया?' दूसरे कर्मचारी ने कहा, ‘किसी ने शायद उसे पहचान लिया था कि वह दया शेकर नहीं चक्रध्र है।' यह सुनते ही शैला चौंक गई। उसने उन कर्मचारियों से चक्रध्र के विषय में पूछा, ‘उन्होने शैला को जो जानकारी बताईं वह सभी शैला के बाबूजी से मिलती जुलती थी। शैला ने पूछा, ‘क्या आप बता सकते हो वह कहाँ रहते है?' कर्मचारी ने कहा, ‘वैसे तो वह किसी से अध्कि मिलता जुलता नहीं। अगर कोई आवश्यक कार्य है तो बता देते हैं।' शैला ने कहा, ‘हाँ बहुत आवश्यक काम है।' कर्मचारी ने जो कहा शैला ने एक कागज़ पर लिख दिया। वाद— विवाद प्रतियोगिता के लिए शैला पिफर से हॉल में चली गई। मगर उस का वहाँ चित नहीं लग रहा था।
शैला ने हॉस्टल आकर उस डायरी के कुछ और पेज लिखे। शैला को लग रहा था यदि वह स्वयं जाएगी तो बाबूजी दिल्ली छोड़कर कहीं और चले जाएगें। उसने अपने सहपाठी प्रपफुल को सब कुछ बताया और उसे डायरी बाबूजी तक ले जाने के लिए कहा। प्रप्पफुल ने घर वापिस जाते समय वह डायरी चक्रध्र को दे दी। प्रपफुल वापिस चला गया।
चक्रधर ने डायरी देखी प्रथम पेज पर एक बूढ़े व्यक्ति का चित्रा बना था जिसके नीचे लिखा था दादाजी, एक महिला का चित्रा जिसके नीचे लिखा था माँ और एक छोटी बच्ची जिसके नीचे लिखा था शैला। टेड़ी मेड़ी लिखावट में लिखा था ‘आपकी प्रतीक्षा में बाबूजी।'
चक्रध्र पन्ने पलटता गया। शैला की बचपन से अब तक लिखी हुई सारी घटनाएँ पढ़कर चक्रध्र गाँव लौटने के लिए अध्ीर हो गया। कुछ देर वह सोच में डूबा रहा। उसने सारा सामान एक संदूक में रखा। एक कागज़ पर कुछ लिखा पड़ौसी के पास गया और बोला, ‘यदि कोई मुझे पूछने आए तो यह कागज़ उसे दे देना।
शैला अगले दिन अपनी सहेली को लेकर वहीँ आई। चक्रध्र के कमरे पर एक बड़ा सा ताला झूल रहा था। उसने कई अड़ोसी—पड़ोसियों से पूछा। किसी को कुछ भी ज्ञात नहीं था। शैला उदास हो गई।
एक पड़ोसी ने आकर एक कागज़ दिया। कागज़ पर लिखा था ‘डाक्टर साहिबा! अपनी पढ़ाई मन लगाकर पूरी करना। आज से पूरे गाँव के साथ मैं भी खड़ा रहूँगाा,
आपकी प्रतीक्षा में।