मरता हुआ शहर Ved Prakash Tyagi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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मरता हुआ शहर

मरता हुआ शहर

दिन में भी इतना अंधेरा, सड़क पर कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा, पार्किंग लाइट जलाकर धीरे धीरे रेंगते वाहन, हर तरफ काले धुंवे के बादल, जमीन से आसमान तक छाए हुए, उसी काले धुंवे के बादलों को चीर कर यशोदा अस्पताल की तरफ बढ़ती गाड़ी, बगल की सीट पर धंस कर बैठी बीमार पत्नी जो बार बार बस यही बड्बड़ाती जा रही, “और कितनी देर लगेगी, आज अस्पताल कितनी दूर हो गया , मुझसे सांस भी नहीं ली जा रही, जरा जल्दी करो ऐसे तो मैं यहीं मर जाऊँगी।”

मोबाइल फोन की घंटी बज उठी, डॉ पांडे का फोन है, “हाँ, तो बात कर लो,” पत्नी बोल पड़ी। मैंने घर से निकलते समय डॉ पांडे को फोन कर दिया था और उनसे विनती की थी कि हमारी प्रतीक्षा करें, शायद यही पूछने के लिए डॉ पांडे ने फोन किया होगा और मैंने फोन कॉल रिसीव कर हैलो बोला, उधर से डॉ पांडे पूछ रहे थे, “हैलो त्यागी जी, कहाँ तक पहुंचे और कितनी देर लगेगी।” मैंने बोल कर, “रास्ते में ही हूँ” कह कर फोन काट दिया और गाड़ी चलाने लगा। डॉ पांडे यशोदा अस्पताल में चेस्ट स्पेशलिस्ट हैं एवं उनको उस रोग पर अच्छी पकड़ है।

किसी तरह अस्पताल पहुंचा तो डॉ ने तुरंत ही इलाज़ शुरू कर दिया, मैं भी उसके बिस्तर पर बराबर में बैठ गया, थक कर आंखे बंद होने लगी, लेकिन मैं जबरदस्ती आँखें खोल कर बैठा रहा, थोड़ी देर में पत्नी को भी थोड़ा आराम आने लगा था और उसको नींद आ गयी।

मेरा भी दिमागी तनाव कुछ कम हुआ तो मैं सोचने लगा, “गाँव में मेरी पत्नी चूल्हे पर उपले और लकड़ियाँ जला कर बीस बाईस लोगों के लिए खाना बनाया करती थी, उस समय तो इसको उस धुंवे से कभी ऐसी तकलीफ नहीं हुई, अब इस शहर में पता नहीं किस तरह का धुआँ भर गया जो लोगों की जान ले रहा है।”

सोचते सोचते मैं अतीत की यादों में खो गया और एक एक करके वह सभी दृश्य मेरे सामने घूमने लगे जब मैं इस शहर में नया नया आया था।

दिल्ली कितनी सुंदर लगती थी उस समय जब भी कोई गाँव से हमारे पास मिलने आता था तो हम उसको दिल्ली की सुंदरता दिखाने के लिए ले जाते थे। हरे भरे पेड़, खिले हुए फूल उनके बीच में पानी के फव्वारे देखते ही बनते थे, मैं ही क्या मेरे साथ आने वाले भी मंत्र-मुग्ध हुए बिना नहीं रहते थे।

उसके बाद दिल्ली में राजनीतिक खेल शुरू हुए और दिल्ली की सुंदरता माफियाओं और नेताओं की भेंट चढ़ने लगी। रातों रात सरकारी जमीन पर कब्जे करके कच्ची कॉलोनियाँ बसा दी गईं। दिल्ली विकास प्राधिकरण पर दिल्ली के सुनिओजित विकास की ज़िम्मेदारी थी लेकिन उसको निष्क्रिय कर दिया गया। सस्ती जमीन में सस्ता सा घर बनाकर बाहर से बहुत संख्या में लोग यहाँ बस गए, भैंसें पाल कर दूध का काम करने लगे एवं दूसरों को भी प्लॉट बिकवाने लगे।

शर्मा जी के सभी भाइयों ने ऐसी ही एक कॉलोनी में अपने अपने मकान बना लिए थे और सभी ने एक एक भैंस भी पाल ली थी जिसका दूध बेच कर उनका घर चलता था। एक दो प्लॉट बिकवा कर उसमे अच्छा खासा पैसा कमा लेते थे। उनके पड़ोस में एक खाली प्लॉट खरे साहब का पड़ा था। खरे साहब मंत्रालय में विभाग अधिकारी थे एवं उनको सरोजिनी नगर में सरकारी मकान मिला हुआ था। शर्मा जी ने खरे साहब के खाली प्लॉट मैं अपनी भैंसे बांधनी शुरू कर दीं। कुछ दिनों बाद खरे साहब को जब अपने प्लॉट की याद आई तो वह अपना प्लॉट देखने चले आए। खरे साहब ने देखा कि उनके प्लॉट में तो भैंसे बंधी हुईं हैं तो वह बराबर वाले शर्मा जी से पूछने चले गए, “शर्मा जी! यह प्लॉट तो हमारा है, अब इसमे भैंसें किसने बांध रखी हैं?”

शर्मा जी ने बड़े प्यार और इज्जत के साथ खरे साहब को बैठाया और चाय पानी से आवभगत की एवं कहने लगे, “खरे साहब! अब आप इसमे कुछ बना तो रहे नहीं, खाली पड़ा था तो हमने ही अपनी भैंसे बांधनी शुरू कर दीं, अगर आपको कुछ ऐतराज है तो हम अपनी भैंसे खोल लेते हैं। हमने तो यह सोच कर अपनी भैंसे बांध ली थीं कि खाली प्लॉट देखकर कोई और कब्जा न कर ले। हमारे सामने तो किसी की हिम्मत होगी नहीं कब्जा करने की, हमारे पचास आदमी हैं इस गली में, यहाँ से लेकर वहाँ तक सब दरवाजे हमारे ही भाई भतीजों के हैं, मजाल कोई हमारे सामने बोल जाए, इसी वजह से भगत जी को भी हमारी बात माननी पड़ती है।” और शर्मा जी ने अपने लड़के को आवाज लगाकर, “बेटा! खरे साहब के प्लॉट में से अपनी भैंसे खोल लो, इनका प्लॉट खाली कर दो, अब आगे से ये ही अपने प्लॉट के जिम्मेदार होंगे, कोई अगर इनके प्लॉट पर कब्जा कर लेगा तो हम बीच में नहीं आएंगे।”

इस तरह शर्मा जी ने खरे साहब को धमकी दे डाली लेकिन उनके शुभचिंतक बन कर। खरे जी बोले, “अरे शर्मा जी! आप तो नाराज हो गए, मैंने ऐसा थोड़े ही कहा था, कोई बात नहीं, बस आप हमारे प्लॉट का ध्यान रखना।”

कच्ची कॉलोनियों में किसी भी तरह की सुविधा नहीं थी, न बिजली, न पानी, न सड़कें और न ही नालियाँ थीं। पानी निकलने के भी साधन नहीं थे, सारा पानी वहीं कच्ची गलियों में इककठ्ठा हो जाता था, जिससे असहनीय दुर्गंध आती थी, एक तरह से जीवन नरक बन कर रह गया था, फिर भी लोग वहाँ रह रहे थे।

पूरी दिल्ली में इस तरह की कॉलोनियों की बाढ़ आ गयी थी और ऐसी सभी कॉलोनियों में राज था शर्मा जी भैंस वाले जैसे लोगों का, जो नेताओं के काफी करीब थे। ऐसे लोगों को नेताओं ने सभी तरह का संरक्षण दे रखा था, बस उनको बीच बीच में हिदायत देते रहते, “शर्मा जी! आपकी कॉलोनी के सभी वोट हमे ही मिलनी चाहिए, इसके लिए आपको साम, दाम, दंड, भेद कुछ भी इस्तेमाल करने पड़े, तुम्हें पूरी आज़ादी है।”

कभी कभी दिल्ली विकास प्राधिकरण समाचार पत्रों में समाचार छपवा देते कि सभी अवैध कॉलोनी तोड़ी जाएंगी। वहाँ बसे लोग ऐसी खबरों से परेशान होकर शर्मा जी भैंस वाले जैसे लोगों की शरण में पहुँच जाते और शर्मा जी सब से पैसे एकत्रित करके, सभी लोगों को बस में भर कर नेताजी के सरकारी बंगले पर ले जाते। नेताजी यही तो चाहते थे कि लोग अपनी परेशानी लेकर दरवाजे पर आए, नेताजी भीड़ को सुबह से शाम तक बिठाये रखते, बाद में उनके नेता यानि कि भैंस छाप लोगों को अंदर बुलाकर उनके सामने ड्रामा करते एवं बताते, “शर्मा जी! अब तुम लोग घर जाओ, मैंने चेयरमैन को बोल दिया है, कोई कॉलोनी नहीं हटेगी।”

शर्मा जी यह खुशखबरी सबको सुनाते और भीड़ वापस चल पड़ती। इस तरह ऐसे नर्क में रहते रहते आधी ज़िंदगी निकल गयी लेकिन रहन सहन में कोई बदलाव नहीं आया, वही शौच के लिए बाहर जाना, गलियों के कीचड़ में ईंटों पर पैर रख कर निकालना, कुछ लोग तो घर से कार्यालय जाने के लिए निकर पहन कर निकलते, जूते और पेन्ट हाथ में लेकर बाहर सड़क तक आते और सड़क पर आकर पैर धोते एवं पेन्ट व जूते पहनकर बस पकड़ते।

समय बदला और सरकार भी, नई सरकार ने सभी अवैध कॉलोनियों में सभी सुविधाएं दे दीं, इससे जमीन की कीमतें बढ़ गईं।

खरे जी ने सोचा कि प्लॉट बेच कर किसी सोसाइटी में मकान ले लिया जाए और खरे जी अपना प्लॉट बेचने के लिए शर्मा जी के पास जाकर शर्मा जी को यह खुशखबरी सुनाते हैं।

शर्मा जी कहते हैं, “खरे साहब इस प्लॉट में हमारी भैंसे बांधती हैं इसको कौन खरीदेगा, हाँ, आपने चालीस हजार का खरीदा था आप हमसे अस्सी हजार रुपए ले लो।” खरे जी बोले, “लेकिन शर्मा जी! बाज़ार भाव से तो चार लाख बनता है फिर अस्सी हजार क्यों?” शर्मा जी बोले, “खरे साहब। लेने हैं तो ले लो नहीं तो यह भी नहीं मिलेंगे, रही प्लॉट की बात तो प्लॉट तो हमारे कब्जे में है ही, कौन छुड़ाएगा हमसे?”

इस तरह सभी भैंस छाप लोग अमीर हो गए और शरीफ लोग लुटते चले गए।

चार नेता थे दिल्ली के, चारों ने इस तरह दिल्ली के ताबूत में कीलें ठोक दीं और दिल्ली को मरने के कगार पर छोड़ दिया।

सारी नहरे नाले बन गईं जिन्होने यमुना को मार डाला, हरे पेड़ कट गए, तालाब बंद हो गए और सभी बढ़ती आबादी की भेंट चड़ गए, लेकिन लोगों को बहुत ज्यादा चाहिए था और फिर से सरकार बदली। इस सरकार ने नगर निगम को निशाना बनाया और उसको तोड़ दिया उसकी आमदनी बंद कर दी।

बिजली बिभाग निजी कंपनियों को दे दिया, जल बोर्ड नगर निगम से छीन लिया एवं प्रस्ताव पास कर दिया कि जो भी कंपनी सड़क पर खुदाई करेगी वही ठीक कराएगी। यह प्रस्ताव नगर निगम और दिल्ली की सड़कों के लिए एक जहर था और इसी जहर का प्रयोग करके मुख्य मंत्री दूसरी, तीसरी बार अपनी पार्टी को सत्ता में लाने मे कामयाब रही।

मुख्य मंत्री साहिबा ने अपने ही जल बोर्ड से अवैध कॉलोनियों की गलियाँ सीवर व पानी के पाइप डालने के लिए खुदवा दीं और ठीक कारवाई नहीं। टूटी सड़कें, टूटी नालियों के बारे में लोगों को बताया गया कि नगर निगम निकम्मा है, वहाँ दूसरी पार्टी है जो कुछ करना नहीं चाहती और इस तरह चुनाव जीतती चली गयी। राजनीति के इस गंदे खेल में किसी को भी यह सोचने की फुर्सत न थी कि उनके इन कुकृत्यों से दिल्ली मर रही है।

सेकार की इन कमजोरियों का लाभ लेकर, लोगों को स्वर्ग के सपने दिखा कर एक तीसरी पार्टी दिल्ली की सत्ता में आ गयी जिसने इस दिल्ली को पूरा का पूरा एक गैस चेम्बर में बदल दिया।

डॉ पांडे राउंड पर आए तो मैं विचारों से बाहर निकला। पत्नी को चेक करने के बाद डॉ पांडे पूछने लगे कि जब मैं आया, आप कुछ सोच रहे थे? मैंने कहा, “हाँ! डॉ साहब, मैं सोच रहा था कि कैसे एक खूबसूरत शहर मर रहा है, कैसे यहाँ की राजनीति और राजनेताओं ने अपने फायदे के लिए दिल्ली का यह हाल कर दिया है।” डॉ पांडे मुस्कुरा कर बोले, “लगता है आपको कहानी का नया प्लॉट मिल गया है।”

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