छोटी उम्र का तमाचा vineet kumar srivastava द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

छोटी उम्र का तमाचा

छोटी उम्र का तमाचा

पापा चले गए थे, कभी न आने के लिए | खो गए थे शून्य में, हम सबको अकेला छोड़कर | तनहा, बिलखता हुआ छोड़कर | मैं घर में सबसे बड़ी थी | तीन भाई-बहनों में सबसे बड़ी | मैंने जबसे होश संभाला, पापा को परेशान ही पाया | पापा और मम्मी में अक्सर ही नोक-झोंक हुआ करती | कभी-कभी यह नोक-झोंक इस हद तक बढ़ जाती कि महाभारत का दृश्य उपस्थित हो जाता | हम सभी भाई-बहन सहम जाते | माँ को रोता देखकर मैं दुखी हो जाती | दस साल की छोटी सी लड़की अपनी उम्र से कहीं ज़्यादा समझदार हो गई थी | दुनिया को देखने और समझने की क्षमता मुझमे बड़ी जल्दी आ गई थी | मुझे अच्छी तरह याद है कि मैंने सिवाय एक गलती के ज़िंदगी में दूसरी गलती कभी नहीं दोहराई |

तब मैं पाँचवीं कक्षा में पढ़ती थी | घर से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर मेरा स्कूल था | घर से स्कूल जाते समय रास्ते में मेरी सहेली आयशा का घर पड़ता | मैं उसके घर के सामने रुककर आवाज़ देती - आयशा, ओ आयशा, और वह बस्ता पीठ पर लादे तुरंत घर से निकल पड़ती | हम दोनों साथ-साथ स्कूल जाते |

रास्ते में एक अधेड़ सा आदमी सड़क के किनारे बैठा कुछ नई-पुरानी किताबें बेचा करता था | मुझे इस बात का तो पूरा यकीन था कि वह स्कूली किताबें तो नहीं बेचता था क्योंकि मेरी किताबें बाजपेई पुस्तक भण्डार से ली जाती थीं | मेरे ख़्याल से स्कूली किताबें पुस्तक भण्डार से ही मिलती थीं और इसीलिए मैं यह जानती थी कि जो किताबें वह बेचता है वह अवश्य ही किसी और तरह की किताबें थीं लेकिन मैं यह समझने में असमर्थ थी कि आख़िर वह किताबें कौन सी हैं ? स्कूल आते-जाते मैं रोज ही उसे देखा करती |कभी-कभी उस आदमी की जगह एक बारह-पंद्रह साल का एक लड़का उस दूकान पर बैठा दिखता | वह शायद उसका बेटा रहा होगा जो उसकी जगह पर कभी-कभी आ जाता था |

एक दिन जब मैं आयशा के साथ घर लौट रही थी तो आयशा ने कहा - दीप्ति, ज़रा रुकना, मुझे यहाँ एक किताब खरीदनी है, और मैं आयशा के साथ उसकी दुकान पर रुक गई | तब मैंने पहली बार देखा कि वे फ़िल्मी गानों की और कुछ उपन्यासों की किताबें थीं | फ़िल्मी गानों की किताबें देखकर मेरे मन में भी कुछ उत्सुकता जगी | मेरे घर के पास में ही गुप्ता आंटी के यहाँ रेडियो पर तरह-तरह के गाने बजा करते थे | उन्हें सुनकर बड़ा अच्छा लगता | उस ज़माने में रेडियो काफ़ी मायने रखता था और जिसके घर में टेलीविज़न होता, उसका तो कहना ही क्या था | उस समय किसी के यहाँ टेलीविज़न का होना एक स्टेटस सिंबल माना जाता था | गुप्ता आंटी के घर में बाहर वाले कमरे में अलमारी में एक बड़ा सा रेडियो रखा रहता था | उसे वहां से कभी भी हटाया नहीं जाता था | हमारा घर गुप्ता आंटी के घर के ठीक सामने था और इसी कारण हमें उनके रेडियो की आवाज़ बिलकुल साफ़ सुनाई देती थी |

आयशा ने अपनी भाभी के लिए गानों की कोई किताब खरीदी थी | उसने बताया कि उसकी भाभी को गाने का बेहद शौक है | अपने निकाह से पहले वह मायके में तबला भी सीख चुकीं थीं | गीत-संगीत से उन्हें बेहद लगाव है | घर के किसी बड़े से या अपने ही पति से गानों की किताब मंगवाने में उन्हें संकोच हो रहा था | इसीलिए उन्होंने आयशा के हाथ गानों की किताब मंगवाई थी | मैंने भी आयशा के साथ ही सड़क पर बैठकर किताबों को उल्टा-पलटा | आयशा ने किताब खरीदी और हम-दोनों घर आ गए |

एक दिन माँ हम भाई-बहनों के पुराने कपड़े हटा रही थीं | मैं भी माँ के साथ ही बैठी थी | तभी उसमे हरे रंग का गरारा देखकर माँ ने कहा - " दीप्ति, इस गरारे को देख रही हो न, इसे पहनकर तुम छोटे पर बहुत नाचती थीं | कौन सा गाना था ?" माँ ने याद करते हुए कहा | "हाँ याद आया, गाना था - कोई देखे या न देखे , अल्लाह देख रहा है | मेरे मेहबूब फिल्म का गाना है | "

मैं भी यह गीत गुनगुनाने लगी - "कोई देखे या न देखे, अल्लाह देख रहा है | माँ इस गाने की आगे की लाइनें क्या हैं ?" मैंने पूछा |

"आगे तो मुझे भी नहीं आता | गाने की किताब मे ज़रूर मिल जाएगा | उसमे तो पूरा गाना लिखा होता है |"

तभी मुझे ध्यान आया कि स्कूल जाते समय रास्ते में सड़क के किनारे जो किताब वाला किताबें बेचता है, उसके पास शायद यह किताब मिल जाए |

दूसरे दिन मैं आयशा के साथ स्कूल से लौटते समय उस दूकान पर लगी किताबें देखती रही और मेरे मेहबूब शीर्षक की किताब को मेरी नज़रें ढूँढती रहीं लेकिन चलते-चलते किताब का शीर्षक पढ़ पाना आसान न था | इस तरह मैं कई दिनों तक किताबों का ऊपरी अवलोकन करती रही | दूकान के सामने से गुज़रते समय मैं अपनी चाल धीमी कर देती ताकि किताबों का शीर्षक मैं आसानी से पढ़ सकूँ | आख़िर एक दिन मुझे मेरे मेहबूब नाम की किताब दिख ही गई | किताब तो दिख गई लेकिन अब समस्या यह थी कि किताब कैसे और कब ली जाए क्योंकि दूकान पर जो अधेड़ व्यक्ति बैठता था उससे किताब लेने में मुझे हिचकिचाहट हो रही थी | मैंने सोंचा कि जब इस व्यक्ति का लड़का बैठा होगा तभी किताब ले लूंगी | इस तरह मेरे कई दिन इसी इंतज़ार में गुज़र गए | संयोग से एक दिन उसका लड़का दूकान पर बैठा था | मैंने आयशा को रुकने को कहा | आयशा ने पूछा - "कौन सी किताब लेनी है ?" मैंने कहा -" वह माँ ने मंगवाई है |" और मैं उस लड़के से मुखातिब हो गई - " भैया , यह किताब दे दीजिये |" यह कहकर मैंने उस किताब पर ऊँगली रख दी | किताब का नाम बोलना मेरे लिए बहुत ही कठिन था | यह सब मेरे घर के संस्कारों का ही परिणाम था कि मैं उस किताब का नाम उससे नहीं कह सकती थी | मैंने वह किताब खरीदी और घर आ गई |

मैं समझती थी कि पापा अपने काम में इतना व्यस्त रहते हैं कि उन्हें यह भी देखने की फुर्सत नहीं है कि घर में किसी अमुक चीज़ की कितनी ज़रूरत है | मैं मन ही मन सोंचा करती कि मेरी सभी सहेलियों के घर में रेडियो है और मेरे ही घर में नहीं है | यह बात मैं जब थोड़ा और बड़ी हुई तब समझ पाई कि मेरे घर में रेडियो क्यों नहीं है | पापा की चचेरी बहन की बेटी रूपाली पंद्रह साल की उम्र में ही घर से भाग गई थी | वह रेडियो बहुत सुनती थी | गानों का उसे बहुत शौक था | वह बहुत अच्छा गाती थी | पता नहीं कैसे उसे लता मंगेशकर की तरह एक प्रसिद्ध गायिका बनने की धुन सवार हो गई | कई बार टोकने के बावजूद उसका गाना कम न हुआ और एक दिन जोश में आकर वह गायिका बनने का सपना लिए मुंबई भाग गई और फिर कभी लौटकर न आई | बहुत खोजबीन की गई लेकिन उसका कुछ भी पता न चला |

घर आकर मैं स्कूल के काम में इतना व्यस्त हो गई कि मुझे उस किताब को माँ को दिखाने का ख़याल ही न आया | रात हुई और मैं सो गई | दूसरे दिन स्कूल जाने की जल्दी में माँ को वह किताब दिखाना मैं फिर भूल गई और जल्दी-जल्दी नाश्ता करके जैसे ही स्कूल के लिए घर से निकलने को हुई, पापा ने मेरा बस्ता मेरे कन्धों पर से उतार लिया | पापा के इस अप्रत्याशित व्यवहार से मैं सहम सी गई | तभी मुझे ध्यान आया कि गाने की वह किताब तो मेरे बस्ते में ही है | मुझे काटो तो खून नहीं | मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था | मेरा ह्रदय तेजी से धड़कने लगा | मेरे होशोहवास फ़ाख्ता हो रहे थे | मुझे पापा से कुछ भी पूछने की हिम्मत न थी | मैं सिर से पाँव तक पसीने-पसीने हो रही थी | पापा ने बस्ते के अंदर से किताबों के बीच से वही गानों की किताब एक ही झटके में बाहर निकाल ली और मेरे देखते ही देखते उसके कई टुकड़े कर डाले | मैं बस आँख बंद करके थर-थर काँप रही थी | पापा ने मुझसे कुछ नहीं कहा | न कोई डाट, न कोई डपट | मैं हैरान थी | मैंने तो सोंचा था कि पापा शायद मुझे पीटेंगे या थप्पड़ लगाएंगे लेकिन पापा ने ऐसा कुछ नहीं किया | मेरे आँखों से आँसुओं का सैलाब ज़ारी था | पापा मुझसे बिना कुछ कहे बड़ी तेजी घर से बाहर निकल गए | मैं भारी मन से वहीं कुर्सी पर बैठ गई | शर्मिंदगी से मेरा बुरा हाल था | मैं हतप्रभ थी कि आख़िर पापा को इस किताब के बारे में पता कैसे चला | आयशा उन्हें बता नहीं सकती और मुझे किताब लेते वह देख भी नहीं पाए होंगे क्योंकि जिस समय मैं स्कूल से घर लौटती थी उस समय पापा दूकान पर होते थे, जो कि वहाँ से तीन किलोमीटर की दूरी पर थी | तो फिर ऐसा कौन था जिसने पापा को इस बारे में जानकारी दी | बाद में माँ ने बताया कि वह किताब वाला पापा को अच्छी तरह जानता था | पढ़े-लिखे होने के कारण वह पापा को बहुत मानता था | पापा ने उसकी बेटी को इंग्लिश की ट्यूशन भी पढ़ाई थी और वह भी बिना किसी फीस के | पापा का मानना था कि ज़रूरतमंदों की मदद हर हाल में करनी चाहिए | यदि आप आर्थिक रूप से किसी की मदद नहीं कर सकते तो अन्य तरीकों से उसकी मदद करनी चाहिए | नर सेवा ही सच्ची नारायण सेवा है, ऐसा पापा अक्सर कहा करते थे | वह पापा की बहुत इज़्ज़त करता था और इसी नाते उसने इस बात की जानकारी पापा को देना अपना दायित्व समझा | बाद में मैं समझ गई कि उस आदमी का पापा से मेरे बारे में कहना बिलकुल भी गलत न था | सच पूछो तो उसने वाकई बहुत ही उत्कृष्ट काम किया था पापा को मेरे बारे में बताके | उसने यह काम करके मेरे मन में अपनी एक अलग ही छवि बना ली थी | अभी तक जिसे मैं बाज़ारू किताब बेचने वाला एक सड़क-छाप आदमी समझती थी, आज उसकी छवि मेरे मन में एक हितैषी की बन चुकी थी | मैंने माँ को बताया कि उस गाने " कोई देखे या न देखे, अल्लाह देख रहा है" की आगे की लाइनों के लिए ही मैंने वह किताब खरीदी थी | तब माँ को भी ध्यान आया कि उन्होंने ही कहा था कि यह पूरा गाना किसी गाने की किताब में ही मिल सकता है | वैसे तो उन्हें और पापा को मुझ पर पूरा भरोसा था लेकिन यह भी सच था कि समय का कोई भरोसा नहीं होता | किस समय कौन, क्या कर बैठे , कुछ कहा नहीं जा सकता | और फिर बिगड़ते देर भी तो नहीं लगती | पापा की भतीजी रूपाली ने जो क़दम उठाया था, उसके चलते पापा का मेरे साथ यह बर्ताव कतई अस्वाभाविक नहीं था | इतना सब हो जाने के बाद भी मेरे मन में पापा के लिए तनिक भी नफ़रत या गुस्से का भाव नहीं आया | समझदार तो मैं बचपन से ही थी | मैंने तुरंत सोंचा पापा ने जो किया है वह मेरी भलाई के लिए ही किया है | बड़ों के हर काम में भलाई होती है | माँ-बाप अपने बच्चों के लिए क्या-कुछ नहीं करते ? उन्हें एक अच्छा इंसान बनाना चाहते हैं और इसीलिए वह उन्हें सही रास्ते पर चलाना चाहते हैं | मेरे मन में विचार तूफ़ान की तरह उमड़-घुमड़ रहे थे | पापा ने भले ही मुझे नहीं पीटा था, थप्पड़ नहीं मारा था लेकिन उनका वह मौन आक्रोश मेरे लिए किसी तमाचे से कम न था |

मैंने उसी दिन मन ही मन यह प्रतिज्ञा कर ली कि आज के बाद कभी कोई ऐसा काम नहीं करूंगी कि जिससे मेरे माँ-बाप को शर्मिंदगी का सामना करना पड़े | आज के बाद मैं अपने मन को इधर-उधर नहीं भटकने दूँगी | पापा के उस मौन तमाचे का यह परिणाम हुआ कि मैं पढ़ाई में सदा अव्वल आती रही और आज एक आई.ए.एस.के पद पर प्रतिष्ठित हूँ | अगर पापा ने सही समय पर सही एक्शन न लिया होता तो हो सकता था कि मैं दिशाहीन हो जाती और अपने मार्ग से भटक जाती | पापा के उस एक तमाचे ने मेरे जीवन को वह दिशा दे दी कि जिस पर आज मैं फ़क्र करती हूँ |