हिन्दी गझलें vineet kumar srivastava द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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हिन्दी गझलें

ग़ज़ल (१)

आँख में हर,आज अब,थोड़ा सा पानी,चाहिए |

मर चुकी इस,ज़िन्दगी को,ज़िंदगानी,चाहिए |

अज़नबी बनकर तो काफ़ी,रह चुके,हम-तुम मगर,

दरमियाँ,रिश्तों के अब,थोड़ी रवानी,चाहिए |

आज है,जो है मगर,कल को बनाने के लिए,

हमको अब,फिर आज वो,यादें पुरानी,चाहिए |

हादसों से,दूर हों दिन,और हों रातें हंसीं,

हमको ऐसे दौर की,शामें सुहानी,चाहिए |

क़त्ल करने की जगह जो,ज़िंदगानी,दे सके,

नौजवानों,में हमें वह,नौजवानी,चाहिए |

हम ज़मीनो आसमाँ,नज़दीक ले आए,मगर

दिल से दिल की,बढ़ रही,दूरी,मिटानी,चाहिए |

प्यार से,इक साथ मिलजुल,के जहां सब,रह सकें,

अब हमें,ऐसी कोई,बस्ती बसानी,चाहिए |

पीठ में खंज़र कहीं ना,भोंक देना,साथियों,

दोस्ती,की है तो फिर,यारों,निभानी,चाहिए |

घर पड़ोसी,का जला तो,आँच तुम तक आएगी,

इसलिए,हर आग लगते,ही बुझानी,चाहिए |

नफरतों,के दौर में जब,खुद को तनहाँ,पाइये,

गीत या,कोई ग़ज़ल फिर,गुनगुनानी,चाहिए |

ग़ज़ल (२)

हम गरीबी में पलते रहे उम्र भर |

बुझते दीपक से जलते रहे उम्र भर |

अपनी मज़बूरियों का पता था हमें,

मोम जैसे पिघलते रहे उम्र भर |

ठोकरें इस ज़माने ने कुछ कम न दीं,

गिरते-गिरते संभलते रहे उम्र भर |

हम भी इंसान ही थे,ख़ुदा तो नहीं,

चाँद को हम मचलते रहे उम्र भर |

ज़िन्दगी की कड़ी धूप में दर-ब-दर,

हमको चलना था चलते रहे उम्र भर |

ग़ज़ल (३)

ज़िन्दगी,ज़िन्दगी नहीं यारों |

ये ख़ुशी तो ख़ुशी नहीं यारों |

आज बदले हुए ज़माने में,

आदमी,आदमी नहीं यारों |

कारवाँ दोस्तों का है लेकिन,

दोस्ती,दोस्ती नहीं यारों |

फूल जो प्यार के खिलाती थी,

यह ज़मीं वह ज़मीं नहीं यारों |

अब अँधेरा बिछा है राहों में,

रोशनी,रोशनी नहीं यारों |

ग़ज़ल (४)

झूठ की शाख फलने लगी है |

और सच्चाई जलने लगी है |

सर्द अंगार होने लगे हैं,

आग शबनम उगलने लगी है |

है फ़क़त मोम का एक टुकड़ा,

ज़िंदगानी पिघलने लगी है |

अब तो इंसानियत थक गई है,

उम्र उसकी भी ढलने लगी है |

मौसमों का असर कुछ तो होगा,

हर नज़र अब बदलने लगी है |

ग़ज़ल (५)

कैसे कह दूँ आज के मैं आदमी को आदमी |

श्वान सा नोचे है अब तो आदमी को आदमी |

आ गई है अज़गरों की वृत्ति हर इंसान में,

है निगलता जा रहा अब आदमी को आदमी |

ज़िन्दगी की दौड़ में आगे निकल जो भी गया,

फिर कहाँ वह है समझता आदमी को आदमी |

नफ़रतों की आँधियाँ कुछ इस क़दर आईं यहाँ,

देखकर मुँह फेरता है आदमी को आदमी |

भाईचारा,प्रेम और सदभावना की क्या कहें,

ठोकरें देता है अब तो आदमी को आदमी |

है कहाँ वो बात,अपनापन,वो ज़ज़्बा प्यार का,

अब बहुत मुश्किल है कहना आदमी को आदमी |

ग़ज़ल (६)

बात कहनी थी जो,अनकही रह गई |

दिल की हसरत तो दिल में दबी रह गई |

कुछ न कह पाए हम,कुछ न वह कह सका,

दरमियाँ एक दूरी बनी रह गई |

कितना चाहा मगर,मौत भी ना मिली,

बोझ सी बनके यह ज़िन्दगी रह गई |

इक ज़रा सी हंसी भी मिली ना हमें,

ज़िन्दगी आँसुओं की लड़ी रह गई |

छोड़ माँ-बाप को वह कहीं जा बसा,

परवरिश में भला क्या कमी रह गई |

लौटकर फिर न आया वह घर की तरफ,

उसकी माँ रास्ता देखती रह गई |

कोई घर से न निकला बचाने उसे,

चीख उसकी वहीँ गूँजती रह गई |

आबरू लुट गई उसकी बाज़ार में,

भीड़ सब कुछ मगर देखती रह गई |

ग़ज़ल (७)

कुछ न कहिये,ज़नाब,चुप रहिये |

देखिये बस ज़नाब,चुप रहिये |

हर मकां जल रहा यहाँ अब तो,

ढूँढ़े मिलता न आब,चुप रहिये |

आज की बात का अजी कल को,

कौन देगा जवाब,चुप रहिये |

ख्वाब ना देखिये,ज़माने में,

आएगा इंक़लाब,चुप रहिये |

माँगिये ना किसी गरीब से यूँ,

आँसुओं का हिसाब,चुप रहिये |

ग़ज़ल (८)

शीशे के मकां पर ही चलाए गए पत्थर |

बेबस पे ही दुनिया से उठाए गए पत्थर |

कुछ पूछिए न आज ज़माने में किस क़दर,

इंसान भी इंसां से बनाए गए पत्थर |

फुटपाथ से गरीब हटाये गए हैं यूँ,

जैसे कि रास्तों से हटाए गए पत्थर |

इंसानों की बस्ती में ही इंसानी शक्ल के,

हर मोड़ पे दो-चार लगाए गए पत्थर |

क्या-क्या न पत्थरों का तमाशा यहाँ हुआ,

मंदिर पे औ मस्ज़िद पे गिराए गए पत्थर |

मुश्किल है ज़माने को मेरे यार बदलना,

मुँह खोलते ही सीने पे खाए गए पत्थर |

ग़ज़ल (९)

दास्ताँ ग़म की सुनाने से फायदा क्या है |

ज़ख्म-ए-दिल सबको दिखाने से फायदा क्या है |

बाँट लेता है कहाँ दर्द किसी का कोई,

दर्द दुनिया को बताने से फायदा क्या है |

खुद ही बन जाय जहां अज़नबी कोई अपना,

ऐसी महफ़िल में भी जाने से फायदा क्या है |

जिसने शोलों से लिपटकर हो ज़िन्दगी काटी,

आग उस दिल में लगाने से फायदा क्या है |

ग़ज़ल (१०)

क्यों यहाँ हर शख्स बेगाना सा लगता है मुझे |

जो न पूरा हो,वो अफ़साना सा लगता है मुझे |

हर कोई अपनी ही रौ में,है बहा जाता यहाँ,

देखता हूँ जिसको,दीवाना सा लगता है मुझे |

बढ़ गई दीवानगी,कुछ इस क़दर इंसान की,

हर कोई दौलत का परवाना सा लगता है मुझे |

लाख हो दूरी यक़ीनन मेरे-उसके दरमियाँ,

एक रिश्ता फिर भी अनजाना सा लगता है मुझे |