बंजर Ashish Kumar Trivedi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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बंजर

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आशीष कुमार त्रिवेदी

चौधरी साहब की हवेली में आज बड़ी रौनक थी। ढोलक की थाप पूरे घर में गूँज रही थी। औरतें गीत संगीत का आनंद ले रही थीं। कोई गा रहा थी तो कोई नाच रही थी। आज दिल खोल कर सभी महिलांएं अपने मन की कर रही थीं। मर्दों का आज कोई दखल नही था। वह सब बाहर बैठक जमाए थे।

चौधरी साहब की छोटी बहू की मुहं दिखाई थी। चौधरानी पूरे बनाव श्रंगार के साथ महफिल में बैठी हुक्म चला रही थीं। सारी ज़िम्मेदारी बड़ी बहू सुनीता ने संभाल रखी थी। वह बहुत व्यस्त थी। सभी मेहमानों की आवभगत में उसने कोई कसर नही छोड़ी थी। सबके नाश्ते चाय का खयाल रख रही थी। सभी सुनीता की तारीफ कर रहे थे। वही थी जो अपनी छोटी चचेरी बहन प्रभा को अपनी देवरानी बना कर लाई थी। प्रभा बहुत रूपवान और गुणी थी। उसने आते ही सब पर अपना जादू चला दिया था।

चाचा चाची के निधन के बाद प्रभा सुनीता के घर रह कर ही पली थी। सुनीता ने उस अनाथ लड़की को सदैव अपनी छोटी बहन सा स्नेह दिया। उसकी इच्छा को सदा अपनी इच्छा से ऊपर रखा था। उसकी माँ जब कभी प्रभा के साथ कुछ अनुचित करती थी तो कई बार वह अपनी माँ से भी भिड़ जाती थी। प्रभा भी सदैव उसे बड़ी बहन का पूरा सम्मान देती थी। यही कारण था कि प्रभा को अपनी देवरानी बनाने की उसने पूरी कोशिश की थी। अपनी कोशिश में वह सफल भी हो गई।

दो वर्ष पूर्व सुनीता इस घर की बड़ी बहू बन कर आई थी। अपने सेवाभाव और हंसमुख स्वाभाव से वह सास ससुर पति देवर सबकी लाडली बन गई थी। पूरे घर पर उसका ही राज था। उसकी सलाह से ही सब कुछ होता था। घर गृहस्ती का दायित्व हो या पैसे का हिसाब किताब सब वही करती थी। नाते रिश्तेदारी में यदि कोई ब्याह शादी पड़ती थी तो वही तय करती थी कि किसे व्यवहार में क्या देना है। सब उसी पर आश्रित थे। वह भी पूरी निष्ठा से सब कुछ करती थी। सब कुछ सही चल रहा था। उसके विवाह को दो साल हो गए थे। लेकिन अब तक वह माँ नहीं बन पाई थी। हालांकि उसके घरवालों ने कभी भी इस बात का ज़िक्र नहीं किया था किंतु वह जानती थी कि सभी को खुशखबरी का इंतज़ार था। आस पड़ोस में होने वाली कानाफूसी अक्सर उसके कान में पड़ती रहती थी। दो एक बार अपने लिए बांझ शब्द भी सुना था। वह दुखी थी लेकिन निराश नही। उसे पूरी उम्मीद थी कि एक दिन उसकी गोद अवश्य भरेगी।

ब्याह के कुछ महीनों के बाद ही प्रभा के पांव भारी हो गए। पूरे घर में ख़ुशी की लहर दौड़ गई। सुनीता फिर अपना दुख भूल कर प्रभी की खुशी से खुश थी। प्रभा को भी सुनीता के माँ ना बन पाने का दुःख था। उस अनाथ लड़की को स्नेह देने वाली सुनीता ही थी। अतः जब प्रभा ने अपने बेटे को जन्म दिया तो उसे सुनीता की गोद में ही सौंप दिया।

बच्चा सबको अपनी तरफ आकर्षित करता था। अतः उसका नाम मोहन रखा गया। उसके लालन पालन की सारी ज़िम्मेदारी सुनीता ने ले ली। वही उसे नहलाती थी। रात को जब वह जग कर रोने लगता तो वही चुप कराती। मोहन सुनीता को ही अपनी माँ मानता था। उसी के हांथों से खाता और उसी की गोद में सोता था।

मोहन चार वर्ष का हो गया था। यूँ तो सब सही चल रहा था। किंतु धीरे धीरे सुनीता को यह महसूस होने लगा था कि घर में अब उसका वह स्थान नहीं रहा है जो पहले था। माँ बन जाने के कारण प्रभा का महत्व घर में बढ़ गया है। उसका स्थान अब प्रभा ने ले लिया है। इंसानी स्वभाव बड़ा विचित्र होता है। अपनी खुशियाँ बाँट कर हम गौरवान्वित होते हैं किंतु दूसरों को ख़ुद से अधिक प्रसन्न देख हमें ईर्ष्या होती है। सुनीता के साथ भी ऐसा ही हुआ। पहले प्रभा एक अनाथ लड़की थी। सुनीता को लगता था कि वही उसके सुख का खयाल रख सकती थी। लेकिन अब प्रभा सबकी लाड़ली थी। सभी उसकी ख़ुशी का ध्यान रखते थे। सुनीता को अब उससे ईर्ष्या होने लगी थी।

उसकी ईर्ष्या की परिणिति क्रोध में हो रही थी। जिसका केंद्र मोहन था। उसे लगता था कि प्रभा के बढ़ते रुतबे का कारण मोहन है। जहाँ पहले उसके ह्रदय में ममता का सागर हिलोरे मारता था वहीं अब केवल विष रह गया था। इस विष का ऐसा प्रभाव पड़ा कि अब वह मोहन को रास्ते से हटाने की बात सोंचने लगी थी।

जल्दी ही उसे इसका मौका भी मिल गया। उसके ससुराल में किसी करीबी रिश्तेदार की शादी थी। सभी जाने को तैयार थे किंतु तभी मोहन को ज्वर हो गया। सुनीता ने सबसे कहा कि वो लोग चले जाएँ वह मोहन की देखभाल कर लेगी। प्रभा अपने बेटे को छोड़ कर जाना नहीं चाहती थी। किंतु सुनीता ने यह कह कर उसे मना लिया की वह उस पर यकीन रखे। प्रभा भारी मन से चली गई।

आधी रात को सुनीता आँगन में टहल रही थी। उसे किसी की प्रतीक्षा थी। कुछ देर बाद किसी ने धीरे से कुंडी खटखटाई। सुनीता ने द्वार खोल दिया। एक व्यक्ति ने अपनी पोटली से निकाल कर उसे एक टोकरी दी जिस पर ढक्कन लगा था। सुनीता ने उसे पैसे दिए और दरवाज़ा बंद कर लिया।

कमरे में मोहन सोया हुआ था। सुनीता ने टोकरी का ढक्कन खोल कर उसे फर्श पर रख दिया। एक काला ज़हरीला नाग निकल कर मोहन की तरफ बढ़ा।

रात के सन्नाटे को चीरती हुई एक ह्रदय विदारक चीख ने आस पड़ोस को दहला दिया " हाय मेरे लाल को सांप ने डस लिया। " देखते ही देखते लोग घर में जमा हो गए। आँगन में बैठी सुनीता अपनी छाती पीट रही थी।

मोहन के जाने से पूरा घर हिल गया था। प्रभा स्वयं को कोसती थी कि क्यों वह अपने बीमार बच्चे को छोड़ कर चली गई।

जब सुनीता के दिल में छाए ईर्ष्या के बादल छंटे और क्रोध की ज्वाला शांत हुई तब उसे एहसास हुआ कि वह क्या कर बैठी है। उसने अपने ही हांथों खुद को बाँझ बना दिया। अब वह गुमसुम रहती थी। किसी से कुछ नहीं बोलती थी। उसके भीतर के सारे भाव सूख गए थे। वो बंजर हो गई थी।

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