आबिया Qais Jaunpuri द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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आबिया

आबिया

क़ैस जौनपुरी

आबिया नाम है उसका... आबिया से मिलने से पहले, करीम की ज़िन्दगी एक अलग तरीक़े से चल रही थी... जहाँ वो ख़ुद अपनी मर्ज़ी का मालिक हुआ करता था... जहाँ वो सिर्फ़ अपनी सुनता था… और लोगों को भी सिर्फ़ अपनी ही सुनाता था... एक तरह से अपनी दुनिया का बादशाह था वो... लेकिन आबिया की एक झलक ने उसकी पूरी ज़िन्दगी का रुख़ ही बदल दिया... पता नहीं क्या जादू है आबिया की आँखों में कि वो उसके सामने आते ही एक छोटा सा बच्चा बन जाता है... और आबिया के एक इशारे पर उठना-बैठना और चलना शुरू कर देता है…

ऐसा पहले नहीं था... पहले तो वो सिर्फ़ ख़ुद को अकलमन्द समझता था... वो भी सबसे ज़्यादा... बाक़ी दुनिया उसको अपने आगे छोटी लगती थी... जितने भी बुरे काम हो सकते हैं... सब किए थे उसने... लेकिन पता नहीं ऐसा क्या हुआ... कि अचानक वो सबकुछ छोड़ने के लिए तैयार हो गया…

उसकी हालत सर्कस के उस शेर जैसी हो गई है... जो आबिया के एक इशारे पे बिना कुछ कहे... चुपचाप... उठ जाता है... बैठ जाता है... ज़िन्दगी को अपने तरीक़े से जीने वाला इन्सान... सारे तरीक़े भूल गया... उसे ख़ुद समझ में नहीं आ रहा है... कि आबिया के चेहरे में ऐसा क्या है... जो उसकी ज़ुबान पर ताला लगा देता है…?

आबिया बोलती बहुत है... उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक रहती है... हमेशा... जब वो बोलती है... तो उसके सफ़ेद दाँत, करीम को किसी और ही दुनिया में लेकर चले जाते हैं... जहाँ उसकी गुलाबी जीभ, उसी की तरह चुलबुली सी हिलती-डुलती दिखाई देती है... आबिया के मुँह के अन्दर की नमी करीम को समुन्दर जैसी लगती है... और वो आबिया को बस टकटकी लगाए, बोलते हुए, देखता रहता है…

यूँ तो करीम के लिए कभी, कुछ भी मुश्किल नहीं रहा… मगर पहली बार उसे ऐसा लगा, जैसे उसके अन्दर ज़रा सी भी ताक़त नहीं बची है... जिसे वो आबिया को दिखा सके…

आबिया के लिए उसके दिमाग़ में ऐसा कुछ है भी नहीं... लेकिन कुछ है ज़रूर… “वो क्या है?”, ख़ुद करीम को भी नहीं मालूम हो रहा है... इसीलिए वो आबिया को बस चुपचाप बोलते हुए सुनता रहता है... आबिया उसे बोलती हुई बहुत अच्छी लगती है... अगर थोड़ी देर के लिए भी आबिया चुप हो जाती है, तो करीम की हालत ख़राब होने लगती है...

करीम उदास नज़रों से जब आबिया को देखता है... तो आबिया मुस्कुरा देती है... फिर करीम की सारी उदासी पल भर में ग़ाएब हो जाती है... और आबिया भी बड़ी अजीब है... एक पल में ख़ामोश हो जाती है... दूसरे ही पल में इतनी रफ़्तार से बोलना शुरू कर देती है कि फिर रुकने का नाम नहीं लेती है... बस यही अदा करीम को भा गई है... इसलिए वो आबिया को ज़्यादा से ज़्यादा मौक़ा देता है बोलने का... और ख़ुद, उसके चेहरे के हाव-भाव देखता रहता है…

आबिया बहुत गोरी है... हद से ज्य़ादा... ज़रूरत से ज़्यादा... उसके गोरे चेहरे पे ढेर सारे छोटे-छोटे तिल हैं, जो उसकी ख़ूबसूरती को और बढ़ा देते हैं... ऊपरवाला भी किसी-किसी के साथ बहुत मेहनत कर बैठता है... उसने आबिया को भी बड़ी मेहनत से बनाया है... मगर करीम को अफ़सोस है कि, “आबिया किसी और की ज़िन्दगी है...” और आबिया अपनी ज़िन्दगी में बहुत ख़ुश है…

जब करीम ने आबिया से अपने दिल की बात कही... और आबिया से, अपने बारे में पूछा, तो आबिया ने कहा था... “करीम! तुम मेरी ज़िन्दगी में आए एक ऐसे इन्सान हो, जिसे मैं ज़िन्दगी भर याद रखूँगी...”

करीम ने इतने से ही सब्र कर लिया था... अपनी गुनाहों की दुनिया को छोड़कर... जिसमें वो बहुत ख़ुश रहता था... और जिस दुनिया में रहते हुए ही उसे आबिया मिली थी... उस ख़ूबसूरत दुनिया को छोड़कर... अब वो एक अलग तरीक़े की दुनिया शुरू करने चल दिया था... जिसमें वो कभी क़दम भी नहीं रखना चाहता था.... वो दुनिया है... इन्सानों की दुनिया... जहाँ लोग एक-दूसरे के लिए जीते हैं... जिस दुनिया में आबिया जीती है…

करीम, आबिया को अपनी बेशरम दुनिया में नहीं घसीट सका... मगर आबिया के चहरे की कशिश, उसे ख़ुद वापस उस दलदल में नहीं जाने दे रही थी... कशमकश ये थी कि... आबिया उसकी नहीं हो सकती थी... और सच तो ये है, कि वो आबिया को कभी हासिल करना चाह भी नहीं रहा था... वो तो बस सारी दुनिया को भूलकर, बस आबिया को देखते रहना चाहता था... ये बात उसने आबिया को बताई भी थी... लेकिन आबिया ख़ुदा का बनाया हुआ ऐसा नूर है... जिसके आगे आते ही करीम सबकुछ भूल जाता है... वो भूल जाता है कि अपनी दुनिया में वो एक कमीना क़िस्म का इन्सान हुआ करता था... मगर अब आबिया के रूहानी चेहरे के सामने आते ही, करीम एक फ़क़ीर जैसा हो जाता है... उसे क़ुरआन की आयतें याद आना शुरू हो जाती हैं…

और जब आबिया करीम की नज़रों से दूर हुई, तो सिर्फ़ क़ुरआन की आयतें ही रह गईं उसके पास... जिनको करीम दुहराता रहता था... और फिर लोगों ने करीम को सचमुच का फ़क़ीर समझ लिया... और करीम अपनी गुमनाम, अँधेरे वाली दुनिया से बाहर आ गया.... उसकी हालत सचमुच के फ़क़ीर जैसी होने लगी थी... भूखा... प्यासा…

करीम, आबिया के रूहानी चेहरे को याद करके क़ुरआन की आयतें पढ़ता था... जिनमें ख़ुदा की तारीफ़ होती थी... और करीम के चेहरे पर एक ख़ामोश मुस्कुराहट..... लोगों ने करीम की मर्ज़ी के बिना, उसे ख़ुदा का एक नेक बन्दा मान लिया... और धीरे-धीरे... करीम के आस-पास लोगों की भीड़ जुटने लगी…

करीम अब एक बाबा बन चुका है... “करीम बाबा...” लोग उसके सामने सिर झुकाने लगे हैं... करीम मना करता है... तो लोग इसे करीम का बड़प्पन समझते हैं... करीम के लाख समझाने के बावजूद, लोग उसकी इज़्ज़त करते हैं... करीम लोगों से दूर भागता है... लोग उसका पीछा करते हुए उसके पास आ जाते हैं... इस तरह ‘करीम बाबा’ की बात आसपास के इलाकों में पहुँचने लगी... और पहुँचते-पहुँचते, एक दिन आबिया तक भी पहुँच गई....

वक़्त बीता... हालात बीते... और आबिया को भी... ज़िन्दगी में किसी फ़क़ीर की दुआओं की ज़रूरत पड़ी... और इसी ज़रूरत को लेकर, आबिया भी ‘करीम बाबा’ के पास पहुँची... करीम ने तो आबिया को देखते ही पहचान लिया... करीम के चेहरे पर लोगों ने पहली बार हँसी देखी थी... ये हँसी थी, करीम के अब तक के इन्तिज़ार की... जो तब पूरी हुई, जब उसकी बेपनाह ख़ूबसूरत आबिया, एक बेबस की तरह, उसके सामने खड़ी थी... मगर आबिया को तो इस बात का इल्म भी नहीं था, कि ये वही करीम है... जो उसकी एक उँगली के इशारे पे उठता-बैठता था... कई बार उसने मज़ाक़ में भी, करीम को अपनी उँगली से इशारा किया था... जिसे देखकर करीम बेबस हो जाता था... फिर आबिया खिलखिलाकर हँस देती थी…

आज आबिया ख़ामोश है... और करीम हँस रहा है... अपने ऊपर... आबिया के हालात के ऊपर... ऊपरवाले के ऊपर... जिसने करीम को ना चाहते हुए भी... ऐसी हालत में पहुँचा दिया था... और जिसने आबिया के रूहानी नूर को भी दरकिनार कर दिया था... और आबिया, आम लोगों की तरह उसके पास आई थी... एक झूठे बाबा के पास.... जो ख़ुद आबिया के अफ़सोस में ऐसा हो गया था…

करीम को हँसी आ रही है... उसने जिस दुनिया को छोड़ा.... उसी दुनिया के लोग, उसके पास दुआ के लिए आते हैं... और ख़ुद करीम, आबिया से बिछड़ने के बाद इस हालत में पहुँचा था…

करीम ने अपने आस-पास के लोगों को, थोड़ी देर के लिए वहाँ से जाने के लिए कहा... आबिया सिर झुकाए, करीम के पास खड़ी है... तब करीम के मुँह से एक दर्द भरी आवाज़ निकली... “आबिया....!” ये सुनकर आबिया की नज़र, अचानक उठी और करीम के दाढ़ी भरे चेहरे पर पड़ी... आबिया को लगा, जैसे उसके किसी अपने ने उसे आवाज़ दी हो... मगर वहाँ कोई उसका अपना नहीं था.... वो करीम की आँखों को तो पहचान रही थी, मगर उस चेहरे को नहीं पहचान पा रही थी... जो अब एक भयानक रूप ले चुका है…

करीम को अपने और आबिया के हालात पर बड़ी दया आई... उससे आबिया की ये हालत देखी न गई... और उसने अपना मुँह फेर लिया... और आबिया की तरफ़ पीठ करके खड़ा हो गया... उसे लगा जैसे अभी आबिया पूछेगी... “करीम..! क्या तुम ठीक हो...?” जैसे आबिया उससे पहले पूछती थी... जब करीम, पहली बार आबिया से मिला था…

आबिया करीम को उदास या परेशान देखकर यही कहती थी... “करीम...! क्या तुम ठीक हो...?” मगर आज, आबिया ख़ामोश खड़ी है... वो आबिया.... जो कभी बहुत बोलती थी... और इतना बोलती थी कि रुकने का नाम नहीं लेती थी... वही आबिया, आज शुरू होने का नाम नहीं ले रही है....

करीम को ये बात खाए जा रही है कि, “आबिया इतनी चुप क्यूँ है...?” और ख़ुद करीम इसलिए चुप है क्योंकि वो अपनी आबिया को देखकर, वापस उसी हालत में पहुँच गया है.... और आबिया की उँगली के एक इशारे का इन्तिज़ार कर रहा है... आख़िर चुप्पी आबिया ने ही तोड़ी... “सुना है, आप लोगों को दुआ देते हैं...?”

आबिया की आवाज़ सुनकर, करीम का दिल बैठ गया... पलटकर, आँखों में आँसू लेकर, वो आबिया के सामने आ गया... उससे अब और इन्तिज़ार न हुआ... आबिया सहम गई.... करीम ने कहा... “डरो मत.... मैं हूँ... करीम...” आबिया ने कहा... “हाँ... ये तो मुझे भी मालूम है कि आप ‘करीम बाबा’ हैं...”

आबिया अब भी नहीं समझ पा रही है... करीम ने कहा... “आबिया...! तुम भूल गई...?” अब आबिया के होश उड़ गए... उसने पूछा... “आपको मेरा नाम कैसे मालूम....?” अब करीम को हँसी आ गई... आबिया को ये हँसी, कुछ जानी-पहचानी लगी... मगर उम्र का तक़ाज़ा और वक़्त की रफ़्तार में, बहुत कुछ बदल चुका था…

करीम ने कहा... “तुमने कभी किसी से कहा था... तुम उसे पूरी ज़िन्दगी याद रखोगी...” आबिया को करीम बाबा एक पागल लग रहा है... आबिया समझ नहीं पा रही है... इसलिए पूछ भी नहीं पा रही है... “क्या तुम ठीक हो...?” जिसका इन्तिज़ार करीम कर रहा है... करीम ने आबिया के सामने आकर कहा... “तुम्हें देखकर, मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा रहा है... उस अँधेरे में और अँधेरा घिरता जा रहा है.... अँधेरे के भीतर और अँधेरा... और उस अँधेरे के भीतर भी और अँधेरा.... सब अँधेरा.... मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा है....” ये कहते हुए ‘करीम बाबा’ आबिया के बहुत नज़दीक आ चुका था…

और तब आबिया ख़ुद को पीछे करते हुए बोली... “मैं कुछ समझी नहीं...?” करीम ने हैरान होकर कहा... “आबिया....! तुम बिना लिपस्टिक के ज्य़ादा सुन्दर लगती हो....” अब आबिया को कुछ याद आ गया.... ‘करीम बाबा’ उसके सामने खड़ा था.... और आबिया ने हैरानी में आकर, अपने मुँह पर अपना हाथ रख लिया... उसे लगा जैसे उसका कलेजा अभी मुँह से बाहर निकल आएगा... आबिया ने एक बार ग़ौर से करीम बाबा को देखा... और पूछा... “करीम.....? तुम....?”

अब करीम की आँखों में आँसू आ गए... आबिया ने नज़दीक आकर, करीम की बाँह पकड़कर, उसे झकझोरा.... “ये सब क्या है...?”

करीम कुछ न बोल सका.... आबिया के चेहरे पे एक बार फिर, पहले वाली मुस्कुराहट लौट आई... वो एक साथ, रो भी रही है... और हँस भी रही है.... फिर आबिया, ये भूलकर कि वो यहाँ किस काम से आई थी... करीम को उसी अन्दाज़ में समझाने लगी, जैसे पहले समझाती थी.... करीम भी, रोते हुए, बस आबिया को, बोलते हुए देख रहा है... “तुम आज भी उतना ही बोलती हो...?” करीम ने रोते हुए ही कहा... आबिया हँसते-रोते हुए बोली... “ये क्या हाल बना रखा है तुमने...? कुछ और काम नहीं मिला...?” करीम ने कहा... “ये भी मैं न चाहते हुए बना हूँ... लोगों को बहुत समझाया मगर कोई मानने के लिए तैयार ही नहीं था...”

अब आबिया समझ नहीं पा रही है कि... क्या करे...? बस हँसे जा रही है... करीम को देखकर... और रोए जा रही है... करीम की हालत को देखकर... बड़े-बड़े बाल... बढ़ी हुई दाढ़ी... ऐसा लग रहा है जैसे काफ़ी दिनों से नहाया न हो...

आबिया के पूछने पर करीम ने कहा... “किसके लिए सजूँ...? अब कोई देखने वाला भी तो नहीं रहा... तुम तो सोने-चाँदी के गहनों में खेल रही थी... मुझ जैसे को कुछ नहीं सूझा... यूँ ही पड़ा रहता था... लोगों ने बाबा बना दिया... करीम बाबा...” कहकर हँसने लगा... आबिया भी करीम के साथ-साथ हँसने लगी...

फिर अचानक एक गहरी ख़ामोशी छा गई... आबिया ने कहा... “बस... अब बहुत हो चुका... बन्द करो ये सब ड्रामा... और चलो मेरे साथ...” करीम मुस्कुराते हुए बोला...

“छोड़कर गए थे कभी, जो मुझे राहों में

आज वो आए हैं लेने, मुझे बाँहों में”

“मैं अब कहाँ जाऊँगा...?” करीम ने दर्द भरी आवाज़ में कहा... आबिया ने करीम को बस एक नज़र घूरकर देखा और अपनी उँगली से इशारा किया... “मैं कुछ नहीं जानती... तुम बस चलो... मैंने कह दिया तो कह दिया...”

इतना कहकर आबिया कमरे से बाहर निकल गई... करीम, वहीं खड़ा सोचता रहा... आबिया तेज़ कदमों से चली जा रही है... उसने पीछे मुड़कर देखा... करीम अब भी, उसी जगह खड़ा है... आबिया ने एक बार फिर करीम को अपनी तरफ़ आने का इशारा किया... इस बार करीम को, अपनी वही पुरानी आबिया दिखाई दी... और वो चुपचाप आबिया की तरफ़ चल दिया...

करीम के शागिर्द, करीम से जाते हुए पूछने लगे... “बाबा, किधर जा रहे हैं....?” करीम ने मुस्कुराते हुए कहा... “मेरा ख़ुदा मुझे बुला रहा है...”

सभी शागिर्द, हैरान होकर देखने लगे... उन्होंने देखा... करीम बाबा, आबिया की तरफ़ बढ़ रहा था... और आबिया के चेहरे पर, वही रूहानी नूर चमक रहा था...

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