कटु सत्य कवि अंकित द्विवेदी द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कटु सत्य

मनुष्य

  • सुख भोग ने के लिए स्वर्ग है, दुख भोग ने के लिये नरक है और सुख – दुख दोनों से ऊँचा उठकर अपना कल्याण करने के लिए मनुष्य शरीर है।
  • वास्तव में मनुष्य जन्म ही सब जन्मों का आदि तथा अन्तिम जन्म है। यदि मनुष्य परमात्मप्राप्ति कर ले तो अन्तिम जन्म भी यही है और परमात्मप्राप्ति न करे तो अनन्त जन्मों का आदि जन्म भी यही है।
  • अपना उध्दार करना अथवा परमात्म तत्व को प्राप्त करना मनुष्य मात्र का स्वधर्म है। क्योंकि मनुष्य शरीर केवल परमात्मा प्राप्ति के लिये ही मिला है।
  • शरीर से अपना सम्बन्ध मानकर भोग और संग्रह में लगना मनुष्य मात्र का पर धर्म है।
  • आकृति मात्र से कोई मनुष्य नहीं होता। मनुष्य वही है, जो अपने विवेक को महत्व देता है।
  • मनुष्य में अगर मनुष्यता नहीं है तो मनुष्य पशु से भी नीचा है। कारण कि पशु तो अपने पू्र्वकृत पाप कर्मों का फल भोगकर मनुष्यता की तैयारी कर रहा है, पर मनुष्य नये पाप कर्म करके नरकों की , पशुता की तैयारी कर रहा है।
  • ऊँची से ऊँची जीवन्मुक्त अवस्था मनुष्य मात्र में स्वाभाविक है।
  • शरीर का सदुपयोग केवल संसार की सेवा में ही है।
  • भगवान् को याद रखना और सेवा करना -- इन दो बातों से ही मनुष्यता सिध्द होती है।
  • मनुष्य शरीर मिल गया, पर परमात्मा की प्राप्ति नहीं हुई तो यह बड़े शोक की , दुख की बात है।
  • मनुष्य शरीर केवल सुनने – सीखने के लिए नहीं है , प्रत्युत तत्व का अनुभव करने के लिए है । सुनना सीखना तो पशु- पक्षियों में भी होता है, जिससे वे सर्कस में काम करते है।
  • जो दूसरों की सेवा नहीं करता और भगवान को याद नहीं करता , वह मनुष्य कहलाने का अधिकारी ही नहीं है।
  • किसी भी सुखभोग के आरम्भकाल को देखना पशुता है और उसके परिणाम को देखना मनुष्यता है।
  • सृष्टि की रचना ही इस ढंग से हुई है कि मनुष्यों का जीवन दूसरों के लिये है, अपने लिये नहीं ।
  • परमात्मा की प्राप्ति के बिना मनुष्य शरीर किसी काम का नहीं है।
  • जिनकी भगवान की तरफ रूचि हो गयी है , वे भाग्यशाली हैं, वे ही श्रेष्ठ हैं और वे ही मनुष्य कहलाने योग्य है।
  • मनु्ष्यजन्म की सफलता के लिये हरदम सावधान रहने की बड़ी भारी आवश्यकता है ।
  • मनुष्य शरीर की महिमा विवेक को लेकर है, क्रिया को लेकर नहीं।
  • वास्तव में मनुष्य कर्मयोनि नहीं है, प्रत्युत साधनयोनि है। जो साधक नहीं है , वह देवता या असुर तो हो सकता है पर मनुष्य नहीं हो सकता।
  • 'मनुष्य' नाम उसी का है, जो परमात्मा प्राप्ति का जन्मजात अधिकारी हो।
  • मन

  • मन को भगवान में लगाना उतना जरूरी नहीं है, जितना जरूरी भगवान में खुद लगना है। खुद भगवान में लग जायँ तो मन अपने आप भगवान में लग जायेगा।
  • मन की एकाग्रता योग मार्ग में जितनी आवश्यक है, उतनी भक्ति में नहीं । भक्ति में तो भगवान के सम्बन्ध की दृढ़ता होनी चाहिए।
  • शान्ति त्याग से मिलती है, मन की एकाग्रता से नहीं।
  • मन को स्थिर करना मूल्यवान नहीं है, प्रत्युत स्वरूप की स्वत: सिध्द निरपेक्ष स्थिरता का अनुभव करना मूल्यवान है।
  • मन में संसार का जो राग है ,उसे मिटाने की जितनी जरूरत है,
  • उतनी मन की चंचलता को मिटाने की जरूरत नहीं है।

  • जब तक मन को संसार से हटाकर परमात्मा में लगाने की वृत्ति रहेगी ,तब तक मन का सर्वथा निरोध नहीं हो सकेगा। मन का सर्वथा निरोध तब होगा , जब एक परमात्मा के सिवाय अन्य सत्ता की मान्यता नहीं रहेगी।
  • निष्काम भाव में बुध्दि स्थिर होती है और अभ्यास से मन स्थिर होता है। कल्याण बुध्दि की स्थिरता से होता है, मन की स्थिरता से नहीं । मन की स्थिरता से सिध्दियाँ होती है।
  • मन की एकता परमात्मा के साथ नहीं है , प्रत्युत प्रकृति के साथ है। इसलिये मन परमात्मा में लीन तो हो सकता है, पर लग नहीं सकता ।
  • ममता

  • जब तक मनुष्य की स्त्री , पुत्र आदि में ममता रहेगी, तबतक उसके द्वारा स्त्री , पुत्र आदि का सुधार होना असम्भव है क्योंकि ममता ही मूल अशुद्धि है।
  • मनुष्य अपने पास ममतापूर्वक जितनी सामग्री रखता है, उतना ही असत् का संग है। जितना असत् का संग होता है , उतना ही मनुष्य का पतन होता है।
  • जिन-जिन वस्तुओं को हम अपनी मानते हैं, उन – उन वस्तुओं के हम पराधीन हो जाते है। पराधीन व्यक्ति को स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता -'परधीन सपनेहु सुखु नाही'।
  • संसार मात्र परमात्मा का है, पर जीव भूल से परमात्मा की वस्तु को अपनी मान लेता है और इसीलिए बन्धन में पड़ जाता है ।
  • शरीर, इन्द्रियाँ आदि कभी नहीं कहते कि हम तुम्हारे हैं और तुम हमारे हो। हम ही उनको अपना मान लेते हैं। उनको अपना मानना ही अशुध्दि है- 'ममता मल जरि जाइ।'
  • हम घर में रहने से नहीं फँसते , प्रत्युत घऱ को अपना मानने से फँसते हैँ।
  • मनुष्य संसार में जितनी चीजों को अपनी और अपने लिए मानता है, उतना ही वह फँसता हैं।
  • मनुष्य संसार में जितनी वस्तुओं को अपनी मानता है , उतना ही वह उनके पराधीन हो जाता है। परन्तु परमात्मा को अपना मानने से वह स्वाधीन हो जाता है।
  • शरीरादि को 'अपना' और 'अपने लिये' मानना बहुत बड़ी भूल है। इस भूल को मिटा दें तो कल्याण होने में कोई सन्देह नहीं है।
  • जिस के साथ हम सदा न रह सकें और जो हमारे साथ सदा न रह सकें , उसको अपना मानने से परिणाम में रोने के सिवाय और कुछ नहीं मिलेगा। अत: उसको अपना न मानकर उसकी सेवा करे।
  • संसार प्रतिक्षण जा रहा है। जाने वाले के साथ ममता करोगे तो रोना ही पड़ेगा, पर रहने वाले भगवान से आत्मीयता करोगे तो सदा के लिये निहाल हो जाओगे।
  • मृत्यु और अमरता

  • शरीर संसार के सम्बन्ध से मृत्यु का और भगवान के सम्बन्ध से अमरता का अनुभव होता है ।
  • अपने लिए कर्म करने से पहले कर्म के साथ और फिर फल के साथ सम्बन्ध जुड़ता है। कर्म और फल –दोनों ही उत्पन्न होकर नष्ट हो जाते हैं, पर अन्त: कारण में जो आसक्ति रह जाती है, वह बार- बार जन्म – मरण देती है।
  • शरीर को 'मैं ' और 'मेरा' मानना प्रमाद है, प्रमाद ही मृत्यु है।
  • किसी भी काम का होना या न होना अनिश्चित है, पर मरना बिल्कुल निश्चित है ।
  • जैसे शरीर के लिए मृत्यु सुलभ है, ऐसे ही अपने लिये अमरता सुलभ है।