मन के मोती 10 Ashish Kumar Trivedi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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मन के मोती 10

मन के मोती 10

{लघु कथा संग्रह}

लेखक :- आशीष कुमार त्रिवेदी

{1}

देहरी

' बस यहीं रोक दो ' आवाज़ सुनते ही पवन ने रिक्शा एक बड़े से मकान के सामने रोक दिया. अपने गमछे से पसीना पोंछते हुए इंतजा़र करने लगा. होली नज़दीक थी. चटक धूप में रिक्शा चलाना कठिन हो गया था. लड़़की रिक्शे से उतरी और उसे एक नोट थमाकर तेज़ी से चल दी. पवन ने विरोध किया " मैडम बात तो पंद्रह रुपए की हुई थी. " पर तब तक वह मकान के भीतर जा चुकी थी. पवन ने उस बड़े से मकान को घूर कर देखा और मन ही मन बड़़बड़ाया ' गरीब का मेहनताना देते जान निकलती है. '

खाने का समय हो गया था. वह रिक्शा लेकर उस होटल की तरफ चल दिया जहाँ उसके जैसे रिक्शे वाले तथा दिहाड़ी मजदूर खाना खाते थे.

तीन महीने पहले वह इस शहर में यह सोंचकर रिक्शा चलाने आया था कि कमाई से कुछ बचाकर घर भेज दिया करेगा. किंतु हालात यह है कि जो कमाई होती है उसमें से रिक्शे का किराया देने के बाद मुश्किल से दो वक्त खा पाता है. रहने का कोई ठिकाना नहीं है. रात फुटपाथ पर सो कर गुजारता है.

जब घर से चला था तब उसकी पत्नी पिंकी ने उस से कहा था " फाग में तो आओगे ना. मैं राह देखूंगी. "

उसने समझाते हुए कहा " पूरी कोशिश करूंगा. मैं भी तुम्हारे बिना कहाँ रह पाऊंगा. तुम अम्मा का खयाल रखना. "

" तुम अम्मा की फ़िक्र मत करो. मैं संभाल लूंगी. तुम जल्दी लौटना. "

घर छोड़ते समय पिंकी देहरी पर खड़ी उसे जाते हुए देखती रही. पवन ने पीछे मुड़ कर उसे देखा. उसने भी दूर से हाथ हिला कर विदा दी.

खाते हुए उसने एक आह भरी. इतने दिनों में वापस जाने का किराया भी नहीं बचा पाया.

होली का दिन था. सभी तरफ रंगों की बहार थी. वह एक सवारी को छोड़ कर जा रहा था. तभी एक बच्चे ने अपनी पिचकारी से उसे भिंगो दिया. उसे पिंकी के साथ अपनी पहली होली याद आ गई. वह पिंकी के खयालों में खो गया. सामने से एक तेज रफ्तार कार आ रही थी. जिसमें नशे में धुत्त कुछ मनचले बैठे थे. कार उसके रिक्शे को टक्कर मार कर निकल गई. एक शोर सा उठा. आस पास भीड़ जमा हो गई.

पिंकी देहरी पर खड़ी उसका इंतजा़र कर रही थी. उसे देखते ही खुशी से उसकी तरफ दौड़ी. ' मैं जानती थी कि फाग में तुम जरूर आओगे. अरे यह क्या तुम्हारा बदन तो खून से सना है. यह क्या हो गया. ' उसने घबरा कर पवन को बाहों में समेट लिया. पवन की सांसें उसका साथ छोड़ने लगीं. आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा. घर की देहरी दूर होने लगी. एक हिचकी के साथ उसके प्राण निकल गए.

खून से लथपथ पवन की लाश सड़क पर पड़ी थी.

{2}
वशीभूत

प्राचीन समय में एक राज्य था. यहाँ की परंपरा के अननसार प्रजापालक के पद पर बैठने वाले का चुनाव प्रजा अपने बीच से खड़े प्रत्याशियों में से करती थी.

इस बार प्रजा ने प्रियदर्शी नामक व्यक्ति का चुनाव किया था. प्रियदर्शी की छवी प्रजा के हितैशी के रूप में थी. पद पर बैठने के बाद प्रियदर्शी ने प्रजा के हित में काम करना आरंभ कर दिया. सभी उससे बहुत खुश थे. किंतु कुछ समय पश्चीत स्थितियां बदलने लगीं. पहले प्रजा आसानी से प्रियदर्शी से मिल पाती थी किंतु अब उसका विशेष सचिव जिसे अनुमति देता वही उससे मिल पाता था. अब उसके कई फैसले भी आम जन के हित में नही थे. लोगों की आर्थिक स्थिति खराब हो रही थी जबकी प्रियदर्शी की व्यक्तिगत संपत्ति बढ़ रही थी.

प्रजा में एक युवक था समदर्शी. उसने इस सब का विरोध करना आरंभ कर दिया. धीरे धीरे उसे प्रजा का समर्थन मिलने लगा. शीघ्र ही वह प्रजा का प्रिय नेता बन गया.

प्रियदर्शी का कार्यकाल खत्म होने पर प्रजा ने भारी बहुमत से समदर्शी का चुनाव किया.

समदर्शी ने जोर शोर से काम शुरू किया. अब सबकी आशाएं उस पर थीं. किंतु कुछ ही समय में स्थितियां पहले जैसी हो गईं. कई मामलों में तो समदर्शी ने प्रियदर्शी को भी पछाड़ दिया.

निराश प्रजा एक ज्ञानी व्यक्ति के पास गई और उनसे कारण पूंछा. वह मुस्कुरा कर बोले "दोष इन लोगों का नही उस कुर्सी का है जिस पर यह बैठते हैं. उस पर सत्ता मद, लोभ, स्वार्थ की माया है.

{3}

हकीकत

गाँव के चौपाल पर एक नाटक खेला जा रहा था.

चारपाई पर पूरे ठसक के साथ बैठी ताई अपने पोतों का गुणगान कर रही थीं "मेरे चार पोते हैं. सब हट्टे कट्टे. मैने तो हर कोशिश की कि छोरियां पैदा ना हों. अब मैं चारों का ब्याह करूँगी ताकि वंश आगे बढ़ सके."

पास ही मोढ़े पर बैठी पड़़ोसन बोली "कैसे करोगी उनका ब्याह ताई. अब छोरियां बहुत कम बची हैं. कई छोरे कुंवारे बैठे हैं."

ताई डर गईं "ऐसा कैसे हो सकता है."

"क्यों नही हो सकता ताई. जो कोशिश तुमने की वही औरों ने भी की." पड़ोसन ने मुस्कुरा कर कहा.

ताई सोंच में पड़ गई. पड़ोसन ने बात आगे बढ़ाई "अब परेशान होने से क्या ताई. कुदरत से खेलने का तो यही नतीजा होता है. कुदरत ने तो छोरा छोरी दोनों को बनाया है."

नाटक समाप्त हो गया. नीली जींस और सफेद टी शर्ट पहने कुछ लड़के लड़की सामने आए और हाथ जोड़ कर दर्शकों का धन्यवाद किया.

कॉलेज के ये स्टूडेंट्स फोकट का तमाशा दिखा कर लोगों को बहुमूल्य संदेश देते थे.

{4}

अटल फैसला

"परेशान मत हो माँ मैं जल्दी ही अपने लिए कोई ठिकाना ढूंढ़ लूंगी." अपनी ससुराल छोड़ कर आई मंजुला ने कहा.

"कैसी बातें करती है. तेरे रहने से मुझे क्या परेशानी होगी." माँ ने समझाते हुए कहा "पर बेटा इतनी सी बात पर कोई घर छोड़ता है क्या."

मंजुला ने आश्चर्य से कहा "ये इतनी सी बात है."

जब से उसकी ससुराल वालों को उसके गर्भवती होने का पता चला था उस पर सोनोग्राफी कराने के लिए दबाव बढ़ रहा था. वह इसका कारण जानती थी. अतः उसने साफ मना कर दिया. ज्यादा जोर पड़ने पर घर छोड़ कर आ गई.

उसकी माँ ने बात बढ़ाई "यह भी तो हो सकता है कि जाँच का नतीजा उनके मन मुताबिक हो."

मंजुला ने अपनी माँ से प्रश्न किया "यदि उनके मन का ना हुआ तो. क्या करूँ. उनके मन के अनुसार काम करुँ."

माँ कुछ नही बोल पाईं.

"मुझे ईश्वर ने जो दिया है मैं मन से उसे स्वीकार कर चुकी हूँ. मुझे कोई जाँच नही करानी है." मंजुला ने अपना अटल फैसला सुना दिया.

{5}

संवेदना

संगीता निश्चल बैठी शून्य में ताकती रहती थी. किसी भी बात की कोई प्रतिक्रिया ही नही देती थी.

उस हादसे ने परिवार के सभी सदस्यों को झझकोर दिया था. किंतु समय के साथ सभी धीरे धीरे उस दुख से बाहर आ गए. परिवार वालों की तमाम कोशिशों के बावजूद भी संगीता अपने गम से बाहर नही आ पाई.

उसका सोलह साल का बेटा सबके देखते देखते बिजली का करंट लगने से मर गया. एक पारिवारिक कार्यक्रम में लापरवाही से एक नंगा तार जिसमें करंट था फर्श पर पड़ा था. असावधानी के कारण उनका बेटा उसकी चपेट में आ गया. जब तक कोई कुछ करता देर हो चुकी थी. संगीता की आंखों के सामने सब घटा. वह चीखी और उसके बाद से चार साल हो गए उसके मुख से आज तक एक शब्द नही निकला.

आज सर्दी बहुत थी. घर में काम करने वाली अपने दो साल के बच्चे को लेकर आई थी. उसे एक जगह बिठा कर वह अपना काम करने लगी. बाकी सब भी अपने काम में व्यस्त थे. बच्चा अपनी जगह से उठा और इधर उधर देखते हुए संगीता के कमरे तक पहुँच गया. पहले वह कुछ ठिठका लेकिन संगीता की तरफ से कोई प्रतिक्रिया ना मिलने पर बेधड़क कमरे में घुस गया. वह कमरे के छोटे मोटे सामानों से खेलने लगा. तभी उसकी नजर रूमहीटर पर पड़ी. वह उसे अधिक आकर्षक लगा और वह उस चालू हीटर की तरफ लपका.

शून्य में ताकते हुए अचानक संगीता का ध्यान उस बच्चे की गतिविधि पर चला गया था. वह उसे ध्यान से देख रही थी. जैसे ही बच्चा हीटर की ओर लपका उसके मुख से चीख निकल गई. बच्चा डर कर ठिठक गया और रोने लगा. संगीता अपने बिस्तर से उठी और उसे चुप कराने लगी.

अचानक उसकी चीख सुन कर सभी उसके कमरे की तरफ भागे. वहाँ जो देखा उसे देख कर सब दंग रह गए.

{6}

नया ज़माना

संदीप स्वयं को आधुनिक मानता था. उसका कहना था कि जैसा ज़माना हो उसके अनुसार ही चलना चाहिए. ज़माने के साथ रफ्तार मिलाने में वह अक्सर यह भी नही सोंचता था कि इसका परिणाम क्या होगा.

उसके बड़े भाई अक्सर उसे समझाते थे कि जमाने के हिसाब से चलना तो ठीक है लेकिन बदलते समय के नाम पर सब कुछ सही नही ठहराया जा सकता है. हमें परिणाम सोंच कर कदम बढ़ाना चाहिए.

संदीप ने अपने बेटे को पूरी छूट दे रखी थी. वह कहाँ जाता है कब लौटता है इसकी उसको कोई फिक्र नही रहती थी. अक्सर उसका बेटा देर रात घर लौटता था किंतु संदीप उसे कुछ नही कहता था. उसके बड़े भाई ने समझाया कि बच्चों को आज़ादी देना तो ठीक है किंतु उसकी सीमा होनी चाहिए. सीमा से अधिक कुछ भी उचित नही होता है. संदीप का तर्क था कि वह व्यक्तिगत स्वतंत्रता में यकीन रखता है. उसे अपने बेटे पर पूरा भरोसा है. इसलिए वह उसके जीवन में दखल नही देगा.

एक दिन संदीप के बड़े भाई उसके घर आए हुए थे. दोनों बात कर रहे थे कि संदीप के मोबाइल की घंटी बजी. फोन थाने से आया था. उन्होंने उसे थाने में बुलाया. अपने बड़े भाई को लेकर वह थाने पहुँचा. खबर सुन कर वह सन्न रह गया. उसका बेटा एक रेव पार्टी में नशीले पदार्थ के साथ पकड़ा गया था.

{7}

मेरा बेटा

स्कूल में रिसेस के समय सभी बच्चे खेलने या खाने में मगन थे. वे सभी आपस में एक दूसरे से हंसी मज़ाक कर रहे थे. इन सबसे अलग आरव एक कोने में शांत बैठा था.

उसके मम्मी पापा का तलाक हो चुका था. अब दोनों के बीच उसकी कस्टडी को लेकर कोर्ट में लड़ाई चल रही थी. दोनों ही उस पर अपना हक जमा रहे थे. आरव को लगने लगा था कि जैसे वह कोई बेजान गुड्डा है. जिसे पाने के लिए उसके मम्मी पापा बच्चों के मानिंद लड़ रहे थे.

कोई भी यह नही जानना चाहता था कि उसे क्या चाहिए. वह तो आज भी उन पुराने दिनों के सपने देखता था जब मम्मी पापा एक थे. उनका एक परिवार था जहाँ वह दोनों का प्यारा बेटा था.

{8}

अटूट बंधन

कुछ देर में ही प्रतियोगिता का आखिरी दौर आरंभ होने वाला था. शिव कुछ नर्वस था. बहुत ही महत्वपूर्ण मुकाबला था. यदि वह जीत गया तो इस प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक पाने वाला अपने मुल्क का पहला खिलाड़ी बन जाएगा.

वह अपने बीते जीवन के बारे में सोंचने लगा.

उसका व्यक्तिगत जीवन उथल पुथल से भरा था. अनाथालय में पला बढ़ा वह सदैव ही रिश्तों के लिए तरसता रहा. जब युवा हुआ तो एक लड़की से प्रेम हो गया. लेकिन उसने भी धोखा दे दिया. वह भीतर से टूट गया.

इस मुश्किल दौर में इस खेल से उसका संबंध हुआ. जैसे जैसे वह इस खेल से जुड़ता गया अपने दुख से बाहर आता गया. आज वह खेलों के इस महाकुंभ में अपने देश का प्रतिनिधित्व कर रहा था.

प्रतियोगिता का आखिरी मुकाबला शुरु हुआ. धैर्य व लगन से खेलते हुए उसने इतिहास रच दिया.

वह पोडियम पर खड़ा था. उसने लहराते हुए तिरंगे को देखा. जीवन मे पहली बार उसने एक मज़बूत रिश्ता महसूस किया था. उसका उसके वतन के साथ.

{9}

नियुक्ति पत्र

नीरज की नियुक्ति बैंक पी. ओ. के तौर पर हो गई थी. यहाँ तक पहुँचने के लिए मेहनत तो सभी प्रत्याशियों ने की थी किंतु उसके संघर्ष का एक और आयाम था. बचपन से सुनता आया था कि उसके ग्रह ऐसे हैं कि उसे किसी काम में सफलता नही मिलेगी. वह कुल के लिए कलंक बनेगा. सबसे अधिक अफ़सोस उसे तब होता जब उसके पिता जो कर्मयोगी भगवान कृष्ण के उपासक थे कर्म को नकार ग्रहों की दशा पर यकीन करते थे.

आज उन सभी की आशंकाओं का जवाब नियुक्ति पत्र उसके हाथ में था.

{10}

मेरा वो मतलब नहीं था

विमला देवी अपने बेटे के नए घर के सजे संवरे ड्राइंगरूम में बैठी उसकी तरक्की के लिए ईश्वर को धन्यवाद दे रहीं थीं. भीतर बेटे बहू में कुछ कानाफूसी चल रही थी। कुछ देर में बेटा बाहर आया. " कैसी हो अम्मा" उसने सोफे पर बैठते हुए पूंछा.

"ठीक हूँ, डाक्टर को दिखा कर लौट रही थी, सोंचा तुमसे मिल लूं."

बेटे ने उनके चहरे की तरफ देखा फिर कुछ सोंच कर बोला " तुम तो जानती हो अम्मा कितनी महंगाई है. नए घर की साज सजावट पर भारी खर्च आया. उस पर बच्चों का नया सेशन भी शुरू हो गया है."

विमला देवी बेटे की बात का मतलब समझ गईं. " तुम बहुत दिनों से नहीं आये थे इसलिए मिलने चली आई. मेरे लिए तो पेंशन ही बहुत है." यह कह कर वो उठ कर चल दीं.

पीछे से बेटे का खिसिआया स्वर सुनाई पड़ा ' मेरा वो मतलब नहीं था.

{11}

मददगार

फिर वह सारे दृष्य उसके मानस पटल पर चलचित्र की भांति चलने लगे. एक उन्मादी भीड़ हाथों में मशाल तथा हथियार लिए एक घर में घुस गई. वहाँ मौजूद मर्द औरत और उनके बच्चे को कत्ल कर दिया. खून के छीटों से सना एक चेहरा उसकी आंखों में तैर गया. वह चेहरा उसी का था. घबराहट के मारे वह पसीने से तर बतर हो गया.

"पानी बेटा पानी पिला दो." एक कमज़ोर बूढ़ी आवाज़ उसके कानों में पड़ी. वह उठ कर गया और पास रखे घड़े से उस वृद्धा को पानी पिला दिया.

उस वृद्धा ने अपना कांपता हाथ उसके सर पर रख दिया "उन ज़ालिमों ने तो मेरा सब कुछ छीन लिया था. यदि तुम फरिश्ता बन कर ना आए होते तो मेरा क्या होता. ऊपरवाला तुम्हें सुखी रखे."

{12}

अनपढ़

वंदना का आज का दिन भी अन्य दिनों की भांति आरंभ हुआ था किंतु खास था. आज उसकी तपस्या फलित होने वाली थी. उसके व्यक्तित्व को नई पहचान मिलने वाली थी.

आज रह रह कर उसे पिछले दिन याद आ रहे थे.

प्राण पण से वह पति की सेवा करती थी. सास की एक आवाज़ पर दौड़ जाती थी. परंतु तिरस्कार और अपमान के अतिरिक्त कुछ नही मिलता था. अपने बेटे के लिए वह इतना कष्ट सहती थी. ताकि बड़े अंग्रेज़ी स्कूल की पढ़ाई में कोई अड़चन ना आए. लेकिन अपने मित्रों के बीच वह उससे अधिक अपनी फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलने वाली चाची को महत्व देता था.

उसके सारे गुणों पर उसकी एक कमी काली स्याही पोत देती थी. उसका अनपढ़ होना. इन सब से बहुत टूट जाती थी वंदना. एक ख़्वाहिश दबी छुपी सी उसके मन में उपजने लगी थी. वह पढ़ना चाहती थी. किंतु कौन था जो उसकी इच्छा को समझता.

ऐसे में उसकी नई पड़ोसन दीपा किसी देवदूत की भांति उसके जीवन में आई. तलाकशुदा दीपा स्वावलंबी थी. उसने भी जीवन में बहुत सहा था. अतः वंदना की पीड़ा समझती थी. दीपा अपने खाली समय में उसे पढ़ाने लगी. कुछ समय तक सब सही चला किंतु जब वंदना की सास को पता चला तो उन्होंने क्लेश किया "पति की छोड़ी औरत से वास्ता रखने की कोई जरूरत नहीं." पति ने व्यंगबाण चलाए "तो बूढ़ा तोता राम राम करना सीखेगा". किंतु इस बार जो दिया वंदना के मन में जला था उसने भी तूफानों से लड़ने की ठानी थी.

काम करते हुए उसने घडी पर नज़र डाली. अभी समय था. वह फिर सोंचने लगी.

उसने किसी भी ताने या विरोध की परवाह किये बिना अपने लक्ष्य की ओर सफर ज़ारी रखा. दीपा ना सिर्फ उसे आगे की पढ़ाई के लिए प्रेरित करती थी बल्कि इस योग्य बनने में भी मदद कर रही थी कि वह समय के साथ कदम मिला कर चल सके. समय बीतने लगा. दीपा का दूसरे शहर में स्थानांतरण हो गया. लेकिन वंदना की तपस्या जारी रही.

अब भी वह पहले की तरह ही सारे काम करती थी. परंतु अब अपने लिए भी समय निकालती थी. इस समय की सबसे अच्छी मित्र थीं उसकी पुस्तकें. इनके संग बिताया हर पल बहुमूल्य था. अब वह अपने व्यक्तित्व को नित नए आयाम दे रही थी. उसने ओपन स्कूल से दसवीं का फॉर्म भरा था.

आज परीक्षाफल आने वाला था. समय पर उसने अपने बेटे का लैपटॉप मांगा. उसकी उंगलियां तेजीं से कीबोर्ड पर चलने लगीं. प्रिंटर से एक कागज़ निकला. उसका बेटा मॉनिटर को बड़े गौर से देख रहा था. उसकी आँखों में गर्व था. पति ने प्रिंटआउट को आश्चर्य से देखा और अपनी माँ को दे दिया. तिरस्कार और अपमान का भाव प्रसंशा में बदल गया था. सब की आंखों में आज वह अपना वजूद देख रही थी.

{13}

खुशी का कारण

विमला के मन में कौतुहल था. आज उसकी देवरानी सीमा सुबह से ही बहुत प्रफुल्लित थी. उसके गुनगुनाने की आवाज़ आ रही थी. विमला जानना चाहती थी कि इस प्रसन्नता का कारण क्या है.

वैसे तो दोनों की रसोई अलग थी किंतु आपस में मेल मिलाप था. पर कल दोपहर ही दोनों में किसी बात को लेकर झड़प हो गई थी. अतः चाह कर भी विमला कुछ पूँछ नही पा रही थी. वह बस मन ही मन कयास लगा रही थी और खुद ही उन्हें खंडित कर रही थी. बहुत देर तक यूं ही उलझे रहने के बाद थक कर उसने दूसरी ओर ध्यान लगाने के लिए टीवी खोल लिया. लेकिन मन की जिज्ञासा कम नही हुई.

सीमा की रसोई से मीठी खुशबू आ रही थी. विमला सोचने लगी जरूर कुछ खास है. पर मन ने प्रतिरोध किया 'होगा कुछ तुम्हें क्या. रिश्ते में छोटी है पर इतना गुरूर है कि बताया भी नही.' वह फिर टीवी देखने लगी.

लंच का समय हो रहा था तभी सीमा उसके कमरे में आई.

"दीदी आज आप मेरे साथ लंच कीजिए."

विमला ने कुछ अकड़ से कहा "मैने खाना बना लिया है."

"पता है. उसे हम लोग शाम को खा लेंगे." सीमा ने अधिकार से हाथ पकड़ा और अपने कमरे में ले गई.

मेज़ पर खाना लगा था. विमला की मनपसंद मखाने की खीर भी थी. विमला ने प्रश्न भरी दृष्टि से सीमा की ओर देखा. सीमा ने उसे गले लगा लिया "जन्मदिन की बधाई हो दीदी."

"अरे हाँ! आज तो....." विमला ने खुशी से गदगद होकर कहा. फिर स्नेह से सीमा के सर पर हाथ फेर कर बोली "सदा खुश रहो."