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मन के मोती 4

मन के मोती 4

{लघु कथा संग्रह}

लेखक :- आशीष कुमार त्रिवेदी

{1}

खोया पाया

सरिता स्टोर रूम की सफाई करवा रही थी. जो सामान काम का नहीं था उसे अलग रखवा रही थी. बहुत सा बेकार सामान बाहर निकाला जा चुका था. तभी मेड ने एक गत्ते का बक्सा निकालते हुए पूंछा "इसका क्या करना है."

सरिता ने बक्से नें हाथ डाला तो घुंघरू का एक जोड़ा उसके हाथ आया. उन्हें देखते ही यादों का एक झोंका उसके दिल को सहला गया.

बीस साल हो गए एक बहू एक पत्नी और एक माँ की भूमिका निभाते हुए वह स्वयं को भूल गई थी. आज फिर वह क्लासिकल डांसर उन यादों में जीवित हो गई थी.

{2}

मार्गदर्शन

राहुल बहुत परेशान था. यहाँ भी कोई बात नही बन पाई. कितने सपने लेकर यहाँ आया था. सोंचा था इस इंडस्ट्री में अपना नाम बनाएगा. उसमें प्रतिभा की कोई कमी नहीं थी. बस एक रोल मिल जाए तो वह स्वयं को साबित कर देगा.

साल भर पहले जो जमा पूँजी लेकर आया था वह खत्म हो गई. एक रेस्त्रां में वेटर का काम कर जैसे तैसे गुजर कर रहा था. हाथ हमेशा तंग ही रहते थे.

दूर से उसे बस दिखाई दी वह तेजी से भागा. किंतु उसके पहुँचने से पहले ही वह आगे बढ़ गई. हताश वह अगली बस का इंतज़ार करने लगा. तभी उसकी निगाह नीचे गिरे एक वॉलेट पर पड़ी. उसने इधर उधर देखा फिर उसे उठा लिया. वॉलेट में पैसे थे. कुछ दिन आराम से कट सकते थे. उसके मन में लालच आ गया. वह उसे जेब में रखने ही वाला था कि तभी उसे लगा जैसे उसकी स्वर्गीय माँ उसके सामने खड़ी हों.

'जो मुश्किल में पथभ्रष्ट हो जाए वह कभी मंज़िल नहीं पाता.'

माँ की दी हुई सीख उसके कानों में गूंजने लगी.

वह संभल गया. वॉलेट में एक पहचान पत्र था. उसने तय कर लिया कि वह यह वॉलेट उसके मालिक को लौटा देगा.

{3}

छत

आज ही निखिल अपने पिता के अंतिम संस्कार निपटा कर लौटा था. बिस्तर पर लेटे हुए दिमाग में न जाने कितना कुछ चल रहा था. बहुत जल्दी ही वह अपने पैरों पर खड़ा हो गया था और घर से दूर एक स्वतंत्र जीवन जी रहा था. व्यस्तता के कारण घर कम ही जा पाता था. जाता भी था तो बहुत कम समय के लिए. उसमें भी बहुत सा समय पुराने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने में बीत जाता था. कुछ ही समय वह अपने पिता के साथ बैठ पाता था.जिसमें वह उससे उसकी कुशल पूँछते और कुछ नसीहतें देते थे.आज अचानक उसे बहुत खालीपन महसूस हो रहा था. अचानक उसे लगा जैसे कमरे की छत गायब हो गई है और वह खुले आसमान के नीचे असुरक्षित बैठा है.

{4}

प्रगति

मिस्टर शर्मा के ड्राइंगरूम में मेहफिल जमा थी. चाय की चुस्कियों के बीच भारत के एक विश्व शक्ति के रूप में उभरने की चर्चा चल रही थी. दुबे जी ने एक बिस्किट चाय में डुबाते हुए कहा " अजी अब हम किसी चीज़ में पीछे नहीं रहे. बात चाहें अंतरिक्ष विज्ञान की हो या फिर व्यापार की किसी भी बात में हम अब टक्कर ले सकते हैं. वो दिन दूर नहीं जब हम विश्व की महान शक्तियों में गिने जायेंगे. "

इस परिचर्चा के बीच में अचानक ही घंटी बजी और एक स्वर सुनाई दिया " आंटी जी कूड़ा "

मिसेज शर्मा को बीच में यूँ उठना पसंद नहीं आया. झुंझलाकर बोलीं " इस कूड़ा लेने वाले का भी कोई वक़्त नहीं. असमय चला आता है. " बाहर आकर उन्होंने गेट खोला. दस साल का एक लड़का भीतर आया और कूड़े की बाल्टी से कूड़ा निकाल कर एक प्लास्टिक के थैले में भरने लगा.

" आस पास जो बिखरा है वह भी बटोर लो. " मिसेज शर्मा ने कहा. फिर एक प्लास्टिक का थैला ज़मीन पर रख कर बोलीं " इसमें कुछ कपड़े हैं ले लो. " बच्चे ने थैला ऐसे उठाया मानो कोई खज़ाना हो.

बाहर चिलचिलाती धुप में देश का बचपन फटे पुराने में ख़ुशी तलाश रहा था. भीतर एयरकंडीशन रूम में बैठे लोग भारत के विश्व शक्ति बनने के सुखद स्वप्न देख रहे थे.

{5}

ऐ मोहब्बत

आशिका बालकनी में खड़़ी थी. उसने एक निगाह पौधों पर डाली. कई पौधे सूख गए थे. आजकल पौधों पर भी ध्यान नही दे पा रही थी. वह कुर्सी पर बैठ गई. मन बहुत उद्विग्न था.

उसके और अमन के बीच झगड़े बढ़ते जा रहे हैं. पहले भी झगड़े होते थे किंतु कभी कभार वह भी किसी बड़े मसले पर. जल्द ही दोनों सुलह भी कर लेते थे. अब तो बेवजह झगड़े होने लगे हैं. मनमुटाव बढ़ता ही जा रहा है.

तीन साल पहले दोनों की मुलाकात एक दोस्त की पार्टी में हुई थी. कुछ औपचारिक बाते हुईं. अमन एक ट्रैवेल एजेंसी चलाता था और आशिका एक विज्ञापन एजेंसी में क्रिएटिव हेड थी.

अमन को अपनी ट्रैवेल एजेंसी का विज्ञापन बनवाना था. अगले दिन वह उसके दफ्तर पहुँच गया. उनके बीच की मुलाकातें बढ़ने लगीं. औपचारिक मुलाकातें डेट में बदल गईं. एक वर्ष तक डेट करने के बाद दोनों ने साथ होने का फैसला कर लिया.

प्रारंभ में सब कुछ बहुत सुखद था. दोनों को एक दुसरे का साथ बहुत पसंद था. घर की ज़िम्मेदारियां दोनों ने आपस में बांट रखी थीं. एक की ज़रूरत का खयाल दूसरा रखता था.

फिर अचानक जाने क्या हुआ दोनों के बीच की दूरियां बढ़ने लगीं. दोनों एक दूसरे की कमियां देखने लगे. बात बात पर एक दूसरे पर तोहमतें लगाने लगे. एक छत के नीचे रहते हुए भी दोनों एक दूसरे के लिए अजनबी बन गए थे. अब तो संदेह होने लगा था कि कभी एक दूसरे को जाना भी था या नही.

आज भी छोटी सी बात पर दोनों में कहासुनी हो गई. आशिका जब घर लौटी तो देखा कि अमन की जींस सोफे पर पड़ी थी. बेडरुम में बैठा वह अपने सोशल एकांउट पर किसी से चैट कर रहा था. आशिका ने उससे पूंछा तो उसने बड़ी लापरवाही से जवाब दिया " कौन सी बहुत बड़ी बात हो गई. जब उठूंगा तो रख दूंगा. " उसके इस तरह बोलने से आशिका को भी गुस्सा आ गया " बात यह नही है कि तुम रख दोगे. बात यह है कि कब तुम ज़िम्मेदारी से काम करना सीखोगे. " उसकी इस बात ने जैसे आग में घी डाल दिया " ये बात बात पर तुम मुझे ज़िम्मेदारी का लेक्चर मत दिया करो. मैं अपनी ज़िम्मेदारियां पहचानता हूँ. "

अमन ने गुस्से में कहा.

" घर को व्यवस्थित रखना भी ज़िम्मेदारी का हिस्सा है. " आशिका ने नहले पर दहला मारा. कुछ क्षणों तक उसे घूरने के बाद अमन बोला " यह घर है जेल नही. जेलर की तरह मुझ पर हुक्म ना चलाया करो. मुझे भी मेरा स्पेस चाहिए. " अपनी बात कह कर वह पैर पटकता हुआ घर से चला गया.

सामने रखी कॉफी ठंडी हो रही थी. उसने एक घूंट भरा और मन ही मन बुदबुदाई 'मेरा स्पेस'. अब दोनों के बीच एक लंबेचौड़े खालीपन के अतरिक्त बचा ही क्या है. दोनों इसके एक एक छोर पर खड़े हैं. एक दूसरे की तरफ उंगली उठाए.

दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आई. आशिका भीतर आ गई. बिना कुछ बोले अमन बेडरूम में चला गया. आशिका हॉल में ही खड़ी रही. अमन जब बाहर आया तो उसके हाथ में डफल बैग था. बाहर निकलने से पहले आशिका से बोला " कुछ दिनों के लिए मैं अपने दोस्त के घर रहने जा रहा हूँ. शायद हमारे रिश्ते के लिए यही सही है. "

आशिका स्तब्ध रह गई. क्या यही उनके रिश्ते का अंजाम है. लाख कोशिश के बाद भी आंसू रुके नही.

{6}

रौशनी

अपनी बालकनी से मिसेज मेहता ने देखा आसपास की सभी इमारतें रंगबिरंगी रौशनी से जगमगा रही थीं. कुछ देर उन्हें देखनेे के बाद वह भीतर आ गईं. सोफे पर वह आंख मूंद कर बैठ गईं. बगल वाले फ्लैट में आज कुछ अधिक ही हलचल थी. पहले इस फ्लैट में बूढ़े दंपति रहते थे. तब कहीं कोई आहट नही सुनाई पड़ती थी. लेकिन इस नए परिवार में बच्चे हैं. इसलिए अक्सर धमाचौकड़ी का शोर सुनाई पड़ता रहता है.

पहले त्यौहारों के समय उनका घर भी भरा रहता था. उन्हें क्षण भर की भी फ़ुर्सत नही रहती थी. लेकिन जब से उनका इकलौता बेटा विदेश में बस गया वह और उनके पति ही अकेले रह गए. त्यौहारों की व्यस्तता कम हो गई. फिर वह दोनों मिलकर ही त्यौहार मनाते थे. आपस में एक दूसरे का सुख दुख बांट लेते थे.

पांच वर्ष पूर्व जब उनके पति की मृत्यु हो गई तब वह बिल्कुल अकेली रह गईं. तब से सारे तीज त्यौहार भी छूट गए. अब जब वह आसपास लोगों को त्यौहारों की खुशियां मनाते देखती हैं तो अपना अकेलापन उन्हें और सताने लगता है. अतः अधिकतर वह अपने घर पर ही रहती हैं.

ऐसा लगा जैसे बगल वाले फ्लैट के बाहर गतिविधियां कुछ बढ़ गई हैं. वह उठीं और उन्होंने फ्लैट का दरवाज़ा थोड़ा सा खोल कर बाहर झांका. सात आठ साल की एक लड़की रंगोली पर दिए सजा रही थी. उसके साथ आठ नौ साल का एक लड़का उसकी मदद कर रहा था. तभी लड़की की निगाह मिसेज मेहता पर पड़ी. उन्हें देख कर वह हल्के से मुस्कुराई और बोली 'हैप्पी दीवाली'. मिसेज मेहता ने दरवाज़ा बंद कर दिया.

वापस जाकर वह सोफे पर बैठ गईं. इतने वर्षों के बाद किसी की आत्मीयता ने उनके भीतर जमा कुछ पिघला दिया. वह उठीं और कुछ सोंचते हुए रसोई की तरफ बढ़ीं. ऊपर का कबर्ड खोला. उसमें दफ्ती का एक डब्बा था. उसे उतार कर खोला. उसमें मिट्टी के कुछ दिए रखे थे. यह उस आखिरी दीवाली के दिए थे जो उन्होंने अपने पति के साथ मनाई थी. दिओं को निकाल कर उन्होंने धोया. फिर उनमें तेल डाल कर जलाया और कमरे में चारों तरफ सजा दिया. एक निगाह उन्होंने पूरे कमरे पर डाली. कमरे में एक अलग ही रौनक थी. फ्रिज खोल कर उसमें से चॉकलेट का एक टुकड़ा निकाल कर खाया. उनके चेहरे पर मुस्कान आ गई. वह स्वयं से बोलीं 'हैप्पा दीवाली'.

{7}

राह

सौम्य के मित्रों रिश्तेदारों और बड़े से सर्किल में जिसने भी सुना वह चौंक गया. सभी केवल एक ही बात कह रहे थे 'भला यह भी कोई निर्णय हैं.'

सबसे अधिक दुखी और नाराज़ उसकी माँ थीं. होतीं भी क्यों नही. पति की मृत्यु के बाद कितनी तकलीफें सह कर उसे बड़ा किया था.

"इसे निरा पागलपन नही तो और क्या कहेंगे. इस उम्र में इतनी सफलता यह ऊपर वाले की कृपा ही तो है. तुम्हारे लिए इन सबका कोई मूल्य नही है." माँ ने बड़े निराश भाव से कहा.

"क्यों नही है माँ. मैं ईश्वर का शुक्रगुज़ार हूँ. तभी तो उसकी संतानों की सेवा कर उसका शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ." सौम्य ने अपना पक्ष रखा.

"सारी दुनिया के गरीब बेसहारा लोगों के लिए एक तुम ही तो बचे हो." माँ ने ताना मारा.

सौम्य नही जानता था कि वह अकेला है या इस राह के और भी राही हैं. परंतु उसके भीतर एक कीड़ा था जो उसे पिछले कई दिनों से कुछ करने को उकसा रहा था.

ऐसा नही था कि यह निर्णय उसने भावावेश में बिना कुछ सोंचे समझे ले लिया था. दरअसल विद्यार्थी जीवन से ही उसकी सोंच औरों से अलग थी. सदा से ही वह देश और समाज के लिए कुछ करना चाहता था.

ऐसा भी नही था कि वह स्वयं को बर्बाद कर दूसरों के लिए कुछ करने वाला था. फर्क इतना था कि उसकी सोंच अपने तक ही सीमित नही थी. अब तक उसने जितना अर्जित किया था उससे उसकी माँ का जीवन आराम से कट सकता था. जहाँ तक उसका प्रश्न था. उसने अपनी आवश्यक्ताओं को बहुत सीमित कर लिया था.

अब पीछे हटना अपने आप को धोखा देना था. अतः कुछ भी उसे विचलित नही करता था. सारे तानों उपहासों को अनसुना कर वह अपने पागलपन में मस्त जो ठाना था उसे पूरा करने के लिए आगे बढ़ रहा था.

{8}

स्वयंसिद्धा

एक ही शहर में उमादेवी का अपने बेटे के साथ ना रह कर अकेले रहना लोगों के गले नही उतर रहा था. लेकिन अपने निर्णय से वह पूरी तरह संतुष्ट थीं. इसे नियति का चक्र कह सकते हैं किंतु उन्होंने अपने जीवन में कई संघर्षों का सामना अकेले ही किया था.

जब पिता की सबसे अधिक आवश्यक्ता थी वह संसार से कूच कर गए. घर का भार उनके अनुभवहीन कंधों पर आ गया. उस संघर्ष ने जीवन को कई उपयोगी अनुभव दिए. मेहनत कर स्वयं को स्थापित किया तथा यथोचित भाई बहनों की भी सहायता की.

जब सब स्थितियां कुछ सम्हलीं तो उन्होंने माँ के सुझाए रिश्ते के लिए हामी भर दी. पति को समझने का प्रयास जारी ही था कि एक नन्हे से जीव ने कोख में आकार लेना शुरू कर दिया. वह बहुत प्रसन्न थीं. सोंचती थीं कि सदैव अपने में खोए रहने वाले पति को यह कड़ी उनसे बांध कर रखेगी. किंतु अभी संतान के जन्म में कुछ समय शेष था तभी पति सारी ज़िम्मेदारियां उन पर छोड़ किसी अनजान सत्य के अन्वेषण में निकल गए. एक बार फिर जीवन के झंझावातों का सामना करने के लिए वह अकेली रह गईं.

हाँ अब संघर्ष कम है. बेटे के फलते फूलते जीवन को देख गर्व होता है. उन्हें सबसे प्रेम भी है. लेकिन जीवन के ऊंचे नीचे रास्तों पर सदैव आत्मनिर्भरता ही उनका संबल रही. अपनी आत्मनिर्भरता को इस पड़ाव में आकर वह नही त्याग सकती हैं.

{9}

पगफेरा

नलिनी बहुत उत्साहित थी. आज बेटी रोली पगफेरे के लिए आने वाली थी. ससुराल में बहुत व्यस्त कार्यक्रम था उसका. कल विवाह के उपलक्ष्य में उसकी ससुराल में प्रीतिभोज था. परसों वह और संजय अपने हनीमून पर जाने वाले थे. उसकी तैयारी भी करनी थी अतः शाम तक संजय उसे विदा करा कर ले जाने वाले थे.

उसने घड़ी देखी. नौ बज गए थे. दस बजे तक रोली और संजय आ जाएंगे. बहुत कम समय था. वह काम में जुट गई.

बहुत तकलीफें सह कर नलिनी ने बेटी को पाला था. पति सरकारी नौकरी में थे अतः उनकी मृत्यु के बाद उसे नौकरी मिल गई किंतु अधिक शिक्षित ना होने के कारण तृतीय श्रेणि का पद मिला. तनख्वाह कम थी फिर भी उसने सब संभाल लिया. शिक्षा का महत्व समझ में आ गया था. अतः बेटी को पढ़ाने में कोई कसर नही छोड़ी. तकलीफें सह कर भी उसे उच्च शिक्षा दिलाई.

रोली को एक प्रतिष्ठित कंपनी में जॉब मिल गई. वहीं उसकी मुलाकात संजय से हुई. दोनों में प्रेम हो गया. उसने सदा ही बेटी की खुशी में ही अपनी खुशी देखी थी. वह दोनों के विवाह के लिए तैयार हो गई. संजय के घर वाले भी राज़ी थे. धूमधाम से उसने बेटी की शादी कर दी.

नलिनी जानती थी कि संजय के घर वालों की हैसियत उससे बहुत अधिक है. इसलिए उसने अपनी सामर्थ्य से बढ़ कर खर्च किया. अपनी तरफ से तो उसने कोई कसर नही छोड़ी थी. फिर भी बेटी की ससुराल का मामला था. वह चाह रही थी कुछ पल बेटी के साथ बिता कर पूंछे कि सब ठीक तो है. जिससे उसका मन हल्का हो जाए.

सवा दस बजे के करीब बेटी और दामाद आ गए. कुछ समय चाय नाश्ते में निकल गया. फिर वह लंच की तैयारी में जुट गई. बीच बीच में उन दोनों से बात भी कर रही थी. लेकिन वह कुछ समय सिर्फ रोली के साथ बिताना चाहती थी.

लंच के बाद संजय किसी ज़रूरी काम से बाहर चला गया. वह बेटी को ले कर अपने कमरे में आ गई. दोनों माँ बेटी पलंग पर लेट गईं. प्यार से बेटी के सिर को सहलाते हुए नलिनी ने पूंछा "ससुराल में सब ठीक है ना बिटिया. तुम खुश तो हो ना."

"क्या ठीक है मम्मी." रोली रुखाई से बोली "तुम्हें पैसों की मदद चाहिए थी तो मुझसे मांग लेतीं. मेरी सेविंग्स थीं. पर तोहफे तो ढंग के खरीदने चाहिए थे. कोई भी तोहफा किसी को पसंद नही आया." वह उठ कर बैठ गई "इतना तो सोंचती अब मुझे वहीं रहना है. कोई कुछ बोला नही पर सबके मुंह बन गए. मेरी कितनी बेइज़्ज़ती हुई."

नलिनी सन्न रह गई. उसका सारा उत्साह चला गया. उसने तो अपनी जान निकाल दी किंतु बेटी फिर भी नाराज़ थी. रिश्तों का ब्याज चुकाने में वह तो पहले कदम पर ही नाकाम हो गई थी.

{10}

रिटायर्ड

भवानी बाबू अवकाशग्रहण के करीब तीन माह बाद अपने पुराने दफ्तर आए थे. सोंचा चलो उन लोगों से मिल लें जिनके साथ पहले काम किया था. कितनी धाक थी उनकी यहाँ. सब उन्हें देख कर खड़े हो जाते थे. किंतु आज सभी अपने काम में लगे रहे. कुछ एक लोगों ने बैठे बैठे ही मुस्कुराहट उछाल दी.

चपरासी जो उन्हें देखते ही दौड़ता था आज नजरें चुरा रहा था. उन्होंने ही आगे बढ़ कर उसका हाल पूंछा तो उसने भी नमस्ते कर दी.

भवानी बाबू ने कहा "मकरंद साहब भीतर हैं क्या."

"हाँ भीतर हैं." चपरासी ने उत्तर दिया.

मकरंद भवानी बाबू का जूनियर था. उनके अवकाशग्हण के बाद आज उनके रिक्त किए गए पद पर था. मकरंद अक्सर कहा करता था कि भवानी बाबू को वह अपना आदर्श मानता है.

दस्तक देकर वह भीतर चले गए. उन्हें देख कर वह अपनी जगह पर बैठे हुए ही बोला "आइए भवानी बाबू. कोई काम था क्या."

"नहीं बस यूं ही मिलने आ गया."

"क्या करें आजकल तो ज़रा भी फुर्सत नहीं मिलती. बहुत काम है. आप कुछ लेंगे" मकरंद ने काम करते हुए कहा.

"नहीं, चलता हूँ." कहते हुए भवानी बाबू कमरे के बाहर आ गए.

{11}

सर्वर डाउन

आज दो दिन के बाद राशन बटना शुरू हुआ था. रामरती बहुत उम्मीद लगाए कतार में खड़ी थी. सिर्फ तीन लोग और फिर उसकी बारी थी.

घर में खाने को कुछ नही था. राशन मिल जाए तो बच्चों के मुह में कुछ जाए. एक एक पल भारी पड़ रहा था. तभी हल्ला मचा कि सर्वर डाउन है. राशन नही बटेगा.

रामरती भारी कदमों से खाली थैला लिए घर लौट गई.

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