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मन के मोती

मन के मोती

{लघु कथा संग्रह}

आशीष कुमार त्रिवेदी

होली आई रे

होली का दिन था. दिवाकर कुर्सी पर बैठे पुराने दिनों को याद कर रहा था. बचपन से ही होली उसका पसंदीदा त्यौहार रहा है. यह कहना भी गलत नही होगा कि वह होली का दीवाना है. बचपन में होली के त्यौहार के दो दिन पहले से ही वह अपनी पिचकारी में पानी भर कर लोगों को भिंगोने लगता था. इस बात के लिए माँ से उसे बहुत डांट पड़ती थी लेकिन वह बाज नहीं आता था. होली के दिन तो सुबह से ही वह रंग खेलने लगता था और तब तक खेलता रहता था जब तक माँ उसे जबरदस्ती पकड़ कर घर नही ले जाती थीं.

जब वह दसवीं में था तो होली के समय बोर्ड परीक्षा चल रही थी. माँ ने सख्त हिदायत दी थी कि इस बार बोर्ड परीक्षा है अतः होली नही खेलनी है. लेकिन वह सुबह सुबह ही निकल गया. जब दोपहर में वह घर लौटा तो माँ बहुत नाराज़ हुईं. उनका गुस्सा तब तक शांत नही हुआ जब तक परीक्षा में उसके अच्छे अंक नही आ गए.

कॉलेज के दिनों में भी होली का ख़ुमार उसके सर चढ़ कर बोलता रहा. वह और उसके दोस्तों की मंडली मोटरसइकिलों पर काफिला बना कर निकलते थे. देर शाम तक खूब मस्ती करते थे. शादी के बाद परिवार की जिम्मेदारियों के बावजूद भी उसका होली पर हुड़दंग बदस्तूर जारी रहा. होली के कई गीत उसे याद थे. किंतु उसका मन पसंद गीत रंग बरसे था. वह वही गुनगुनाने लगा.

ढोल नगाड़ों की आवाज तेज हो गई थी. सोसाइटी में होली का कार्यक्रम शुरू हो गया था. तभी कदमों की आहट सुनाई पड़ी. दिवाकर पहचान गया कि वह शैलजा है. शैलजा ने उसके गाल पर गुलाल लगाते हुए कहा "हैप्पी होली". हवा में टटोलते हुए उसने भी गुलाल की थाली से थोड़ा सा गुलाल लिया और शैलजा के गाल पर लगाते हुए कहा "हैप्पी होली". अपनी छड़ी लेते हुए बोला "चलो हम भी चलकर होली मनाते हैं".

छह साल पूर्व हुए हादसे में सारे रंग अंधेरे में समा गए थे. किंतु आज भी जब फाग दस्तक देता है उसका मन खिल उठता है.

ढाई फुटिया

बस्ती में उसकी दुकान थी. यहाँ रोजमर्रा का सामान मिलता था. उसके छोटे कद के कारण सभी उसे ढाई फुटिया कहते थे. यह बात उसे बुरी लगती थी फिर भी खुद को दुख में डुबो लेने की बजाय वह सदा प्रसन्न रहता था. उसके मन में जो भी भाव उत्पन्न होते उन्हें शब्दों में पिरोकर छोटी छोटी कविताओं की शक्ल में अपनी डायरी में लिख लेता था. कोई भी उसके इस हुनर के बारे में नहीं जानता था सिवाय मेनका के.

मेनका एक म्यूज़िकल ग्रुप की सदस्य थी. यह ग्रुप छोटे शहरों कस्बों तथा गांव में अपना कार्यक्रम करने जाता था. मेनका का गला तो अच्छा था ही किंतु अपने नृत्य के कारण वह अधिक प्रसिद्ध थी. पुराने और नए फिल्मी गानों पर जब वह नाचती थी तो लोग आहें भरने लगते थे. अपने क्षेत्र में उसकी किसी फिल्मी हिरोइन से कम शोहरत नहीं थी.

एक मेनका ही थी जो उसकी लिखी कविताओं को ध्यान से सुनती और तारीफ भी करती थी. मेनका सदैव उसे पवन कह कर ही बुलाती थी. पवन को उसकी यह बात बहुत अच्छी लगती थी. वह मेनका में एक सच्चा हमदर्द और दोस्त देखता था. मेनका के प्रोत्साहन से वह अपने लेखन पर और अधिक ध्यान देने लगा था.

स्थानीय समाचार पत्र के साहित्य स्तंभ में उसने एक कविता लेखन प्रतियोगिता के बारे में पढ़ा. उसने दिए गए विषय पर एक कविता लिख कर भेज दी. जब परिणाम आया तो उसकी कविता उसके चित्र और नाम के साथ छपी थी.

यह खुशखबरी सुनाने के लिए वह मेनका के पास दौड़ा गया. वह दरवाज़ा खटखटाने ही वाला था कि उसे मेनका की हंसी सुनाई पड़ी. वह किसी से कह रही थी "देखो तो उस ढाई फुटिया की फोटो अखबार में छपी है. कैसा लग रहा है." एक और ठहाका गूंज उठा.

"पर तुम तो उसे बहुत भाव देती हो." किसी पुरुष ने प्रश्न किया.

"वो तो इस लिए कि इसी बहाने उसकी दुकान से कितना सामान मुफ्त मिल जाता है. वरना बहुत बोर करता है."

पवन के हाथ से अखबार छूट कर गिर गया. जिसे वह अपना दोस्त समझता था वह उसका फायदा उठा रही थी. कुछ पलों तक उसे अपना अस्तित्व हीन लगने लगा. तभी उसकी नज़र अखबार में छपे अपने नाम व चित्र पर पड़ा. उसने उसे उठाया और मुस्कुरा उठा. उसने अपना वजूद साबित कर दिया था.

इनबॉक्स

उसने मैसेज बॉक्स में अपना संदेश टाइप किया. दो बार उसे ध्यान से पढ़ा. सब सही था. वही लिखा था जो वह कहना चाहता था. किंतु 'सेंड' का बटन दबाना उसके लिए कठिन हो रहा था. पता नही संदेश पढ़ कर उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी. यदि वह नाराज़ हो गई तो. उसके साथ दोस्ती तोड़ दी तो. उसके एकाकी जीवन में उसकी दोस्ती ही है जो कुछ सुकून देती है. ये उसकी बातें ही तो हैं जो उसके बेरंग जीवन में खुशियों के रंग भरती हैं. यदि सब समाप्त हो गया तो. यही डर उसे संदेश भेजने से रोक रहा था.

उसके आस पास के सभी लोग अपने जीवम में व्यस्त थे. उसके सभी दोस्तों व भाई बहनों की शादियां हो गई थीं सब अपने परिवार के साथ खुश थे. ऐसा नही था कि उसके पास कोई काम नही था. ऑनलाइन वित्तीय सलाहकार होने के साथ वह एक फ्रीलांस लेखक था. लेकिन काम से फुर्सत मिलने के बाद ऐसा कोई नही था जिसके साथ वह अपने दिल की बात कह सके. इसने उसके जीवन के खालीपन को और बढ़ा दिया था.

अपनी व्हीलचेयर पर बैठ कर ही वह अपने भाई बहनों के साथ बचपन का आनंद लेता था. स्कूल के मित्रों के साथ कुछ एक अवसरों को छोड़ दें तो उसे अपनी अक्षमता का एहसास कम ही होता था. लेकिन किशोरावस्था में कदम रखने पर स्थितियां बदलने लगीं. उसके मित्रों के जीवन में कई नए आयाम जुड़ने लगे. ऐसे में वह स्वयं को अलग थलग महसूस करने लगा. अब अक्सर ही उसे अपनी अक्षमता का एहसास होता था.

उसके सभी मित्रों की कोई ना कोई गर्लफ्रेंड थी. वह भी लड़कियों के साथ मित्रता करना चाहता था. किंतु स्वयं की शारीरिक स्थिति के कारण अपनी बात कहने में उसे संकोच होता था.

ग्यारहवीं में उसकी कक्षा में एक नई लड़की ने प्रवेश लिया. चश्मा लगाए सांवली सी ये दुबली पतली लड़की अपने आप में ही रहती थी. तीन महिनों में उसका कोई मित्र भी नही बना था. उसे लगता था कि वह भी उसकी तरह अकेली है. अतः उसने फैसला किया कि वह उसके साथ मित्रता करेगा. फ्रेंडशिपडे पर उसने एक अच्छा सा कार्ड बनाया और उस पर एक सुंदर सा संदेश लिखा. मौका देख कर उसने वह कार्ड उस लड़की को दे दिया. उसकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार करने लगा.

कार्ड देख कर उस लड़की के चेहरे पर कोई भी भाव नही आया. ना ही वह क्रोधित हुई ना ही कोई सहानुभूति दिखाई और ना ही उसका उपहास किया. उसने कार्ड को उलट पलट कर इस प्रकार देखा जैसे वह कोई बेकार काग़ज हो और फिर उसकी गोद में डाल कर आगे बढ़ गई. उसके इस व्यवहार ने उसे और भी आहत किया.

ग्यारहवीं का वह साल उसके लिए बहुत मुश्किल रहा. परीक्षा में उसके अंक भी बहुत कम आए.

लेकिन बारहवीं में उसने खुद को संभाल लिया और पूरी तरह से पढ़ाई में जुट गया. अपनी मेहनत व लगन से उसने स्वयं का एक स्थान बना लिया. किंतु उसकी दुनिया बहुत सीमित हो गई थी. कुछ एक करीबी लोगों को छोड़ कर वह किसी के साथ घुल मिल नही पाता था. स्त्रियों के साथ तो वह और भी अधिक असहज हो जाता था. अपनी इस तंग दुनिया में उसे घुटन सी महसूस होने लगी थी. वह इससे बाहर आना चाहता था. किसी के साथ अपना अकेलापन बांटना चाहता था.

एक दिन उसकी नज़र एक इंटरनेट साइट पर पड़ी. यहाँ पर अपने मित्र बना कर उनके साथ चैट कर सकते थे. उसने अपना एकाउंट खोल लिया. अपना प्रोफाइल बनाते हुए उसने अपनी शारीरिक स्थिति को छुपाने का प्रयास किया अतः अपनी ऐसी तस्वीर लगाई जिससे कुछ पता ना चले. धीरे धीरे उसके मित्र बनने लगे. किंतु उसे एक महिला मित्र की तलाश थी जिसके साथ वह खुल कर बात कर सके. उसकी तलाश एक चेहरे पर जाकर खत्म हुई. उसे लगा कि यही है वह जिसकी उसे प्रतीक्षा थी. उसकी उम्र छब्बीस साल थी. किसी पबलिशिंग हाउस में काम करती थी. उसने रिक्वेस्ट भेज दी. अगले ही दिन उस लड़की ने उसकी रिक्वेस्ट स्वीकार कर ली. दोनों में बातचीत का सिलसिला आरंभ हो गया. समय के साथ साथ उसका विश्वास पक्का हो गया कि उसने सही लड़की को चुना है.

लगभग रोज़ ही उनकी चैट होती थी. कई मुद्दों पर दोनों की सोंच एक थी और कई पर जुदा. कई बार उनमें बहस भी होती थी. लेकिन वह उस वक्त का इंतजार बेसब्री से करता था जब वह ऑनलाइन आती थी. अब वह अपने भीतर एक बदलाव महसूस करने लगा था. लोगों के साथ बिना संकोच सहजता से बात कर पाता था. उसका आत्मविश्वास बढ़ने लगा था.

इसके बावजूद एक बात उसके दिल में कचोटती थी. वह अपनी वास्तविक स्थिति छुपा रहा था. पता नही उस लड़की के मन में उसकी क्या छवि होगी. अपनी वास्तविक स्थिति ना बता कर वह झूठ बोल रहा है. झूठ पर टिका रिश्ता सही नही है. प्रारंभ में उसने इस आवाज़ को दबाने का प्रयास किया लेकिन वह दबने की बजाय और मुखर हो गई. अतः उसने अपने बारे में सब कुछ बताने का फैसला कर लिया.

सब कुछ उसने मैसेज बॉक्स में लिख दिया किंतु संदेश भेजने में वह डर रहा था. उसके मन में कश्मकश थी. वह किसी फैसले पर नही पहुँच पा रहा था. तभी उसके भीतर से एक आवाज़ आई 'किस बात का डर है तुम्हें. यही कि वह अस्वीकार कर देगी. पर सोंच कर देखो कि क्या आवरण के पीछे छुप कर तुम स्वयं को ही अस्वीकार नही कर रहे हो'.

सारा असमंजस समाप्त हो गया. उसने बिना किसी विलंब के 'सेंड' बटन दबा दिया. अब वह किसी भी परिस्थिति के लिए तैयार था.

दो दिन तक कोई जवाब नही आया. तीसरे दिन इनबॉक्स में उस लड़की का संदेश था.

डियर फ्रेंड

तुम्हारा संदेश मिला. तुमने जिस ईमानदारी से अपने बारे में बताया वह मुझे अच्छा लगा. हमारे बीच जो बातें हुईं उनके कारण मुझे सदैव ही तुममें एक अच्छा इंसान नज़र आया. यही हमारी दोस्ती का आधार रहा है. तुमने मुझे जो बताया उससे हमारी दोस्ती पर कोई प्रभाव नही पड़ेगा. बल्कि तुम्हारी ईमानदारी ने तुम पर मेरे विश्वास को और बढ़ा दिया है.

संदेश पढ़ कर उसे तसल्ली हुई. उसने तो स्वयं को स्वीकार कर लिया था किंतु उसकी दोस्त द्वारा स्वीकार किए जाने से उसे और बल मिला.

प्रेरणा

पोलियोग्रस्त अविनाश का चयन आई ए.एस के लिए हुआ था. एक प्रसिद्ध न्यूज़ चैनल का रिपोर्टर उसका इंटरव्यू लेने आया था. बातचीत करते हुए उसने अविनाश से पूँछा “अपनी शारीरिक चुनौती के बावजूद आपने यह सफलता अर्जित की. इसके पीछे आपकी प्रेरणा क्या रही.”

अविनाश उसे उस कक्ष में ले गया जहाँ वह पढ़ाई करता था. वहाँ उसकी स्टडी टेबल के पास स्टूल पर एक मूर्ति रखी थी. उसकी ओर इशारा कर बोला “यह मूर्ति मेरी प्रेरणा है.”

मूर्ति कुछ अजीब थी. उसके एक कान पर हाथ रख उसे बंद किया गया था और दूसरा कान खुला था. रिपोर्टर की उलझन को देख उसने समझाया “यह मूर्ति मेरे पापा लाए थे. उन्होंने मुझे समझाया कि कुछ लोग तुम्हारी शारीरिक कमी का मज़ाक उड़ाएंगे या कुछ ऐसा कहेंगे जो तुम्हें निरुत्साहित करेगा. उनके लिए तुम इस मूर्ति की तरह अपना कान बंद रखना. दूसरा कान उन बातों के लिए खुला रखना जो तुम्हें हिम्मत दें. जो जीवन में सकारात्मकता लाएं. मैंने ऐसा ही किया.” रिपोर्टर उसके जवाब से प्रभावित हुआ. उसे भविष्य की शुभ कामनाएं देकर चला गया.

उजाले की ओर

आज पूरे दो साल के बाद वह जीवन की नई शुरुआत के लिए बाहर निकलने की तैयारी कर रही थी. पिछले दो साल उसके लिए बहुत कठिन थे. वह अतीत के सागर में डूब गई.

वह बेहद खूबसूरत थी. अतः उसका नाम रूपा रखा गया था. लेकिन सुंदरता के साथ साथ प्रकृति ने उसे और भी खूबियां प्रदान की थीं. वह बहुत बुद्धिमान थी. साहस से लबरेज़ थी. अपने आस पास होने वाले अन्याय के विरुद्ध बेखौफ आवाज़ उठाती थी. माँ ने कई बार समझाया था कि इस प्रकार लोगों से विरोध लेना खतरनाक हो सकता है. किंतु वह चुप बैठने वालों में नहीं थी.

आई.पी.एस अधिकारी बनने की चाह लिए उसने कॉलेज में दाखिला लिया. कॉलेज में नए छात्रों के परिचय के नाम पर स्टूडेंट यूनियन का दबंग नेता और उसके चेले विद्यार्थियों को परेशान करते थे. छात्राओं के साथ अभद्र व्यवहार करते थे. रूपा ने इसका विरोध किया़. दबंगों को उसका विरोध रास नहीं आया. उन्होंने उसे धमकाया किंतु वह पीछे नहीं हटी. अपनी हार से तिलमिलाए दबंगों ने कॉलेज जाते समय उस पर तेजाब फेंक दिया.

तेजाब ने उसे बुरी तरह जला दिया. उसका चेहरा बिगड़ गया. एक आँख से दिखना बंद हो गया. लंबे समय तक इलाज चला. कई सर्जरी हुईं. इस बीच वह गहन अंधकार में डूब गई थी. भयंकर पीड़ा से जूझती रही. मन की वेदना उसे तोड़ने का प्रयास कर रही थी. लेकिन अन्याय के विरुद्ध लड़ने वाली रूपा हार मानने को तैयार नहीं थी. वह शरीर के कष्टों से लड़ती रही. मन को निराशा की गर्त में डूबने से रोकती रही.

अंत में वह जीत गई. काले अंधेरों से उम्मीद की किरण फूटने लगी. अब तक अपराधियों को सजा नहीं मिली थी. उसने गुनहगारों को सजा दिलाने के लिए कमर कस ली थी. वह फिर से अपनी पहचान बनाने को तैयार थी.

विचारों से बाहर निकल कर उसने एक बार अपना चेहरा आईने में देखा. अब पहले वाली बात नहीं थी. लेकिन तेजाब उसके हौंसले को नहीं जला पाया था. वह एक और जंग को तैयार थी.

‘सेल्फी’

कभी आबिदा सोशल मीडिया पर अपनी सेल्फी के लिए मशहूर थी. पार्टियों की जान समझी जाती थी. अपने ज़िदादिल तथा हंसमुख व्यक्तित्व से वह बड़ी आसानी से सब को अपनी तरफ आकर्षित कर लेती थी.

वह आत्मविश्वास से परिपूर्ण थी. एक सफल लेखिका के तौर पर वह समाज में अपना मुकाम बना चुकी थी. उसकी पिछली चार किताबों को पाठकों ने सर आंखों पर बिठाया था. जिसके कारण लेखन का सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार उसे प्राप्त हुआ था.

उसके लिए जीवन की सबसे बड़़ी उपलब्धि थी उसके जीवन में सच्चे प्रेम का प्रवेश. सिकंदर ने उसके ह्रदय के उस खाली हिस्से को भरा था जहाँ किसी के आगमन की उसे कई सालों से प्रतीक्षा थी. वह बहुत खुश थी. इतनी सारी खुशियों के बीच इस बीमारी ने ना जाने कब दबे पांव आकर उसे दबोच लिया.

कई दिनों से वह सर दर्द एवं कमज़ोरी महसूस कर रही थी. पर अपने उत्साह में वह इसे नज़रअंदाज़ कर रही थी. एक दिन उसने अपने वक्ष पर गिल्टी सी देखी. उसे कुछ सही नही लगा. उसने डॉक्टर को दिखाया. जाँच में पता चला कि उसे स्तन कैंसर है.

उसे लगा जैसे ज़िंदगी हाथों से फिसल रही है. वह टूट गई. लंबे इलाज ने उसके शरीर पर असर दिखाया. उसका आत्मविश्वास टूट गया. पहले जो पार्टियों की जान थी अब अपने कमरे से बाहर नही निकलती थी. आइने में स्वयं को देखने से डरती थी.

इस निराशा में यदि कोई आशा लेकर आता था तो वह था सिकंदर. वह जितनी भी देर उसके साथ रहता प्रसास करता कि माहौल को खुशनुमा बनाए रखे. यही कारण था कि वह हर बार फूलों का गुलदस्ता लेकर आता था. आबिदा ने कई बार उससे कहा कि वह उसके लिए अपना जीवन बर्बाद ना करे किंतु वह हंस कर टाल देता था.

आज भी वह फूलों का गुलदस्ता लेकर आया. साथ में एक केक भी था.

"केक क्यों, आज तो हम दोनों में से किसी का जन्मदिन नही है." आबिदा ने कौतुहल से पूंछा.

सिकंदर हौले से मुस्कुरा कर बोला "आज हमारे रिश्ते का जन्मदिन है."

आबिदा संजीदा हो गई. उसकी आंखें नम हो गईं.

"क्या हुआ तुम्हें." सिकंदर ने प्यार से पूंछा.

कुछ क्षणों तक उसको निहारने के बाद आबिदा बोली "क्यों तुम इस रिश्ते से बंधे हो. मेरे साथ कोई सुख नही मिलेगा तुम्हें. नुकसान में रहोगे."

उसके चेहरे को अपने दोनों हाथों में भर कर सिकंदर बोला "जानती हो प्यार को लोग अंधा क्यों कहते हैं. क्योंकि सच्चा प्यार नफा नुकसान नही देखता. मैने तुमसे प्रेम किया है. कोई बिज़नेस डील नही."

"पर मैं पहले जैसी नही रही सिकंदर. देखो क्या हाल हो गया है मेरा."

"एक बार मेरी आंखों में खुद को देखो. तुम पहले जैसी ही हो." सिकंदर ने अपना चेहरा उसकी तरफ कर दिया ताकि वह आंखों में झांक सके.

सिकंदर की आंखों में उसे अपने लिए प्रेम का सागर लहराता दिखाई दिया. वह उसके गले से लग कर रोने लगी. उसे सांत्वना देते हुए बोला "मैं नही जानता कि वक्त हमें कितने दिनों की मोहलत देगा. किंतु जब तक मैं ज़िंदा हूँ मेरे लिए तुम्हारा प्यार ही सब कुछ है."

उन दोनों ने मिल कर अपने रिश्ते की सालगिरह का केक काटा. आज आबिदा बहुत अर्से के बाद खुश थी. अपने भीतर एक नई ऊर्जा महसूस कर रही थी. सिकंदर जाने लगा तो बोली "मुझे मेरा फोन दे दोगे. बहुत दिन हो गए मैने उसका इस्तेमाल नही किया."

सिकंदर ने उसे उसका फोन दे दिया. उसने एक सेल्फी ली और अपने सोशल एकाउंट पर अपलोड कर दी.

प्रतीक्षा

"कौन है." उर्मिला देवी ने चौंक कर पूँछा.

"कोई नहीं है अम्मा तुम चुपचाप लेटी रहो." मंझली बहू ने झल्लाते हुए कहा.

थोड़ी थोड़ी देर में उर्मिला देवी चौंक कर यही सवाल करती थीं. शरीर जर्जर हो चुका था. आँखों से भी अधिक नहीं दिखता था. पर हर समय उनके कान दरवाज़े पर होने वाली आहट पर लगे रहते थे. उन्हें अपने छोटे बेटे का इंतज़ार था. यह इंतज़ार उन्हें अपने लिए नहीं था. उनका बेटा अपनी छह माह की गर्भवती पत्नी को छोड़ कर ना जाने कहाँ चला गया था. वह तो प्रतीक्षा में थीं कि वह लौट आए तो उसे डांट कर कहें कि क्यों अपनी पत्नी और बच्चे को छोड़ कर चले गए थे. बहू और पोती को उसके सुपुर्द कर वह चैन से मर सकें.

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