मन के मोती 6 Ashish Kumar Trivedi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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मन के मोती 6

मन के मोती 6

{लघु कथा संग्रह}

लेखक :- आशीष कुमार त्रिवेदी

{1}

हवेली

वृंदा जिस समय हवेली पहुँची वह दिन और रात के मिलन का काल था. उजाले और अंधेरे ने मिलकर हर एक वस्तु को धुंधलके की चादर से ढंक कर रहस्यमय बना दिया था. हवेली झीनी चुनर ओढ़े किसी रमणी सी लग रही थी. जिसका घूंघट उसके दर्शन की अभिलाषा को और बढ़ा देता है. वृंदा भी हवेली को देखने के लिए उतावली हो गई.

इस हवेली की एकमात्र वारिस थी वह. इस हवेली की मालकिन उसकी दादी वर्षों तक उसके पिता से नाराज़ रहीं. उन्होंने उनकी इच्छा के विरूद्ध एक विदेशी लड़की से ब्याह कर लिया था. लेकिन अपने जीवन के अंतिम दिनों में जब एकाकीपन भारी पड़ने लगा तो उसके पिता आकर उन्हें अपने साथ ले गए. वृंदा का कोई भाई बहन नही था. अपने में खोई सी रहने वाली उस लड़की के मित्र भी नही थे. दो एकाकी लोग एक दूजे के अच्छे मित्र बन गए. दादी और पोती में अच्छी बनती थी. दादी किस्से सुनाने में माहिर थीं. उनका खास अंदाज़ था. वह हर किस्से को बहुत रहस्यमय तरीके से सुनाती थीं. उनके अधिकांश किस्सों में इस हवेली का ज़िक्र अवश्य होता था. यही कारण था कि यह हवेली उसके लिए किसी तिलस्मी संदूक की तरह थी. जिसके भीतर क्या है जानने की उत्सुक्ता तीव्र होती है.

दादी की मृत्यु के बाद हवेली उसके पिता को मिल गई. उसने कई बार अपने पिता से इच्छा जताई थी कि वह इस हवेली को देखना चाहती है. किंतु पहले उनकी व्यस्तता और बाद में बीमारी के कारण ऐसा नही हो पाया. दो साल पहले उनकी मृत्यु के बाद वह इस हवेली की वारिस बन गई. उस समय उसका कैरियर एक लेखिका के तौर पर स्थापित हो रहा था. उसकी लिखी पुस्तक लोगों ने बहुत पसंद की थी. उसके लेखन का क्षेत्र रहस्य और रोमांच था. वह इस हवेली के बारे में लिखना चाहती थी. इसीलिए यहाँ आई थी.

अंधेरा गहरा हो गया था. हवेली और भी रहस्यमयी बन गई थी. उसका कौतुहल और बढ़ गया था. यहाँ एक अलग सी नीरवता थी. वैसे भी जिस परिवेश में वह पली थी उससे नितांत अलग था यह माहौल. आधुनिकता से दूर. जैसे वह किसी और काल में आ गई हो. वह जल्द से जल्द पूरी हवेली देखना चाहती थी. लेकिन हवेली बहुत बड़ी थी. लंबी यात्रा ने शरीर को थका दिया था. यह थकावट अब कौतुहल पर भारी पड़ रही थी. परिचारिका उसे पहली मंज़िल पर उसके कमरे में ले गई. खिड़की से उसने बाहर देखा. दूर दूर तक सब अंधेरे में ढंका था. एक अजीब सी सिहरन पैदा कर रहा था.

वह आकर लेट गई. कुछ ही देर में नींद ने उसे अपनी आगोश में ले लिया.

आवरण रहस्य को जन्म देता है. रहस्य आकर्षण को. बंद दरवाज़ों के पीछे के रहस्य को हर कोई जानना चाहता है. किंतु आवरण के हटते ही या दरवाज़े के खुलते ही आकर्षण समाप्त हो जाता है.

सुबह जब वृंदा जगी तो सारा कमरा प्रकाश से भरा था. उसने खिड़की से बाहर देखा. सब स्पष्ट दिखाई दे रहा था. बाहर आकर उसने हवेली पर नज़र डाली. रौशनी में नहाई हवेली एकदम अलग लग रही थी. रहस्य से परे कुछ कुछ जानी पहचानी सी.

{2}

सुराख वाले छप्पर

बस्ती आज सुबह सुबह चंदा के विलाप से दहल गई. उसका पति सांप के डसने के कारण मर गया था. यह मजदूरों की बस्ती थी जो छोटे मोटे काम कर जैसे तैसे पेट पालते थे. आभाव तथा दुःख से भरे जीवन में मर्दों के लिए दारू का नशा ही वह आसरा था जहाँ वह गम के साथ साथ खुद को भी भूल जाते थे. औरतें बच्चों का मुख देख कर दर्द के साथ साथ अपने मर्दों के जुल्म भी सह लेती थीं.

चंदा का ब्याह अभी कुछ महिनों पहले ही हुआ था. उसके पति को भी दारु पीने की आदत थी. वह रोज़ दारू पीकर उसे पीटता था. कल रात भी नशे की हालत में घर आया. उसने चंदा से खाना मांगा. चंदा ने थाली लाकर रख दी. एक कौर खाते ही वह चिल्लाने लगा "यह कैसा खाना है. इसमें नमक बहुत है." इतना कह कर वह उसे पीटने लगा. लेकिन कल हमेशा की तरह पिटने के बजाय चंदा ने प्रतिरोध किया. नशे में धुत् अपने पति को घर के बाहर कर वह दरवाज़ा बंद कर सो गई. कुछ देर दरवाज़ा पीटने के बाद उसका पति बाहर फर्श पर ही सो गया.

सुबह जब चंदा उसे मनाकर भीतर ले जाने आई तो उसने उसे मृत पाया. उसके मुंह से झाग निकल रहा था और शरीर पर सांप के डसने का निशान था.

चंदा के घर के सामने बस्ती वाले जमा थे.रोते चंदा के आंसू सूख गए थे. दुःख की जगह चिंता ने ले ली थी. घर में कानी कौड़ी भी नही थी. ऐसे में अपने पति की अर्थी का इंतजाम कैसे करेगी. उसने सोंचा कि बस्ती वालों से पैसे मांग ले पर किससे मांगती. सभी घरों की हालत तो एक जैसी थी.

{3}

बोलती ख़ामोशी

मैं न्यूज चैनल की तरफ से एक हत्या के मामले को कवर करने गया था. पिछड़े वर्ग के एक व्यक्ति भोला को कुछ दबंगों ने पीट पीट कर मार डाला था. गांव के दलित समाज में इस बात को लेकर बहुत गुस्सा था.

पंचायत के चुनाव होने वाले थे. प्रधान के पद के लिए ठाकुर बाहुल इस गांव में सत्यनारायण सिंह खड़े थे. उनके विरुद्ध दलित समाज से हल्कू महतो चुनाव लड़ रहे थे. भोला उनके प्रचार के लिए दीवारों पर पोस्टर चिपकाने का काम कर रहा था. तभी सत्यनारायण सिंह के समर्थक वहाँ आए और लगे हुए पोस्टर फाड़ने लगे. आपत्ति करने पर उन लोगों ने गाली गलौज आरंभ कर दी. भोला को भी क्रोध आ गया. उसने भी दो चार सुना दीं. इस पर सबने मिल कर उसे खूब पीटा. उसे गंभीर चोटें आईं जिसके कारण उसकी मौत हो गई. चुनावी माहौल मे मामले ने तूल पकड़ लिया.

मैं संबंधित थाने पहुँचा. चैनल को बताते हुए थाना प्रभारी ने कहा "दोषियों को छोड़ा नही जाएगा. चाहें वह कोई भी हों."

गाँव वालों से बात करने के बाद मैं मृतक के घर गया. वहाँ उसकी विधवा से मिला. मैंने उससे भी पूंछ ताछ करनी चाही. कैमरा उस मृतक की विधवा पर गया. मैंने उससे सवाल किया. वह कुछ नही बोली. उसकी ख़ामोश आंखें बोल रही थीं "आख़िर कब तक". मैं भी मौन था. मुझे लगा जैसे मुझसे इतनी सदियों का हिसाब मांग रही थी.

{4}

सहारा

सिन्हा साहब की किताबों की एक बड़ी दुकान थी. यहाँ पाठ्यपुस्तकों से लेकर साहित्य संबंधी सभी प्रकार की पुस्तकें मिलती थीं. इसे सिन्हा साहब ने बड़ी मेहनत से बनाया था. श्रीमती सिन्हा व्वहार कुशल तथा दक्ष गृहणी थीं.

दिव्या उनकी एकमात्र संतान थी. उनका सपना अपनी बेटी को पढ़ा लिखा कर योग्य बनाना था. अतः उसकी शिक्षा पर विशेष ध्यान देते थे. दिव्या सिन्हा वंश की अकेली लड़की थी. वह स्वयं तीन भाई थे. उनके दोनों भाइयों के भी पुत्र ही थे. अतः सिन्हा साहब की माता जी जब भी उनके घर रहने आतीं तो हमेशा ही इस बात की शिकायत करती थीं. अक्सर कहती थीं कि दोनों पति पत्नी को पुत्र प्राप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए. उन दोनों को पूजा पाठ व्रत तथा अन्य उपाय सुझाती थीं.

सिन्हा साहब उन्हें समझाते कि अम्मा लड़के लड़की से कोई फर्क नही पड़ता है. ईश्वर ने हमें जो दिया है उससे मैं खुश हूँ. अब बस दिव्या की अच्छी परवरिश ही हमारा कर्तव्य है.

उनकी माता जी तर्क देतीं कि बेटी को चाहे कितना पढ़ा लिखा दो बुढ़ापे की लाठी तो बेटा ही होता है. बेटी तो पराया धन है एक दिन ससुराल चली जाएगी.

लेकिन दोनों पति पत्नी का मन पक्का था. उन्हें बेटे की कोई चाह नही थी. धीरे धीरे माता जी ने भी कहना छोड़ दिया.

दिव्या बहुत होनहार थी. पढ़ाई में अव्वल रहने के साथ साथ खेल कूद वाद विवाद प्रतियोगिता आदि में भी भाग लेती थी. बाहरवीं की बोर्ड परीक्षा में उसे दूसरा स्थान मिला था. बीकॉम में भी उसने अपने कॉलेज में टॉप किया.

उसने सीए के पाठ्यक्रम में दाखिला लिया था. पढ़ाई अच्छी चल रही थी. लेकिन समय अचानक ही पलट जाता है. अचानक ही सिन्हा साहब गंभीर रूप से बीमार हो गए. जांच से पता चला कि उन्हें कैंसर हो गया था.

उसका इलाज लंबा और महंगा था. सिन्हा साहब अब बुक शॉप पर नही बैठ पाते थे. श्रीमती सिन्हा रात दिन उनकी तिमारदारी करती थीं. ऐसे में आर्थिक बोझ बढ़ने के साथ साथ घर की व्यवस्था भी बिगड़ गई थी.

दिव्या बहुत दुःखी थी. वह अपने माता पिता की सहायता करना चाहती थी. अतः वह घर के कामों में माँ की सहायता करने लगी. किंतु समस्या मात्र इतनी नही थी. बुक शॉप बंद थी. घर की आय का एकमात्र स्रोत वही थी. जो भी जमा पूंजी थी वह इलाज और घर खर्च के कारण दिनों दिन कम होती जा रही थी. घर में मासिक आय के स्रोत की बहुत आवश्यक्ता थी. दिव्या ने स्वयं नौकरी करने का फैसला किया.

सिन्हा साहब की माता जी अब उनके घर रहने आ गई थीं. वह भी घर के कामों में सहायता करती थीं. एक दिन वह अपने बेटे के पास बैठी थीं तो उन्हें समझाते हुए बोलीं "इसीलिए मैं कहती थी कि बेटे का होना जरूरी है. आज अगर एक बेटा होता तो तुम्हारी दुकान संभाल लेता. कितनी मेहनत और लगन से तुमने व्यापार खड़ा किया था." वहाँ से गुजरती दिव्या ने यह बात सुन ली.

दिव्या के मन में उहापोह था कि क्या करे. नौकरी करे या पिता के व्यवसाय को पुनः आरंभ करे. किंतु उसने जल्द ही फैसला कर लिया. वह पिता की बुक शॉप पर बैठेगी. अपनी दादी के विरोध को उसने अपने तर्कों से शांत कर दिया.

प्रारंभ में उसे अनेक मुश्किलें आईं लेकिन उसने डट कर उनका मुकाबला किया. थोड़े ही समय में गाड़ी पटरी पर आ गई. धीरे धीरे उसने पुस्तकों से अपनी पहचान बना ली. लोगों को पुस्तक चुनने में सहायता करती थी. इससे ग्राहकों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी. फिर वह दिन भी आया जब अपनी पहली कमाई लाकर उसने माता पिता को अर्पित की. दोनों पति पत्नी खुशी से गदगद हो गए. दादी की आंखों में भी प्रशंसा के भाव थे.

{5}

सपना

मेहरा जी के जीवन का एक ही सपना था कि वह अपने इकलौते बेटे रोहन को इंजीनियर बना सकें. वह स्वयं इंजीनियर बनना चाहते थे किंतु परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक ना होने के कारण नही बन सके. अतः अपनी इच्छा अपने बेटे के द्वारा पूरी करना चाहते थे.

रोहन अपने पिता को बहुत चाहता था. उनकी हर बात मानता था. पढ़ने में होशियार था किंतु चित्रकारी करना उसे बहु़त पसंद था. इस कला में वह माहिर था. जो भी उसकी स्केचबुक देखता उसकी तारीफ अवश्य करता था. उसे चित्रकारी में अनेक पुरस्कार मिले थे. मेहरा जी उसे समझाते कि यह सब शौक के तौर पर ठीक है किंतु तुम इंजीनियर ही बनना. हंलाकि उसे चित्रकारी पसंद थी किंतु उस छोटी उम्र में वह कुछ समझ नही पाता था. अतः अपने पिता की बात का समर्थन करता था.

जैसै जैसे वह बड़ा होने लगा यह बात समझ में आने लगी कि उसकी रुचि चित्रकारी में अधिक है. किंतु मेहरा जी उसे बार बार याद दिलाते थे कि उसे उनके सपने को पूरा करना है. कभी दबी ज़ुबान उसने अपनी बात कहनी भी चाही तो उन्होंने उस पर ध्यान नही दिया.

दसवीं के बाद अनिच्छा होने पर भी उसे विज्ञान विषय लेना पड़ा. मेहरा जी सबसे कहते अब बस कुछ ही दिनों की बात है मेरा बेटा इंजीनियर बनेगा. अब रोहन दबाव महसूस करने लगा था. नतीजा यह हुआ कि बारहवीं में उसे केवल ७५ फीसदी नंबर ही मिले. उसने फिर अपनी बात कहनी चाही. लेकिन उसकी बात समझने की बजाय उन्होंने अपनी बात कही. उन्होंने बताया कि वह इससे घबराए नही. वह उसे उस शहर में भेजेंगे जो अपनी इंजीनियरिंग की कोचिंग के लिए विख्यात है. वहाँ पढ़ कर वह अवश्य ही सफल होगा.

मेहरा जी साथ जाकर उसका दाख़िला वहाँ के सबसे अच्छी कोचिंग संस्था में करा आए.

वहाँ पहुँच कर रोहन का मन और भी बुझ गया. एक क्लास में सौ से भी अधिक विद्यार्थी पढ़ते थे. सभी बस किसी भी तरह आगे रहने की होड़ में रहते थे. कोई भी क्लास टेस्ट, ग्रेड्स, असाइनमेंट्स के अलावा कोई बात ही नहीं करता था. लेकिन रोहन का रुझान दूसरी तरफ था. वह बहुत बेमन से यहाँ आया था. अतः वह ऊब जाता था. पहले पढ़ने में जो उसकी दिलचस्पी थी वह भी समाप्त हो गई थी.

रोज़ ही रोहन के माता पिता उसे फोन करते थे. मेहरा जी बस एक बात ही कहते कि तुम मन लगा कर पढ़ो. ताकि अच्छी जगह तुम्हारा दाखिला हो सके. वह चाह कर भी कुछ नही कह पाता था.

जैसे जैसे परिक्षाओं के दिन पास आते गए उसका दबाव बढ़ता गया. वह बहुत परेशान रहता था. कुछ भी समझ नही पा रहा था.

रात के ढाई बजे मेहरा जी का फोन बजा. उन्होंने देखा तो रोहन का फोन था. वह चिंतित हो गए. फोन रिसीव किया तो उस तरफ से एक महिला की आवाज़ आई. वह श्रीमती राय थीं जिनके घर रोहन पीजी के तौर पर रहता था. उन्होंने बताया कि रोहन ने अपनी कलाई की नस काट ली थी. उसे आई सी यू में भर्ती किया गया था. यह सुन कर मेहरा जी कुछ समय के लिए किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए. बड़ी मुश़्किल से स्वयं को संभाल कर उन्होंने पत्नी को सारी बात बताई,

पहली ही गाड़ी पकड़ कर वह पत्नी के साथ वहाँ पहुँचे. उनकी पत्नी का रो रो कर बुरा हाल था. डॉक्टरों ने बताया कि रोहन की हालत बहुत नाज़ुक है. कुछ भी हो सकता है.

रोहन के कुछ मित्र उसे देखने आए थे. उनमें से एक जावेद जो रोहन के बहुत करीब था ने बताया कि वह कई दिनों से तनाव में था. वह कहता था कि उसे इंजीनियर नही बनना बल्कि पेंटर बनना है. लेकिन संकोचवश आपसे कुछ कह नही पाता था.

रोहन के मित्र की बात सुन कर मेहरा जी स्तब्ध रह गए. उन्हें वह पल याद आए जब उनका बेटा दबी ज़ुबान उनसे अपने मन की बात कहना चाहता था किंतु वह अपनी इच्छा उस पर थोपने में इतने व्यस्त थे कि हमेशा उसकी बात अनसुनी कर दी. वह पछता रहे थे कि काश उसकी बात सुनी होती. कभी उससे भी पूंछा हेता कि वह क्या चाहता है. लेकिन पछतावे के अतरिक्त अब कुछ नही बचा था.

डॉक्टर की इजाजत लेकर वह अपने बेटे के पास गए. वह अचेत था. उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया. उनकी आंखें भर आईं. अश्रु की एक बूंद उनके बेटे के हाथ पर गिरी. उनके मुंह से निकला "मुझे माफ कर दो बेटा."

उनके स्पर्श और पछतावे ने जैसे जादू कर दिया. रोहन के हाथ में कंपन हुआ. डॉक्टरों ने इसे शुभ संकेत बताया.

{6}

रौशनी

अपनी बालकनी से मिसेज मेहता ने देखा आसपास की सभी इमारतें रंगबिरंगी रौशनी से जगमगा रही थीं. कुछ देर उन्हें देखनेे के बाद वह भीतर आ गईं. सोफे पर वह आंख मूंद कर बैठ गईं. बगल वाले फ्लैट में आज कुछ अधिक ही हलचल थी. पहले इस फ्लैट में बूढ़े दंपति रहते थे. तब कहीं कोई आहट नही सुनाई पड़ती थी. लेकिन इस नए परिवार में बच्चे हैं. इसलिए अक्सर धमाचौकड़ी का शोर सुनाई पड़ता रहता है.

पहले त्यौहारों के समय उनका घर भी भरा रहता था. उन्हें क्षण भर की भी फ़ुर्सत नही रहती थी. लेकिन जब से उनका इकलौता बेटा विदेश में बस गया वह और उनके पति ही अकेले रह गए. त्यौहारों की व्यस्तता कम हो गई. फिर वह दोनों मिलकर ही त्यौहार मनाते थे. आपस में एक दूसरे का सुख दुख बांट लेते थे.

पांच वर्ष पूर्व जब उनके पति की मृत्यु हो गई तब वह बिल्कुल अकेली रह गईं. तब से सारे तीज त्यौहार भी छूट गए. अब जब वह आसपास लोगों को त्यौहारों की खुशियां मनाते देखती हैं तो अपना अकेलापन उन्हें और सताने लगता है. अतः अधिकतर वह अपने घर पर ही रहती हैं.

ऐसा लगा जैसे बगल वाले फ्लैट के बाहर गतिविधियां कुछ बढ़ गई हैं. वह उठीं और उन्होंने फ्लैट का दरवाज़ा थोड़ा सा खोल कर बाहर झांका. सात आठ साल की एक लड़की रंगोली पर दिए सजा रही थी. उसके साथ आठ नौ साल का एक लड़का उसकी मदद कर रहा था. तभी लड़की की निगाह मिसेज मेहता पर पड़ी. उन्हें देख कर वह हल्के से मुस्कुराई और बोली 'हैप्पी दीवाली'. मिसेज मेहता ने दरवाज़ा बंद कर दिया.

वापस जाकर वह सोफे पर बैठ गईं. इतने वर्षों के बाद किसी की आत्मीयता ने उनके भीतर जमा कुछ पिघला दिया. वह उठीं और कुछ सोंचते हुए रसोई की तरफ बढ़ीं. ऊपर का कबर्ड खोला. उसमें दफ्ती का एक डब्बा था. उसे उतार कर खोला. उसमें मिट्टी के कुछ दिए रखे थे. यह उस आखिरी दीवाली के दिए थे जो उन्होंने अपने पति के साथ मनाई थी. दिओं को निकाल कर उन्होंने धोया. फिर उनमें तेल डाल कर जलाया और कमरे में चारों तरफ सजा दिया. एक निगाह उन्होंने पूरे कमरे पर डाली. कमरे में एक अलग ही रौनक थी. फ्रिज खोल कर उसमें से चॉकलेट का एक टुकड़ा निकाल कर खाया. उनके चेहरे पर मुस्कान आ गई. वह स्वयं से बोलीं 'हैप्पा दीवाली'.

{7}

झेंप

जानी मानी समाज सेविका निर्मलाजी चाय की चुस्कियां ले रही थीं. उनका बारह साल का पोता बड़े उत्साह से समाचारपत्र में छपा उनका साक्षात्कार पढ़ कर सुना रहा था. सभी बच्चों के शिक्षा के अधिकार पर उनके विचार पढ़ कर उसने सवाल किया "क्या बबलू अब घर के काम छोड़ कर पढ़ने जाएगा." पास ही खड़े बबलू ने आशा से उनकी ओर देखा. इस सवाल पर निर्मलाजी झेंप गईं. अपने पोते को पढ़ने भेज कर उन्होंने बबलू को बैठक की सफाई का आदेश दिया.