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मन के मोती 5

मन के मोती 5

{लघु कथा संग्रह}

लेखक :- आशीष कुमार त्रिवेदी

{1}

सूखी घास

वह छोटा सा लड़का बहुत तेजी से खुर्पी चला रहा था. वेदा ने उसे लॉन की सूखी घास छीलने को कहा था. भूख से बेहाल जब वह उसके दरवाजे पर कुछ खाने के लिए मांगने आया तो वेदा ने डांट कर कहा "तुम लोगों को तो आदत है भीख मागने की. बिना काम के कुछ नही मिलेगा." भूख से अंतड़िया खिंची जा रही थीं. किंतु कोई चारा नही था. अतः वह काम करने को तैयार हो गया. वेदा ने उसे ख़ुर्पी लाकर दी. वह घास छीलने लगा.

गर्मी के दिन थे. उसके शरीर से पसीना टपक रहा था. लेकिन इन सब बातों की परवाह किए बिना वह अपना काम कर रहा था. पेट की आग ने सारी परेशानियों का एहसास मिटा दिया था. वह तो बस सोंच रहा था कि कब काम ख़त्म हो और उसे मजदूरी मिले और वह कुछ खा सके.

बीच बीच में उसके काम का मुआयना करने वेदा बाहर आती थी. एक निगाह उस पर डाल कर इस नसीहत के साथ भीतर चली जाती कि काम ठीक से करना.

बच्चा अपना काम कर रहा था. काम करते हुए उसने नज़र डाली. अभी भी बहुत काम बचा था. वह बैठ कर सुस्ताने लगा. बैठे हुए सोंचने लगा 'आज की मजूरी मिल गई तो घर पर चूल्हा जल सकेगा.' कई दिन हो गए थे उसने ठीक से खाया नही था. उसके बापू भवन निर्माण करने वालेे ठेकेदार के पास मजदूरी करते थे. ढोला बांधने के लिए बल्ली पर चढ़े थे. गिर पड़े और पैर की हड्डी टूट गई. जो कुछ जोड़ा बटोरा था अस्पताल में लग गया. बापू ही कमाने वाले थे अब तो फाके की नौबत है. सोंचते हुए अचानक उसके मन में आया 'अगर यहाँ कुछ खाने को भी मिल जाए तो. कल रात का बचा हुआ कुछ. कितना अच्छा हो.'

वह यह सब सोंच रहा था तभी वेदा बाहर आई. साथ में उसका ऊंची नस्ल का कुत्ता भी था. उसने कुत्ते को पुचकारा और हाथ में पकड़े पैकेट से बिस्किट निकाल कर खिलाए. बच्चा ललचाई नज़रों से कुत्ते को बिस्किट खाते देख रहा था. तभी वेदा की नज़र उस पर पड़ी. उसने घुड़का "बैठे बैठे क्या कर रहे हो. जल्दी काम करो. मैं सारा दिन बैठी नही रहूँगी." उसकी डांट सुन कर बच्चा फिर से काम करने लगा.

{2}

समाधी

बस्ती के बाहर बरगद के पेड़ के नीचे बच्चा बाबा की समाधी थी. बच्चा बाबा कौन थे कहाँ से आए थे कोई नही जानता था. मानवता से बड़ा कोई धर्म नही होता यह बात उन्होंने अपने सेवा भाव द्वारा साबित कर दिखाई थी. बस्ती के गरीब और उपेक्षित लोगों में आत्मसम्मान से जीने की भावना जगाई थी. बच्चों को शिक्षित करने का काम किया था. किसी ने भी कभी उनके धर्म या जाति का पता लगाने का प्रयास नही किया. वह प्यार से सबको बच्चा कह कर पुकारते थे. अतः सब उन्हें बच्चा बाबा कहते थे. उनके मरने पर लोगों ने उनकी समाधी बना दी.

इधर कई सालों से समाधी उपेक्षित पड़ी रहती थी. परंतु आज किसी ने वहाँ सफाई की थी. समाधी पर कुछ फूल चढ़ाए थे.

यह फूल उस लड़के की बच्चा बाबा को श्रद्धांजली थी जिसके बहके कदमों को उन्होंने सही राह दिखाई थी.

{3}

अंकुर

ज़ोहरा अधिकांश समय गुमसुम रहती थी. किसी से ना मिलना ना जुलना. बस काम से मतलब. इस उम्र में ऐसी संजीदगी सभी को अखरती थी. भाईजान ने कितनी बार समझाया ज़िंदगी किसी के लिए रुकनी नही चहिए. लेकिन वह तो जैसे कुछ समझना नही चाहती थी. कभी जिसकी खिलखिलाहट सारे मोहल्ले में गूंजती थी अब बिना टोंके उसके मुंह से एक लफ़्ज नही निकलता. अपनी लाडली बहन की इस दशा पर भाईजान के सीने में आरियां चलती थीं. गांव के छोटे से स्कूल में टीचर थी ज़ोहरा. छोटे बच्चों का साथ उसे अच्छा लगता था.

भाईजान ने पढ़ने के लिए उसे शहर के कॉलेज में भेजा था. वहाँ उसकी मुलाकात इरफान से हुई. इरफान बाकी लड़कों से अलग था. सबकी तरह उसका मकसद पढ़ लिख कर एक अच्छी नौकरी पाना नही था. अपने आस पास के माहौल में व्याप्त भ्रष्टाचार, अशिक्षा अन्याय तथा इन सबके प्रति युवा वर्ग की उदासीनता को लेकर वह बहुत दुखी था. इस पूरी व्यवस्था को बदल देना चाहता था. उसके क्रांतिकारी विचारों से वह उसकी तरफ आकर्षित हो गई. यह आकर्षण समय के साथ प्रेम में बदल गया.

इरफान ने छात्र राजनीति में कदम रखा. वह तेजी से आगे बढ़ने लगा था. भ्रष्टाचार और अन्याय के विरुद्ध उसकी आवाज़ और भी मुखर हो गई थी. यह बात बहुत से लोगों को गंवारा नही थी. अतः उस आवाज़ को शांत कर दिया गया.

ज़ोहरा टूट गई. वह वापस गाँव आ गई. यहाँ गाँव के स्कूल में पढ़ाने लगी. भाईजान ने विवाह की कोशिश किंतु वह तैयार नही हुई. उन्होंने भी प्रयास छोड़ दिया.

पूरी वादी बर्फ की सफेद चादर ओढ़े थी. इस बार ठंड भी अधिक थी. ज़ोहरा कहीं से लौटी थी. देर हो गई थी. वह जल्दी जल्दी खाना बनाने लगी. वह सोंचने लगी कि वह खाने के इंतज़ार में भूखा बैठा होगा. उसके ह्रदय में करुणा जागी. वह तेजी से हाथ चलाने लगी.

ज़ोहरा खाना लेकर गई तो देखा कि दोपहर की थाली यूं ही ढकी रखी थी. उसने छुआ भी नही था. सर से पांव तक लिहाफ ओढ़े सिकुड़ा हुआ पड़ा था. शाकिब सरकारी मुलाजिम था. नदी पर बन रहे पुल का सुपरवाइज़र. भाईजान ने उसे कमरा किराए पर दिया था. उसका यहाँ कोई नही था. नर्म दिल भाईजान के कहने पर ही उसे दोनों वक्त खाना दे आती थी. उसने बताया था कि जहाँ से वह आया है वहाँ बर्फ नही पड़ती. मौसम गर्म रहता है. इसीलिए शायद बीमार हो गया था.

अक्सर वह उससे बात करने की कोशिश करता था. लेकिन ज़ोहरा को पसंद नही आता था. वह टाल जाती थी. लेकिन आज उसे इस हालत में देख कर ज़ोहरा को अच्छा नही लग रहा था. क्यों वह नही जानती थी. वह उसकी तीमारदारी करने लगी. धीरे धीरे वह ठीक होने लगा. वह उससे अपने शहर अपने परिवार के बारे में बातें करता था. और भी कई बातें बताता था. पहले ज़ोहरा केवल सुनती रहती थी. फिर धीरे धीरे वह भी कुछ कुछ बोलने लगी.

शाकिब के भोलेपन ने उसके दिल मे जगह बनानी शुरू कर दी थी. वह उसकी तरफ खिंचने लगी. इरफान के जाने के बाद उसका दिल किसी बंजर जमीन की तरह हो गया था. अब उस जमीन में शाकिब के प्रेम के अंकुर फूटने लगे थे.

शाकिब ठीक हो गया था. पुल का काम बस पूरा होने वाला था. वादी का मौसम खुशनुमा हो गया था. ज़ोहरा की हथेलियां हिना से रंगी थीं.

{4}

आस किरन

दीपक देर रात तक पढ़ रहा था. उसकी माँ ने कहा "अब सो जा. सुबह अखबार और दूध बांटने जाना है."

"बस माँ कुछ देर और. पाठ पूरा कर लूँ." दीपक ने कुछ देर की मोहलत मांगी.

"क्यों पढ़ाई के लिए इतनी मेहनत करता है. यह सब हम गरीबों के लिए नही है." उसकी माँ ने विवशता दिखाते हुए कहा.

दीवार पर लगे डॉ. कलाम के चित्र की तरफ इशारा करते हुए दीपक बोला "यह भी मेरी तरह अखबार बांटते थे. देश के राष्ट्रपति बने."

दीपक की माँ की आंखों में भी आस किरन चमकने लगी.

{5}

दूर देश का चांद

चांद को निहारते हुए दिलप्रीत ने एक आह भरी. यह चांद उसके पिंड में भी चमकता होगा. आंगन में दारजी और बीजी बैठे अपनी लाड़ली के सुखद भविष्य के बारे में सोंच कर खुश होते होंगे. पास बैठा छोटा वीर पढ़ाई करता होगा. उनके बारे में सोंच कर उसकी आंखें भर आईं.

कितने चाव से दारजी ने उसका ब्याह किया था. दिल खोल कर खर्च किया था. उनकी लाड़ली बेटी जो थी वह. उसकी हर ख्वाहिश को उन्होंने पूरा किया.

ताया जी ने मनजीत दीदी का ब्याह लंदन में बसे लड़के से किया. वह बहुत खुश थी. बहुत पैसा था उसकी ससुराल में. जब भी घर आती सबके लिए मंहंगे तोहफे लाती थी. दारजी ने तय कर लिया था कि उसका ब्याह विदेश में बसे लड़के से ही करेंगे. उन्होंने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया उसके लिए लड़का ढूंढ़ने में.

आखिरकार कनाडा में बसे सुखविंदर से उसकी जोड़ी जम गई. वहाँ सुखविंदर के परिवार का बहुत बड़ा कारोबार था. अपने स्तर पर दारजी ने जांच पड़ताल करवाई सब सही था. उसकी शादी हो गई. वह कनाडा आ गई.

छह महिने हो गए. वैसे तो सब ठीक है. उसकी ससुराल में बहुत पैसा था. उसे किसी चीज़ की रोक टोक नही थी. वह जो चाहे कर सकती थी. कोई काम काज भी नही करना पड़ता था. लेकिन जिसका हाथ थाम कर वह इस अपरिचित देश में आई थी उसी के पास उसके लिए वक्त नही था. ऐसा नही था कि वह उससे कुछ बहुत अधिक चाहती थी. वह तो बस चाहती थी कि जब सुखविंदर घर आए उसके साथ कुछ देर बैठे. उससे उसका हाल चाल पूंछे. कुछ बात कर उसका मन हल्का करे. लेकिन सुखविंदर उसकी तरफ नज़र भर देखता भी नही था.

उसे आज कल अपने पिंड अपने घर की बहुत याद आती थी. चाहती थी कि उड़ कर अपनों के पास पहुँच जाए. दारजी के गले से लग जाए. बीजी की गोद में सर रख कर रोकर अपना मन हल्का कर ले. वीर के साथ आंगन में खेल ले. पर यह सब मुमकिन नही था.

वह खिड़की पर आकर खड़ी हो गई. आसमान पर चांद चमक रहा था. उसने चांद को कुछ ऐसे देखा जैसे विनती कर रही हो कि उसके अपनों तक उसका संदेश पहुँचा दे कि वह उन्हें याद करती है.

{6}

सही दिशा

लता तेजी से अपने घर की तरफ बढ़ रही थी. आज काम से लौटते हुए उसे देर हो गई थी. आज मनचंदा मेमसाहब के यहाँ किटी पार्टी थी. इसलिए काम ज्यादा था.

सुबह से शाम तक कई घरों में काम करती थी. इतनी मेहनत के बाद वह काम चलाने लायक कमा पाती थी. पति ने तब उसे घर से निकाल दिया जब वह पेट से थी. उसका संबंध किसी और स्त्री से था. कितनी तकलीफें सही उसने. लेकिन हिम्मत नही हारी. अब इतना कर पाई थी कि किराए की एक खोली ले ली थी. अब तो बस वह एक ही ख्वाब के लिए जी रही थी.

घर पहुँची तो बेटी ने पूंछा "आज देर क्यों हो गई."

"वो मेमसाहब के घर काम ज्यादा था." उसने प्यार से अपनी बच्ची के सर पर हाथ फेरा "भूख लगी है. मेमसाहब ने खाना दिया है. मैं अभी लगाती हूँ."

वह जल्दी से खाना निकालने लगी. तभी उसकी बेटी खुशी से बोली "अम्मा आज स्कूल में अंग्रेजी का टेस्ट था. मुझे पूरे नंबर मिले. टीचर ने वेरी गुड भी लिखा." उसने कॉपी लता की तरफ बढ़ा दी.

अपने आंचल से हाथ पोंछ कर उसने कॉपी पकड़ ली. उसकी आंखों में खुशी की चमक थी. हलांकि एक भी अक्षर वह नही पहचानती थी लेकिन साफ देख सकती थी कि जिस लक्ष्य के लिए वह इतनी मेहनत कर रही थी उसकी बेटी उसी दिशा में कदम बढ़ा रही थी.

{7}

बाहरी रूप

मोनिका की स्कूटी अचानक ही यहाँ आकर खराब हो गई. उसने चारों तरफ नजंर दौड़ाई. यह इलाका बहुत सुनसान था. वह इस इलाके में पहली बार आई थी. सूरज डूब चुका था. कुछ ही देर में अंधेरा होने वाला था. वह डर गई. उसने अपने पापा को बुलाने के लिए अपना फोन निकाला. फोन की चार्जिंग भी खत्म हो गई थी. वह खुद पर झल्लाई. ऐसी गल्ती कैसे हुई उससे. चलते समय उसने मोबाइल भी नही देखा. अब क्या करे. किससे मदद मांगे. वह यही सब सोंच रही थी कि तभी एक आदमी आता दिखाई दिया. उलझे बाल, चेहरे पर खिचड़ी दाढ़ी, अस्त व्यस्त मैले से कपड़े. उसका हुलिया देख कर मोनिका को वह सही आदमी नही लगा. वह आदमी उसकी तरफ ही बढ़ रहा था. मोनिका घबरा गई. उसके पास आकर वह आदमी बोला "कोई समस्या है क्या."

उसे पास देख कर मोनिका रूखे स्वर में बोली "कुछ नही है. आप दूर हटिए."'

उसे परेशान देख वह आदमी थोड़ी दूर पर जाकर खड़ा हो गया. मोनिका कुछ समझ नही पा रही थी कि अब क्या करे.

दूर से ही वह आदमी बोला "देखो कोई दिक्कत हो तो बता दो. घबराओ नही. तुम्हें यहाँ अकेले खड़े देखा तो पूंछ लिया."

उसकी बात से मोनिका कुछ शांत हुई. उसने सोंचा कि किसी से तो मदद मांगनी ही है. वह बोली "मेरी स्कूटी खराब हो गई है और मेरे मोबाइल की बैटरी भी खत्म हो गई है."

उस आदमी ने अपनी जेब से एक पुराना मोबाइल निकाला और मोनिका की तरफ बढ़ा कर कहा "इससे फोन कर मदद मांग लों"

कुछ संकोच के साथ मोनिका ने फोन लेकर अपने पापा को बुला लिया.

वह आदमी बोला "जब तक कोई नही आता मैं यहीं बैठा हूँ." यह कह कर वह फुटपाथ पर बैठ गया.

मोनिका भी अपने पापा का इंतज़ार करने लगी. मन ही मन वह उस आदमी के प्रति अपने व्यवहार पर लज्जित थी.

कुछ देर में उसके पापा आ गए. वह भाग कर उनसे लिपट गई. उस आदमी का शुक्रिया अदा करने के लिए जब उसने पीछे मुड़ कर देखा तो वह जा चुका था.

{8}

वादा

अभी अभी अंजू को ऑपरेशन के लिए ले गए थे. स्थिति तनावपूर्ण थी. डिलीवरी की तारीख़ बीस दिन बाद की थी किंतु अचानक अंजू को तकलीफ़ होने लगी. डॉक्टर ने सिज़ेरियन का सुझाव दिया. खबर सुनते ही बजाज साहब अस्पताल पहुँच गए. उन्होंने मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना की 'मेरी बच्ची की रक्षा करना.'

उनके दामाद ने एक कप चाय लाकर दी. "सब ठीक होगा आप परेशान ना हों." दामाद ने उन्हें तसल्ली देते हुए कहा.

चाय पीते हुए बजाज साहब अतीत में खो गए. सात साल की अंजू को वह दशहरे का मेला दिखाने ले गए थे. वह उनकी उंगली पकड़ कर चल रही थी. कौतुहलवश हर एक चीज़ के बारे में पूँछ रही थी. अचानक भीड़ में कुछ हलचल सी हुई. उस आपाधापी में उनकी उंगली अंजू के हाथ से छूट गई. वह भीड़ में कहीं गुम हो गई.

वह घबरा कर इधर उधर ढूंढ़ने लगे. एक एक पल भारी लग रहा था. तभी एक कोने में खड़ी अंजू दिखाई दी. वह घबराई हुई थी और रो रही थी. उन्हें देखते ही भाग कर आई और उनका हाथ कस कर पकड़ लिया.

बजाज साहब ने समझाया "अब क्यों रो रही हो. मैं हूँ ना तुम्हारे साथ."

अंजू ने सुबकते हुए कहा "आप नही थे तो मुझे बहुत डर लग रहा था पापा. प्रॉमिस मी मुझे कभी छोड़ कर नही जाओगे."

उन्होंने अंजू को गले से लगा लिया "बेटा पापा तुमसे वादा करते हैं. जब तक ज़िंदा हैं तुम्हारी हर मुसीबत में तुम्हारे साथ होंगे."

नर्स ने बाहर आकर खुशखबरी सुनाई "बधाई हो बेटी हुई है."

कुछ समय बाद जब उन्होंने अपनी नातिन को गोद में लिया तो ऐसा लगा जैसे नन्हीं सी अंजू ही उनकी गोद में हो.

{9}

गूंगी गुड़िया

रसोई में काम करते हुए गीता सुन रही थी. चंद महीनों पहले ही ब्याह कर आई हुई उसकी देवरानी वीना से भी वही सब कहा जा रहा था जो उससे कहा गया था. वह दरवाज़े पर खड़ी होकर देखने लगी.

वीना कह रही थी "मम्मी जी पापा ने आपकी सारी मांगें पूरी की हैं. अब वह पैसे कहाँ से लाएंगे. अभी मेरे भाई बहन की ज़िम्मेदारी है उन पर. मैं उनसे कुछ नही मांगूंगी."

उसकी सास ने अपने बेटे इंदर की तरफ उलाहना से देखा.

इंदर बोला "तुम मम्मी से बहस मत करो. वही करो जो वह कह रही हैं."

वीना ने दृढ़ता के साथ कहा "मम्मी जी गलत बात कर रही हैं. मैं पापा से कुछ नही कहूँगी."

उसका इस तरह बोलना इंदर को बुरा लगा. वह हाथ उठा कर उसकी ओर लपका. गीता ने उसका हाथ बीच में ही पकड़ लिया. सब दंग थे कि इस गूंगी गुड़िया में यह हिम्मत कहाँ से आई.

{10}

कीलें

पिंटू ने अपने सहायक राजू से पूछा "वो सिंघल साहब ने जो डबलबेड का आर्डर दिया था वह समय से पूरा हो जाएगा ना."

"बस कुछ ही काम बचा है. जल्द ही हो जाएगा." काम करते हुए राजू ने जवाब दिया.

"देखना कोई कमी ना रह जाए. उन्हें बेटी की शादी में देना है." पिंटू ने समझाया.

वह सभी कामों का बारीकी से मुआयना कर रहा था. कारीगरों को आवश्यक निर्देश दे रहा था. तभी एक कारीगर ने दरवाज़े की ओर संकेत किया. वहाँ हवलदार खड़ा था. पिंटू ने उसे सलाम किया.

"साब ने थाने बुलाया है." हवलदार ने रौब से कहा.

"अभी बहुत काम है शाम तक हाजिर होता हूँ." पिंटू ने कुछ सहमते हुए कहा.

"ठीक है" कह कर हवलदार चला गया.

पिंटू ने जुर्म से कब का किनारा कर लिया था. लेकिन उसके अतीत की कीलें अभी भी पैरों में चुभती थीं.

{11}

शर्म

एक बड़े व्यापारी के फॉर्म हाउस पर पुलिस की रेड पड़ी थी. बाहर पत्रकारों का जमावड़ा था. फॉर्म हाउस के अंदर से शहर के धनाड्य लोग कैमरों से मुंह छुपाते हुए बाहर आ रहे थे.

एक पत्रकार अपने साथी से बोला "नाबालिग बच्चियों के साथ अय्याशी करते इन्हें शर्म नही आई. अब मुंह छुपा रहे हैं."

उसके साथी ने जवाब दिया "भाई इन्हें ही बड़े लोग कहते हैं."

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