मन के मोती 9 Ashish Kumar Trivedi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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मन के मोती 9

मन के मोती 9

{लघु कथा संग्रह}

लेखक :- आशीष कुमार त्रिवेदी

{1}

तीर

अनु हांथ मुह धोकर कमरे में आई तो देखा माँ मेज़ पर चाय का प्याला रख गई थीं. वह बैठ कर चाय पीते हुए व्हाट्सअप संदेश देखने लगी. प्रशांत का मैसेज था 'तुम्हारी बहुत याद आई पूरे दिन. पर बिज़ी रहा.'

अनु ने मैसेज भेजा 'सेम हियर'. कुछ ही क्षणों में प्रशांत का जवाब आया. दोनों चैट करने लगे.

पिता को बीमारी के कारण समय से पहले अवकाशग्रहण लेना पड़ा. ऐसे में घर चलाने की ज़िम्मेदारी उस पर आ गई. उसने भी सारा दायित्व खुशी खुशी अपना लिया. घर और दफ्तर के बीच स्वयं को भूल गई.

अनु की इस रसहीन ज़िंदगी में प्रशांत ने ताज़ी हवा के झोंके की तरह प्रवेश किया. कुछ ही मुलाकातों में दोनों ने समझ लिया कि दोनों एक दूजे के लिए ही बने हैं. उन्होंने विवाह करने का निश्चय कर लिया. कल ही अनु ने अपने माता पिता को यह फैसला सुनाया था.

कल से ही माँ का मूड कुछ उखड़ा सा था. चैट ख़त्म कर वह बाहर आई तो देखा कि उसके पिता की कुछ दवाइयां समाप्त हो गई हैं. माँ टेबल पर खाना लगा रही थीं. उसने माँ से कहा "मम्मी पापा की दवाएं ख़त्म हो गईं. आपने बताया क्यों नही."

बिना उसकी ओर देखे वह बोलीं "अब तो तुम अपने घर जाने वाली हो. हमें ही सब संभालना है. तुम अब इन सब चीज़ों की फ़िक्र मत करो."

माँ की इस बात में छिपा तंज़ उसके ह्रदय को बींध गया.

खाना खाकर चुपचाप वह अपने कमरे में चली गई.

{2}

छट व्रती

शारदा छट पर्व की तैयारी में लगी थी. बीस वर्ष पू्र्व जब वह ब्याह कर आई थी तो उसकी सास ने व्रत का दायित्व उसे सौंप दिया था. तब से वह पूरे नियम कर्म से छट का व्रत कर रही थी. आंगन में बैठी उसकी सास छट मइया का गुणगान करते गीत गा रही थी. सारे घर में चहल पहल थी. सभी प्रसन्न थे. खुश तो उसकी बेटी विभा भी लग रही थी पर माँ होने के नाते शारदा उसके मन का दर्द समझ रही थी. अभी उन्नीस की हुई थी कि उसकी पढ़ाई छुड़वा कर ब्याह पक्का कर दिया गया. कुछ महीनों बाद ही ब्याह था. पर विभा आगे पढ़ना चाहती थी. अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती थी. उसने विरोध किया किंतु किसी ने उसकी नहीं सुनी. उसकी सारी इच्छाएं उसके मन में दब कर रह गई थीं.

शारदा ने विभा को पास बैठा कर प्यार से पूंछा "बिटिया मन में उदास होने से क्या फायदा. औरत की अपनी मर्ज़ी नहीं चलती. उसे तो वही करना पड़ता है जो घर वाले चाहते हैं."

"अजीब है ना अम्मा सृष्टि के छटे अंश के रूप में छट माता को पूजते हैं किंतु औरत की इच्छा को कोई महत्व नहीं देते." यह कहते हुए विभा के चेहरे पर जो क्षोभ था वह शारदा के मन को चीर गया.

इस बार भी शारदा ने पूरे नियम से व्रत किया. अस्त होते हुए सूर्य को अर्घ्य देते हुए उसने सूर्यदेव को साक्षी मान कर प्रण लिया कि उसकी बच्ची के दुख का वह अंत करेगी. अगले दिन उदित होते सूर्य की पूजा करने के बाद उसने सबको बता दिया कि अपनी बेटी के सपने पूरे करने में वह उसके साथ है.

{3}

हमदर्द

लता को आज पापा की नसीहतें याद आ रही थीं "देखो बेटा जब वक्त खराब हो तो साया भी साथ छोड़ देता है. ऐसे में किसी पर भी भरोसा ना कर खुद को मज़बूत बनाना चाहिए." तब बचपना था. लता सोंचती थी कि जब उसके आस पास इतने लोग हैं तो भला वह अकेली कैसे होगी. उसके पति की बीमारी ने उसके पिता की कही बात सच साबित कर दी. दुनिया का एक अलग ही रूप दिखाई दिया उसे. किसी ने भी साथ नही दिया. जिनकी उसने स्वयं सहायता की थी वह भी बगलें झांकते हैं.

पिछले एक महिने से वह घर और अस्पताल के बीच चकरघिन्नी बनी हुई है. कभी डॉक्टरों से मिलने के लिए या फिर टेस्ट और दवाइयों के लिए इधर से उधर भागती फिरती है. ऐसा नही कि यह सब वह भार समझ कर कर रही हो. यह सब तो वह पूरे मन से कर रही है. जो प्यार और सम्मान उसे अपने पति से मिला है उसके सामने तो यह कुछ भी नही. उसे किसी से किसी भी तरह की मदद की अपेक्षा नही. उसे तो केवल भावनात्मक सहारे की आवश्यक्ता है. कोई हो जो उसे पास बिठाकर सांत्वना दे ' तुम सब सही तरह से संभाल रही हो. सब सही हो जाएगा.' अभी अभी वह अस्पताल पहँची है. उसके पति अभी सो रहे थे. कुछ समय में नर्स आकर नित्यकर्म में मदद करेगी. फिर उन्हें टेस्ट के लिए ले जाना है. लता ने बगल वाले बेड की तरफ देखा. नसीम अपने अब्बू को नाश्ता करा रही थी. वह भी अकेले ही सब संभाल रही है. कभी कभी एक आदमी आता है. अभी कुछ देर पहले ही गया है.

लता अपने पति की फाइल देखने लगी. सारे पर्चे व्यवस्थित थे.

"लीजिए चाय पी लीजिए." नसीम ने मुस्कुराते हुए कहा. लता कुछ सकुचाई "नही आप पीजिए."

नसीम ने कप थमाते हुए कहा "पीजिए बेहतर महसूस करेंगी." दोनों चाय पीने लगीं. "आपा आप बहुत बहादुर हैं. सब कुछ अकेले ही कर रही हैं." अपने लिए आपा शब्द लता को भला लगा. मुस्कुरा कर बोली "तुम भी तो सब अकेले कर रही हो."

"मेरे अलावा अब्बू का और कौन है."

"वो जो अभी आकर गए." लता ने उत्सुक्ता दिखाई.

"वो तो हमारे पड़ोसी हैं. कभी कभी मदद के लिए आ जाते हैं."

दोनों एक दूसरे के साथ बात करने लगीं. चाय के साथ प्रेम और हमदर्दी के घूंट भर रही थी.

{4}

ठेस

मैं छुट्टियां मनाने इस हिल स्टेशन पर आया था. शाम के वक्त मैं यूं ही बाजार में घूमने के लिए निकला था. सड़क के किनारे फुटपाथ पर कई प्रकार की वस्तुएं बिक रही थीं लोग चिन्ह के रूप में ले जाने के लिए उन्हें खरीद रहे थे.

घूमते हुए फुटपाथ पर बैठे एक लड़के पर मेरी दृष्टि पड़ी. वह करीब चौदह पंद्रह साल का होगा. उसके कपड़ों से पता चल रहा था कि वह बहुत गरीब था. बड़ी तन्मयता के साथ वह कागज़ पर सामने खड़े व्यक्ति का चित्र बना रहा था. पास खड़े व्यक्ति ने बताया कि कुदरत ने उसे बोलने की शक्ति नही दी था. किंतु उसकी भरपाई करने के लिए उसे कमाल का हुनर दिया था. कुछ ही मिनटों में वह सामने खड़े व्यक्ति का चेहरा हूबहू कागज़ पर उकेर देता था.

उसके चेहरे की मासूमियत मुझे आकर्षित कर रही थी. उसकी गरीबी पर मुझे तरस आ गया. मैं उसकी मदद करना चाहता था. अपनी लापरवाह तबियत के कारण मैं चीज़ें संभाल कर नही रख पाता था. अतः अपना चित्र बनवाने का खयाल मैंने त्याग दिया. मैने जेब से सौ रूपये निकाल कर उसे पकड़ाए और आगे बढ़ने लगा. उसने बढ़ कर हाथ पकड़ लिया. मेरे दिए हुए पैसे उसने मुझे वापस कर दिए. मेरी ओर वह खमोशी से देख रहा था. उसकी खामोशी मुखर थी. मैने उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाई थी.

{5}

अहम

प्रतिष्ठित साहित्यकार पुष्करनाथ साहित्य जगत का सर्वोच्च पुरस्कार गृहण करने जा रहे थे. यह पुरस्कार उनके उपन्यास 'स्वयंसिद्धा' के लिए दिया जा रहा था. नायिका ने धैर्य और साहस के साथ अपने पति का विपरीत परिस्थितियों मे साथ निभा कर स्वयं को सिद्ध किया था. उनकी सहधर्मिणी भी इस महत्वपूर्ण समारोह में जाने के लिए पूरे उत्साह से तैयार हुई थीं. कार में बैठते समय पुष्करनाथ ने हाथ के इशारे से उन्हें रोक दिया "तुम क्या करोगी चल कर. भीतर जाकर घर संभालो."

अपने उपन्यासों में स्त्री चरित्रों को महिमामंडित करने वाले पुष्करनाथ अपनी स्त्री को ना समझ सके जिसने उनके उपन्यास की नायिका से अधिक स्वयं को सिद्ध किया था.

{6}

प्रतिद्वंदी

श्री बंसल की गिनती बड़े व्यापारियों में होती थी. लगभग हर वर्ष उन्हें सर्वश्रेष्ठ व्यापारी का पुरस्कार मिलता था. लेकिन इधर करीब दो सालों से उन्हें अपने ही बेटे से चुनौती मिल रही थी.

अनुज उनकी इकलौती संतान था. उसे लेकर उन्होंने बहुत सी योजनाएं बनाई थीं. किंतु जब अनुज ने उनके खिलाफ जाकर उनके मामूली कर्मचारी की बेटी से ब्याह कर लिया तो वह बेहद रुष्ट हो गए और उसे बेदखल कर दिया. अनुज ने इधर उधर से पूंजी जुटा कर अपना व्वसाय आरंभ किया और चार वर्ष की कड़ी मेहनत में अपने व्यापार को उस मुकाम पर ले आया जहाँ वह अपने पिता को टक्कर देने लगा. लोग दोनों पिता पुत्र को प्रतिद्वंदी के रूप में देखने लगे. पिछले दो सालों से वह अवार्ड की रेस में भी उन्हें टक्कर दे रहा था.

इस वर्ष तो उसने बाज़ी मार ही ली. तालियों की गड़गड़ाहट में उसने पुरस्कार स्वीकार किया. फिर बोलने के लिए पोडियम पर आया. कुछ देर रुक कर बोला "थैंक्यू पापा". सभी स्तब्ध रह गए. आगे की पंक्ति में बैठे अपने पिता को देख कर आगे बोला "मेरे व्यापार की शुरुआत से अब तक आप ही मेरी प्रेरणा रहे हैं. मैंने आपको सदा पूरी लगन से काम करते देखा है. मैंने आप से सीखा है कि कैसे कठिनाइयों में हिम्मत नही हारनी चाहिए और कैसे सफलता में भी विनम्र रहना चाहिए. यह ट्राफी आपकी है." कह कर वह नीचे उतर आया और अपने पिता के चरण छू लिए. सारा हॉल तालियों के शोर से गूंज उठा. श्री बंसल ने बेटे को गले लगा लिया.

{7}

रक्त बीज

मानव एक सीधा साधा व्यक्ति था. एक छोटी सी दुकान चलाता था. इतनी आमदनी हो जाती थी कि वह और उसका परिवार सुख से रह सके. जीवन में किसी प्रकार की कमी महसूस नहीं होती थी. लेकिन अपने आस पास फैले अन्याय , अत्याचार , भ्रष्टाचार से उसका दिल दुखता था. वह इस सब को मिटाने के लिए कुछ करना चाहता था.

एक बार उसकी दुकान के पास की मिठाई की दुकान पर कुछ बदमाशों ने खूब उत्पात मचाया. दुकान के मालिक को पीटा और रुपये लूट लिए. वो आदमी स्थानीय बाहुबली नेता के थे. अतः उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हुई. मानव से यह बर्दाश्त नहीं हुआ. उसने कुछ दुकानदारों को एकत्रित कर इसका विरोध किया. बात न सुने जाने पर अनशन किया. अंत में वह उस दुकानदार को न्याय दिलाने में सफल हो गया. सारे बाज़ार में उसकी धाक जम गई. वह वहाँ के व्यापारियों का नेता बन गया. धीरे धीरे उसकी ख्याति बढ़ने लगी. इससे प्रेरित होकर उसने पार्षद का चुनाव लड़ा और जीत गया. इस तरह वह राजनीति के गलियारे में पहुँच गया.

उसके पास अधिकार आ गया. अब वह लोगों की भलाई के काम कर सकता था. लेकिन इसी के साथ कई प्रलोभन भी आये. जिनसे वह बच नहीं सका. उसने सोंचा यदि लोगों के साथ साथ उसका भी फायदा हो तो बुरा क्या है. उसका लालच बढ़ने लगा. अब वह राजनीति में और आगे जाना चाहता था. किंतु अब दूसरों की सेवा करने के लिए नहीं अपनी सत्ता की भूख के लिए. उसने एक राष्ट्रीय स्तर के राजनैतिक दल से संपर्क किया और उसमें शामिल हो गया. अब उसकी दृष्टि विधायक की कुर्सी पर थी.

सबके बारे में सोंचने वाले सीधे साधे मानव, जो कि परिवार की छोटी छोटी खुशियों में खुश था की जगह अब ऐसा मानव था जो सिर्फ अपने हित की सोंचता था. अब वह राजनीति का माहिर खिलाड़ी बन गया था. जो साम दाम दंड भेद सारी नीतियों में निपुण था. जिनके सहारे वह अपने किसी भी प्रतिद्वंदी को मात देता था. इस प्रकार वह आगे बढ़ने लगा. उसका राजनैतिक कद बढ़ने के साथ साथ उसका अहंकार भी बढ़ने लगा.

अहंकार के साथ ही साथ उसकी सत्ता की भूख भी बढ़ने लगी. अब वह राष्ट्रीय स्तर पर अपनी जगह बनाना चाहता था. लोक सभा का चुनाव जीत कर वह संसद के गलियारों में पहुँच गया.

उसने तेज़ी से तरक्की की थी. सत्ता के साथ साथ दौलत भी आई थी. किंतु अथाह धन अपने साथ कुछ बुराइयां भी लाता है. वह सफलता की सीढ़ियां चढ़ने में इतना व्यस्त था कि अपनी संतान की सही परवरिश पर ध्यान नहीं दे पाया. उसका बेटा गलत राह पर चल पड़ा. ड्रग्स के नशे ने उसे गिरफ्त में ले रखा था. आये दिन किसी न किसी गलत वजह से वह चर्चा में रहता था. मानव ने उसे समझाने का प्रयास किया कि उसकी ये हरकतें मानव के लिए कितनी मुश्किल खड़ी करती हैं. उसके विरोधी तो ऐसी स्तिथियों की ताक में रहते हैं. किंतु उसका बेटा अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आया.

समय बदला विपक्ष में बैठने वाली उसकी पार्टी अप्रत्याशित रूप से जीत कर सत्ता में आ गई. नए मंत्रिमंडल में उसकी भी जगह लगभग निश्चित थी. उन्हीं दिनों एक घटना घट गई. उसके बेटे और उसके कुछ दोस्तों ने नशे की हालत में एक लड़की का अपहरण कर उसके साथ दुष्कर्म किया. सारी घटना मानव के फार्महाउस पर घटी थी. उसके विरोधियों के हाथ एक सुनहरा मौका लग गया. मीडिया तक बात पहुँच गई. मानव ने अपनी पूरी शक्ति झोंक कर इस मामले को दबा तो लिया लेकिन मंत्री पद उसके हाथ से निकल गया. अपनी मंज़िल के इतने करीब पहुँच कर भी वह उसे प्राप्त नहीं कर सका.

छोटी छोटी इच्छाएं दबे पाँव इंसान के मन में कदम रखती हैं. रक्तबीज की भांति एक ख़त्म होती है तो दूसरी को जन्म दे जाती है. धीरे धीरे ये लालच में तब्दील हो जाती हैं. समय के साथ लालच का बीज हवस के वट वृक्ष में बदल जाता है. हवस में इंसान अंधा हो जाता है. अपनी हवस पूर्ति के अलावा कुछ नहीं सोंच पाता है. उसमे बाधा बनने वाला अपना हो या पराया उसका शत्रु होता है. मानव भी अपनी हार को सह नहीं पा रहा था. उसके अहम् को चोट पहुंची थी. जो क्रोध में बदल गई थी. उसका बेटा उसके रास्ते का सबसे बड़ा कांटा साबित हुआ था.

एक पाँच सितारा होटल के कमरे में मानव की मुलाकात ख्याति प्राप्त शार्प शूटर से हुई.

एक खबर मीडिया में सुर्खी बन गई. सांसद मानव के पुत्र की गोली मारकर हत्या कर दी गई.

{8}

शह और मात

विजय राज सिंघानिया का नाम उद्योग जगत में शीर्ष पर था. वह सिंघानिया ग्रुप्स के मालिक व चेयरमैन थे. वॉइस चेयरमैन के पद पर उनके परम मित्र राजकिशोर डालमिया कार्यरत थे. किंतु इधर कुछ दिनों से वह गंभीर रूप से अस्वस्थ थे. अतः उनके पद से इस्तिफा देने की खबरें ज़ोरों पर थीं.

विजय राज के छोटे भाई जय राज ने भी सिंघानिया ग्रुप्स को इस मुकाम पर लाने के लिए जी तोड़ मेहनत की थी. किंतु अधिकांशतयः वह नेपथ्य के पीछे ही रहे. सारी चर्चा केवल विजय राज व राजकिशोर के हाथ ही आई.

जय राज बहुत शांत व्यक्ति थे. वह अविवाहित थे. विजय राज के बेटे उदय राज को वह पुत्रवत स्नेह करते थे. हाल ही में लंदन से व्यवसाय प्रबंधन की डिग्री लेकर लौटे उदय राज अपने प्रेम प्रसंगों तथा फार्मूला वन रेसिंग के अपने शौक के कारण अक्सर चर्चा में रहते थे.

अटकलों के मुताबिक राजकिशोर ने अपने पद से इस्तिफा दे दिया. विजय राज ने वह कुर्सी अपने पुत्र को सौंप दी.

उदय राज के पद संभालने को लेकर उद्योग जगत में बहुत वाद विवाद हुए. उनकी अनुभवहीनता तथा रंगीन मिज़ाज की बहुत आलोचना हुई. लेकिन सारे वाद विवाद ठंडे पड़ गए जब दो ही महिने बाद फार्मूला वन रेसिंग के दौरान उदय राज गंभीर रुप से घायल हो गए. खबर थी कि शायद उन्हें आगे का जीवन बिस्तर पर बिताना पड़े.

विजय राज को गहरा सदमा लगा. वॉइस चेयरमैन का पद पर जय राज को सौंप दिया गया.

जय राज पहले इस पद के लिए उदय राज के चयन से नाराज़ थे. किंतु सदैव नेपथ्य के पीछे रहने वाले जय राज ने इसे ज़ाहिर नही किया. अब खबर थी कि जिस रेसिंग कार को उदय राज चला रहे थे उसमें कुछ गड़बड़ी की गई थी.

अपनी कुर्सी पर बैठ कर जय राज मुस्कुराए. मेज़ पर रखे शतरंज पर एक ही चाल से उन्होंने शह और मात दे दी.

{9}

अपना दामन

सारे शहर ने अपने वीर शहीद जतिन को भावभीनी विदाई दी. सरहद पर घुसपैठियों से लड़ते हुए उसने अपनी जान दे दी थी.

जिस विद्यालय का वह छात्र रह चुका था उसके प्रधानाचार्य बंसल जी ने एसंबली में छात्रों को देश प्रेम तथा देश सेवा पर बहुत भावुक भाषण दिया. सभी बच्चों ने उसे पसंद किया.

रात को डिनर करते हुए उनके बेटे ने कहा "आज आपकी बातें सुनकर मैने तय किया है कि मैं आई आई टी की जगह एन डी ए में जाऊं."

बंसलजी ने अपने बेटे को देख कर कहा "मैं और तुम्हारी माँ इस लिए इतनी मेहनत करते हैं कि तुम कुछ बन सको. जिससे हमारा बुढ़ापा चैन से कटे. तुमसे जो कहा गया है वही करो."

"पर पापा..." उनके बेटे ने कुछ कहना चाहा.

बंसलजी ने भारी आवाज़ में उसे डपट दिया "मुझे कोई बहस नही करनी है."

उनका बेटा यह देख कर बहुत दुविधा में था.

{10}

चुनौती

कोई नही समझ पा रहा था कि क्यों लंदन में अपना सब कुछ समेट कर रमेश भारत लौट रहा था. वह पिछले पच्चीस वर्ष से वहाँ था. पूरी तरह से व्यवस्थित हो चुका था. वह अकेला था व अपने हिसाब से जीवन जी रहा था. किसी को भी अंदाज नही था कि वह ऐसा करेगा.

रमेश के पिता अक्सर उसे उनके संघर्षों के विषय में बताते थे जो उन्होंने स्वयं की एक पहचान बनाने के लिए किए थे. वह समाज के पिछड़े व शोषित वर्ग से संबंध रखते थे. उनके पिता खेतों में मजदूरी करते थे. फिर भी उन्होंने आर्थिक कठिनाइयों तथा सामाजिक चुनौतियों का सामना कर अपने पुत्र को पढ़ाया. अपनी मेहनत के बल पर वह आई ए एस अधिकारी बने.

आर्थिक कठिनाई तो नही हुई किंतु रमेश को भी अपनी सामाजिक स्थिति के कारण भेदभाव झेलना पड़ा. इन सबसे बचने के लिए वह लंदन चला गया. वहाँ अपना एक स्थान बनाया. सब ठीक था किंतु विकास के पथ पर बढ़ते अपने मुल्क से उसे आज भी ऐसी खबरें मिलती जो उसके समाज की सोचनीय दशा को प्रदर्शित करती थीं. यह सब सुन उसके मन में पीड़ा होती थी. वह इस विषय में कुछ करना चाहता था.

एक दिन उसने भारत लौटने का निश्चय कर लिया. अपने समाज के लिए वह भी उसी प्रकार संघर्ष करेगा जैसे उसके बाबा और पिता ने किया था.