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एक नया अध्याय

एक नया अध्याय

  • विनीता शुक्ला
  • “मंदा, देखो तो- क्या लाया हूँ, तुम्हारे लिए” पति का उत्साह भरा स्वर, मन्दाकिनी की चेतना को झिंझोड गया. मंदा की रुग्ण देह में हलचल हुई और अलसाई आँखों को सायास ही खोलना पड़ा. दहकते अग्नि गुच्छ सा, कोई धुंधला आकार सामने था. उन्होंने अचरज में आँखें मलीं तो स्पष्ट दीखने लगा था. लाल गुलाबों का गुच्छा! कितना अविश्वसनीय!! मंदा के मनपसंद फूलों को, उनके पति अविरल, खुद लेकर आये थे. ये सच था कि उन्हें, लाल गुलाब बहुत पसंद थे पर अविरल को उनका यह मोह, कभी सुहाया नहीं. पत्नी की मन्दाकिनी अपनी शादी की हर सालगिरह पर पति को एक लाल गुलाब भेंट करती थी.

    वे निस्पृह भाव से उसे ग्रहण करते रहे. शायद वह भेंट, उन्हें बचकानी लगती होगी. वह व्यावहारिकता के कायल और पत्नी किसी बच्चे सी भावुक! “कैसा है?” अविरल के प्रश्न से, मंदाकिनी की तन्द्रा भंग हुई थी. “बहुत अच्छा” कहते कहते उनका गला भर आया. अविरल स्नेह से उन्हें निहारने लगे थे. बोले, “हर बार तुम मुझे लाल गुलाब देतीं थीं....इस बार तुम ठीक नहीं हो- सो मैंने .....” मंदा ने संतोष से आँखें मूँद लीं. इधर अविरल के मनोमस्तिष्क में कोई संग्राम सा छिड़ गया. पत्नी सदैव उनकी सेवा करती थी पर वह तो उसके लिए एक बैर भाव पाले रहे हरदम. क्या कहें; इंसानी फितरत ही ऐसी है! अपने दुर्भाग्य का दोष किसी ना किसी पर मढ ही देता है वह.

    और उन्होंने वो दोष मंदाकिनी पर मढ दिया था.... !!! कितना सहज था वह सब कुछ!! अतीत का पाश, उन्हें बीते हुए घटनाचक्र में खींच ले गया. जूनियर हाई स्कूल के बोर्ड एग्जाम में, अव्वल आये थे वे. स्थानीय दैनिक पत्र में यह खबर छपते ही, बधाई देने वालों का तांता लग गया. एक साधारण से किसान का बेटा और इतनी बड़ी उपलब्धि! फिर तो नातेदारों से लेकर, स्कूल -प्रिंसिपल तक; सब खिंचे चले आये, उनके द्वार. क्या पता था- कि यहीं से जीवन का रुख पलट जायेगा! एक दूर के रिश्तेदार भी आये थे, उसी क्रम में. नाम था भोलेनाथ शर्मा. आते ही बापू की मनुहार करने लगे, “कौशिक जी, हाथ फैलाकर भीख मांगता हूँ; अपना यह हीरा मुझे दे दें . जान से भी ज्यादा संभालकर रखूंगा...आपके पास तो चार और बेटे हैं पर मेरा तो एक भी नहीं...”

    “आप यह कैसी बात कर रहे हैं शर्मा जी?! अपनी अम्मा के कलेजे का टुकड़ा है अवी.... और हमारे भविष्य का सपना. इससे अलग होने की कल्पना तक हमें कंपा देती है!! यह तो...ऐसा ही होगा- जैसे जिस्म से जान अलग कर दी जाये!!!”

    “देखिये कौशिक जी, ...बुरा मत मानियेगा; आपके पास रहकर इसे क्या मिलेगा? इतने बड़े कुनबे का बोझ.....समय से पहले परिवार की जिम्मेदारी और पढाई के लिए पैसा भी नहीं. जरा बताइए तो सही- क्या आपके पास इसे ऊंची शिक्षा दिला पाने की कुब्बत है? क्या आप इसकी प्रतिभा को, पनपने का अवसर दे सकेंगे ??” इस बात पर, निरुत्तर हो गए थे पिताजी. सात संतानों, पत्नी और माता-पिता का दायित्व... छोटे भाई के साथ, साझा खेती करके और पार्ट टाईम टीचरी से किसी भांति गृहस्थी की गाड़ी खींच रहे थे. भाई की शादी होने के बाद तो आमदनी उसके परिवार के साथ भी बांटनी होगी. फिर अविरल की बड़ी बहन भी शादी की उम्र तक पहुँच रही थी ......यह सब कैसे?

    मजबूरी में (या कहें कि लालच में) उन्होंने भोलेनाथ शर्मा के साथ, अपने किशोर बेटे का सौदा कर ही लिया. सौदे की पहली किश्त में, शर्मा जी ने उनकी बड़ी बेटी की शादी के लिए, एक मोटी रकम थमा दी थी. अविरल अपने ‘नए पिता’ के साथ उनके घर चला आया. बापू ने बताया- “शर्मा जी के पास कोई बेटा नहीं- इसी से तुम्हें ले जा रहे हैं ... अपने नए घर में तुम्हें वह सब सुख सुविधाएँ मिलेंगी –जो यहाँ नहीं...आगे पढ़ने का अवसर भी ” कहते कहते उनकी पलकें भीग गयीं थीं. भोलेनाथ ने अविरल से, उनका कुटुंब ही छीन लिया. माँ के आंचल की छाया, छोटे भाई- बहनों के साथ एक ही थाल में भोजन करने का सुख, अपने हरे- भरे खेतों में गैया चराने का आनंद - सब कुछ जाता रहा. शर्मा जी के यहाँ, कई तरह के सुस्वादु व्यंजन चखने को मिले पर अम्मा के हाथों की रूखी सूखी रोटी के आगे वह फीके जान पड़ते थे. अवि मन में तडपता रहता. उसे उसकी जड़ों से अलग जो होना पड़ा था!

    पालक पिता ने उनका दाखिला, देहरादून के नामी बोर्डिंग में करवा दिया. यह एक छात्र के लिए बहुत बड़ा सुअवसर था! पर इस अवसर ने उन्हें अपने माँ- बाप और भाई-बहनों से बहुत दूर ला फेंका. पहले तो कभी –कभी, वे उससे मिलने आ जाते थे पर अब.....!! बोर्डिंग से बारहवीं की परीक्षा पास करके निकला तो अवि को भनक लगी कि अगले दो-तीन वर्षों के भीतर, भोलेनाथ अपनी सांवली बिटिया मंदाकिनी को उसके साथ बांधने की योजना बना रहे हैं. वह भीतर ही भीतर सुलग उठा. अवि को शिद्दत से महसूस हुआ- उसकी हैसियत किसी ख़रीदे हुए गुलाम सी थी!

    कहाँ मंदा और कहाँ वे... यूनिवर्सिटी- टॉपर !! मंदा तो किसी प्रकार, ‘रॉयल डिवीज़न’ से, इंटर पास हुई थी. उनका मन विद्रोह कर उठा. किन्तु शीघ्र उस विद्रोह की हवा निकल गई थी. शर्मा जी ने, उनके पिता पर एक दूसरा एहसान कर दिया - उनकी छोटी बहन के ब्याह के वास्ते पैसा देकर...और फिर... बिरादिरी वालों का दबाव भी! कुल मिलाकर, उन्हें अपनी बगावत, रद्द ही करनी पड़ी. बी. ए. की परीक्षा में, स्वर्ण- पदक मिला तो कॉलेज की ‘ब्यूटी– क्वीन’ नीला, उन पर मर मिटी. नीला की नीली-नीली आँखों में, डूबने को जी चाहता! पर वक़्त को यह मंजूर कहाँ!! प्रशासनिक सेवा का फार्म भरते ही, मंदाकिनी संग अविरल का लगन हो गया.

    मेधावी अविरल ने, पहले ही प्रयास में; प्रशासनिक सेवा की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली. यह जानकर, शर्मा जी गदगद हो उठे थे; फिर तो मंदा का ब्याह करने में, तनिक भी देर न की उन्होंने. न चाहते हुए भी अविरल; थाम न सका, जीवन के उस भूचाल को! बेटी के हाथ पीले करने के बाद, शर्मा जी तो निश्चिन्त हो गए थे. शायद इसी कारण, भगवान ने भी उन्हें बुला लिया- जल्दी ही! मंदा की माँ पहले ही दिवंगत हो चुकीं थीं. परिवार में बचे तो बस अविरल कौशिक और उनकी अवांछित पत्नी मंदाकिनी!! अवि की जनम- जिन्दगी की भड़ास पत्नी पर न निकलती तो और किस पर निकलती?!

    खून के रिश्ते तो पहले ही फीके पड़ चुके थे. माता- पिता, भाइयों की आपसी कलह से तंग आकर, किसी आश्रम में जा बसे थे शायद! बरसों से उनका कोई अता- पता नहीं था... और भाई ऐसे– जिनका एक दूजे से ही सामंजस्य नहीं; फिर अवि से कैसे?! बहनें गंवार परिवारों में ब्याह दी गईं थीं; उन लोगों के साथ मेल बैठा पाना भी- सम्भव नहीं था... वे सारे दुर्भाग्य की जड़, मंदा को ही मानते!! “साब जी, नाश्ता करने आइये” कामवाली कामता की आवाज से, उनका विचारक्रम भंग हुआ. “यहीं ले आओ, मेमसाब की ज़रा आँख लग गई है; जगेंगी तो साथ ही खा लेंगे.” कामताबाई को थोड़ा आश्चर्य अवश्य हुआ कि आत्मकेंद्रित से साब जी, पत्नी का इतना ख़याल करने लगे पर वह बिना सवाल-जवाब किये नाश्ता ले आई. डोंगे की खटर- पटर सुनकर, मंदा ने उठने का जतन किया. उनकी शिथिलता को देखकर अविरल बोले, “रहने दो, उठो नहीं. तकिये की टेक लिए बैठी रहो. धीरे-धीरे मैं, तुम्हें खिलाता रहूँगा. उनकी बात सुनकर मंदाकिनी ही नहीं, कामता भी सकुचा गई और वहाँ से निकल गई.

    मंदा सुखद आश्चर्य के साथ, पति के हाथों से आहार ग्रहण कर रही थीं, विवाह के बाद, यह पहला मौका था उनके लिए; जब अविरल ने इतना प्रेम जताया हो! उन्हें याद है – सालों पहले जब पनकी के हनुमान मंदिर में दर्शन करने गई थीं; तो एक बंदर ने प्रसाद छीनने के लिए उन पर झपट्टा मारा था. काफी खरोंचे आयीं थीं उन्हें. तब अविरल ने सहानुभूति के दो बोल तक नहीं बोले बल्कि डॉक्टर के आगे ही उनका मजाक उड़ाया था, “क्या बताएं डॉक्साब, जिधर जाओ, इनकी बिरादरी मिल जाती है! बिरादरी वालों से तो- खुद ही निपट-सुलझ लेना चाहिए था; सुनकर अवाक रह गई थी मंदाकिनी, डॉक्टर भी हैरान थे एक पति की ऐसी अवहेलना पर. ऐसे कई अवसरों पर मंदाकिनी लज्जा से गड़ जाती थी.

    एक बार अविरल ने, अपने दोस्त के यहाँ मंदा का कुछ ऐसा ही हाल किया था. उन लोगों का कुत्ता जोली, वहाँ बिस्तर पर आराम फरमा रहा था. बस अविरल को मौक़ा मिल गया खिचाई का, “जोली, अगले जन्म में मुझे तुम्हारे जैसा ही भाग्य मिले. क्या ठाठ हैं तुम्हारे! एक हम हैं कि अपने ही घर में हमारी कोई पूछ नहीं!” यह सुनते ही उस घर के सभी बंदे, मंदाकिनी को घूरने लगे थे और वह.....! लग रहा था कि धरती फट जाये और वो उसमें समा जाये!! अवि लोगों के आगे, उसे नीचा दिखाने से बाज नहीं आते.

    यह दुर्भावना तब भी दूर नहीं हुई, जब वे फूल से जुडवाँ बच्चों के पिता बने. पत्नी बच्चों और गृहस्थी में व्यस्त रहती; वे अपनी नौकरशाही और गोल्फ- प्रैक्टिस में. उसके बिस्तर पकड़ लेने के बाद, मानों ज़िन्दगी घिसटने सी लगी. तीन साल के चुन्नू- मुन्नू, आया से संभलते नहीं. उन्हें वार्डरोब से लेकर, डाइनिंग- टेबल तक- सब अव्यवस्थित जान पड़ते! नौकरों की फ़ौज भी, उनके घर को घर नहीं बना पायी...इन्हीं दिनों वे, मंदा की उपयोगिता जान पाए थे. पत्नी ने खुद को, उनके अनुसार ढालने के लिए, क्या कुछ नहीं किया

    ट्यूटर से, कामचलाऊ अंग्रेजी- वार्तालाप तो सीख ही लिया... इंटीरियर- डेकोरेटर को बुलाकर, घर का कायाकल्प भी करवाया; किन्तु उनका पूर्वाग्रह, ज्यों का त्यों! वे कुछ और सोचते- विचारते- इसके पूर्व ही, मन्दाकिनी का थका हुआ स्वर उभरा, “ सुनिए जी...ज़रा वह डायरी तो उठाएंगे”. अविरल ने यंत्रवत, डायरी को मंदा की तरफ बढ़ाया. मंदा ने उसके भीतर से, एक कागज निकाला और उन्हें थमा दिया. अस्फुट स्वर में बोली, “विवाह की सालगिरह पर...मेरी तरफ से आपको” मंदाकिनी के कांपते स्वरों ने, उन्हें विस्मित किया. ‘यह कैसा कागज का पुर्जा...क्या कोई प्रेम- सन्देश?!’- सोचकर वे होंठों ही होंठों में मुस्कराए. किन्तु उसे देख, उनकी आँखें चौड़ी हो गयीं. यह तो अंकपत्र था- जो मंदा के स्नातक होने की, घोषणा कर रहा था. वह प्रथम श्रेणी से, ससम्मान उतीर्ण हुई थी; व्यक्तिगत परीक्षार्थी के तौर पर, ऊंचा मुकाम हासिल किया था उसने!! वे जब काम में और सामाजिक गतिविधियों में लगे रहते; उनकी पत्नी, कठिन परीक्षा से जूझती रही होगी.

    अविरल की मुग्ध दृष्टि, मंदाकिनी को निहाल कर गयी...जीवन को नवीन अर्थ मिला... एक नया अध्याय खुल गया – उन चंद ही पलों में!!

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