दीर्घवृत्त
विनीता शुक्ला
“ये औरतें...! पति को जूती में रखना चाहती हैं ...चाहती हैं कि वो हरदम इर्द गिर्द नाचता रहे...इनके सामने बिछ बिछ जाये... इनकी तारीफों के कसीदे पढ़े; भूलकर भी दूसरी औरत का जिक्र किया तो- गये काम से!!”
“अरे भाई... टेक इट इजी! यह तो हर घर में लगा रहता है ...अब रोहिणी को ही लो. कल कह रही थी कि पड़ोसन को, स्माइल मत पास किया करो; बताओ?! एक भली औरत यदि आपको देखकर मुस्कराती है तो आप क्या करेंगे?? उसे डंडा तो नहीं मारेंगे!!! मैंने कहा भी कि मुस्कराहटों का आदान- प्रदान, शिष्टाचार की निशानी होती है...लेकिन”
“हम कोई खूंटी से बंधी गाय हैं क्या” अपने पति मिहिर और सूरज भाई का वार्तालाप सुनकर, रोहिणी उलटे पाँव लौट आई. मन एक विचित्र ऊहापोह में डूब गया. चाय की ट्रे, उसने नौकर को थमाई और बैठक में रख आने को कहा. खूंटी से बंधी गाय का विशेषण, बेतरह कुरेद रहा था. खूंटी तुड़ाकर भागने को आतुर...बिफरती हुई गाय... मरखनी, बावरी सी! कोल्हू का बैल कहते तो ज्यादा ‘मारक’ होता. अंतहीन चक्र में जुता हुआ, निरीह प्राणी!! कोड़ों की चोट खाकर...बेतहाशा एक अंधे लक्ष्य के पीछे...मुंह से छूटता झाग!
सब कुछ गोल गोल. दुनियां गोल...फूलती हुई सांसों में अटका गोल पथ... भेजे से फूटती चिंगारियां भी गोल! दोपहर का समय था. रोहिणी की आँखें भारी होने लगीं. अलसाई देह, पलंग पर ढह गयी. सप्ताहांत में पति की गपशप, बच्चों का कैरम क्लब और उसका टी. वी.- सब कुछ नियमबद्ध है मानों. उसकी दुनियां भी, सीमित दायरे में बंधी. केंद्र में परिवार; जीवन के आयाम- त्रिज्याओं से नियत, गृहस्थी की सुपरिभाषित परिधि. निद्रा उस पर हावी होने लगी. केंद्र, त्रिज्या, वृत्त, परिधि- सब अवधारणायें, आपस में गड्डमड्ड...!
घर- गिरस्ती ही क्यों; भूमंडल से लेकर अंतरिक्ष तक- हर शै, दायरे में जकड़ी हुई...चन्द्रमा पृथ्वी से...पृथ्वी सूर्य से...उनके वे गोलाकार घेरे!! सूर्य का आभामंडल भी गोलाकार!!! नींद की खुमारी ने, अवचेतन को, कहीं न कहीं कचोट दिया. गोलाई की वह परिभाषा- “एक निश्चित बिंदु से, समान दूरी पर रहने वाले बिन्दुओं का बिन्दुपथ, वृत्त कहलाता है.” गाँव का विशाल बरगद और उसके नीचे टाट पट्टी पर बैठे बच्चों की जमात. पेड़ के तने से, टिका हुआ श्यामपट. आचार्य जी, ज्यामिति का पाठ पढ़ा रहे थे. ज्यादातर बच्चे, पैरों में मुंह दिए, ऊंघ रहे थे.
“बच्चों, आप में से कोई वृत्त का उदाहरण दे सकता है?” इस पर, एकाध को छोड़कर, बाकी चेहरों पर हवाइयां उड़ने लगीं. आचार्य जी का सोंटा, बहुत तेज पड़ता था- हथेलियां लाल करके ही छोड़ता! एक ने साहस करके कहा, “सूरज, चन्द्रमा और ...पृथ्वी...” आचार्य जी ने उसे गंभीरता से देखा और कहा- “बैठ जाओ...अच्छा प्रयास किया तुमने; यह खगोलीय पिंड, आदर्श गोलक नहीं है. हाँ- इनका आकार, गोले से मेल जरूर खाता है” इस बार रोहिणी ने हाथ उठाया और एक सांस में कह गयी, “चूड़ी, सिलेंडर का तला और...और रोटी बेलने वाले चकले का आकार...”
“शाबाश बेटी! ज़रा इधर तो आ...” वह सकुचाते हुए, उनके पास गयी तो उन्होंने पीठ थपथपा कर, उसकी मुट्ठी कंपटों से भर दी. रोहिणी गर्व से फूल उठी. सही उत्तर के लिए, अक्सर वही ईनाम पाती. गणित- कभी न खत्म होने वाली पहेली; जहाँ विविध समीकरण- धन, ऋण, गुना, भाग, वर्ग, घन ... उसकी मेधा को ललकारते हुए...एक अजब सा रोमांच!! जीवन भी समीकरणों में, उलझा हुआ. जीवन का गणित- अम्मा के पॉजिटिव व मौसी के नेगेटिव चरित्रों में बुनी इक्वेशन.. रिश्तों की जोड़- घटत...तराजू के दो पलड़े और संतुलन का लेखा- जोखा; बाऊजी का किरदार, इन दोनों के बीच घिसटता... कभी धनात्मक तो कभी ऋणात्मक!
दो विपरीत ध्रुवों में फंसी, वह और सौतेली बहन रुशाली! “अरे बहूजी, सोय रही हो का? हमका दुसरी जगह भी जांय का है...झाडू नाहीं दिखात; बर्तन वाली बट्टी किधर धरी है- तनी बताय दियो” कामवाली की कर्कश आवाज, हथौड़े सी चोट कर गयी. वह आँख मलते हुए उठी और बोली, “अरी! तूने तो गहरी नींद से जगा दिया. बहादुर से पूछ लिया होता! छुट्टी के दिन भी... सोना नहीं बदा”
“त ईका कऊन जिम्मेवार?! आपका ई नौकरवा, ई बहादुर तो कौनो काम का नाहीं. तीन मनई का, खाना बनावत है अऊर बर्तनन का ढेर लगा देत है! ऊ तो बाहरै फिरत रहा...आवारा, सत्यानासी!!”
“तू तो बहादुर को कोस रही है और पड़ोसन का क्या- वो तो पानी पी- पीकर कोसती है तुझे!”
“हाय दैया...काहे?!!” कामवाली जसोदा ने ठुड्डी पर हाथ रखकर कहा. फिर क्या था; रोहिणी ने उसके कान भरने शुरू कर दिए. यह कि पड़ोसन की पेन ड्राइव नहीं मिल रही थी; घुमा- फिरा कर जसोदा का नाम लेती थी बारम्बार. वह भी चार लुगाइयों के सामने. सुनते ही उस मूढमति जसोदा का माथा गरम हो गया. उबल पड़ी, “का जानी काहे, ई तरह की बात करत है... अबहिन तो हम ऊका- का कहत हैं...हाँ पान- डिरैव...पड़ोसन मेमसाब के हाथे दिए रहे. खुदही लुकाय के धरि दीन्हा...मुला परपंच जसोदा के मत्थे!!!” इस हद तक भडक गयी जसोदा कि न तो पड़ोसन के घर काम करेगी और न ही किसी और को करने देगी.
रोहिणी के मुख पर, एक विषभरी मुस्कान पसर गयी. मौसी कहती थी- “प्यार और जंग में सब जायज है” इस जहरीली सोच ने, सगी बहन को ही; उनकी सौत बना दिया. जिसे वह प्यार कहती थीं- वह प्यार नहीं, सुविधाभोगी जीवन को पाने की दौड़ थी...शासन करने की लिप्सा- घर पर, पति पर, बच्चों पर, सेवक- सेविकाओं पर, नातेदारों पर; यहाँ तक कि अड़ोसी- पड़ोसी पर भी, अपनी मर्जी थोपने से बाज न आतीं. वह गलत थीं पर सफल हुईं. सफल हुईं, बाऊजी को अम्मा से अलग कर, अपनी तरफ खींचने में. रोहिणी को भी सफल होना है- साम, दाम, दंड, भेद; किसी भी जुगत से. “नथिंग सक्सीड्स एज़ सक्सेस”....”एवरीथिंग इज़ फेयर इन लव एंड वार”!!!!
पड़ोसन अब मिहिर को रिझा न सकेगी. कामवाली के बिना, घर के धंधों से, छुटकारा कहाँ पाएगी! बनने संवरने का मौका ही नहीं मिलेगा!! जानती है रोहिणी- कि उसने बहुत नीच हरकत की है; पड़ोसन उससे पेन- ड्राइव मांगने जरूर आयीं थीं क्योंकि उनकी वाली नहीं मिल रही थी. किन्तु उन्होंने कभी भी, जसोदा का जिक्र नहीं किया... यह तो प्रेम की लड़ाई है; मिहिर पर एकाधिकार पाने की लड़ाई- एवरीथिंग इज़ फेयर इन लव एंड वार!!! पति का झुकाव, दूसरों की तरफ, कदापि नहीं होने देना है. सूरज भाई भी आजकल मिहिर के, कुछ ज्यादा ही सगे बन रहे हैं. उनकी कोई काट निकालनी ही होगी.
पिछली बार तो सूरज की पत्नी, मेघना काम आ गयी थी. मेघना का ‘प्यादे’ जैसा इस्तेमाल किया था उसने, ““मेघना भाभी ने बताया कि सूरज भाई, तुमको ‘चिपकू’ कह रहे थे”; यह मिहिर के अहम् पर सीधा वार था. वह तिलमिला उठे. फिर कई महीने, सूरज भाई से, ऐंठे- ऐंठे रहे. सूरज भाई ने प्रेम से उन्हें, ‘फेविकोल फ्रेंड’ कहा था; उनसे अपने संबंधों की व्याख्या करते हुए- “यह फेविकोल का मजबूत जोड़ है- टूटेगा नहीं”. मिहिर ने उस बात को, अन्यथा ले लिया- रोहिणी की ‘कृपा’ से. मिहिर की पत्नी –जो अपनी सोच को, जसोदा के स्तर तक ला सकती थी... विलक्षण बौद्धिक क्षमताएं, जहालत में झोंक सकती थी... स्वार्थ के लिए, किसी हद तक जा सकती थी!
रोहिणी ने अनुभव से सीखा है कि स्त्री कितनी ही गुणी हो; जो पति पर बस नहीं तो कोई पूछ भी नहीं . अम्मा के दुर्दिनों से मिली सीख! सगी बहन ऐसा दंश देगी... उनकी सोच तक से परे था!! बाऊजी गाँव के चौधरी. गाँव की सबसे सुन्दर कन्या, ब्याहकर लाये थे. वह एक दरिद्र की बेटी; लेकिन रूप राजकुमारियों सा. उसे देख, चौधरी अपना होश खो बैठे. समाज – बिरादरी, कुल- गोत्र, कुलीन- अकुलीन जैसे मानदंड धरे रह गये... उनके साखदार परिवार में, वह ‘गिरे पड़े घर’ की लड़की! अम्मा का बाऊजी के जीवन में प्रवेश, अनाधिकृत नहीं था. बरसों तक बाऊजी, उनके सम्मोहन में जकड़े रहे. किन्तु समय सदा एक सा नहीं रहता; समय ने करवट क्या बदली, अम्मा का तो भाग(भाग्य) ही बदल गया!
बेटवा, बहुरिया का आपसी लगाव, दादी को बहुत अखरता. ‘जादूगरनी’ का कैसा वशीकरण मन्त्र- जो बेटे को, माँ का प्रेम ही फीका लगने लगे... मानों ममता का बंध, छीज रहा हो! कैसी अनाहूत आपदा, कैसी अभिशप्त छाया, कैसी कुलवधू...जो बरसों बाद भी, निपूती ही रही! दादी ने ऐलान किया कि इस अपशगुनी, बाँझ की मनहूसियत, सहन नहीं होती. सपूत के लिए, अब जोरशोर से, दूसरी घरवाली ढूंढनी होगी. ऐसे में मौसी पर उनकी नजर पड़ी. कम उमर की कमसिन लडकी. सांवली हुई तो क्या- स्वस्थ शरीर की मालिक थी. उनके कुल को आगे बढाने के लिए, एक पुख्ता कोख चाहिए थी. यह बात अलग कि उनके बेटे से, उम्र में कहीं छोटी थी लड़की.
पर इसके बावजूद, वह उस ‘जादूगरनी’ की बहन थी; जिसने रह- रहकर, उनको दुःख पंहुचाया. उन्हें बदला लेना था... और इससे बड़ा कोई बदला नहीं- कि सगी छोटी बहन को ही, उसकी सौत बनाकर खडा कर दें!! मौसी को बरगलाने में, वे कामयाब हुईं. वह गरीब, उनके बहकावे में आ गयी. माँ – बाप के पास, धन- ऐश्वर्य से युक्त, वर जुटाने की सामर्थ्य नहीं... सो बहन के घर- संसार में ही, डाका डाल दिया!! अम्मा के लिए, ज्यों नरक का द्वार खुल गया था. पति एक नई देह भोगने को आतुर... अपने ही खून से मिला व्याघात...घुटती हुई, पराधीन सांसें!!!
बिरादरी के मुंह पर भी ताला लगा रहा. किसी के पास मौसी को, बाऊजी की उपपत्नी कहने का साहस नहीं. बाऊजी खुल्लमखुल्ला, ‘रखैल’ को बीबी ठहरा रहे थे; लेकिन उनके रुतबे के आगे, सबकी जुबाने सिल गयीं. बाऊजी का जीवन- वृत्त, जिसकी केंद्रबिंदु सिर्फ और सिर्फ अम्मा थीं... उन्ही से जुडी दैनिक -चर्या, उन्हीं के गिर्द डोलती ज़िन्दगी. फिर न जाने कब... एक ही अक्ष, एक ही धुरी पर घूमते हुए; उनका अस्तित्व ही खंडित हो गया. दीर्घवृत्त जैसा, दो केन्द्रकों में बंटा हुआ आदमी!
मौसी की जचगी, कच्ची आयु में हुई. रुशाली दी, सातवें ही महीने में आ गयीं. उनका एक पैर, दूसरे पैर से छोटा था; रंग गहरा काला...नाक- नक्श भी डरावने से!! किशोरवय के कारण, मौसी के गर्भ पर जोर पड़ा. परिणाम- सदा के लिए, वे बिस्तर से लग गयीं. बाऊजी, थाली के बैंगन की तरह; पुनः अम्मा की तरफ लुढक गये. अवसरवादिता की अति थी यह!! असामान्य पुत्री को देखकर, मौसी से अब हिकारत ही होती थी उन्हें! डेढ़ साल बाद, माँ की कोख भी हरी हुई और वह इस दुनिया में जन्मी. उसे देख बाऊजी निहाल हो गये थे. गोरी- चिट्टी, परी सी गुड़िया- रोहिणी उर्फ़ रोहू!
उनका सारा लाड़, रोहिणी पर बरसता. बड़ी होते होते, वह उनकी सब आकांक्षाओं पर खरी उतरी. क्या पढाई, क्या खेलकूद! गणित की क्विज़ के लिए, शहर भेजी जाती और पुरस्कार भी पाती. मैथ्स - ओलिंपियाड में, न जाने कितनी बार प्रथम आई- पूरे जिले में अव्वल!! गणितज्ञ बनना ही, जीवन का ध्येय भी था. बारहवी में इंस्पेक्शन के दौरान, एक सर आये थे- छात्रों को परखने के लिए. सुनते थे, आगरा विश्वविद्यालय के गोल्ड मेडलिस्ट हैं... गणित के व्याख्याता मिहिर शर्मा!!! उनके प्रश्न बहुत ही जटिल थे. एक प्रश्न था- “मैथ्स में इनफिनिटी या अनंत का कांसेप्ट कौन समझा सकता है?”
रोहिणी ने आत्मविश्वास से उत्तर दिया, “नंबर लाइन के बीच में जीरो होता है. बायीं तरफ नेगेटिव नंबर और दाहिनी तरफ पॉजिटिव. इसका बायाँ सिरा माइनस इनफिनिटी और दाहिना प्लस इनफिनिटी. इसके अलावा, जब हम किसी संख्या को, शून्य से विभाजित करते हैं तो वह परिभाषित नहीं होता- क्योंकि उसका उत्तर इनफिनिटी ही होता है. “एक्सीलेंट...सुपर्ब!!!” मिहिर ने चमत्कृत होकर कहा. पिछड़े से, एक कस्बेनुमा गाँव की लडकी और इतनी मेधावी! वह बारहवी बोर्ड की, परीक्षा में भी प्रथम आई. तब बाऊजी ने शान से, गाँव भर में लड्डू बांटे थे!!
जबकि बड़ी बेटी बदसूरत थी, लंगड़ाकर चलती थी. पढाई भी आठवीं के बाद, छोडनी पड़ी. मोटी बुद्धि के चलते, कई बार, अनुत्तीर्ण जो हुई!! किसी भाँति दान -दहेज़ देकर, उसे निपटाना था. लडके वाले जब, रुशाली दी को देखने आये तो जिज्ञासावश, रोहू ने कमरे में झाँका. उसने पाया कि दो मुग्ध आँखें उसका पीछा कर रही थीं. यह तो मिहिर शर्मा थे! रोमांच सा हुआ!! अधिक रोमान्च तब हुआ- जब बड़ी बहन की जगह, छोटी को पसंद कर लिया गया. बाऊजी भभक उठे. किन्तु रो- रोकर उसने, प्रस्ताव का समर्थन किया. जता दिया कि मिहिर जैसा व्यक्ति ही, उसका पति हो सकता था- गणित का ज्ञाता और विशेषज्ञ! बाऊजी दुलारी बिटिया की, अनदेखी न कर सके. विवाह हुआ. अपनी माँ का बदला, उसने मौसी से ले लिया- उनकी बेटी का हक छीनकर! उस कलूटी का ब्याह, अब कहीं न होगा!! ठुकराई हुई कुरूप स्त्री और संकरी सोच वाला समाज... याने कुगत ही कुगत !!!
यह अलग बात थी कि उसकी पढाई छूट गयी, उच्चाकांक्षाएँ ध्वस्त हो गयीं. तो क्या?! कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी तो पड़ता है!! विरासत में मिलीं- बीमार कैंसरग्रस्त सास; उन्हें छोड़, अध्ययन कैसे करती?? पति थोडा- बहुत पढ़ाने का जतन करते, पर उसे वो भी न भाता. वह उन्हें पतिरूप में देखना चाहती थी, गुरुरूप में नहीं!! गर्भवती होने के बाद, रही- सही संभावनाएं भी जाती रहीं. सूरज- चाँद सरीखे बच्चे, गोद में खेलने लगे. गणित जैसे विषय में, सर कब खपाती?! किसी भांति प्राइवेट परीक्षा देकर, समाज- शास्त्र में बी. ए. किया; वह भी ‘जुगाड़’ से!! पेपर सेट करने वालों से लेकर, जांचने वालों तक पहुँच थी- उसके पति की. इस तरह जीवन में, शिक्षा का अध्याय ही समाप्त हो गया.
“रोहू देखो तो कौन है!!” मिहिर की आवाज सुनकर, वह सचेत हो गयी. “अरे यह तो शोभा है!!!” उसने खुद से कहा. इसके पहले कि दोनों, आपस में, कुछ कहतीं- सुनतीं; मिहिर बोल उठा, “हमारे डिपार्टमेंट में नई नई आई हैं. गजब की विदुषी हैं! गणित पर ढेरों किताबें लिख चुकी हैं!!” मिहिर, शोभा को निहारे जा रहे थे. उस दृष्टि की ‘काट’, हर बार की तरह, उसके पास नहीं थी!! असहाय सी देखती रही. जाते जाते शोभा ने फुसफुसाकर कहा, “क्लास में तुमसे कभी, मैथ्स में जीत नहीं पायी. अपना टैलेंट, वेस्ट क्यों कर रही हो?? गणित में बी. ए. तो, कर ही सकती हो- प्राइवेटली. फॉर्म भेजूं? जो मदद हो बताओ; मैं कर दूंगी.”
रोहिणी की आँखें नम हो आयीं. वृत्त से दीर्घवृत्त बनने तक, ज्यामिति समूल ही बदल जाती है. वृत्ताकार से अन्डाकार...मात्र एक नहीं, छोटी और बड़ी दो धुरियाँ...दीर्घ अक्ष पर- एक के बजाय दो दो केंद्रक. अधिकारों की लड़ाई में, उसका चरित्र, कुछ वैसा ही बदल गया; दोयम बन गया. कोई न कोई, गलीज सी खब्त, सवार रहती है उस पर. नहीं...ऐसा नहीं चलेगा. वो खुद को ऐसे, जाया नहीं होने देगी. वह शोभा की बात पर गौर करेगी...जरूर करेगी!!!
*****