… खण्ड-7 से आगे
नरबलि और आदि शंकराचार्य
‘‘अभी तुम लोग थक गए होगे, आराम करो। दिन तो अभी सारा ही बाकी है। दो-तीन बजे तक आराम करके उठने के बाद हम श्रीनगर में घूमेंगे।’’ चाय-पान के बाद दादा जी ममता व सुधाकर से बोले।
‘‘जी बाबू जी।’’ ममता ने कहा और बच्चों से बोली, ‘‘भाई-बहन दोनों आराम करना, तंग मत करना दादा जी को।’’
‘‘अब आप भी तो हमें तंग मत करो मम्मी, जाओ प्लीज़।’’ मणिका ने ममता से कहा।
‘‘दिस इज़ नॉट योर बिजनेस यार।’’ सुधाकर ममता से बोला,‘‘बाबूजी खुद इन्हें देख लेंगे।’’
‘‘यह घर नहीं है जी कि बच्चे बाबू जी को परेशान करें और हम यह सोच लें कि ये जानें। बाहर का मामला है, यहाँ तो हमें ही इनकी खबर लेनी पड़ेगी।’’ ममता ने सख्ती से कहा।
सुधाकर इस पर कुछ न बोल सके और चुपचाप कमरे से निकलकर बाहर जा खड़े हुए। बच्चों को समझाकर ममता भी चली गई।
‘‘समझ गए दोनों?’’ उसके जाते ही दादा जी ने चुटकी ली।
‘‘समझ गए।’’ मणिका मुँह बनाकर बोली, ‘‘नॉट अ फ्रेंडली वन, शी इज़ अ प्रीचिंग मॉम।’’
‘‘और अपनी मम्मी के बारे में आपका क्या विचार है शहजादा सलीम?’’ दादा जी ने निक्की से पूछा।
‘‘सेम।’’ वह बोला।
‘‘दिल से बोल रहे हो या दीदी का बचाव कर रहे हो?’’ दादा जी ने पूछा।
‘‘दोनों।’’ उसने कहा।
‘‘अब आप भी ज्यादा स्मार्ट न बनो दादा जी।’’ मणिका दादा जी से बोली, ‘‘मम्मी ने आपको परेशान न करने की हिदायत दी है, बस। कमरे में लेटे-लेटे भी तो आप हमें काफी कुछ बता सकते हैं न!’’
‘‘सो तो मैं जानता हूँ...’’ हँसते हुए दादा जी बोले, ‘‘कि तुम लोग मुझे आराम नहीं करने दोगे। ठीक है, उधर वाले बिस्तर पर लेटो। मैं इस पलंग पर पड़ा-पड़ा तुम्हें कुछ-न-कुछ सुनाता हूँ।’’
यह सुनते ही बच्चे कमरे में पड़े दो बिस्तरों में से एक पर जा लेटे। दूसरे पर दादा जी लेट गए।
‘‘किसी ज़माने में यह श्रीनगर, पूरे गढ़वाल की राजधानी हुआ करता था।’’ दादा जी ने बताना शुरू किया।
‘‘किस ज़माने में?’’
‘‘कहते हैं कि सन् 1358 में, राजा अजयपाल के ज़माने में। यहाँ से कुछ ही दूरी पर एक जगह है—देवलगढ़। उसने उस देवलगढ़ को छोड़कर श्रीनगर को अपनी राजधानी बनाया था।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘उसके बाद जो भी राजा बना, उसने श्रीनगर को ही राजधानी बनाए रखना ठीक समझा।’’
‘‘कब तक दादा जी?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘सन् 1803 यानी करीब साढ़े चार सौ साल तक यह श्रीनगर ही गढ़वाल की राजधानी रहा।’’ दादा जी ने बताया।
‘‘अच्छा दादा जी, इस जगह का नाम श्रीनगर किस तरह पड़ा?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘यहाँ से कुछ दूरी पर छोटा-सा एक गाँव है बेटे, उफल्डा।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘वहाँ एक बहुत बड़ी शिला पर ‘श्रीयन्त्र’ खुदवाया गया था। सुना जाता है कि पुराने समय के राजा विधि-विधान से उस श्रीयन्त्र की पूजा करते थे। उस पूजा में नरबलि भी दी जाती थी। हजारों साल तक यह पाप उनके द्वारा किया जाता रहा। बाद में, जब आदि शंकराचार्य अपने भारत-भ्रमण के दौरान यहाँ पहुँचे, तो उन्हें इसका पता चला। वह तुरन्त उफल्डा गए और श्रीयन्त्र-शिला को अलकनन्दा में धकेल दिया।’’ यह कहकर दादा जी चुप हो गए।
बच्चे भी चुप पड़े रहे; लेकिन दादा जी को देर तक चुप देखकर मणिका बोली, ‘‘यहाँ के बारे में कुछ और भी बताइए न दादा जी!’’
‘‘कुछ और? सुनो—एक-एक करके मैं तुमको यहाँ की सभी प्रसिद्ध जगहों और महत्त्वपूर्ण मन्दिरों के बारे में बताता हूँ।’’ दादा जी बोले, ‘‘श्रीनगर अलकनन्दा नदी के बायें किनारे पर बसा है और उसी के एक किनारे पर कमलेश्वर महादेव का मन्दिर है। कहते हैं कि भगवान श्रीराम ने भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए यहाँ पर भारी तप किया था। ऊँची चोटियों से लाकर उन्होंने एक हज़ार ब्रह्मकमल उनके चरणों में चढ़ाए थे। तभी से भगवान शंकर का और उस जगह का नाम कमलेश्वर महादेव पड़ गया। यह भी कहा जाता है कि उसी जगह पर भगवान शंकर ने भगवान विष्णु को सुदर्शन चक्र दिया था। उस मन्दिर के पास ही कपिल मुनि की समाधि भी है।’’
‘‘ब्रह्मकमल क्या होता है दादा जी?’’ निक्की ने पूछा।
‘‘नाम से ऐसा लगता है जैसे हम आम तौर पर देखे जाने वाले कमल की बात कर रहे हैं: लेकिन ऐसा है नहीं।’’ दादा जी बताने लगे, ‘‘ब्रह्मकमल होता तो एक तरह का फूल ही है बेटे; लेकिन यह सिर्फ पहाड़ी क्षेत्रों में होता है और वह भी बारह-चौदह हज़ार फुट ऊँची किसी पहाड़ी पर। यह पत्थरों के बीच खिलता है। इससे कम ऊँचाई पर यह नहीं होता। जानने-समझने की बात यह है कि ब्रह्मकमल ऐसा कमल है जो कीचड़ में नहीं पत्थरों में खिलता है।’’ फिर कुछ पल रुककर उन्होंने पूछा, ‘‘मठ तो तुम लोग समझते हो न?’’
‘‘जी हाँ, दादा जी।’’ मणिका बोली, ‘‘संन्यासियों के रहने की जगह।’’
‘‘श्रीनगर में कुछ प्राचीन मठ भी हैं; जैसे—केशोराय का मठ, शंकर मठ और बदरीनाथ मठ। इनके अलावा एक जैन मन्दिर है, गुरु गोरखनाथ की गुफा है, वैष्णवी शिला है तथा लक्ष्मीनारायण, कल्याणेश्वर, नागेश्वर, भैरों, किलकिलेश्वर महादेव...और भी न जाने कितने मन्दिर हैं।’’
‘‘यह क्या बात हुई दादा जी।’’ निक्की अपने बिस्तर से उठकर दादा जी के पास आ लेटा, ‘‘आप तो मन्दिरों के नाम गिनाने लगे! कोई मज़ेदार बात बताइए न!’’
‘‘मज़ेदार बात!’’ दादा जी कुछ सोचते हुए बोले, ‘‘...ठीक है। लेकिन उसके बाद तुम चुप रहकर आराम करोगे, वादा करो।’’
‘‘क्यों?’’ मणिका चिहुँकी और कूदकर वह भी दादा जी के साथ ही आ लेटी।
‘‘इसलिए कि आराम नहीं करोगे तो घूमोगे कैसे?’’
‘‘ठीक है, वादा किया।’’ दोनों बोले।
‘‘तो सुनो—कला और काव्य के क्षेत्र में एक प्रसिद्ध व्यक्ति हुए हैं—मौलाराम। सन् 1743 में उनका जन्म हुआ था। वे श्रीनगर के ही रहने वाले थे।’’
‘‘यह भी तो जनरल नॉलेज बढ़ाने वाली बात ही आपने बताई दादा जी।’’ मणिका रूठे-से स्वर में बोली, ‘‘हम लोग वैकेशन टूर पर निकले हैं या एजूकेशन टूर पर?’’
‘‘हाँ, ’’ निक्की भी तुरन्त बोला, ‘‘आपने मज़ेदार बात सुनाने का वादा किया था, जनरल नॉलेज बढ़ाने वाली बात सुनाने का नहीं।’’
उनकी इस बात पर दादा जी जोर-से हँस पड़े और बोले, ‘‘एक नहीं, मैं तुमको कई मजेदार बातें सुनाऊँगा; लेकिन आराम करके उठने के बाद। अब आप दोनों अपने बिस्तर पर जाकर सो जाओ।’’
लेकिन दोनों में से एक ने भी उनकी बात पर लेशमात्र भी ध्यान नहीं दिया। आखिरकार, दादा जी को कहानी सुनाना शुरू करना ही पड़ा।
कथा नारद जी की
‘‘सुनो—नारद जी को...’’ दादा जी ने सुनाना शुरू किया; फिर टोकते हुए पूछा,‘‘नारद जी के बारे में तो जानते हो न?’’
‘‘हाँ,’’ निक्की तुरन्त बोला, ‘‘गंजा सिर, ऊँची खड़ी हुई चोटी, हाथ में एकतारा...तुन-तुन बजने वाला।’’
‘‘...और मुँह में ना...ऽ...रायण-ना...ऽ...रायण!’’ मणिका उपहास के अन्दाज़ में बोली, ‘‘उधर की बात इधर और इधर की बात उधर करने वाले चुगलखोर ऋषि।’’
मणिका के इस अन्दाज़ पर निक्की तो खिलखिलाकर हँस दिया लेकिन दादा जी गम्भीरतापूर्वक उसका चेहरा ताकते रह गए। कुछ देर बाद वह बोले, ‘‘देखो बेटा, नारद जी ब्रह्मज्ञानी ऋषि हैं और उनके-जैसा निश्छल और निष्कपट व्यक्ति सृष्टि में दूसरा नहीं हुआ। वे ऐसे ऋषि हैं जो न नीति जानते हैं न राजनीति; उनके मन में केवल एक बात रहती है, वो यह कि दूसरों का भला कैसे किया जाय। दूसरों का भला करने की इस भोली-भाली कोशिश में ही उनसे दूसरों का अहित हो जाता है। इस दुनिया में आज भी ऐसे निष्कपट लोगों की कमी नहीं है जो अपनी बातों से करना तो दूसरों का भला चाहते हैं लेकिन अज्ञानतावश धूर्त और चालाक लोगों की बदौलत दूसरों का अहित कर बैठते हैं।’’
बच्चे कान लगाकर उनकी बातें सुन रहे थे।
‘‘उधर की बात इधर और इधर की बात उधर पहुँचाने की नारद जी की आदत में और चुगली करने की आदत में सबसे बड़ा फर्क यही है कि चुगली करने में अपना हित और दूसरे का अहित करने की भावना छिपी रहती है। चुगली करने वाले को पता रहता है कि इस व्यक्ति से जो मैं उस व्यक्ति के बारे में बातें कह रहा हूँ उसका उद्देश्य अपना हित साधना है; भले ही उन दोनों के बीच झगड़ा पैदा हो जाए। जबकि नारदजी वे सब बातें समाज का हित करने की भावना से करते थे। उन्हें लगता था कि इस व्यक्ति से ये बातें मैं इसका या किसी अन्य का भला करने की नीयत से कह रहा हूँ।’’
‘‘जबकि हो उसका उल्टा जाता था ।’’ मणिका ने कहा।
‘‘सभी के साथ उलटा नहीं होता था। तुम्हें मालूम है, पार्वती जी जब छोटी थीं, नारद जी ने संकेत की भाषा में तभी उन्हें बता दिया था कि उनका विवाह भगवान शंकर से होगा इसलिए वो अभी से उनकी आराधना करें और पार्वतीजी ने वैसा ही किया था। इसलिए उनकी बात को सुनकर जो लोग उसकी गहराई को नहीं समझते थे उनके साथ उलटा हो जाता था और फिर वे लोग नारद जी को भला-बुरा कहते थे।’’
‘‘अच्छा, अब आगे की कहानी सुनाइए दादा जी।’’ निक्की बोला।
‘‘मैं तुम लोगों को सुना रहा था कि नारद जी को एक बार इस बात का बड़ा घमण्ड हो गया कि एक मामले में वे ब्रह्माजी, शिवजी और विष्णुजी इन तीनों से कहीं ज्यादा महान हैं।’’
शुरू-शुरू में हँसी-मजाक
‘‘यह कहानी है न दादा जी?’’ निक्की ने बीच में टोका।
‘‘टोका-टाकी अब बन्द।’’ दादा जी बोले, ‘‘सुनते जाओ बस।...तो नारदजी को घमण्ड हो गया कि इस पूरी सृष्टि में सिर्फ वही हैं जिसके मन में कभी विवाह करने का लालच नहीं जागा। विष्णुजी को इस घमण्ड का पता चला तो उन्होंने चला दिया उनके इस घमण्ड को तोड़ने का चक्कर। नारद जी को एक सुन्दर राजकुमारी भा गई। पता करने पर मालूम हुआ कि कुछ दिन बाद ही उसके विवाह के लिए स्वयंवर होने वाला है। दौड़े-दौड़े वे पहुँच गए विष्णुजी के पास; और बोले—बहुत जल्दी एक स्वयंवर होने वाला है भगवन्। ‘टिप-टॉप हीरो’ बना दो...तुरन्त।’’
‘‘आप भी क्या खूब सुनाते हैं दादा जी।’’ मणिका हँसी।
‘‘दीदी! ‘टिप-टॉप हीरो’।’’ निक्की भी हँसा।
‘‘विष्णुजी ने तो जाल फैलाया ही था। वह तुरन्त उन्हें ले गए एक नदी के किनारे और बोले—‘इस नदी के बीचों-बीच खड़े होकर मन ही मन उस कन्या का ध्यान करिए जिससे आप विवाह करना चाहते हैं और लगाइए तीन डुबकियाँ इस नदी के जल में। बहुत ही सुन्दर होकर निकलेंगे।’ नारद जी फटाफट धारा में उतरे और उसके बीचों-बीच पहुँचकर तीन डुबकियाँ जो लगाईं उस कन्या के रूप का ध्यान करके, तो कितना सुन्दर चेहरा लेकर जल से बाहर निकले, जानते हो?’’
‘‘बन्दर जितना।’’ दोनों बच्चे एक-साथ बोले।
‘‘रामचरितमानस पढ़ते समय यह कहानी एक बार पहले भी सुनाई थी आपने।’’ मणिका ने कहा।
‘‘हाँ, लेकिन तब मैं बहुत छोटा था। बात पूरी तरह समझ में नहीं आई थी।’’ निक्की ने कहा।
‘‘तू पूरी बात समझता ही कब है, हाफ माइंड!’’ मणिका ने ताना कसा।
‘‘...और तू क्रेक!’’ निक्की ने पलटवार किया।
‘‘तू महाक्रेक!!’’ मणिका उसकी ओर जीभ निकालकर चिढ़ाती हुई बोली।
और अंत में मुक्का-लात
अब, महाक्रेक से आगे की उपाधि निक्की जानता नहीं था। फिर भी बोला,‘‘तू महा-महा-महाक्रेक!!!’’ और यह कहकर उसने एक मुक्का मणि की कमर पर दे मारा। दादा जी कुछ समझ पाते, उससे पहले ही दोनों के बीच हाथापाई शुरू हो गई। इस काम में दोनों काफी माहिर थे। निक्की ‘हाथा’ में माहिर था और मणि ‘पाई’ में यानी निक्की के हाथ ज्यादा चलते थे और मणि के पैर। लड़ते-लड़ते दोनों पलंग से नीचे जा गिरे। यह देख दादा जी थोड़ा घबराए कि किसी को चोट न लग जाए, लेकिन जब देखा कि दोनों ठीक-ठाक हैं तो निश्चिंत बैठे रहे। यह तो इन दोनों का रोज़ का काम है—मिलना-जुलना, चिढ़ाना-चिढ़ना, कभी मारपीट और कभी हाथापाई पर उतर आना, कुछ घण्टों के लिए आपस में बोलचाल बन्द कर देना...और उसके बाद? उसके बाद पुनः एकजुट हो जाना। मम्मी, डैडी या दादा जी में से जो भी हत्थे चढ़ जाए उसकी जान खाना। दादा जी अब उस पल का इन्तज़ार करने लगे जब थक-हारकर दोनों में से कोई एक रोता हुआ उठ खड़ा होगा और औंधे मुँह अपने पलंग पर जा पड़ेगा।
दूसरा कहाँ जाएगा? वे सोचने लगे—
खण्ड-9 में जारी…