… खण्ड-9 से आगे
‘‘विधि का यही तो विपरीत विधान है बेटे।’’ उनकी बात सुनकर दादा जी ने कहा, ‘‘पहाड़ के दृश्य मनोरम होते हैं और जीवन कठिन। जीवनयापन की कठोरता यहाँ के वासी के शरीर को पत्थर बना देती है लेकिन नैसर्गिक सुषमा उसके मन को कोमल बनाए रखती है।...’’ फिर अपनी भावुकता पर काबू पाकर बोले, ‘‘यह बाईं ओर वाला रास्ता देख रहे हो?’’
उस समय वे गढ़वाल विश्वविद्यालय परिसर की ओर मुँह करके खड़े थे। सभी उनके द्वारा इंगित दिशा में देखने लगे। दादा जी बताने लगे, ‘‘हरिद्वार और ऋषिकेश के रास्ते से इधर आने वाले यात्राी इस, सामने वाली सड़क से यहाँ पहुँचते हैं। उत्तर प्रदेश से गढ़वाल में प्रवेश के ये ही प्रमुख द्वार हैं—ऋषिकेश और कोटद्वार।’’
‘‘इस रास्ते से आने पर भी पौड़ी बीच में पड़ता है क्या?’’ निक्की ने पूछा।
‘‘नहीं बेटे, ये दोनों रास्ते यहाँ श्रीनगर में आकर एक होते हैं।’’
‘‘इधर से आने पर कौन-कौन सी जगहें बीच में पड़ती हैं दादा जी?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘इधर से ?...हरिद्वार और ऋषिकेश तो तुमने देख ही रखे हैं। मैं उनके बाद की जगहें तुमको बताऊँगा।’’ दादा जी बोले, ‘‘ऋषिकेश के बाद बस ब्यासी नाम की जगह पर रुकती है। प्राकृतिक सौंदर्य की दृष्टि से यह बड़ा रमणीक स्थान है। उसके बाद देवप्रयाग आता है। देवप्रयाग में बदरीनाथ की ओर से आनेवाली अलकनन्दा धारा का और गंगोत्री से आनेवाली भागीरथी धारा का संगम होता है और वहीं से उस संयुक्त धारा का नाम ‘गंगा’ पड़ता है।’’ यह बताते हुए दादा जी यात्री-निवास के अपने कमरे तक आ पहुँचे। उनके पीछे-पीछे बच्चे और उनके मम्मी-डैडी यानी ममता और सुधाकर भी चले आए। दादा जी ने कमरे का ताला खोला और अन्दर प्रवेश करते हुए बोले, ‘‘देवप्रयाग तीन पहाड़ों के ढलान पर बसा हुआ नगर है। पहला ‘नरसिंह’ जो पौड़ी की सीमा में आता है तथा दूसरा ‘दशरथाचल’ और तीसरा ‘गृध’ पर्वत; ये दोनों टिहरी की सीमा में आते हैं। ये तीनों ही पर्वत आपस में झूला-पुलों से जुड़े हुए हैं।’’
‘‘तब तो यह बड़ा खूबसूरत नज़ारा बनता होगा दादा जी?’’ निक्की बोला।
‘‘बेहद खूबसूरत। कहतें हैं कि देवशर्मा नाम के एक ब्राह्मण को भगवान विष्णु ने वर दिया था कि त्रेतायुग में राम के रूप में अवतार लेने पर मैं तुम्हारे क्षेत्र में आकर तप करूँगा। रावण व कुम्भकरण आदि राक्षसों को मारने के बाद जब भगवान राम, सीता और लक्ष्मण ने देवप्रयाग क्षेत्र में आकर तप किया था, तब देवशर्मा ने उन्हें पहचान लिया। तभी से उस नगर का नाम देवप्रयाग हो गया।’’
‘‘उससे पहले उस जगह का क्या नाम था बाबूजी?’’ ममता ने पूछा।
‘‘हाँ, तू किसी बच्चे से कम थोड़े ही है।’’ दादा जी मुस्कराकर बोले, ‘‘तू भी पूछ, जो मन में आए।’’
‘‘बताइए न दादा जी।’’ निक्की बोला,‘‘ठीक ही तो पूछा है मम्मी ने।’’
‘‘भई, पूछा तो ठीक है,’’ दादा जी हकलाकर बोले,‘‘लेकिन यह रामायण-काल की घटना है और किसी ने भी इस सवाल का जवाब कहीं लिखा नहीं है। दरअसल, कुछ नाम, कुछ घटनाएँ बीतते समय के साथ-साथ इतनी ज्यादा अप्रासंगिक हो जाती हैं कि याद रखने लायक भी नहीं रह पातीं; यानी बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध ले। पहले क्या नाम रहा होगा, कोई नाम रहा भी होगा या नहीं कौन जाने। अब तो उसका नाम देवप्रयाग है, बस। घूमने और देखने लायक यों तो और-भी बहुत-सी जगहें देवप्रयाग में हैं; लेकिन मुख्य जगह है देवप्रयाग के पास ‘सीतावनस्यू’ नाम का वन। कहा जाता है कि अयोध्या की जनता द्वारा उल्टी-सीधी बातें सीता जी के चरित्र के बारे में कही जाने के कारण जब राम ने सीता जी को त्याग दिया था, तब वे इसी वन में रही थीं। और अंत में, इसी के पास ‘फलस्वाड़ी’ गाँव के बाहर वह धरती माता की गोद में समायी थीं।’’
‘‘इसका मतलब तो यह निकला कि लव और कुश का जन्म भी इसी वन में हुआ होगा दादा जी?’’
‘‘नहीं बेटे। इसका मतलब यह निकला कि भगवान राम ने अश्वमेध यज्ञ यहाँ किया था।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘इसलिए कि सीताजी ने भूमि में समाधि अश्वमेध यज्ञ वाली जगह पर ली थी; जब कि कुश और लव का जन्म वाल्मीकि आश्रम में हुआ था।’’
‘‘देवप्रयाग के बाद कौन-सी जगह आती है?’’
‘‘उसके बाद कीर्तिनगर आता है और उसके बाद यह श्रीनगर।’’ दादा जी ने कहा।
‘‘आपने देवप्रयाग को भी देखने के बारे में हमारी जिज्ञासा जगा दी बाबूजी।’’ सुधाकर ने कहा।
‘‘चिंता न करो।’’ दादा जी बोले, ‘‘बदरीनाथ धाम से वापस घर लौटते समय हम देवप्रयाग वाले रास्ते से ही जाएँगे।...सुनो, आज का दिन तो ढल ही गया।’’ उन्होंने सुधाकर से कहा, ‘‘ऐसा करो, यात्राी-निवास के मैनेजर से कहो कि हम लोग सवेरे जल्दी यहाँ से निकलेंगे इसलिए सुबह तक के लेन-देन का अपना हिसाब वह आज ही हमसे कर ले। अल्ताफ को भी बोल दो कि सुबह चार बजे वह टैक्सी में तैनात मिले। हम लोग रुद्रप्रयाग की ओर जाने वाली सड़क पर टैक्सी को आगे बढ़ाएँगे। ठीक है?’’
‘‘जी बाबूजी, ठीक है।’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘आप लेन-देन की चिन्ता न करो। वह सब मैं निपटा लूँगा। लेकिन आज्ञा हो तो एक बात कहूँ?’’
‘‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं?’’
‘‘सवेरे आराम से न निकलें; जल्दी किस बात की है?’’
‘‘तू वास्तव में ही बुधप्रकाश है।’’ यह सुनकर दादा जी प्रसन्नतापूर्वक बोले, ‘‘बुद्धि खराब है जो तुझे मैं बुद्धू कहता हूँ। बच्चों को तो समझाता आ रहा हूँ कि यात्रा का आनन्द लेते हुए, हर जगह को जानते-समझते हुए यात्रा करनी चाहिए और खुद भागमभाग में लगा हूँ। ठीक है, हम कल यहाँ से निकलेंगे, वह भी आराम के साथ।’’
आने वाले कल का कार्यक्रम अलसुबह से आगे खिसकवाकर सुधाकर ने जेब से अपना मोबाइल निकाला और अल्ताफ का नम्बर तलाश करते हुए कमरे से बाहर निकलने लगा। बाबूजी के चरण स्पर्श कर ममता भी उसके पीछे ही निकलकर अपने कमरे की ओर बढ़ चली। उसको जाता देख बच्चे बोले, ‘‘गुड नाइट मम्मी जी।’’
‘‘वेरी वेरी गुड नाइट मेरे बच्चो!’’ मम्मी ने मुस्कराकर कहा और बाहर निकल गई।
अगला दिन
दादा जी तो अपने नियम के अनुसार सुबह के लगभग साढ़े चार बजे जाग ही गए थे। बच्चों को उन्होंने सोता रहने दिया। ‘ठीक ही रहा जो सुधाकर ने आगे की यात्रा आराम से करते हुए चलने का सुझाव दिया’—वे सोचने लगे। बच्चों को कमरे में अकेले सोया हुआ छोड़कर वे घूमने के लिए बाहर नहीं निकल सकते थे। इसलिए शौच आदि से निवृत्त होकर कमरे में ही हल्का-फुल्का व्यायाम करने लगे। काफी देर बाद, जब उन्हें बाहर से कुछ अधिक आवाजें आने लगीं तो उन्होंने घड़ी देखी। सुबह के छः बज रहे थे। बच्चे कल काफी थक गए थे इसलिए अभी भी गहरी नींद में सो रहे थे। ममता और सुधाकर तो छुट्टी के दिन से पहली रात को सोते ही घोड़े बेचकर हैं—यह सोचकर वे मुस्करा-से दिए। अपने आराम में रुकावट न आए, इस बदमाश ने इसीलिए आराम से यात्रा करने का सुझाव दिया होगा—वे सोचने लगे—जो भी हो, सुझाव उसका है ठीक ही।
आगामी एक घण्टा उन्होंने स्नान-ध्यान आदि में बिता दिया। सात बजे के करीब सुधाकर का फोन आया, ‘‘चरण छूता हूँ बाबूजी।’’
‘‘सुखी रहो बेटा।’’ वे बोले।
‘‘जागने में देर हो गई, माफी चाहता हूँ।’’
‘‘देर कहाँ हुई? यह तो तेरा रोज़ाना का ही टाइम है।’’ दादा जी ने चुटकी ली।
‘‘आप भी बस...’’ सुधाकर ने शरमाकर कहा। फिर पूछा, ‘‘बच्चे तो अभी सो ही रहे होंगे?’’
‘‘मेरा बच्चा होकर जब तू जल्दी बिस्तर छोड़ना नहीं सीख पाया तो तेरे बच्चे होकर ये कैसे जल्दी बिस्तर छोड़ देंगे?’’
‘‘अरे, आप मुझे नहीं सुधार पाए, इन्हें तो सुधार लीजिए!’’ सुधाकर ने ताना कसा, ‘‘इन दिनों तो ये शत-प्रतिशत आपके चार्ज में हैं।’’
‘‘उड़ा ले मेरी कमज़ोरी का मज़ाक बेटा।’’ दादा जी हँसकर बोले, ‘‘बड़े-बूढ़ों का लाड़ बच्चों को आरामतलब बना देता है, मैं जानता हूँ।’’
‘‘मैं चाय आर्डर कर रहा हूँ।’’ बात को विराम देते हुए सुधाकर ने कहा, ‘‘बच्चों को भी जगा दीजिए। अपने लिए हमने इधर ही मँगा ली है।’’
‘‘ठीक है बेटे।’’ दादा जी ने कहा और फोन को रखकर बच्चों को जगाने लगे।
रुद्रप्रयाग की ओर
खा-पीकर पूरी तरह तैयार होने और यात्री-निवास से बाहर निकलने में उनको दस बज गए। सुधाकर ने अल्ताफ को फोन कर दिया था। उसने जैसे ही टैक्सी को यात्राी-निवास के गेट पर लगाया, कई कुली उधर दौड़ आए। सुधाकर से तय करके एक कुली यात्री-निवास के अन्दर से सामान उठाकर टैक्सी में रखवाने लगा। ममता, मणिका और निक्की के साथ दादा जी टैक्सी में बैठ गए। कुली को उसकी मजदूरी चुकाकर सुधाकर भी उसमें जा बैठा।
टैक्सी रुद्रप्रयाग की ओर बढ़ चली।
‘‘यह आप दोनों ने अच्छा किया।’’ दादा जी बच्चों से बोले, ‘‘पूरे रास्ते अलकनन्दा उसी ओर बहती नजर आएगी।’’
‘‘टैक्सी को आराम-आराम से चलाना अल्ताफ अंकल!’’ मणिका ने अल्ताफ से कहा।
‘‘हाँ,’’ निक्की बोला, ‘‘ और दादा जी, आप रास्ते में आनेवाली जगहों के बारे में हमें बताना नहीं भूलना।’’
‘‘अच्छा! अरे भाई, मैं तो आप लोगों के साथ आया ही इसलिए हूँ। सुनो, ’’ दादा जी बताने लगे, ‘‘यहाँ से कुछ ही आगे शकुरना गाँव आएगा। कहते हैं कि आदि शंकराचार्य ने इस गाँव में कठोर तप किया था। उसके बाद आएगा फरासू। इस गाँव के पास अलकनन्दा के किनारे परशुराम कुण्ड है। कहते हैं कि भगवान परशुराम ने इस जगह के निकट बहुत समय तक तपस्या की थी।’’
‘‘उसके बाद?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘उसके बाद आने वाली जगह प्रसिद्ध भी है और बरसात के दिनों में भयानक रूप धारण कर लेने वाली भी।’’
‘‘वह कौन-सी जगह है दादा जी?’’ दोनों बच्चों ने एक साथ पूछा।
‘‘वह है कलियासौड़। लेकिन कलियासौड़ से भी पहले धारीदेवी का बहुत प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिर आता है। श्रद्धालुओं ने अब उस मंदिर का जीर्णोद्धार कराकर उसे आकर्षक बना दिया है। कलियासौड के आसपास कुछ गुफाएँ हैं जिनमें जगद्माता महाकाली के बहुत-से भक्त तपस्या में लीन रहते हैं। कलियासौड़ के पास सड़क के ऊपर वाला एक पहाड़ बरसात के दिनों में दलदल के रूप में बहने लगता है जिसके कारण कभी-कभी यातायात कई-कई दिनों तक ठप पड़ा रहता है।’’
‘‘यानी इधर के यात्री इधर और उधर के यात्री उधर!’’
‘‘हाँ, रुकना ही पड़ता है।’’ दादा जी बोले, ‘‘कोई दूसरा रास्ता तो जाने-आने के लिए है नहीं।’’
बातें करते और अलकनन्दा की रमणीयता का आनन्द लेते उन्हें पता ही नहीं चला कि उनकी टैक्सी कलियासौड़ तक आ पहुँची है। अब इसे दुर्भाग्य कहा जाए या सौभाग्य कि जिस पहाड़ी के बारे में दादा जी ने कुछ समय पहले बताया था, कल रात उस पर बारिश हो गई और भारी मात्र में उससे बहकर आई हुई कच्ची मिट्टी सारी सड़क पर फैलती हुई नीचे नदी की ओर जा रही थी।
‘‘रात तीन बजे के करीब हुई थी बारिश।’’ आसपास के लोगों ने बताया, ‘‘यह तो अच्छा हुआ कि कोई वाहन उस समय यहाँ से नहीं गुजर रहा था।’’
यह बात सुनकर वहाँ उपस्थित सभी लोगों के रोंगटे खड़े हो गए। हालाँकि बारिश अब बन्द हो चुकी थी लेकिन दलदल अभी भी तेजी से नीचे की ओर आ रहा था। उसके चलते कोई वाहन तो क्या, पैदल व्यक्ति भी एक ओर से दूसरी ओर जाने की हिम्मत नहीं कर सकता था। स्थानीय लोगों ने बताया कि आई.टी.बी.पी. यानी इंडो तिबतन बॉर्डर पुलिस के जवान इस सारे दलदल को कुछ ही घण्टों की मशक्कत के बाद नीचे नदी में धकेल देंगे और रास्ते को जाने-आने लायक साफ कर देंगे।
बच्चों को इस बहाने एक नया अनुभव प्राप्त हो रहा था। डैडी की देखरेख में वे उस सारे दृश्य को नजदीक से देखकर आए।
करीब तीन घण्टे की कड़ी मशक्कत के बाद सुरक्षा जवानों ने सड़क को पूरी तरह साफ कर दिया। पहले उन्होंने बायीं ओर खड़ी बसों और कारों की सब सवारियों को उतरवा दिया, फिर खाली बसों को धीरे-धीरे दूसरे ओर भेजना शुरू किया। अल्ताफ भी मुस्तैदी के साथ अपनी सीट पर जा बैठा। उसकी टैक्सी एक बस के पीछे खड़ी थी। उसे वह धीरे-धीरे चलाता हुआ उस पार ले गया। बूढ़े व कमज़ोर यात्रियों, बच्चों तथा महिलाओं को सैनिकों व स्थानीय नागरिकों ने सहारा देकर दूसरी ओर पहुँचाने का काम किया। कुछ समय तक सुधाकर ने भी इस काम में उनका हाथ बँटाया। जब एक ओर की सारी गाड़ियाँ व सवारियाँ दूसरी ओर पहुँच गईं, तब दूसरी ओर की गाड़ियों व सवारियों को इस ओर लाने का काम शुरू हुआ।
खण्ड-11 में जारी..