देवों की घाटी - 7 BALRAM AGARWAL द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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देवों की घाटी - 7

… खण्ड-6 से आगे

‘‘क्या ब्बात है।’’ यह सुनकर सुधाकर एकदम बोल उठे, ‘‘हमें गर्व है बाबूजी कि हम आपकी सन्तान हैं। महाकवि कालिदास के बाद एक आप ही हैं जो कभी-कभी इतनी गहरी भाषा बोल सकते हैं कि आसपास बैठे लोगों के सिर पर से गुजर जाए।’’

दादा जी उसके इस जुमले पर कुछ बोल पाते, उससे पहले ही मणिका शिकायती-स्वर में बोल उठी, ‘‘यह क्या दादा जी! सादा और सरल भाषा बोलिए न! आसानी से हम बच्चों की समझ में आने वाली।’’

‘‘सॉरी बेटे, कभी-कभी मन बहुत भावुक हो उठता है और ध्यान नहीं रहता कि हमें भारी-भरकम नहीं, बोलचाल की सीधी-सादी भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए।’’

पौड़ी

टैक्सी अब तक पौड़ी पहुँच चुकी थी। यह अच्छा-खासा उन्नत नगर है। ठहरने के लिए बहुत-से साधन हैं। आसपास कोई ऊँची पर्वत-शृंखला न होने के कारण यहाँ झरने नहीं हैं और इसीलिए पानी की व्यवस्था नीचे, घाटी में बसे श्रीनगर से पाइप-लाइन बिछाकर की गई है।

नजीबाबाद और कोटद्वार से पौड़ी तक बस द्वारा आने वाली सवारियाँ कई घण्टे लगातार बैठी रहने के कारण थक जाती हैं और बस के रुकते ही नीचे उतर पड़ती हैं। प्राकृतिक सुन्दरता का चहेता न हो तो पहाड़ी रास्तों की यात्रा आदमी के शरीर के साथ-साथ मन को भी बेहद थका डालती है। मणिका,-निक्की, ममता,-सुधाकर और दादा जी भी चहल-कदमी के लिए टैक्सी से उतर पड़े। दादा जी से अलग दोनों बच्चे नीचे, घाटी की ओर उतरने वाली सड़क के बायें किनारे पर बने खेतों को देखने लगे।

‘‘दीदी! देख—किताब में छपे-जैसे सीढ़ीदार खेत!’’ निक्की चहक उठा, ‘‘...और उधर, नीचे देख—कितने छोटे-छोटे बैल...गुलीवर की कहानी-जैसे!’’

‘‘धत्, ये छोटे नहीं हैं बुद्धू।’’ मणिका बोली, ‘‘बहुत दूर से देखने के कारण ये ऐसे नजर आ रहे हैं।...वह सड़क देख, घुँघराले बालों जैसी लहरदार! और उस पर खिलौनों-जैसी दौड़ती रंग-बिरंगी बसें!!’’

‘‘कितनी छोटी-छोटी!!!’’ निक्की तालियाँ बजाता उछला, ‘‘ऐसा तो एक खिलौना भी है न हमारे पास।’’

‘‘तू क्या समझता है, सचमुच ये खिलौने हैं?’’ मणिका बुजुर्गों की तरह बोली, ‘‘क्योंकि हम बहुत ऊँचाई से इन्हें देख रहे हैं इसलिए ये सब हमें इतने छोटे नजर आ रहे हैं।’’

‘‘मैं समझ गया दीदी।’’

इतने में उत्तराखण्ड राज्य सड़क परिवहन निगम की एक बस के ड्राइवर ने बस को आगे बढ़ाने का संकेत देने के लिए हॉर्न बजाया। उसमें बैठकर जाने वाली, आसपास टहल रही सभी सवारियाँ एक-एक कर बस में जा बैठीं।

दोनों बच्चे और दादा जी भी बस को देखते खड़े रहे।

‘‘हाँ भाई, किसी का कोई साथी, कोई पड़ोसी, कोई बच्चा बाहर तो नहीं छूट गया बस से?’’ कण्डक्टर ने बस में बैठी सवारियों से पूछा, फिर बाहर की ओर आवाज़ लगाई, ‘‘है कोई इस की सवारी?’’ और बस को आगे बढ़ाने के लिए सीटी बजा दी।

बस आगे श्रीनगर की ओर जानेवाली ढालू सड़क पर मुड़ गई।

‘‘यह बस किधर जा रही है दादा जी?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘यह रास्ता श्रीनगर की ओर जाता है। कुछ देर बाद हम भी इसी रास्ते पर चलेंगे।’’

‘‘आपको यहाँ न रुककर सीधे श्रीनगर में ही रुकना चाहिए था न दादा जी।’’ निक्की बोला।

‘‘देखो बेटे, लम्बी पहाड़ी यात्राओं में, जहाँ तक बन सके, छोटी-छोटी दूरियाँ ही तय करते हुए चलना चाहिए। दूसरी बात यह कि यात्रा के दौरान किसी वजह से अगर कहीं रुकने का मन करे तो सोचो मत, रुक जाओ।’’

निक्की कुछ नहीं बोला। थोड़ी देर इधर-उधर घूम-घामकर ममता, सुधाकर, दादा जी और निक्की-मणि...सब के सब पुनः टैक्सी में आ बैठे। टैक्सी उसी रास्ते पर आगे बढ़ चली जिस पर कुछ समय पहले उत्तराखण्ड राज्य सड़क परिवहन निगम की बस गई थी।

श्रीनगर

आधे घण्टे से भी कम समय में टैक्सी श्रीनगर बस स्टैंड पर जा खड़ी हुई। घाटी में बसा हुआ यह नगर एकदम मैदानी नगर जैसा आधुनिक लगता है। बड़े-बड़े होटल,-रेस्तराँ और बाज़ार। ऊँची इमारतें और चौड़ी सड़कें। गढ़वाल विश्वविद्यालय परिसर, आई.टी.आई., पॉलीटेक्नीक, पर्यटक-भवन और धर्मशालाएँ। इन सबसे ऊपर, सौन्दर्य की अभिवृद्धि करते चारों तरफ खड़े हरे-भरे ऊँचे-ऊँचे पहाड़। एक किनारे पर तेज गति से दौड़ती अलकनन्दा। सीढ़ी-दर-सीढ़ी ऊपर को चढ़ते धान के खेत। अनगिनत मन्दिर। बदरीनाथ की ओर जाने वाले पर्यटकों के लिए श्रीनगर एक जरूरी और आरामदेह हॉल्ट है।

‘‘आज का दिन हम यहीं पर बिताएँगे बच्चो!’’ दादा जी बोले, ‘‘चलो, उतरो।’’

‘‘लेकिन, हम तो भगवान बदरीनाथ के दर्शन को जा रहे हैं न दादा जी?’’ मणिका बोली।

‘‘बेशक।’’

‘‘तब, यहीं पर क्यों उतर रहे हैं आप?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘देखो बेटे! भगवान बदरीनाथ के दर्शन जितना ही महत्त्वपूर्ण विचार यह भी है कि हम बदरीधाम की यात्रा पर निकले हैं।’’ दादा जी बोले, ‘‘सुन्दर और महत्त्वपूर्ण स्थानों पर तीर की तरह पहुँच जाने को यात्रा नहीं कहते। बीच में पड़ने वाली जरूरी जगहों के बारे में जानते हुए, उनके सौन्दर्य का पान करते हुए... उसे आत्मसात् करते हुए, वहाँ के छोटे से छोटे, गरीब से गरीब बाशिंदे से बातें करते हुए, उस बातचीत के जरिए वहाँ की संस्कृति का ज्ञान प्राप्त करते हुए, यह जानने की कोशिश करते हुए कि वहाँ के लोगों की जीविका का मुख्य साधन क्या है, उनका रहन-सहन कैसा है, उनकी परम्पराएं और रीति-रिवाज़ क्या हैं, हमें आगे बढ़ना चाहिए। इस यात्रा में यह श्रीनगर हमारा पहला पड़ाव है।’’

‘‘अच्छा चलिए, ’’ दादा जी की इस बात पर सुधाकर ने कहा, ‘‘यह बताइए कि यहाँ के लोगों की जीविका का मुख्य साधन क्या है और उनका रहन-सहन कैसा है?’’

‘‘बहुत अच्छी बात पूछी तूने।’’ दादा जी ने हँसते हुए कहा, ‘‘सुधाकर, यहाँ के लोगों की जीविका का मुख्य साधन तो खेती ही है। रही रहन-सहन की बात। तो मैं समझता हूँ कि ये बहुत कम में सन्तुष्ट हो जाने वाले लोग हैं। ...और तुम तो जानते ही हो कि सन्तुष्ट व्यक्ति का रहन-सहन दिखावे वाला नहीं होता। हालाँकि आधुनिकता के कदम यहाँ की धरती पर भी पड़ चुके हैं; यहाँ के बच्चे भी इंटरनेट की दुनिया से जुड़ चुके हैं; ऊँची-ऊँची इमारतें यहाँ भी बनने लगी हैं; फिर भी, रहन-सहन यहाँ के लोगों का सादा ही है।’’ इतना कहकर दादा जी कुछ देर को रुक गए। फिर एकाएक दोबारा बोले, ‘‘जीविका के बारे में तुम्हें एक बात और बता दूँ—उत्तराखण्ड की रचना कुमायूँ और गढ़वाल, इन दो अंचलों को जोड़कर हुई है। अंग्रेजों के जमाने से ही यहाँ के ज्यादातर लोग सेना में भर्ती होकर जीविका कमाते आए हैं। यह परम्परा आज भी यहाँ के अनेक परिवारों में ही नहीं, अनेक गाँवों में भी कायम है।’’

‘‘आप ठीक कह रहे हैं बाबू जी।’’ सुधाकर सहमति जताता हुआ बोला, ‘‘इतिहास की किताबों में मैंने गढ़वाल रेजीमेंट और कुमायूँ रेजीमेंट के बारे में पढ़ा था।’’

‘‘यहाँ हम किस होटल में रुकेंगे दादा जी?’’ निक्की ने बीच में टोकते हुए दादा जी से पुनः पूछा।

‘‘रुकने के लिए होटलों-धर्मशालाओं और यात्री-निवासों की यहाँ कोई कमी नहीं है बेटे।...फिलहाल हम बाबा काली कमली वाले के यात्री-निवास में रुकेंगे।’’ यह कहकर वे अल्ताफ से बोले, ‘‘गाड़ी उधर ले चलो अल्ताफ, उधर, जहाँ वह बोर्ड लगा है।’’

‘‘जिस पर ‘विश्रामगृह’ लिखा है बाबा जी?’’ अल्ताफ ने पूछा।

‘‘हाँ,’’ दादा जी ने कहा, ‘‘उसी के बराबर में बाबा काली कमली वाले का यात्री-निवास है, वहाँ रोकना।’’

अल्ताफ ने टैक्सी को वहाँ लेजाकर रोक दिया। आसपास घूम रहे बहुत-से कुलियों में से एक को आवाज़ लगाकर दादा जी ने टैक्सी से सामान उतारकर बाबा काली कमली वाले के यात्री निवास में भीतर तक ले चलने का आदेश दिया।

बाबा काली कमली वाले

‘‘यह काली कमली वाले बाबा कौन हैं दादा जी?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘हैं नहीं, थे।’’ दादा जी बोले, ‘‘कुछ लोग कहते हैं कि पंजाब के जिला गुजरांवाला के जलालपुर कीकना में सन् 1831 में उनका जन्म हुआ था। लेकिन मैंने कुछ और ही पढ़ा है।’’

‘‘क्या?’’ सुधाकर ने पूछा।

‘‘मैंने पढ़ा है कि इनका जन्म बंगाल प्रांत के वर्धमान जिले के अन्तर्गत बंडुल नामक गाँव के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था…सन् 1853 ईस्वी में। बचपन में ही पिता अखिलचन्द्र चटोपाध्याय की मृत्यु हो जाने के कारण इनका पालन-पोषण इनकी माता राजेश्वरी देवी और चाचा चन्द्रनाथ जी ने किया था। इनका बचपन का नाम ‘भोलानाथ’ था। बचपन में ही ये स्वामी निमानन्द नाम के एक सिद्ध-पुरुष के सत्संग में आ गये थे। इनके गुरु का नाम भृगुराम देव बताया जाता है। कुछ लोग कहते हैं कि सिर्फ 32 साल की उम्र में वे संन्यासी हो गये थे। लेकिन प्रमाण यह भी मिलता है कि सन् 1892 में कृष्णभामिनी देवी से इनका विवाह हुआ था। इनके दो पुत्र—दुर्गादास तथा विष्णुपद व एक पुत्री विश्वेश्वरी देवी का जन्म हुआ। डॉक्टरी का व्यवसाय अपनाकर ये वर्धमान जिले के गुष्करा नामक स्थान में चले गये। सन् 1911 तक वहीं रहे। संन्यास के बाद ‘भोलानाथ’ स्वामी विशुद्धानन्द नाम से प्रसिद्ध हुए। एक बार बदरी-केदार यात्रा पर आए तो उत्तराखण्ड से उन्हें बेहद प्यार हो गया। यहाँ आने वाले यात्रियों की विश्राम सम्बन्धी परेशानियों को महसूस करके सन् 1880 में उन्होंने एक ट्रस्ट बनाया। उस ट्रस्ट के माध्यम से उन्होंने यहाँ के हर तीर्थ पर धर्मशालाएँ बनवाईं।’’

‘‘काली कमली का क्या मतलब है दादा जी?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘स्वामी विशुद्धानन्द हमेशा काला कम्बल ओढ़े रहते थे, इसलिए लोग उन्हें काली कमली वाले बाबा कहने लगे थे।’’ दादा जी ने बताया।

बातें करते हुए वे भीतर तक जा पहुँचे। एकदम साफ-सुथरा था यात्राी-निवास। इस बीच सुधाकर ने मैनेजर से बातें करके दो कमरे बुक कर लिये थे। सोचा, एक में ममता और बच्चे रह लेंगे और दूसरे में वह और दादा जी। लेकिन दादा जी ने सुधाकर से कहा, ‘‘नहीं, खुद को और तुम्हें एक कमरे में, और ममता और बच्चों को दूसरे कमरे में रखने का मतलब होगा कि ताकतवरों को एक कमरे में और कमज़ोरों को दूसरे कमरे में रख दिया। यह गलत है। औरतों और बच्चों को कभी भी अकेला नहीं छोड़ना चाहिए। ऐसा करो, एक कमरे में तुम और ममता रुको और दूसरे कमरे में मैं और बच्चे रहेंगे।’’

अल्ताफ ने अपना बसेरा गाड़ी में बना लेने की बात पहले ही उनसे कह दी थी।

स्नान-ध्यान और नाश्ता

दादा जी के कहे अनुसार, ममता और सुधाकर अपने कमरे में जा चुके थे। अपने कमरे की ओर बढ़ते दादा जी बच्चों से बोले, ‘‘देखो भाई, सुबह का समय है और रातभर बैठे रहने के कारण हम सब थके हुए भी हैं। इसलिए सबसे पहला काम है अपने-आप को नहा-धोकर तरोताज़ा करना। उसके बाद अपुन तो हल्का-फुल्का खाना खाकर कुछ देर के लिए सोएँगे।’’

‘‘और कहानी?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘कहानी तरोताज़ा होने के बाद।’’

‘‘ठीक है।’’ मणिका बोली।

कमरे को अन्दर से बन्द करके दादा जी ने अटैची से अपने और बच्चों के पहनने के कपड़े निकालकर पलंग पर डाले। अपने कपड़े लेकर वे बाथरूम में घुस गए। उनके नहा आने के बाद निक्की नहाने को गया और अन्त में, मणिका। दादा जी इस बीच आँखें मूदँकर जाप करने को बैठ गए थे।

जैसे ही मणिका नहाने के लिए बाथरूम में घुसी, दादा जी के मोबाइल पर हनुमान चालीसा का पाठ सुनाई देने लगा। निक्की ने उठाकर देखा, सुधाकर की ओर से कॉल थी। कॉल बटन को पुश करके उसने मोबाइल को कान से लगाया और बोला, ‘‘हलो डैड!’’

‘‘हलो बेटे!’’ सुधाकर ने पूछा, ‘‘क्या कर रहे हो?’’

‘‘नहाकर बैठे हैं।’’

‘‘सब नहा लिए?’’

‘‘हाँ।’’

‘‘दादा जी क्या कर रहे हैं?’’

‘‘पूजा।’’

‘‘ठीक है।’’ उधर से आवाज़ आई, ‘‘मैंने चाय ऑर्डर कर दी है। वह लाता ही होगा। हम लोग भी तैयार होकर तुम्हारे कमरे में ही आ रहे हैं। साथ चाय पियेंगे। दादा जी से कह देना।’’

‘‘ओ. के. डैड।’’ निक्की ने कहा और कॉल काट दी।

जैसे ही दादा जी ने पूजा समाप्त की, निक्की ने सुधाकर का संदेश उन्हें सुना दिया। कुछ ही देर में मणिका भी नहाकर बाथरूम से बाहर निकल आई। तभी कमरे की घंटी बजी। निक्की ने दरवाज़ा खोला। मम्मी-डैडी थे। वे अन्दर आकर कुर्सियों पर बैठ गए और वेटर के आने का इंतज़ार करने लगे। जब काफी देर तक वह नहीं आया तो सुधाकर खुद उठकर बाहर गया और काउंटर पर बैठे एक कर्मचारी से कुछ कहा।

‘‘आप अपने कमरे में चलिए सर, मैं अभी भिजवाता हूँ।’’ वह उनसे बोला।

सुधाकर वापस आ गया। उनके पीछे-पीछे ही लम्बे कद का एक युवक चाय की केतली, प्याले और प्लेटें ट्रे में रखकर चला आया। बोला, ‘‘शॉरी शर जी। आज रश कुछ ज्यादा है। लाने में देर हो गई।’’

‘‘कोई बात नहीं।’’ सुधाकर ने कहा।

‘‘कुछ और लाऊँ शर जी ?’’ उसने पूछा।

‘‘नहीं।’’ सुधाकर बोला, ‘‘जाते समय दरवाज़ा बन्द कर देना।’’

‘‘जी शर जी।’’ उसने कहा और बाहर निकलकर दरवाज़ा बन्द कर गया।

सुधाकर ने कपों में चाय उँढ़ेलनी शुरू की। ममता ने बैग खोलकर घर से लाया हुआ नाश्ता प्लेटों में लगाया।

सबने चाय-पान शुरू किया। खण्ड-8 में जारी……