देवों की घाटी - 11 BALRAM AGARWAL द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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देवों की घाटी - 11

… खण्ड-10 से आगे

‘‘ईश्वर जो करता है अच्छा ही करता है।’’ दूसरी ओर पहुँचकर टैक्सी में बैठने के बाद दादा जी बोले, ‘‘श्रीनगर के यात्राी-निवास को छोड़कर सुबह जल्दी चल दिए होते तो हमें बहुत परेशान होना पड़ सकता था।’’

‘‘दरअसल, गढ़वाल का पहाड़ ज्यादातर कच्चा पहाड़ है बाबूजी।’’ सुधाकर बोला, ‘‘इसलिए जरा-सी बारिश में ही दलदल बनकर बहने लगता है।’’

‘‘जो भी हो, तेरी राय मानने से लाभ ही हुआ।’’

‘‘भूल न जाना, आगे भी ध्यान रखना यह बात।’’

‘‘जरूर।’’

बूढ़े गढ़वाली का दर्द

कलियासौड़ से चलकर टैक्सी रुद्रप्रयाग की सीमा में प्रवेश कर चुकी थी। बच्चे इस समय एकदम चुप थे। कलियासौड़ का भयावह दृश्य वे भूल नहीं पा रहे थे। वहाँ कई घण्टे बरबाद हो चुके थे।

‘‘भगवान का शुक्र है कि कोई दुर्घटना देखने-सुनने को नहीं मिली।’’ दादा जी कह रहे थे।

दिन करीब-करीब ढल ही चुका था। ज़ाहिर था कि वे सब आज की रात रुद्रप्रयाग में ही रुकेंगे। बस-स्टैंड के निकट पहुँचे ही थे कि अल्ताफ ने देखा—दुबला-पतला एक बूढ़ा गढ़वाली गुस्से में बोलता हुआ सड़क के बीचों-बीच तेजी के साथ इधर से उधर और उधर से इधर घूम रहा है। उसकी चाल-ढाल और बर्ताव से डरकर अल्ताफ ने गाड़ी को आगे बढ़ाने की बजाय किनारे लगा दिया।

‘‘क्या हुआ?’’ दादा जी ने पूछा, ‘‘गाड़ी किनारे क्यों लगा दी?’’

‘‘सामने इस भले आदमी को छेड़ दिया लगता है किसी मनचले ने...’’ अल्ताफ बोला, ‘‘काफी गुस्से में है। कहीं गाड़ी पर ही पत्थर-उत्थर न दे मारे, इसलिए साइड में लगा दी है कुछ देर के लिए।’’

सड़क पर उसे उकसाने वालों की भीड़-सी लग गई थी। थोड़ा शांत होते ही कोई न कोई तुरन्त उससे कुछ कह देता और वह फिर शुरू हो जाता।

‘‘बोड़ा जी, वो टूरिस्ट कह रहे थे कि आगे कभी नहीं आना इधर...’’ किसी ने छेड़ा।

‘‘मत आना जी, मत आना... ये कोई पिकनिक स्पाट नहीं है ...देवताओं की भूमि है... देवों की घाटी है ये... रहकर देखो कुछ दिन इधर ...नानी-दादी सब याद आ जायेंगी जब चढ़ना-उतरना पड़ेगा ढलानों पर... सावन के महीने में पवन ऐसा सोर करता है लालाजी कि जियरा झूमना बंद कर देता है... अच्छे-अच्छे की आँखें बंद हो जाती हैं डर के मारे ...भाई मेरे, यहाँ के पेड़ों पर झूले नहीं पड़ते ...उन पर मवेशियों के लिए घास रखी जाती है सँजोकर...’’

‘‘कह रहे थे कि रास्ते बड़े खतरनाक हैं।’’ उसे सुनाता हुआ कोई दूसरा बोला।

‘‘खतरनाक ! इन खतरनाक रास्तों पर चलकर ही स्कूल जाते हैं हमारे बच्चे... माँएँ, बेटियाँ और बहुएँ इन्हीं रास्तों से घास काटने और मवेसी चराने को जाती हैं... तुम्हारा क्या, तुमने तो अंकल चिप्स के खोल और बिसलरी की बोतलें और पोलीथीन फेंक जानी हैं यहाँ... गंदा कर जाना है सारे माहौल को...’’ यों कहता हुआ वह बूढ़ा सड़क पर दूसरी ओर को चला गया। किसी ने पुनः उकसाया तो उसने सुना नहीं, चलता चला गया।

‘‘चलो, जान बची।’’ गाड़ी स्टार्ट करते हुए अल्ताफ बुदबुदाया, ‘‘बोलता रहता तो पता नहीं कितनी देर और गाड़ी को यूँ ही खड़ी किये रखना पड़ता।’’

‘‘जो भी हो, बातें तो वह ठीक ही कह रहा था बेचारा।’’ पीछे बैठे दादा जी अल्ताफ से बोले।

‘‘वह सब तो ठीक है बाबू जी, ’’ सुधाकर बोला, ‘‘लेकिन इस समय हम ये सब शिकायतें सुनते हुए समय बरबाद करने की हालत में नहीं हैं न।’’

‘‘यह एक अलग बात है।’’ दादा जी बोले, ‘‘लेकिन हम घूमने आने वालों से उसकी शिकायतें सब की सब जायज थीं।’’

‘‘आप तो यहाँ के रंग में रंगे हुए हो,’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘आप नहीं समझोगे।’’

‘‘...और तुम इसलिए नहीं समझोगे कि तुम इस रंग के असर को जानते ही नहीं हो। खैर, गाड़ी चलाओ अल्ताफ; साहब को किसी का दुःख-दर्द सुनने की फुर्सत नहीं है, देर हो रही है।’’ दादा जी व्यंग्यपूर्वक बोले।

अल्ताफ ने गाड़ी स्टार्ट की और आगे बढ़ा दी। कुछ ही आगे गाड़ी पार्क की जा सकने लायक जगह देखकर उसने उसे रोक दिया क्योंकि उसे पहले ही बता दिया गया था कि रुद्रप्रयाग जाना है। बच्चों को साथ लेकर दादा जी नीचे उतरे। सुधाकर ने कुली को आवाज़ दी और सामान उठाकर ‘बदरी केदार सेवा समिति’ के विश्रामघर की ओर ले चलने को कहा।

रुद्रप्रयाग

विश्रामघर में सामान रखने के बाद दादा जी आराम से लेटने की बजाय कमरे को ताला लगाकर बच्चों को बाज़ार घुमाने ले चले। ममता और सुधाकर भी साथ चले।

‘‘रुद्रप्रयाग में बाबा काली कमली वाले की धर्मशाला नहीं है दादा जी?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘है...लेकिन वह बाज़ार से दूर है। अलकनन्दा के पुल के उस पार।’’

घूमते और बातें करते वे अलकनन्दा के पुल तक गए। फिर वापस विश्रामघर के अपने कमरे की ओर लौट चले। खाना खाने के मूड में न तो बच्चे थे और न ही दादा जी। इसलिए कमरे पर पहुँचकर उन्होंने अन्दर से उसे बन्द किया और लाइट बन्द करके बिस्तर में घुस गए।

‘‘रुद्र तो भगवान शिव का ही एक नाम है न दादा जी।’’ मणिका ने अँधेरे में ही बातचीत शुरू की।

‘‘हाँ बेटे।’’ दादा जी बोले, ‘‘भगवान रुद्र को प्रसन्न करके नारद जी ने यहीं पर उनसे ‘वीणा’ प्राप्त की थी और यहीं पर उनसे संगीत की शिक्षा भी प्राप्त की थी। उससे पहले नारद के हाथों में वीणा नहीं रहती थी।’’

‘‘यहाँ भी कई प्रसिद्ध मन्दिर होंगे दादा जी।’’ मणिका ने पुनः पूछा।

‘‘उत्तराखण्ड का तो चप्पा-चप्पा मन्दिर है बेटे।’’ दादा जी बोले, ‘‘यहाँ से चार-साढ़े चार किलोमीटर की दूरी पर कोटेश्वर महादेव नाम की एक गुफा है। उस गुफा के भीतर अनेक शिवलिंग हैं, जिन पर गुफा की छत से लगातार पानी टपकता रहता है।...कल सवेरे रास्ते में एक जगह मैं तुमको दिखाऊँगा। सवेरे जल्दी उठना है। अब सो जाओ।’’

‘‘सिर्फ एक बात और दादा जी...’’ निक्की बोला ।

‘‘पूछो।’’

‘‘अरे, पूछना कुछ नहीं है...मेरे कहने का मतलब है कि सोने से पहले अपनी ओर से सिर्फ एक कहानी और बता दीजिए।’’

‘‘एक कहानी और!...’’ उसकी याचना पर दादा जी कुछ सोचने लगे, फिर बोले, ‘‘सुनो, यह रुद्रप्रयाग, हमारी तरह नीचे, मैदान की तरफ से आने वाले यात्रियों के लिए बदरीनाथ और केदारनाथ का संगम है। जो लोग केदारनाथ के दर्शन के लिए जाना चाहते हैं वे यहाँ से गौरीकुंड को जाते हैं और जिन्हें बदरीनाथ के दर्शन के लिए जाना होता है वे हमारी तरह इसी रास्ते पर आगे की ओर बढ़ते हैं।’’

उनकी बातें सुनते हुए बच्चे उत्सुक आँखों से उन्हें निहारते बैठे थे कि दादा जी बोले, ‘‘आज बस इतना ही।...गुड नाइट!’’

बच्चों ने धीमे स्वर में ‘गुड नाइट’ कहा। लेटे तो थे ही, चुपचाप सो गए।

मैनेजर से बातचीत

बदरीनाथ की ओर जाने वाली पहली बस रुद्रप्रयाग से सुबह पाँच-साढ़े पाँच बजे चल देती है। चलने से पहले सभी बसों के ड्राइवर बार-बार इतनी तेज हॉर्न बजाते हैं कि आसपास की इमारतों के मालिक और उनके बीवी-बच्चे अपने-आप को कोसने लगते हैं कि उन्होंने क्यों इतनी गलत जगह पर मकान बनवा लिया?

दादा जी की भी नींद खुल गई। उनके मन में एक बार तो यह विचार अवश्य आया कि बच्चों को भी जगा दें और बाहर का नज़ारा दिखाने को ले जाएँ लेकिन अन्ततः उन्हें लगा कि बच्चों को सोने देना चाहिए अन्यथा दिन के समय वे टैक्सी में सोते हुए जाएँगे और यात्रा का पूरा मज़ा नहीं ले पाएँगे। यह सोचकर वे अकेले ही कमरे से बाहर निकले तो देखा कि विश्रामघर का मैनेजर भी तैयार होकर अपनी कुर्सी पर आ जमा है।

‘‘जय बद्री विशाल बाबूजी!’’ उन्हें देखकर मैनेजर ने अभिवादन किया।

‘‘जय बदरी विशाल भाई मैनेजर साहब!’’ उसकी मेज के सामने वाली कुर्सी पर बैठते हुए दादा जी ने उससे पूछा, ‘‘इतनी जल्दी जाग जाते हो?’’

‘‘माताजी-पिताजी ने बचपन से ही चार बजे जाग जाने की आदत डाल दी है बाबूजी...’’ मैनेजर ने कहा, ‘‘नित्यकर्म से निबटकर सुबह पाँच बजे भगवान बद्रीनाथ को स्नान कराके, पुष्प अर्पित करते हैं और अगर-धूप दिखाकर, प्रणाम करके जनता की सेवा के लिए इस कुर्सी पर आ बैठते हैं।’’

‘‘अभी पाँच तो बजे भी नहीं हैं!’’ दादा जी ने घड़ी की ओर इशारा किया।

‘‘नहीं बजे हैं तो बज जाएँगे...’’ मैनेजर मुस्कराकर बोला। फिर पूछा, ‘‘चाय लेंगे बाबूजी?’’

‘‘आसानी से मिल जाए तो ले लेंगे।’’

मैनेजर ने तुरन्त अपनी मेज पर रखे टेलीफोन का चोगा उठाया और कोई नम्बर डायल करके कहा, ‘‘दो चाय इलायची वाली।’’

दस मिनट बाद ही कम उम्र की एक लड़की चाय से भरे काँच के दो गिलास लोहे के तारों से बने एक छीके में रखकर ले आई।

मैनेजर ने छींके से निकालकर एक गिलास बाबूजी की ओर बढ़ाया और दूसरा अपने हाथ में लेकर उनसे बोला, ‘‘शुरू कीजिए।’’

‘‘धन्यवाद।’’ बाबूजी ने कहा और चाय पीना शुरू कर दिया।

काफी देर तक वे दोनों उत्तराखण्ड की संस्कृति पर बातें करते रहे। मैनेजर उत्तराखण्ड की संस्कृति सम्बन्धी दादा जी के ज्ञान से बहुत प्रभावित हुआ। उनकी यह मीटिंग तब समाप्त हुई जब जागने के बाद बाबूजी की आवाज़ सुनकर सुधाकर अपने कमरे से निकलकर इनके पास आ गया।

अलविदा रुद्रप्रयाग

सुबह के सारे कर्म रुद्रप्रयाग में निबटाकर यह कारवाँ दस-ग्यारह बजे आगे की यात्रा पर चला।

‘‘दो नदियों के संगम को ही प्रयाग कहते हैं न दादा जी?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘बिल्कुल सही।’’ दादा जी उसके सिर पर हाथ घुमाकर बोले, ‘‘यह रुद्रप्रयाग भी मंदाकिनी और अलकनन्दा के संगम पर बसा है।’’

‘‘बदरीनाथ यहाँ से कितनी दूर होगा?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘होगा करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर।’’

‘‘डेढ़ सौ कितना होता है?“

‘‘एक सौ पचास।“ दादा जी बोले।

इस पर निक्की ने कहा तो कुछ नहीं, लेकिन ऐसे देखा जैसे उसकी समझ में अभी भी कुछ नहीं आया हो।

‘‘वन हण्ड्रेड फिफ्टी।“ उसकी मुख-मुद्रा को पहचानकर दादा जी ने स्पष्ट किया और थोड़ा नाराज़गी भरे स्वर में बोले, ‘‘कितनी बार समझाता हूँ कि हिन्दी गिनतियाँ भी सीख लो। अंकों को अपनी ही बोली में नहीं जानोगे-सीखोगे तो उन्नति का क्या अचार डालोगे?“

‘‘अंक मतलब दादा जी?“ उनकी इस बात पर निक्की ने पुनः पूछा तो उनका गुस्सा जैसे सातवें आसमान पर ही चढ़ गया।

‘‘मेरा सिर!“ वे चीखे; लेकिन इसके साथ ही निक्की के मासूस सवाल पर अल्ताफ की हँसी भी छूट गयी जिससे माहौल भारी होने से बच गया।

‘‘अब रुद्रप्रयाग के बाद कौन-सी जगह आएगी?’’ टैक्सी ने नदी का पुल पार किया तो निक्की ने अगला सवाल किया।

‘‘घोलतीर।’’ अन्यमनस्क-से दादा जी मंद-स्वर में बोले।

‘‘लेकिन...अभी थोड़ी देर पहले तो आपने ‘मेरा सिर’ बोला था!“ निक्की बोला।

उसके इस प्रश्न पर तो ममता और सुधाकर भी अपनी हँसी नहीं रोक पाये। दादा जी भी हँस पड़े। वे सब क्यों हँस रहे हैं, निक्की की कुछ समझ में नहीं आया।

‘‘और उसके बाद?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘उसके बाद आएगा—गौचर।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘यह भी तुमको एकदम प्लेन... समतल मैदान में बसे नगर-जैसा लगेगा।’’

बच्चे अब प्रकृति के सौंदर्य का आनन्द लेते हुए चुपचाप चलने लगे थे। तेज गति से बहती अलकनन्दा की धारा उनका मन मोह रही थी। धारा के बीच में पड़ी शिलाओं से टकराकर जल में लहरें पैदा होतीं और पीछे से आ रही लहरों की दौड़ में शामिल हो जातीं। ऐसा लग रहा था जैसे लहरें नदी में एक-दूसरे को छूने-पकड़ने का खेल खेलती आगे बढ़ रही हों ! कहीं किसी गहरे मोड़ पर अलकनन्दा यदि आँखों से ओझल हो जाती तो बच्चे बेचैन हो उठते। ऐसा अद्भुत खेल तो उन्होंने कभी सोचा भी न था। काश! टैक्सी चलती रहे, अलकनन्दा की धारा, ऊँचे-ऊँचे पर्वत और शुद्ध सफेद बादलों में बनते-बिगड़ते आकार दिखाई देते रहें तथा वे देखते रहें, देखते रहें... बस यों ही!

टैक्सी गौचर पहुँच गई। जैसा कि दादा जी ने बताया था, गौचर में काफी बड़ा मैदान उन्हें नजर आया। यह नगर भी उनको श्रीनगर जैसा ही विकसित लगा।

‘‘दरअसल, जब से उत्तराखण्ड राज्य बना है, तब से इस क्षेत्र में विकास के अनेक कार्य हुए हैं। जहाँ तक गौचर की बात है—सन् 1943 में गढ़वाल के एक अंग्रेज डिप्टी कलक्टर ने यहाँ पर आसपास के लोगों के लिए एक मेला लगाना शुरू किया था।’’ दादा जी ने पुनः गौचर के बारे में बताया, ‘‘वह मेला अब नेहरू जी के जन्मदिन 14 नवम्बर से लगाया जाता है। दूर-दूर के व्यापारी और मेला देखने के शौकीन लोग इस मेले में आते हैं। यह चमोली जिले में पड़ता है और इस जिले का सांस्कृतिक केन्द्र है। एक बात और, गौचर में एक हवाई अड्डा भी बन चुका है।’’

खण्ड-12 में जारी……