देवों की घाटी - 9 BALRAM AGARWAL द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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देवों की घाटी - 9

… खण्ड-8 से आगे

घर में तो कई कमरे हैं, जिसमें चाहो घुस जाओ। यहाँ तो सिर्फ दो कमरे लिए हैं, जिनमें से दूसरे को अन्दर से बन्द करके ममता और सुधाकर सो भी चुके होंगे। हे भगवान! जाकर इनमें से कोई उनके कमरे को न खटखटाने-बजाने लगे। थके-हारे हैं, कच्ची नींद में बाधा पड़ेगी तो नाराज़ हो उठेंगे। यह भी हो सकता है कि पिटाई ही कर डालें बाहर आकर। सुधाकर में धीरज की बड़ी कमी है।

लेकिन दादा जी के सोचने-जैसा कुछ नहीं हुआ। जो हुआ वो ये कि मणि की एक लात खाकर निक्की भैया पलंग से नीचे जा गिरे और लड़ाई को आगे ज़ारी रखने की अपनी घरेलू आदत से उलट, चुपचाप खड़े होकर औंधे मुँह दादा जी के पलंग पर जा पड़े। लड़ाई को आगे ज़ारी रखने की बजाय चुपचाप जा लेटने की उनकी हरकत से मणिका दीदी भी सकते में आ गईं और दूसरी ओर मुँह करके आँखें बन्दकर शान्त पड़ गईं।

दोनों के इस तरह चुपचाप अलग-अलग लेट जाने को देखकर दादा जी ने चैन की साँस ली। उन्होंने शव-आसन की मुद्रा में अपना शरीर ढीला छोड़ दिया और आँखें बन्दकर वे भी सो जाने की कोशिश करने लगे। थकान के कारण वे शीघ्र ही गहरी नींद में डूब गए।

सुलह की कोशिश

ज्यादा नहीं, सिर्फ दो या तीन घण्टे आराम करके दादा जी उठ बैठे। मणिका और निक्की तो जैसे उनके जागने का इन्तज़ार ही कर रहे थे। वे भी बैठ गए; लेकिन वैसे ही अलग-अलग जैसे वे सोए थे। निक्की दादा जी के पलंग पर और मणिका दूसरे पलंग पर। दादा जी ने उन दोनों की ओर एक-एक बार उड़ती-सी नज़र से देखा और पलंग से उतरकर वॉशरूम की ओर चले गए।

‘‘यह मत समझना दीदी कि मैं तुझसे डरकर दादा जी के पास आ लेटा था।’’ उनके जाते ही निक्की मणिका से बोला, ‘‘वह तो मैं बात को बढ़ाना नहीं चाहता था इसलिए इधर चला आया। घर पहुँचकर आज की इस पिटाई का बदला तुझसे जरूर लूँगा मैं।’’

‘‘मैं भी तो इसीलिए चुपचाप इसी पलंग पर लेटी रह गई थी कि तुझ बेवकूफ की वजह से यात्रा के दौरान कोई टेंशन नहीं पालनी है...’’ मणिका ने कहा, ‘‘वरना तू क्या समझता है कि मैं तुझे दादा जी के पास इतनी आसानी से सो जाने देती?’’

यह सेर को सवा-सेर वाली बात थी। निक्की तो समझ रहा था कि लात खाकर पलंग से नीचे गिर जाने के बावजूद मणिका से जो उसने कुछ नहीं कहा, उसका वह अहसान मानेगी; लेकिन यहाँ तो उल्टे मणिका ही उस पर अहसान जता रही थी कि उसने चुपचाप उसे दादा जी के पास सो जाने दिया! यानी कि न केवल अपनी गलती नहीं मान रही है बल्कि निक्की द्वारा भलाई करने का कुछ अहसान भी नहीं मान रही है!!

‘‘ठीक है...’’ उसकी बात से निरुत्तर हुआ-सा निक्की बोला, ‘‘अब दादा जी ही फैसला करेंगे कि सही किसने किया और गलत किसने?’’

नींद से जागने के बाद तरोताज़ा होने के लिए वॉशरूम में हाथ-मुँह धो रहे दादा जी उन दोनों की सारी बातें सुन रहे थे। वे समझ गए कि उन्होंने अगर जरूरत से थोड़ी भी ज्यादा देर वॉशरूम में लगा दी तो इन दोनों के बीच हाथापाई दोबारा शुरू हो जाएगी। इसलिए वे वहीं से बोले, ‘‘आप दोनों अब चुप हो जाइए, फैसला करने के लिए मजिस्ट्रेट साहब वॉशरूम से बाहर आने ही वाले हैं।’’

यों कहकर तौलिये से मुँह पोंछते हुए दादा जी वॉशरूम से बाहर निकले। अपने-अपने पलंग पर बैठे दोनों बच्चे उनकी ओर आशाभरी नजरों से ताकते हुए तनकर बैठ गए।

‘‘देखो भाई,’’ मुँह पोंछने के बाद दादा जी अपनी बाँहों को पोंछते हुए बोले, ‘‘लड़ते-लड़ते किसने किसको कम पीटा और किसने ज्यादा पीटा, यह बात तो हो गई खत्म। हमने यह मान लिया कि दोनों ने एक-दूसरे की बराबर पिटाई की, न कम न ज्यादा। अब, आखिर में मणिका की लात लगी निक्की को और वह पलंग से नीचे गिर गया। इस बात पर उसे बहुत गुस्सा आया होगा; लेकिन उसने लड़ाई को आगे बढ़ाने की बजाय चुप रहकर सो जाना बेहतर समझा। इसलिए मणिका को उसका अहसान मानकर सॉरी बोलना चाहिए।’’

‘‘क्यों?’’ मणिका एकदम-से त्यौरियाँ चढ़ाकर बोली, ‘‘...और मैंने जो इसको चुपचाप आपके पास सो जाने दिया उसका कुछ नहीं?’’

‘‘चुपचाप नहीं सो जाने दिया बल्कि पीटकर भगाया था इसलिए सो जाने दिया...डरकर।’’ दादा जी ने कहा।

‘‘मैं इससे डरती हूँ क्या?’’

‘‘इससे नहीं, मुझसे और अपने मम्मी-डैडी से।’’ दादा जी ने स्पष्ट किया, ‘‘तुम अगर उसके बाद भी झगड़ा बढ़ाती तो मैं तुम्हें डाँटता, मुझसे भी न मानती तो मम्मी-डैडी से तुम्हारी शिकायत करनी पड़ती। इस बात को तुम अच्छी तरह समझती थीं। इसलिए निक्की भैया पर तुमने वह अहसान किया।’’

यह एक सचाई थी, इसलिए मणिका को चुप रह जाना पड़ा।

‘‘देखो बेटा, कोई भी आदमी उम्र से नहीं, काम करने के अपने तरीके से बड़ा होता है। लड़ाई को बढ़ाए रखने की बजाय उसे खत्म करने का तरीका अपनाकर निक्की ने बड़ा काम किया है। इसलिए आज वह तुमसे बड़ा हो गया है।’’

दादा जी का यह फैसला मणिका को एकतरफा-जैसा लगा। वह बोली तो कुछ नहीं लेकिन मुँह बिचकाकर फैसले के खिलाफ अपना विरोध जरूर प्रकट कर दिया। दूसरी ओर फैसले को अपने पक्ष में हुआ देख निक्की जी तनकर बैठ गए।

दादा जी दोनों की बॉडी-लेंग्वेज को देखते-परखते रहे। कुछ देर बाद बोले, ‘‘निक्की बेटे, आज क्योंकि बड़ा काम करके तुमने अपने-आप को बड़ा सिद्ध कर दिया है, इसलिए तुम्हारी यह जिम्मेदारी बनती है कि आज की बात के लिए अपनी दीदी से तुम कभी लड़ोगे नहीं।’’

दादा जी की यह बात सुनकर निक्की थोड़ा चौंका। अपने आप को ‘बड़ा’ सुनकर जो खुशी उसे हुई थी, वह एकाएक गायब-सी हो गई। उसे लगा कि उसे बड़ा सिद्ध करके दादा जी ‘घर पहुँचकर आज की इस पिटाई का बदला’ दीदी से लेने की उसकी मंशा पर पानी फेरने की कोशिश कर रहे हैं। इस बात के लिए मन से वह तैयार नहीं था। इसलिए बोला, ‘‘नहीं दादा जी, दीदी ही बड़ी है।’’

‘‘पक्का?’’ दादा जी ने पूछा।

‘‘पक्का।’’ निक्की ने कहा।

‘‘पलट तो नहीं जाओगे अपनी बात से ?’’

‘‘पलटूँगा कैसे? दीदी तो है ही बड़ी।’’

‘‘बड़ी है तो इससे लड़ते क्यों हो?’’ दादा जी ने पूछा।

निक्की इस सवाल का तुरन्त कोई जवाब नहीं दे पाया। कुछ देर बाद बोला, ‘‘यह भी तो लड़ती है।’’

‘‘अगर मैं तुमसे लड़ाई करूँ, तुम्हारे मम्मी-डैडी तुमसे लड़ाई करें तो उनसे भी ऐसे ही झगड़ा करोगे क्या?’’ दादा जी ने पूछा, ‘‘हमें बड़ों के साथ छोटों-जैसा और छोटों के साथ बड़ों-जैसा व्यवहार करना पड़ता है।’’

निक्की चुपचाप उनकी बातें सुनता रहा।

‘‘देखो बेटा, अभी तो यात्रा का पहला ही पड़ाव है। आप लोग अगर अभी से कुछ टेंशंस पालकर रखोगे तो दूसरे,-तीसरे पड़ाव तक पहुँचते-पहुँचते उनका बोझ आपके दिमागों पर इतना ज्यादा हो चुका होगा कि यात्रा का सारा मज़ा किरकिरा कर देगा।’’

‘‘आप ठीक कहते हैं दादा जी।’’ उनकी बातें सुनकर मणिका ने कहा, ‘‘आय’म सॉरी। मैं अब पूरे रास्ते निक्की से झगड़ा नहीं करूँगी।’’

‘‘दादा जी से क्यों?’’ निक्की तुनककर बोला, ‘‘मुझसे सॉरी बोल न।’’

‘‘तुझसे क्यों?’’

‘‘लात तो तूने मुझको ही मारी थी न, इसलिए।’’

‘‘ठीक है, ’’ मणिका उसकी ओर देखकर बोली, ‘‘सॉरी।’’

‘‘अब तुम दोनों गले मिलो और मेरे सामने वादा करो कि इस यात्रा में ही नहीं, इसके बाद भी आपस में कभी नहीं लड़ोगे।’’ मणिका की बात सुनकर दादा जी ने निक्की की ओर देखते हुए कहा।

निक्की कुछ नहीं बोला। दादा जी के पलंग से उठकर चुपचाप मणि के पलंग पर जा बैठा और बोला, ‘‘अब आप नारद जी वाली अपनी वह कहानी पूरी कीजिए जो सोने से पहले अधूरी रह गई थी।’’

‘‘हाँ दादा जी।’’ उसकी बात के समर्थन में मणिका बोली।

पहले कहानी

‘‘यानी कि सुलह हो गई।’’ मुस्कराकर दादा जी ने कहा और आगे की कथा का तारतम्य जोड़ने से पहले बोले, ‘‘वैसे...थोड़ा-बहुत झगड़ा कर भी सकते हो, मेरी ओर से इजाजत है। भई, वह बचपन ही क्या जिसमें शरारतें और उछल-कूद न हों।’’ फिर, कुछ देर की चुप्पी के बाद बोले, ‘‘पहले घूम-घाम या कहानी?’’

दोनों बच्चे एक-साथ चीखे, ‘‘पहले कहानी...।’’

‘‘श्श्श्श्......’’ अपने होठों पर उँगली रखकर दादा जी फुसफुसाए, ‘‘धीरे...बहुत धीरे।’’

‘‘पहले कहानी...।’’ उनकी नकल करते हुए बच्चे भी फुसफुसाए और जोरों से हँस दिए ।

दादा जी ने पुनः अपने होठों पर उँगली रखी और आवाज निकाली, ‘‘श्श्श्श्...!’’ फिर पूछा, ‘‘कहाँ थे हम?’’

‘‘विष्णुजी का कहना मानकर नारदजी ने अपनी मनपसन्द कन्या का ध्यान मन में किया और नदी के जल में तीन डुबकियाँ लगाकर जो बाहर निकले तो बन्दर-जैसा चेहरा लेकर।’’ मणिका ने बताया।

‘‘हाँ।’’ दादा जी ने तुरन्त पूछा, ‘‘जानते हो वह घटना कहाँ घटी थी?’’

‘‘कहाँ दादा जी?’’

‘‘कहा जाता है कि इस श्रीनगर में ही।’’ दादा जी बोले, ‘‘यहाँ से थोड़ी ही दूरी पर एक गाँव है—भक्तियाना। उस गाँव में जिस जगह पर इन दिनों लक्ष्मीनारायण मन्दिर है, लोग कहते हैं कि वहीं पर नारदजी के मन में ब्याह करने का लालच जागा था और उसी के आसपास अलकनन्दा के मोड़ पर ‘नारदकुण्ड’ है जहाँ पर डुबकी लगाकर उन्होंने बन्दर की शक्ल पाई थी।’’

‘‘बाप रे! कितना पुराना है यह नगर! रामायण-के समय से भी पहले का!’’ मणिका आश्चर्यपूर्वक बुदबुदाई।

‘‘हाँ, लेकिन उस जमाने में इस जगह का नाम श्रीनगर की बजाय कुछ और रहा होगा।’’ दादा जी बोले।

‘‘सो तो है।’’ निक्की ने हूँकरा भरा।

घूमने के लिए जाने का प्रस्ताव

‘‘अच्छा, एक काम करते हैं...’’ उसकी बात पर ध्यान दिए बिना दादा जी ने प्रस्ताव रखा, ‘‘तुम्हारे मम्मी-डैडी को आराम करने देते हैं और हम लोग थोड़ी देर बाहर घूम आते हैं।’’

‘‘और अगर इस बीच जागकर वे हमें ढूँढने लगे तो?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘तो क्या, हम गेस्ट-हाउस के मैनेजर को बताकर जाएँगे।’’ दादा जी ने कहा।

‘‘नहीं,’’ निक्की बोला, ‘‘उन्हें सोया छोड़कर अकेले घूमने जाना अच्छा नहीं लगेगा दादा जी।’’

‘‘निक्की ठीक कह रहा है दादा जी,’’ इस बार मणिका धीमे से बोली, ‘‘इस तरह अकेले-अकेले घूमने में मजा नहीं आएगा। सभी साथ रहने चाहिए।’’

उन दोनों की बातें सुनकर दादा जी कुछ देर तक उनका चेहरा निहारते रहे; फिर बोले, ‘‘शाब्बाश। मैं तो दरअसल तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। हमेशा याद रखो, जब भी ग्रुप के साथ कहीं जाओ, अकेले घूमने मत निकलो; और किसी वजह से अगर निकलना पड़ भी जाए तो बाकी लोगों के लिए संदेश ज़रूर छोड़ जाओ कि किस कारण से, कहाँ जा रहे हो और कितनी देर में वापस लौट आओगे।’’

वे अभी ये बातें कर ही रहे थे कि किसी ने उनके दरवाज़े पर दस्तक दी। उन तीनों की निगाहें एक-साथ दरवाज़े की ओर घूम गईं।

‘‘कौन?’’ दादा जी का इशारा पाकर मणिका ने पूछा।

‘‘दरवाज़ा खोलिए बाबूजी, हम हैं।’’ बाहर से सुधाकर की आवाज़ आई।

निक्की फुर्ती से उठा और जाकर दरवाज़ा खोल दिया। ममता और सुधाकर अन्दर आ गए।

‘‘आप लोग सोये नहीं?’’ उन तीनों को जागते और तरोताज़ा बैठे देखकर सुधाकर ने आश्चर्यपूर्वक पूछा।

‘‘ये लोग लड़ भी लिए और सो भी लिए।’’ दादा जी ने बताया।

‘‘और आप?’’

‘‘भई ये सो गए तो कुछ देर मैं भी सो लिया।’’ दादा जी ने कहा, ‘‘अभी हम लोग आप दोनों को ही याद कर रहे थे।’’

‘‘हम तो काफी देर से जागे पड़े थे बाबूजी, यही सोचकर नहीं आए कि आप लोग आराम कर रहे होंगे।’’ ममता ने कहा।

‘‘तो...चलें कुछ देर के लिए कहीं घूमने?’’ दादा जी ने पूछा।

‘‘अभी मैंने खाने का ऑर्डर दिया है।’’ सुधाकर ने बताया।

‘‘ठीक है।’’ दादा जी बोले, ‘‘ऐसा करो, मोबाइल पर अल्ताफ को बता दो कि वह खाना खाकर तैयार रहे। हम लोग 40-45 मिनट बाद घूमने को निकलेंगे।’’

सुधाकर ने वैसा ही किया जैसा दादा जी ने बताया था।

देवप्रयाग

खाना खा चुकने के बाद वे सब बाहर निकले। दादा जी ने उन्हें श्रीनगर के आसपास की अनेक जगहों पर घुमाया। विद्युत परियोजना का डैम दिखाया। देवलगढ़ और सुमाड़ी के मंदिर दिखाए और पौराणिक महत्व की अन्य भी अनेक जगहें। जब तक वे वापस यात्राी-निवास के निकट पहुँचे, आसमान पर तारे चमकने लगे थे।

‘‘कितना मनोरम दृश्य है!’’ आसमान की ओर देखते हुए सुधाकर के मुख से निकला, ‘‘ऐसा लग रहा है कि तारों की चादर एकदम हमारे सिर पर तनी हुई है।’’

खण्ड-10 में जारी…