मच्छर
मूल लेखक : शीर्षेन्दु मुखोपाध्याय़
(बांग्ला से अनुवाद : शेष अमित)
खून पिया मच्छर टपाटप् दिख रहा है, तसले जैसे पेट लिये, मच्छरदानी की दीवार से चिपका है, अभी धीरे से दबा दो, तो थोड़ा ताज़ा खून बिखेरकर मर जायेगा साला! नफ़रचन्द्र ने ज़िंदगी में बहुत सारे मच्छर मारे हैं और आदमी सिर्फ एक ! अब तो याद भी नहीं आती उस आदमी की, मेरी उम्र कम भी थी उस समय। समय बीतने के साथ सब धुंधला गया हैं। लेकिन अगर बात मच्छरों की हो, तो बहुत सारी कहानियाँ हैं, स्मृतियाँ हैं, नफ़रचन्द्र के पास। यह ज़िंदगी तो मच्छर मारने में ही बीत गयी। मरने से पहले उसकी पत्नी चारू ने उसके और किसी गुण के बारे में तो नहीं, पर यह बात बहुत प्रेम से कहा था —
”तुम तो गज़ब मारते हो इन मच्छरों को“।
हाँ, नफ़रचन्द्र इसमें सिद्वहस्त है। जितने अधिक मच्छर होते हैं, उतनी ही खुषी उन्हें मारने में होती है नफ़र को। देखिये तो, रोयें की तरह हाथ पैर वाले इस मच्छर ने कितना खून पी लिया है। एक धान के बीज की तरह फूल गया है पेट इसका। इन रोयें से हाथ, पैर और धुँये से पंखों के सहारे, इतने बडे़ पेट को लेकर आखिर यह उड़ता कैसे है ! नफ़रचन्द्र आर्ष्चय में है। स्साले ........ मच्छर अपने वज़न से कहीं अधिक खून पी जाते हैं, ऐसे पीते हैं, जैसे वह उनके जीवन का अंतिम आहार हो। यह भरा पेट उनके जीवन और मृत्यु के बीच के गाँठ को पूरी ताकत से बाँधते हैं। दोनों हथेलियों को थप्पड़ मारने की मुद्रा में उठाये, नफ़रचन्द्र धीरे—धीरे मच्छरदानी के एक पल्ले की ओर बढ़ने लगा। पेट भरा हो तो, ये मच्छर चालाकी कर नहीं पाते। डग्मग—डग्मग करते हुये थोड़ा हिलडुल तो लेते हैं, पर यह दौड़ दूर की नहीं होती, नफ़र यह जानता है। कमरे में रोषनी कुछ कम है, उम्र बढ़ने के साथ नज़र ढल रही है, ज्वार खत्म है, अब भाटा है। आँखों के सामने धूल के कणों की तरह कुछ तैरती रहती हैं इन दिनों, इन तैरते कणों को गलती से उसने कई बाद मच्छर समझ लिया था। दोनों हाथों से फटाक् की आवाज़ के साथ उसने ताली बजाई, लेकिन कहीं कोई खून नहीं बिखरा। स्साला.... भाग गया मच्छर।
नफ़रचन्द्र अपने हाथों को देखने लगा। ऊँगलियों के हर जोड़ पर गाँठें बन आई थीं। जरावस्था की झुर्रियाँ आ पड़ी थी, अकारण ही ऊँगलियाँ अब टेढ़ी—मेढ़ी हुई जा रही हैं। अरे ! यही सब होना था ?
बिछौने पर घुटने टेककर, नफ़र उस गंदे से मच्छरदानी में उस रक्तपिपासु को ढूँढने लगा। होगा कहीं आस—पास ही, ज़्यादा उड़ने—फ़ुरने की ताकत तो अब बची नहीं होगी, अभी कहीं बैठने की कोषिष करेगा। लेकिन एक थप्पड़ बेकार चला गया। वह सोचने लगा इतने दिनों का अनुभव, कितने ही मच्छर मारे हैं उसने अब तक, शायद ही कभी चूक हुयी हो नफ़र से।
घर अब शांत था, कोई आवाज़ नहीं, शायद सब सो गये हों। उसे नींद कहाँ, आज नफ़र ने गौर किया की उसका बेटा गणेष आज खाने और उसके बाद कुल्ले करने में अधिक समय लिया था। एक बार उसने अपनी पत्नी से टूथ—पिक भी माँगा था। टूथ—पिक की ज़रूरत हो, ऐसा कोई भोजन आज घर में बना तो नही था ? शाम ढलते ही गणेष की पत्नी ने नफ़र को मटर की दाल, बंदगोभी की बासी सब्ज़ी और आलू के भर्ते के साथ दो रोटियाँ खिला दी थी। इस भोज़न में तो टूथ—पिक की ज़रूरत नहीं हो सकती है। नफ़र को इन दिनों एक शक़ सता रहा है की गणेष और उसकी पत्नी चुपके से बिना कहे एक दो अतिरिक्त व्यंजन अपने लिये बनाकर खाते हैं। अहसास और गहरा रहा था, क्यॅँूकि नफ़र के भोजन के बाद, मुहल्ले में गोष्त पकाये जाने की खुषबू फैल रही थी। एक बार नफ़र को लगा कि पड़ोस के राय साहब के यहाँ आज कुछ विषेष पकाया जा रहा है। लेकिन ऐसा अगर नहीं है, तो बात हो क्या सकती है, वह उधेड़—बुन में रहा।
गणेष की पत्नी, चन्द्रिमा की शक्ल, मोटे—ताज़े दुलारू बेटी जैसी थी। कुछ—कुछ पालतू बिल्ली जैसी। दाँत और नाखूनों को छिपाये, आँखें बंद कर भोली सी सूरत बना लेती है, लेकिन बाव़क्त, ज़रूरत होने पर अपने छिपे हथियारों को बाहर भी निकाल लेती है।
बहू चन्द्रिमा खाती भरपूर है। सारा दिन खा रही है। कचर—पचर कभी भुज़िया, कभी चने, कटोरी भर दही—चूड़ा, दूध पर पड़ी मलाई को अपनी ऊँगलियों से धीरे से खिसका कर मुँह में डाल लेती है। कभी एक फांक अचार भी डाल लेती है मुँह में। इन सब के अलावे होटल रेस्त्रां में जाकर गणेष की जेब भी हल्की करती ही रहती है। इन दिनों तो नफ़र को नज़रअंदाज़ कर एक दो अतिरिक्त व्यंजन भी बना छुपाकर खाया जा रहा है।
नफ़रचन्द्र उस मच्छर को तलाष नहीं पाया। स्साला........... ठसाठस भरे पेट को लेकर जा कहाँ सकता हैं ? नफ़र को अब ढूँढने की इच्छा नहीं रही। शाम ढले कब थोड़ा सा चावल खाया था अब तो भूख के मारे पेट में घड़े—बर्तन टूट रहे हैं। राय साहब के घर के मुर्गे समय—बोध भूलकर अक्सर बांग देने लगते हैं, आज़ भी वैसा ही किया मुर्गों नें।
नफ़रचन्द्र की रात में नींद नही आती। आँखों में नींद आते ही एक बकवास फालतू सा आदमी आकर बखेड़ा खड़ा करता है। अपने किषोर अवस्था के दिनों में कभी गुस्से में आकर उसने जाने क्या कर दिया था, उसी के लिये रात में आकर अक्सर झमेला खड़ा करने लगा है।
नफ़र की वैसे, ऐसी कोई ग़लती थी नहीं। उन दिनों वह अपने गाँव कालीगंज में रहता था। अकाल के दिन थे हर तरफ चोर—उचक्कों का उत्पात था नफ़र की माँ साक्षात् लक्ष्मी थी। कोई कृषकाय या भूखा अगर दरवाजे़ पर आया, तो उसे बिठाकर भोजन कराती, पानी पिलाती। एक ऐसे ही दोपहर में भर पेट खाने के बाद एक अधेड़ आदमी, जाते वक्त कांसे का एक थाल और दो धोतियाँ लेकर चंपत हो गया था। घटना के हफ़्ता भर बाद वह अपनी नाव लेकर मछलियाँ पकड़ने, अपने घर के पास के एक छम्मक नाले से नदी की ओर बढ़ रहा था। अचानक उसने नदी के किनारे श्मषान के घाट पर उसी आदमी को बैठा देखा। उसके पास एक गठरी भी थी। उस चोर को देखते ही, नफ़र ने नाव मोड़ कर घाट के किनारे लगा दिया, और नाव की पतवार से एक ज़ोरदार चोट मारी उस आदमी को। उस आदमी ने अपने हाथ नहीं उठायें, चीखा—चिल्लाया भी नहीं। चोट लगने के बाद, जैसे उसे नींद आ रही हो, धीरे से वह ज़मीन पर लेट गया। इस घटना को किसी ने नहीं देखा, कोई साक्षी, कोई ग्वाह नहीं। नफ़र तेज़ी से अपना नाव खेते हुये, वहाँ से चंपत हो लिया। दूसरे दिन उसने बाजार में कुछ चर्चायें सुनी, लोग बाग़ कुछ कह रहे थे कि ष्मषान के घाट पर एक आदमी मरा पड़ा है। एक मुर्दे के बारे में इतना सोचता भी कौन है, उन दिनों न जाने कितने ही लोग मर रहे थे। देखा जाये, तो हत्या करने के लिये, नफ़र ने उसे मारा नहीं था एक चोर को सज़ा देने गया था। कितने ही सिर फुटौव्वलों के बाद भी तो लोग ज़ीवित रहते हैं। लेकिन वह कमज़ोर आदमी, फूल के चोर से बेहोष हो जायेगा, कौन जानता था। नफ़र का मन कई दिनों तक उद्वेेलित रहा, लेकिन वह अपने को उतना दोषी भी नहीं मान पाया। अब तो बहुत दिन गुज़र गये हैं। चालीस—पचास साल पहले की कहानी है, यह सब। उस आदमी का चेहरा भी अब याद नहीं रहा। शायद गले में रूद्राक्ष की एक माला थी। नंगा बदन और चिकट आधी धोती। एकदम फालतू आदमी। दुनिया में ऐसे दो—चार लोग न भी होें, तो कोई जान भी नहीं जायेगा, जनसंख्या के बाहर के लोग। किसी को मालूम हुआ भी नहीं। कोई रोने—धोने वाला भी नहीं था, उस आदमी के लिये।
लेकिन अब मुसीबत यह है कि वह आदमी कभी—कभार, नफ़रचन्द्र को नींद से ज़गाकर कहता है —
— “गंजा सिर होने के कारण बहुत चोट लगी थी दोस्त”
परेशान नफ़र कहता है — “तब तो तुम्हें सिर पर पगड़ी रखनी चाहिये थी”
आदमी कहता है — ”हुँह....... जिसका बदन नंगा हो, उसे पगड़ी कहाँ मिल सकती है ?
ल्ेकिन तुम पतवार चला दोगे, अगर मालूम होता तो पगड़ी जरूर रखता सिर पर”।
— ”तुम क्या मरने के लिये गंजे हुये थे“, नफ़र ने पूछा
— “अरे! वह एक और कहानी है। एक पंसारी की दुकान से एक मुठ्ठी चीनी के बताषे चुराया था, पकड़ लिया गया। इस लिये उन लोगों ने मेरा सिर मुड़वा दिया। चूना महँगा था, इस लिये सिर पर चूना नहीं डाला लोगों ने, चूने से सिर पर चौराहा भी नही बनाया। लेकिन हाँ, कमर में रस्सी बाँधकर पूरे गाँव में घुमाया था उन लोगों ने”।
नफ़रचन्द्र ने कहा — ”तब तो ग़लती तुम्हारी ही हुयी न“ ?
—”तो मेरे सिवा और किसकी ग़लती हो सकती है। उन दिनों मेरे सिर पर झंखाड़ जैसे बाल थे। सिर पर एक ग़ठ्ठर की तरह दिखते थे, उसके ऊपर अगर पतवार का प्रहार होता तो शायद इतनी चोट नहीं लगती। सिर गंजा होने के कारण ही, ज़्यादा चोट खा गया। बिना भोजन पानी के शरीर में ताक़त भी नहीं थी, दर्द सह नहीं पाया“।
— “तो मेरी गलती कहाँ हैं“ ?
— “अरे छोड़ो, तुम्हें दोष कौन दे रहा है। हाँ एक बात बताओ, इतने अरसे बाद, इतनी छोटी बातों पर चर्चा कर रहा हूँ, कहीं तुम अधिक सोच में तो नहीं पड़ जाते। अगर तुम मुझे नहीं भी मारते तो भी मेरा मरना तो लिखा ही था। यही ज़ानकर—समझकर मैं अपनी यात्रा को यथा साध्य बढ़ाकर रखता था, कुछ क़दम ही सही। इसलिये ही तो श्मषान के घाट पर बैठा रहता था”।
— “तब तो तुम मुझे दोषी नहीं मानते ? सही—सही कहना, बिल्कुल न्याय संगत”।
— “अरे नहीं............ लेकिन एक बात कहूँ बाबूजी, तुमसे मुझे कुछ पाना है। वह जो तुमने मुझे मारा था, उसकी भी तो एक देनदारी बनती है, तुम्हारी“।
— “देनदारी ?” नफ़रचन्द्र चौंक उठा।
— “इसमें देनदारी—लेनदारी की बात कहाँ बनती है” ?
— “बात बनती है, हाँ जी, बनती है। जैसे ही तुमने मुझे मारा—एक संबंध तो बना ही न” ?
— “वह कैसे” ?
उस आदमी ने धीरे मुस्कराते हुये कहा —
“एक संबंध बनता ही है। यह एक ऐसा संबंध है, जिसे एक जन्म में मिटाया नहीं जा सकता। इसी संबंध के कारण, तुम से मुझे कुछ पाना है, देनदारी है तुम्हारी”।
— “देनदारी हो भी तो दूँगा कैसे ? मेरी माली हालत तो देख ही रहे हो। गणेष मेरे लिये एकमात्र अंधे की लाठी है, कहीं मषीन वगैरह चलाता है। आमदनी ठीक—ठाक ही है। लेकिन बूढ़े बाप को देता ही कौन है। सारा कुछ उस मोटी पत्नी के खुषियों के लिये खर्च करता है। पत्नी भी उसकी बांझ है। एक पोता या पोती होने पर शायद खुषी होती घर में। इस अकेलेपन से कुछ तो निज़ात मिल पाता। दुनिया की सारी खुषियाँ, मोटी बहू अपनी ओर खीच लेती है।
आदमी ने कहा — “तुम्हारी इन बातों से मुझे क्या” ? होगी तुम्हारी समस्या, तुम्हारी बला। मेरा उधार चुका देना तब फिर कोई दूसरी बात।
इतना कहकर वह आदमी चला गया।
नींद से जागते ही, मच्छरों की पुन्न्......न्.....न् सुनते ही उठकर बैठ गया नफ़र। स्साले....... इस मच्छरदानी के अंदर घुस कैसे जाते हैं ? मच्छर मारने के लिये लाईट जलाते ही नफ़र को अपनी ग़लती का अहसास हुआ.......... “अरे राम............. अब तो सुबह हो चुकी है, कौव्वे बोल रहें है बाहर। अपने बेटे गणेष से इसी कौव्वे—बोल सुबह में ही एक नज़र मिलने के बावजूद, कोई बात नहीं होती उन दोनों में। कहने को अब कौन सी बात रह ही गयी है अब! गणेष अपनी सारी बातें, माँ को ही बताता था, अब शायद अपनी पत्नी को कहता होगा। पिता के साथ, वैसे भी कभी उसकी वैसी बातें हुयी भी नहीं। आज़ सुबह भी, बरामदे पर ही मुलाक़ात हुयी। आंगन के हैंडपंप से लौटते हुये नफ़र ने गणेष से कहा —
“मेरा मच्छरदानी बहुत फ़ट गया है, कई जगह बड़े—बड़े छेद हो गये हैं, एक नई मच्छरदानी खरीद दोगे ?”
— “दूँगा, फिर कभी, इस महीने जोड़—पैबंद लगाकर काम चला लीज़िये”।
गणेष लड़का अच्छा है, पत्नी उसकी थोड़ी टेढ़ी है............. टेंटियां ............
— “न.... यह भी हो सकता है की उसकी पत्नी टेढ़ी नहीं है.......... वह खुद ही टेढ़ा है....... टेंटियां है”। अब कौन सी बात सही है, नफ़र खुद भी समझ नहीं पा रहा था।
गणेष की माँ, चारू हमेषा कहा करती थी की नफ़रचन्द्र जैसा दुष्ट आदमी कोई दूसरा नहीं हो सकता, बात हवा में उड़ा देने की भी नहीं थी, बात सोचने की थी।
दुलारू मोटी बहु ने जब हलवा बनाने के लिये कड़ाही चूल्हे पर चढ़ायी, तब तक गणेष नहा—धोकर आ चुका था। भूने हुये सूजी पर पानी डालने की आवाज़ छकाँत्...............
राय साहब के घर के मुर्गे बांग दे रहे थे। गणेष कोई भजन गुनगुना रहा था। नाष्ते के लिये उसने चन्द्रिमा को आवाज़ दी। मोटी पत्नी ने कहा — “अभी निकाल रही हूँ”।
नफ़र को भी मिलेगा, लेकिन थोड़ा सा। गणेष छह बासी रोटियाँ खाता है, मोटी बहू कितना खाती है, उसे नहीं मालूम। लेकिन नफ़र का भाग्य ही खण्डित है, माँगने पर एक ही जवाब — “और तो नहीं है........”
डाक्टर ने भी मना किया है, लेकिन नफ़र अपने शरीर को भी नहीं समझ पाता। सब ठीक ठाक ही है, लेकिन पिछली रात एक फूले पेट वाला मच्छर उसके हाथों से फिसलकर भाग गया था, यह सोचने की बात है। पत्नी की मृत्यु के बाद से ही वह एक उलझन में रहता है। चारू मुँह बिचकाती थी, उसके रहते कभी कोई मच्छर फिसलकर भाग नहीं पाया और वह गंजा लेनदार भी करीब फ़टक नहीं सका। सूरज अपना गंजा सिर लेकर, भस् से उग़ पड़ा, चिड़ियों की आवाज़ भी अब मद्धिम होने लगी, उनकी दिनचर्या में भूख शामिल हो चुका था। गणेष के काम पर निकलते ही, मोटी बहू फिर पलंग पर लेट जायेगी। महरिन देर से आती है। नफ़र अपने को बहुत अकेला पाता है, गणेष को कोई बच्चा होता..... मच्छरदानी के पल्लों को उसकी चाँदनी पर समेट, नफ़र बैठा रहता है अपने खाट पर। गर्म हलवे के साथ दो रोटियाँ उसके पेट के अंदर टहलने चली गयीं। मोटी बहू एक लम्बी जम्हाई लेकर, अपने पलंग पर लेट गई। पूरब की खिड़की से एक बौना दीवार दिख रहा है। दीवार के माथे पर, काँटेदार तारों की तीन लाइनें भावहीन स्थिर हैं। उसके बीच दिखता है, एक गंजा सूरज देवता। चिड़िया चहकती हैं।
चारू इस समय खूब जाप करती थी। जप की माला, उसके हाथों में रेलगाड़ी की तरह चलती थी................बन्.................बन्। दिनचर्या शुरू होने के पहले, निर्धारित जप की संख्या, यथासाध्य आगे बढ़ाकर रख लेती थी। नफ़र इन सब से भी कभी जोड़ नहीं पाया अपने को। फालतू बैठकर अंग—बंग जप करने से तो अच्छा है कि कोई दूसरी बात सोची जाये। पहले वह कुछ खेती—वेती का काम करता था, बाद में एक दुकान पर आधे की हिस्सेदारी में काम करने लगा। उस लंगड़े व्यवसाय से उसे दिनभर में चार—पाँच रूपये की आमदनी हो जाती थी। इस रेंगते व्यवसाय से अधीर होकर, एक दिन दुकान से कुछ माल समेट कर चंपत हो लिया था। इसके बाद, शायद ही किसी नये काम में हाथ डाला उसने। ज़िंदगी उसकी इसी फन्टेबाज़ी में बीत गयी। गणेष के कम उम्र में रोजगार पाते ही, वह काम—धाम को तिलांजलि देकर अपने ही कमरे में स्थिर हो गया, उसके बाद उसने कभी काम—धन्धे के बारे में सोचा ही नहीं। अगर वह कुछ ऐसा करता तो कुछ पैसे तो उसके पास होते ही।
नफ़र के स्व—आरोपित बेरोज़गारी में उसे दूसरे कामों में आनंद आने लगा। दिमाग़ खुलने लगा, दिमाग की बत्तियाँ जल उठी। मच्छर मारने का अद्भुत गुण, बग़ीचे के पौधों की गुड़ाई—निराई, चूल्हे के लिये कोयले तोड़ना, पान बना लेना। खाली बैठने पर इंसान में कितने ही पागलपन उभरने लगते हैं।
मोटी बहू के सो जाने पर, नफ़र दबे पाँव रसोईघर में गया। महरिन अभी तक नहीं आयी है। पिछले रात के जूठे बर्तन अब भी पड़े हैं। ताक—झाँक करने पर नफ़र ने देखा, गोष्त खाने के बाद, बचें हड्डियों और तेजपत्ते के टुकड़े एक कटोरे में भरा है। भरपूर खाया होगा, इन दोनों ने, नफ़र सोचने लगा। कचौड़ी का एक टुकड़ा भी दिखा। तो कल रात, क्या इन दोनों ने गोष्त पकाया था, कचौड़ियाँ तली थी।
एक गहरी साँस फ़ेंकते हुये वह अपने कमरे में आया, कमरे को पार करते हुये वह अपने घर के मेन गेट तक आ गया। मुक्त धरती फैली है चारो ओर। उसे एक बार इच्छा होती है की जिधर उसकी दृष्टि चली जाये, वह उधर ही निकल जाये, कभी न लौटने के लिये। गोष्त—कचौड़ी प्रकरण नें आज़ उसके साथ बहुत बड़ा विष्वासघात किया है। कुछ देर बाहर घूमते—टहलते वह वापस लौट आया। इस उम्र में, सन्यासी हो जाना उसे बहुत डराता है। कल रात, एक मच्छर फ़िसल भागा था। गंजे सिर वाला आदमी भी इन दिनों अक्सर आता रहता है। कमरे के अंदर आते ही बहू चन्द्रिमा ने नफ़र को एक लंबी डपट लगायी। दुलारू बहू ने कहा — “कैसी अक्ल है आपकी” ? घर का मेन गेट खोेलकर आप बाहर चले गये टहलने, कोई अगर घर के सामान साफ़ कर जाता तो ? कांसे के इतने बर्तन पड़े हैं और कितने ही सामान हैं। अब देखिये, उसी दिन तो कितने सामान ग़ायब हो गये थे।
नफ़र को बहुत दुःख हुआ। आज़ अगर वह लापता हो ही जाता तो ठीक था। चारू की मृत्यु के बाद ही, नफ़र को विवाह का एक प्रस्ताव मिला था। चारा काटने के मषीन केे मालिक हरेकृष्ण, की एक बेवकूफ़ सी बहन थी। उम्र अधिक हो चुकी थी। मुँह बाये देखती रहती थी, होठों के कोरों से लार बहता रहता थां ओरियन्ट सैलून के नाई, नरहरि ने नफ़र के बाल काटते—काटते एक दिन कहा था — “नफ़र बाबू अगर आप पाँच सौ रूपये की जुगाड़ कर लो तो मैं आपकी यह शादी बना दूँ“।
बेवकूफ़ ही तो थी, एक पत्नी आख़िर मिल तो जाती। यह रूपये की माँग ही बाधा बन गयी। घर के कुछ सामान चुराकर और उन्हें बाज़ार में बेचकर उसने कुछ पैसे जमा कर लिये थे। मोटी बहू के कुछ गहने अगर वह मार लेता तो बात बन ही जाती।
लेकिन ऐसा हो नहीं पाया, घर के किसी सामान के खो जाने पर, चन्द्रिमा पूरा घर सिर पर उठा लेती थी, नफ़र इसके लिये साहस जुटा नहीं सका। तैरते—उड़ते गणेष के कानों में भी शादी की प्रस्तावित चर्चा आ ही गई थी।
ओह! इतनी शर्मनाक बात। नफ़र को देख, मोहल्ले के लड़के सीटियाँ मारने लगे थे।
लेकिन अब भी चुराकर बेचे गये सामानों से मिले कुछ पैसे बचे हुये हैं, जिसे नफ़र ने अपने बिछौने के गद्दे के नीचे छिपा रखा है। सब मिलाकर तीस रूपये। उन रूपयों को अकेले में, छूता है, सहलाता है उसे एक तरह का सूकून मिलता है। दुनिया में लोग सगेे हैं या रूपया, नफ़र अभी तक निष्चय नहीं कर पाया। शाम ढलते ही, चन्द्रिका ने भोजन कर लेने का अनुरोध किया। यह किसी सम्मान—प्रेम जैसी बात नहीं थी, यह एक तरह का अलर्ट था। भोजन के बाद नफ़र के सोने के लिये बिछावन पर जाते ही, वह कुछ अतिरिक्त व्यंजन बनायेगी, जिसे वह गणेष के साथ मिल बैठकर खायेगी। नफ़र ने कुछ कहा नहीं। आज़ उसे चावल खाना अच्छा नहीं लग रहा था। मन में कचौड़ी—गोष्त की रट लगी है। अनमने वह दाल—चावल के बड़े—बड़े कौर बनाकर सपात्—सपात् खाने लगा। आज उसे जागना है। जागते हुये उसे आज़ इन रहस्यों से पर्दा उठाना है, उठाकर ही रहेगा। इच्छा हो, प्रयास हो तो दुनिया का कौन सा रहस्य आवृत्त रह सकता है। देखा........... हाँ अपनी आँखों से देखा नफ़र ने। आज पूरे परिवेष में सरसों—हिलसा की खुषबू फैल रही है। आज़ शाम गणेष हाथों में एक छोटी मिट्टी की हांडी लेकर लौटा है। नफ़र की भूख ने एक अंगड़ाई ली, मुँह में पानी आने लगा। रात बढ़ने पर, गणेष और चन्द्रिका भोजन करने बैठे। खूब हँसी मज़ाक चल रहा था।
नफ़र के मच्छरदानी के एक पल्ले से अपना चेहरा सटाकर व गंजा आदमी नफ़र से कहने लगा
— “मैं आ गया..................” लेनदेन का हिसाब आज़ पूरा हो ही जाये। नफ़र में आज़ घबराहट थी, बिछावन के गद्दे के उस ओर जहाँ रूपये रखे थे, उसे अपने पैरों से दबाते हुये, लेटे—लेटे ही नफ़र ने कहा —
— “हर रोज़ तुम एक ही बात करते हो”।
— “बहुत अनादर किया था” तुमने ! मार ही डाला।
— “तुम भी न, एक ही बात पकड़े बैठे हो” ?
— “पकड़ कौन रहा है ?” पकड़े जाने पर तो तुम्हें फ़ाँसी होगी।
— “तब ?”
— “मैं कह रहा था, सिर के जिस भाग में तुमने मारा था, उस जगह को तुम जरा सहला देते, अब भी उस जगह दर्द है”।
— “सचमुच” ?
— “हाँ कसम से। यह शरीर का दर्द नहीं है, यह अनादर, अपमान का दर्द है, उसकी व्यथा है। थोड़ा अपने हाथों से सहला दोगे” ?
नफ़र की आँखें भर आयी। वह उठकर बैठ गया।
— “आओ, देखता हूँ”।
उस आदमी ने अपना सिर नफ़र की ओर बढ़ा दिया।
— “हाँ........हाँ...... उसी जगह”।
— “हाँ, देख रहा हॅॅू, यहाँ सूजन है, बहुत चोट लगी थी न तुम्हें ?
— “हाँ, चोट तो बहुत ज़्यादा थी, लेकिन इसमें तुम्हारा कौन सा दोष” ?
— “रूको, थोड़ा सहला दूँ”।
कहते हुये नफ़र उस सूजनवाली ज़गह पर अपने होथों से धीरे—धीरे सहलाने लगा।
— “न.......... इस तरह मेरा मारना ठीक नहीं था।
— “आह.......... यह दर्द तो धीरे—धीरे ग़ायब हो रहा है, नफ़र“ — उस आदमी ने कहा।
नफ़र उसके कानों में फुसफुसाकर कहा — “मैनें अपने तीस रूपये अब भी छिपाकर रखें हैं। चलो, कल चलते हैं, किसी दुकान पर मिल बैठकर कचौड़ी—गोष्त खाते हैं, खाओगे मेरे साथ”?
— “हाँ........हाँ...... जरूर खाऊँगा, जमकर खाऊँगा”।
सुनते ही आज़ बहुत दिनों के बाद नफ़रचन्द्र, करवट बदलते हुये निष्िंचत होकर सो गया।
................. ग ..................