गाठें Vinita Shukla द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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गांठें

  • विनीता शुक्ला
  • “कुछ पता चला...तेरे बाजूवाली लड़की, किसके संग भाग गयी?!”

    “भाग गयी!! कब...कैसे?!!!”

    “अजी मां गयी थी दिल्ली, अपने पार्लर के लिए क्रीम, शैम्पू वगैरा लेने...पट्ठी को मौका मिल गया. कर लिया मुंह काला... सत्यानास होवे इस नई नसल का- न रुसवाई की तनिकौ परवाह, न जगहंसाई की!!”

    “अम्मा को तो बड़ा घमंड रहा- हमारी बिटिया बड़ी सयानी है...बड़ी गुनी! यही थे उसके गुन ?!...और यही था सयानापन!!”

    “आजकल सयानों के यही लच्छन होते हैं” बस फिर क्या था! एक से एक, अभद्र शब्द-बाण बरसते रहे. अनुमेहा को वहां बैठे रहना, असम्भव जान पड़ा. उसे जाते देख, श्रीमती लाल ने, झट टोक लगाई, “रुक अनु...इस बारे में, एक सलाह तुझे भी देनी थी”“???” अन
    ु की दृष्टि में, कुलबुलाते प्रश्न- संकेत, उन्हें उद्वेलित कर गये, “ अरे मैं तो कहे हूँ- भूलकर भी उसके पार्लर न जइयो; बदनाम लोगों से फासला ही बेहतर!!” इंदु लाल ने, उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया...उनका दकियानूसी प्रलाप, उसे खिजा रहा था- दूसरों की भद्द पीटकर, महान बनने का नपुंसक यत्न! विषैले, बदबूदार विचारों के व्यूह...उनकी जहरबुझी, दमघोंटू सड़ांध!! न चाहते हुए भी, उसका स्वर रुक्ष हो चला, “मैं उनके घर नहीं जाती...पार्लर तक ही”

    “लेकिन पार्लर भी तो घर में ही है. वहां जाओगी तो तुम्हारा नाम खराब होगा...शादी में दिक्कत आएगी” इस बार श्रीमती सिंह ने ज्ञान बघारा, अनु की बात को काटकर. उनके शब्द, स्याह यादों को उकसा गये थे. कोई नामालूम सी तड़प, उसे कचोटने लगी...अंधे कुएं में, हाथ पैर मारने सी लाचारी!! “मेहा..” अंधकूप में फुफकार जैसे स्वर- “मेरी हर सांस पर तुम्हारा नाम लिखा है...धडकनें हर पल तुम्हारे गीत गाती हैं! कब आओगी मेरे जीवन में?!! तुम आओगी ना?!!!” अंतस पत्ते की तरह काँप गया. शांत मनः- पटल में, हिलोर उठने लगी. सरदर्द का बहाना कर, उसने कापियां समेटीं और तीर की तरह, स्टाफ- रूम से निकल आई.

    सोचा था फ्री- पीरियड में कापियां चेक कर लेगी. लेकिन यह देवियाँ कुछ करने दें- तो ना! ये इंदु लाल, मधु सिंह, स्मिता बाला, शारदा देव- सबकी सब होपलेस हैं!! इनकी बातें सुनकर कौन कहेगा कि ये शिक्षिकाएं हैं...घर से थोड़ी देर को स्कूल आती हैं; लेकिन पढ़ाने के लिए नहीं- ‘चेंज’ के लिए. यहाँ आकर परपंच करती हैं; अश्लील मुद्दे खोलती हैं; कभी किसी टीचर तो कभी स्टाफ की बखिया उधेड़ती हैं. आस- पास मुहल्लों में चल रहे, प्रेम- प्रसंगों पर प्रकाश डालती हैं. सकारात्मक बातें तो कर ही नहीं सकतीं. सब्जी- अचार की रेसिपी या स्वेटर के फंदों में; उलझी रहती है- इनकी क्रिएटिविटी...उफ़ कैसी औरतें! यह शिक्षिकाएं हैं; इन्हें देश, समाज और राजनीति की सार्थक चर्चा करनी चाहिये. आने वाली पीढ़ियों को गढ़ना है तो बंद दिमाग खोलने होंगे.

    इनकी तुच्छ संगति, उसके भीतर शून्यता भर रही थी. उसे खुद से घुटन होती और जीना बेकार लगने लगता. अनुमेहा ने भी बड़े सपने देखे थे. काबिलियत भी थी- उन्हें सच कर दिखाने की. चौधरी सर कहते थे, “तुम एक दिन बहुत बड़ी अफसर बनोगी.” पी. सी. एस. परीक्षा के प्रथम चरण की तैयारी चल रही थी. वह सदा अपना ज्ञान, अपटूडेट रखती. हर टेस्ट में अच्छे नम्बर लाती. क्या पता था कि भविष्य कुछ और रच रहा था ... कि संभावनाएं फलीभूत न होंगी, पहले ही कुचल दी जायेंगी! एक दिन कोचिंग से घर लौटी तो पाया- युद्ध- स्तर पर, किसी के स्वागत की तैयारियाँ चल रही थीं. न जाने किस मेहमान को आना था.

    वह बैठक से, अंदर जाने लगी तो माँ ने चहककर, उसे प्यार के नाम से बुलाया, “मेहा!”... “अच्छे से रेडी हो जाना बेटा...सुहास अंकल आने वाले हैं, अपने परिवार के साथ”. कहते हुए उन्होंने, ‘मेगा - स्लीव्स’ वाला टॉप और जींस थमा दी. मां का जोश, उसको अजीब लगा. सुहास अंकल की पत्नी, बीना आंटी का “मॉड गेटअप’; ममा को, हमेशा काम्प्लेक्स देता है. शायद इसीलिए हो - टीमटाम!! उस पहनावे में, वह असहज महसूस कर रही थी. आदत जो नहीं थी, पहनने की. वो खुद ये कपड़े, बाज़ार से लायी थी; अपने जेबखर्च से – अपने लिए... पर माँ ने उन्हें छीन लिया. उखड़कर बोली थीं, “भले घर की लड़कियां, यह सब नहीं पहनतीं”. कपड़ों को उन्होंने, कहीं दफन कर दिया था...और आज इस तरह!!! जब कॉलेज जाती, वे दुपट्टा ठीक से ओढ़ने की ताकीद करतीं...उसके बालों को कसकर गूंथ देतीं. केश भी अनुशासन में बंध जाते.

    वही माँ, आज बदल गयीं थीं. उनका दोहरा बर्ताव, कहीं मन को, कुरेद अवश्य रहा था. विचित्र व्यवहार का भेद खुला; जब बीना आंटी ने अपने भतीजे, पुलक से उसे मिलवाया. पुलक की आँखों में, कोई आमंत्रण झलक रहा था. उन आँखों को देख, अनु सहम सी गयी थी. उस गहन दृष्टि से, उबर ही रही थी कि आंटी को चहकते हुए सुना, “हमारे पुलक को, मेहा बहुत पसंद आई...तो रिश्ता पक्का?!” उसे विरोध करने का, अवसर ही नहीं मिला. मंगनी की अंगूठी, उंगली में पहना दी गयी; गोदभराई की सारी, शगुन के रूपये और चढ़ावे के फल- फूल; उस पर लाद दिए गये.

    मेहमानों के जाने के बाद, वह फट पड़ी, “यह क्या माँ?! छह महीने बाद, मेरा पी. सी. एस. का पेपर है. आप ये लेकर बैठ गयीं...मुझसे बिना पूछे ही!” उसका स्वर क्रोध से कांपने लगा था. बेटी को ‘ऑब्जेक्ट’ बनाकर पेश किया...तब कहाँ थी नैतिकता, परंपरा और मूल्य??? माँ ने उसे प्रेम से समझाया था, “देख बेटी, पेपर तो होते रहते हैं. तुझे एग्जाम देने से, कौन रोक रहा है? ऐसा रिश्ता बार बार नहीं मिलता. अभी सगाई ही तो हुई है...ब्याह परीक्षा के बाद करेंगे.”

    पुलक आधुनिक विचारों का था. उसके सामने, मेहा को आधुनिक दिखना था... अंग्रेजी जुमले उछालते रहना था और सबसे अहम थी- ‘वुड बी’ के संग आउटिंग. मल्टी- नेशनल कंपनी और ‘फाइव फिगर सैलरी’ का ठप्पा था, उसके मंगेतर पर; लिहाजा ‘चोंचले’, जरूरी भी थे!! लेकिन अनु का दिल, उखड़ रहा था...इन आडम्बरों से, पढ़ाई बाधित हो सकती थी; भीरू संस्कार, ऐसा करने से रोक रहे थे. अनुमेहा ने, दबी जबान में विरोध किया और डैड ने भी कहा- “शादी के पहले, इतना मेलजोल ठीक नहीं.” किन्तु ममा, वर- पक्ष से डर रही थीं. बीना उन्हें ‘बैकवर्ड’ जानकर, सम्बन्ध न तोड़ दें- ये भी तो देखना था.

    मुलाकातों का सिलसिला, चल निकला- चाहे अनचाहे! नामी होटलों में डिनर...उद्यानों की बेंच पर, ठहरे हुए पल...थिएटर के शो...विंडो- शॉपिंग. एक युग बीत रहा था, नींद की खुमारी सा. प्रणय निवेदन की, नित –नई भूमिका! उस स्वप्निल- धारा में बहकर भी, देह ने सीमाएं नहीं लांघी. पुलक के बहकने पर, वह कोमलता से उसे रोक देती. हर स्वप्न टूटता है. यह भी टूटा- किसी दुस्वप्न के जैसा! सहसा फोन घनघना उठा. कर्कश ध्वनि का, मन की कटुता से साम्य हुआ. चिन्तन भंग होने पर, मेहा हड़बड़ा गयी. “हलो” रिसीवर थामते हुए, उसके हाथ काँप रहे थे. “दी मैं रंजना...पी. सी. एस. का फॉर्म भर रही हूँ...आपके लिए भिजवाऊं?”

    “रंजू तू!” अनुमेहा खिन्नता को झटक नहीं पा रही थी, “पता नहीं पढ़ पाऊँगी या नहीं...तू बेकार ही!!...”

    “कम ऑन दी! आई नो, यू कैन डू इट...” पितृतुल्य गुरु, चौधरी जी की बेटी रंजना! चौधरी सर और उसके बीच, आत्मीयता का अदृश्य सेतु था. उस सेतु की एक कड़ी, रंजना भी थी. कितनी उम्मीदें थीं, सर को अनुमेहा से! वक्त के दरिया में सब बह गया. वह उफान, सारी संभावनाओं को लील गया... हादसे को बुनते हुए लम्हे! बीना आंटी ने असमय आकर, वह निर्लज्ज घोषणा की- “आपकी बेटी कुछ ज्यादा फ़ास्ट है...हमारे बच्चे को, जाने कहाँ कहाँ टहला रही है!...माफ़ कीजियेगा; ये बेशर्मी हमें रास नहीं आएगी- हम ये रिश्ता नहीं कर...”

    “बेहया हमारी बेटी है या आपका बेटा?!” डैड जो थोड़ी देर को बुत बने खड़े थे, भभक पड़े. आरोप- प्रत्यारोप का लम्बा दौर चला. मंगनी की अंगूठियों और उपहारों को लौटाने तक नौबत आ पहुंची. बिरादरी में सौ मेल की बाते हो रही थीं. सब लड़की के ही चरित्र की, पड़ताल कर रहे थे; उन चरित्रहंताओं की नहीं- जिन्होंने एक मासूम को, कटघरे में खड़ा किया था. खरबूजा चाकू पर गिरे या चाकू खरबूजे पर; कटना तो अंततः खरबूजे को ही है!

    लेकिन पुलक इस बारे में, चुप्पी क्यों साधे था? उसे तो सच्चाई पता थी. क्या उसमें इतनी नैतिकता भी शेष न थी कि आगे बढ़कर, प्रेयसी का साथ दे??? नाटक से पर्दा उठते देर न लगी. एक दिन डैड बदहवास होकर घर लौटे. चाय की प्याली को उन्होंने, छुआ तक नहीं. ममा जब उसे, दुबारा गर्म करने चलीं तो वे बोले, “आज चाय गले से नहीं उतरेगी...जो कहता हूँ पहले उसे सुनो” डैड ने बताया कि पुलक को, कोई ‘मोटा आसामी’ मिल गया था. उस पर नोटों की बरसात होने वाली थी... दहेज में लम्बी- चौड़ी कार और फैक्ट्री का ऑफर...लड़की भी देखने- सुनने में बुरी नहीं.

    यह स्पष्ट था कि लोभ में आकर, उसने सगाई तोड़ दी. पर इसके लिए, वह घिनौना बहाना- एक निर्दोष लड़की को कलंकित करना?!! सारी बातें एकदम साफ़ हो गयी थीं. पर लोगों को कौन समझाये...कहाँ तक सफाई देते घूमे??? अवसाद के कारण, पी. सी. एस. की परीक्षा नहीं दे पायी. तबसे पांच साल बीत गये. उस घटना ने, डैड को तोड़ दिया था. ब्याह के नाम पर, अनु किसी से जुड़ना नहीं चाहती- एक घबराहट एक अविश्वास के तहत.

    दूसरों की क्या कहें, भंवर में उसको फेंकने वाली माँ भी, उसे ही कोसती हैं. वह इस निर्जन पहाड़ी कस्बे में क्यों पड़ी है...इसलिए कि उसके कारण, परिवार को शर्मिन्दगी न हो...कि वह स्वयम, काले अतीत से भाग सके...बिखरे वजूद के तिनके, समेट सके! उसका संसार महज, लेडीज हॉस्टल के कमरे तक सिमट गया है. अनुमेहा ने खुद को सहेजा. स्कूल छूटने वाला था. सहशिक्षिका सोनम, हॉस्पिटल में है. उसे देखने जाना होगा. अनुमेहा ने देर न की...बस- स्टैंड से हॉस्टल और वहां से सीधे अस्पताल.

    विज़िटिंग ऑवर्स कम होने के कारण, वो जल्दी में थी. कॉरिडोर में किसी स्ट्रेचर ने, उसकी राह रोक ली. अनु खीज उठी... चादर में लिपटे शरीर पर, नजर पड़ी. उस आदमी का चेहरा देख, वह चीख ही देती! छितरे हुए केश...बेतरतीब दाढ़ी के आस पास- उगे बालों के खूंट!! निःसंदेह वह पुलक ही था. उसे भला कैसे भूल सकती थी!!!

    मरे हुए कदमों से, वह सोनम के रूम में पहुँची. साथवाले कमरे में, पुलक की ‘देह’ थी- इस विचार ने उसे अस्थिर बना दिया. सोनम अभी नींद में थी- इंजेक्शन के असर से. अनु चुपचाप बैठ गयी, उसके जागने के इंतज़ार में. सोनम के पति, वार्ड- बॉय से बतियाने लगे, “यह बगल में, कौन मरीज़ आया है?”

    “साहब” वार्ड- बॉय ने फुसफुसाकर, उत्तेजना में कहा, “बड़े घर का दामाद है...पक्का शराबी. इतना पिएगा तो दुर्गति ही होगी!!”

    “पैसेवालों के शौक हैं भाई”

    “अरे नहीं भैया... यहाँ आया था हवा बदलने...और अपने वकील बाबू से मिलने”

    “वकील बाबू...काहे??” उबाऊ पल खिसकने लगे. “साहब...!” कर्मचारी पुनः रोमांच से भर उठा, “हमारे जीजा वकील साहब के असिस्टेंट हैं. वही बतला रहे थे कि इसकी बीबी एकदम बिगडैल है...रईसजादी है ना!”

    “अच्छा तो??” बात खींचने के लिए, प्रतिक्रिया जरूरी थी. “अरे सर, सुना है शादी के पहले से ही दारू, गांजा, अफीम- सब लेती रही. बिना ब्याह के ही, कईयों के साथ रह चुकी”

    “बदचलन भी है?!!”

    “हाँ!!” माहौल में गर्मी बढ़ रही थी, “बाप ने ब्याह किया- वाको सुधारने के लिए...तबहूँ न सुधरी. किसी वकील- उकील की औकात नहीं है कि इसे तलाक दिलाये...इसके ससुराल वाले बड़े- बड़े गुंडे पाले हैं; उनके खिलाफ कौन...”

    “तो अपने वकील बाबू भी?”

    “अऊर नहीं तो का...ऊ भी जवाब दे दिए...अमीरजादी का चरित्तर, भरी अदालत में उछालिहैं- तो उनहुन की छीछालेदर होई” आवेश में, वह अपनी देहाती बोली बोलने लगा. अनुमेहा सब सुन रही थी और नहीं भी...वह वहां थी और नहीं भी! सीने पर रखी कोई शिला, सरकने लगी थी. ज्यों पाषाण बनी अहल्या, स्पन्दित हो रही हो...! अब रुका हुआ जीवन, आगे बढ़ सकता था...उसको दोबारा, गंवाना नहीं था; जल्द रंजना से कहकर, फॉर्म मंगवा लेना है!! मन की गाठें, उसे और उलझा न पाएंगी!!!