देवों की घाटी - 3 BALRAM AGARWAL द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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देवों की घाटी - 3

खण्ड-2 से आगे

कार में नाटक

ममता और दोनों बच्चे चलती हुई टैक्सी में उन बाप-बेटे द्वारा बैठे-बैठे खेला जा रहा यह ड्रामा देखते-सुनते रहे। अल्ताफ हालाँकि तन्मयता से गाड़ी चला रहा था तथापि ड्रामे का मज़ा वह भी ले रहा था। इस बात का प्रमाण उसके होठों पर बीच-बीच में आ जाने वाली मुस्कान थी। टैक्सी में अब भूतकाल का ड्रामा शुरू हो चुका था।

‘‘अचानक ही रेलवे इन्क्वायरी पर पूछताछ की थी,’’ सुधाकर ने बताया, ‘‘पता चला कि गाड़ी दो घण्टे लेट है। बड़ा मलाल हुआ। सोचा, घर से आपके निकलने से पहले ही मालूम कर लेता तो अच्छा रहता। आप बेकार ही प्लेटफार्म पर बोर हो रहे होंगे। बस, ऑटो किया और चला आया।’’

‘‘चलो अच्छा हुआ ।’’ दादा जी बोले, ‘‘तुम न आते तो हमें शायद सारे डिब्बे झाँकने पड़ते।’’

‘‘अरे नहीं बाबूजी, इन कुलियों को सारे डिब्बों की पोजीशन और लोकेशन मालूम रहती है कि कौन-सा कम्पार्टमेंट इंजन से कितना पीछे लगता है और प्लेटफार्म पर किस जगह पर आकर रुकता है।’’

‘‘हम लोग अभी ये बातें कर ही रहे हैं कि गाड़ी के इंजन ने सीटी दे दी। उसकी आवाज़ सुनकर ट्रेन में सबसे पीछे लगे अपने डिब्बे के गेट पर खड़े होकर गार्ड ने हरी झंडी हिला दी है और गाड़ी ने प्लेटफार्म से खिसकना शुरू कर दिया है।’’ दादा जी उसी अवस्था में बोलते रहे, ‘‘अरे, गाड़ी चल दी! तेरी मम्मी ने चौंककर अचानक कहा है। तुम कम्पार्टमेंट से उतरने के लिए चल दिए हो। सँभलकर उतरना—मैं तुमसे कह रहा हूँ। जी बाबूजी—कहकर तुम नीचे उतर गए तथा प्लेटफार्म पर खड़े होकर हमें विदा देने के लिए अपना दायाँ हाथ हिलाने लगे हो। बच्चों ने भी प्लेटफार्म पर खड़े अपने पापा को अपना-अपना हाथ हिलाते हुए ‘टा-टा’ कहना शुरू कर दिया है।’’ यों कहकर दादा जी ने अपनी आँखें खोल लीं और बोले, ‘‘ट्रेन ने गति पकड़ ली है। प्लेटफार्म और उस पर खड़े तुम दू...ऽ...र, बहुत दू...ऽ...र छूट गए हो, हम अपनी सीट पर बैठ गए हैं।’’

‘‘वा...ऽ...व! क्या लाइव ड्रामा क्रिएट किया डैडी जी और दादा जी ने मिलकर। मज़ा आ गया।’’ मणिका बोली।

‘‘आखिर डैडी और दादा हैं किसके...’’ निक्की अपनी पीठ आप थपथपाता हुआ बोला, ‘‘मेरे!’’

‘‘अकेले तेरे नहीं,’’ मणिका ने कहा, ‘‘मेरे भी।’’

‘‘हम दोनों के।’’ निक्की ने कहा।

‘‘हाँ।’’ वह बोली और तपाक-से उससे हाथ मिलाया।

ममता उन दोनों की बातें सुनती मुस्कराती रही।

टैक्सी तेज़ गति से आगे बढ़ती जा रही थी।

नजीबाबाद आ गया सर जी

यात्रा रातभर चलती रही।

बातें करते और सुनते मणिका तथा निक्की को कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला। ममता भी उनके कुछ ही देर बाद सो गई थी। न सोए तो केवल सुधाकर और दादा जी। दरअसल, ड्राइवर के मनोबल को बनाए रखने और उसे नींद के झटकों से बचाए रखने के लिए उसके साथ बैठी सभी सवारियों का जागे रहना जरूरी होता है। यों तो अनुभवी ड्राइवरों को अपनी नींद पर काबू पाना आ जाता है, इसलिए वह सवारियों के सोने-न सोने की ज्यादा चिन्ता नहीं करते। फिर भी, समझदारी इसी में है कि साथ बैठी सवारियाँ जागती रहकर उसका साथ निभाएँ।

सुबह के लगभग चार-साढ़े चार बज गए थे। बाहर अभी भी काफी अँधेरा था, लेकिन यह आभास होने लगा था कि कुछ शहरी -सा इलाका शुरू हो गया है। सुधाकर अपनी आँखें फाड़-फाड़कर कभी-कभार नज़र आने वाले साइन बोर्ड्स पर उस जगह का नाम पढ़ने की कोशिश करने लगा; लेकिन बाहर के अंधकार और गाड़ी की तेज रफ्तार के कारण किसी भी बोर्ड पर कुछ पढ़ नहीं पा रहे थे। किंचित चहल-पहल भरे एक चौराहे के निकट अल्ताफ ने टैक्सी को सड़क किनारे बने एक पेट्रोल पंप पर जा खड़ा किया और बोला,‘‘नजीबाबाद आ गया सर जी। मैं जरा फ्रेश होकर आता हूँ। आप लोग बैठिए।’’

यों कहकर वहाँ के एक कर्मचारी से टॉयलेट का रास्ता पूछकर वह पेट्रोल पंप के पिछवाड़े चला गया।

‘‘पेट्रोल पंप तो पीछे भी कई नजर आए थे, वहाँ क्यों नहीं रुक गया यह?’’ सुधाकर दादा जी को सुनाता हुआ बुदबुदाया।

‘‘समझदार है इसलिए।’’ दादा जी बोले।

‘‘बाबू जी, बुजुर्गों ने कहा है कि भीतर के किसी भी दबाव को रोकना नहीं चाहिए।’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘वह चाहे छींक का दबाव हो, खाँसी का दबाव हो, हवा पास होने का दबाव हो या कोई और...।’’

‘‘इसका मतलब हुआ कि अल्ताफ की जगह तुम गाड़ी चला रहे होते तो फ्रेश होने के लिए पिछले किसी भी पेट्रोल पंप पर गाड़ी को रोक देते?’’ दादा जी ने पूछा।

‘‘बेशक।’’ सुधाकर बोला।

‘‘यानी कि तुम वह बेवकूफी करते जिसकी उम्मीद कम से कम मैं तो तुमसे नहीं करता।’’

‘‘कैसी बेवकूफी?’’ सुधाकर ने पूछा।

‘‘देखो बेटा, किसी बात को सिर्फ इसलिए नहीं मान लेना चाहिए कि उसे बुजुर्गों ने कहा है या हमारे ऋषि-मुनियों ने उसे शास्त्रों में लिखा है। उन सबको जो बुद्धि मिली थी, वही तुम्हें भी मिली है। इसलिए किसी काम को करने-न करने का निर्णय अपने विवेक के अनुसार करना चाहिए, किताबी ज्ञान के अनुसार नहीं। शास्त्राीय-ज्ञान पाकर काशी से अपने घर की ओर लौट रहे चार ब्राह्मण-पुत्रों की कथा तो तुमने पढ़ी ही होगी?’’ दादा जी ने पूछा।

‘‘नहीं तो।’’

‘‘नहीं! तो सुनो —

ब्राह्मण कुमारों की कथा

काशी के एक ऊँचे दर्जे के गुरुकुल से शिक्षा समाप्त करके चार ब्राह्मण-पुत्र अपने-अपने घर को लौट रहे थे। चलते-चलते वे एक घने जंगल से गुजरे। जब वे उसके बीचों-बीच पहुँचे तो रास्ते में उन्हें हड्डियों का एक ढेर पड़ा मिला। वे वहाँ रुक गए और आपस में विचार करने लगे कि हड्डियों का यह ढेर किस प्राणी का हो सकता है? काफी माथापच्ची करने पर भी उनकी समझ में कुछ नहीं आया। तब, उनमें से एक ने कहा, ‘अरे, हम बेकार ही इतनी देर से माथापच्ची कर रहे हैं। हमारी विद्या आखिर किस दिन काम आएगी?’

यह कहकर उसने अपने कंधे पर लटके थैले में हाथ डालकर कागज की एक पुड़िया निकाली। उसमें से चुटकीभर राख निकालकर उसने अपने दाएँ हाथ की हथेली पर रखी। आँखें मूँदकर कोई मंत्र पढ़ा और हथेली पर रखी राख को फूँक मारकर हड्डियों के ढेर पर उड़ा दिया।

आश्चर्य! राख पड़ते ही सारी की सारी हड्डियाँ आपस में जुड़ र्गईं और किसी जानवर के कंकाल में बदल गईं।

यह देखकर वे दोबारा आपस में विचार करने लगे कि सामने पड़ा कंकाल किस जानवर का हो सकता है? कुछ देर बाद उनमें से एक अन्य बोला, ‘चलो, मैं भी अपने शास्त्रा-ज्ञान को परखता हूँ।’

यों कहकर उसने भी अपने कंधे पर लटके थैले में हाथ डालकर कागज की कुछ पुड़ियाँ निकाल लीं। उनमें से छाँटकर एक पुड़िया से उसने लाल रंग का कुछ चूर्ण अपने दाएँ हाथ की हथेली पर रखा, आँखें मूँदकर किसी मंत्र का जाप किया और फूँक मारकर चूर्ण को कंकाल पर उड़ा दिया।

कमाल हो गया। कंकाल पर खाल की परत चढ़ गयी। उन सबके देखते-देखते वह कंकाल एक बबर शेर का शव बन गया।

‘अरे वाह! देखो, मैं भी अपनी विद्या में सफल हो गया।’ कहता हुआ वह खुशी से उछल पड़ा। अपने दो साथियों के प्रयोग की सफलता को देखकर तीसरे ब्राह्मण-पुत्र के मन में भी अपनी विद्या के प्रदर्शन का भाव जाग उठा। वह बोला, ‘तुम दोनों ने अपनी-अपनी विद्या की परख सफलतापूर्वक कर ली। अब मेरी बारी है।’

‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं।’ वे दोनों बोले; लेकिन चौथे ने टोका, ‘तुम क्या करोगे?’

‘मैं अपनी विद्या से इस शव में प्राण डाल दूँगा।’ तीसरा बोला।

‘यह शव बकरी का नहीं, शेर का है मेरे भाई। प्राण डाल दोगे तो यह हमें खा नहीं जाएगा?’ चौथे ने चेताया।

‘अपने जीवनदाताओं को ही खा जाएगा!!’ पहले दो एक साथ बोल उठे, ‘आदमी जितना कृतघ्न प्राणी नहीं होता शेर।’

‘अरे छोड़ो।’ तीसरा उपहासपूर्वक बोला, ‘यह तो दो पोथियाँ ज्योतिष और भविष्यवाणी की पढ़कर आया है। इस बेचारे को प्राणिशास्त्र का क्या पता?’ यह कहकर उसने कमण्डल से थोड़ा जल अपनी दायीं हथेली में डालकर मंत्र पढ़ना शुरू कर दिया।

‘रुको, ’ चौथा बोला, ‘पहले आप सब उस पेड़ पर चढ़ जाओ। इतने भयंकर जानवर को जीवित करने का खतरा यों ही मत उठाओ।’

‘हमारा यह कुछ नहीं बिगाड़ने वाला।’ वे हँसकर बोले, ‘तूने इस पर कोई अहसान नहीं किया, इसलिए यह तुझे ही खाएगा। जा, उस पेड़ पर चढ़ जा।’

यह जानकर कि अपने ज्ञान के अहंकार में वे तीनों अपना विवेक खो चुके हैं, चौथा दौड़कर गया और पेड़ पर चढ़ गया। तीसरे ने उसके बाद मंत्र पढ़ा और हथेली में ले रखे जल को शेर के शव पर छिड़क दिया। शेर जीवित हो उठा। यह देखते ही तीसरा जोरों से चिल्लाया, ‘मैंने कर दिखाया। देखो, मैंने कर दिखाया।’

उसकी आवाज़ सुनकर शेर ने उधर गरदन घुमाई। तीन अनजान मनुष्यों को वहाँ खड़ा पाकर वह जोर से गुर्राया। उसने एक ही छलाँग में उन्हें एक साथ धर दबोचा और खा गया।’’

यह कहानी सुनाकर दादा जी चुप हो गए।

‘‘फिर?’’ कुछ देर तक उनके पुनः बोलने का इंतज़ार करने के बाद सुधाकर ने पूछा।

‘‘तू निरा बुद्धू है।’’ इस सवाल से किलसकर दादा जी उसे झिड़कते-से बोले, ‘‘फिर क्या?...सीधी-सादी बात है कि जो किताबी ज्ञान पर चलते थे, वे तीनों मारे गए और जो समझदारी का, अपने विवेक का सहारा लेकर पेड़ पर चढ़ गया था, वो बच गया।’’

‘‘हाँ, लेकिन आपकी कहानी का उस बात से क्या सम्बन्ध है कि अल्ताफ पिछले किसी पेट्रोल पंप पर क्यों नहीं रुका?’’ सुधाकर ने पूछा।

‘‘पहली बात तो यह सुन ले कि यह कहानी मेरी बनाई हुई नहीं है, पंचतन्त्र की है।’’ दादा जी ने कहा, ‘‘दूसरे, कहानी उस बात पर नहीं, बल्कि तेरी इस बात पर सुनाई थी कि अल्ताफ ने पेट के प्रेशर को इतनी देर क्यों रोका जबकि बुजुर्गों ने किसी भी प्रेशर को रोकने की मनाही की हुई है।’’ बात में सुधार करते हुए दादा जी बोले।

‘‘चलिए, यही सही।’’

‘‘देखो, सबसे पहली बात तो यह है कि वह पेट के प्रेशर को कुछ देर तक बर्दाश्त कर सकने की हालत में था, सो उसने उसे बर्दाश्त किया और यहाँ तक चला आया। अगर वह बुजुर्गों की कही बात पर यानी किताबी ज्ञान पर चलता तो बर्दाश्त करने-न करने की बात ही खत्म हो जाती। गाड़ी को वह कहीं भी खड़ी करता और फ़ारिग हो लेता; लेकिन उसे पता था कि उसकी गाड़ी में दो छोटे बच्चे, एक औरत और एक बूढ़ा आदमी बैठा है जो ख़तरा आने पर न तो ज्यादा लड़ सकते हैं और न ही ज्यादा भाग सकते हैं। रहा तुझ-जैसा जवान आदमी, सो तुझ पर वो इसलिए भरोसा नहीं कर सकता कि तू उसके लिए अनजान है। यही वज़ह है कि गाड़ी को उसने थोड़ा शहरी इलाका आ जाने पर रोका। आया समझ में?’’

‘‘बात तो आपकी ठीक है।’’ सहमति में सिर हिलाते हुए सुधाकर बोला।

‘‘देखो बेटा, ये लोग दिन-रात सड़कों पर ही चलते हैं। हजार तरह के लोगों से रोज़ाना मिलते हैं, कितने ही अच्छे-बुरे किस्से सुनते हैं। इसलिए छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखने की तमीज़ इनमें पैदा हो जाती है।’’ दादा जी ने बताया।

सुबह की चाय

इसी दौरान अल्ताफ फ्रेश होकर लौट आया। आते ही बोला,‘‘सर, आप लोगों में से भी किसी को, भाभी जी को, बच्चों को फ्रेश होकर आना हो तो हो आइए। यहाँ एकदम साफ-सुथरा और सुरक्षित है। आगे आपको या तो नदी किनारे या किसी होटल वगैरा में किराए का कमरा लेकर फ्रेश होने के लिए जाना पड़ेगा। वैसे तो आठ-नौ बजे तक हम श्रीनगर पहुँच ही जाएँगे।’’

‘‘सुनो, ’’ उसकी बात सुनकर दादा जी ने सुधाकर से कहा, ‘‘ठीक कहा इसने। पहले मैं फ्रेश हो आता हूँ। तब तक तुम बहू को जगाकर रखो। मेरे आने के बाद तुम दोनों चले जाना। बच्चों को अभी सोने दो, वापस आकर मैं जगा लूँगा।’’

‘‘जी, ठीक है।’’ सुधाकर ने कहा।

दादा जी गाड़ी से उतरकर उधर चले गए जिधर पहले अल्ताफ गया था।

‘‘सड़क के उस पार चायवाले ने दुकान खोल ली है।’’ यों कहकर अल्ताफ ने सुधाकर से पूछा, ‘‘मैं चाय पी आऊँ?’’

‘‘हाँ-हाँ, ज़रूर।’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘...और, वो अगर यहाँ देने आ सके तो दो चाय हमारे लिए भी भेजवा देना।’’

‘‘जी।’’ कहकर वह चला गया।

उसके जाते ही सुधाकर ने धीमे-से आवाज़ देकर ममता को जगा दिया। जागते ही उसने अचरज से चारों ओर देखा, फिर पूछा, ‘‘कौन-सी जगह है?’’

खण्ड-4 में जारी..