देवों की घाटी - 4 BALRAM AGARWAL द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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देवों की घाटी - 4

… खण्ड-3 से आगे

‘‘नजीबाबाद का आउटर है।’’ सुधाकर ने बताया।

‘‘गाड़ी यहाँ क्यों रोक दी?’’ ममता ने दूसरा सवाल किया।

‘‘अल्ताफ को फ्रेश होने जाना था इसलिए।’’

‘‘बाबूजी किधर हैं?’’

‘‘अल्ताफ के बाद वो फ्रेश होने गए हैं।’’

‘‘मुझे क्यों जगाया?’’

‘‘अल्ताफ ने बाबूजी को घुट्टी पिला दी है कि यहीं फ्रेश हो लो। यहाँ फ्री है, आगे पैसे खर्च करने पड़ेंगे।’’

‘‘हे भगवान! आपको तो पता है कि मुझे चाय पिये बिना प्रेशर बनता नहीं है।’’

‘‘मँगा ली है, लाता ही होगा।’’ शरारती मुस्कान के साथ सुधाकर बोला।

‘‘आप भी बस...’’ ममता नाराज़गी भरे स्वर में बोली।

‘‘मैं भी बस नहीं, बाबू जी भी बस...’’ सुधाकर अपना बचाव करते हुए बोला, ‘‘मेमसाब, इस समय हम सफर में हैं; वो भी बाबूजी के साथ। एक कहानी सुनाकर सुबह-सुबह मुझे ‘बेवकूफ’ कहने का अपना पैतृक-अधिकार तो वे जता ही चुके हैं। इसलिए घर की बातें घर पर। यहाँ वो...जो बाबू जी हुक्म करें। चायवाला चाय लेकर आने वाला है। सुस्ती छोड़ो और तनकर बैठ जाओ। थोड़ी ही देर में बाबू जी भी आते ही होंगे।’’

ममता ने गहरी अँगड़ाई लेकर सुस्ती को जैसे दूर फेंक दिया और सीट पर सीधी बैठ गई।

चायवाला जल्दी ही दो गिलासों में चाय लेकर दौड़ता चला आया। सुधाकर के हाथों में गिलास पकड़ाते हुए उसने पूछा, ‘‘बिस्कुट वगैरा कुछ-और लेंगे साब?’’

‘‘नहीं।’’ सुधाकर ने कहा।

‘‘कोई बात नहीं...’’ गाड़ी में सोते बच्चों की ओर देखकर उसने पूछा, ‘‘बच्चा-लोगों के लिए भी बनाऊँ?’’

‘‘वो अभी सो रहे हैं।’’ सुधाकर ने टाला।

‘‘कोई बात नहीं...’’ वह दाँत निपोरता-सा बोला, ‘‘जाग जाएँ तो आवाज़ लगा देना। दो मिनट में बना लाऊँगा।’’

यों कहकर वह चला गया।

वे दोनों चाय पीने लगे। अल्ताफ चायवाले के खोखे के पास पड़ी लकड़ी की बेंच पर ही बैठ गया था।

ममता और सुधाकर ने अपनी-अपनी चाय खत्म करके गिलास अभी नीचे रखे भी नहीं थे कि दादा जी आ गए। उनके हाथों में चाय के गिलास देखकर एकदम-से बोले, ‘‘अरे वाह, यहाँ भी बेड-टी मिल गई!’’

‘‘जी बाबू जी, आपके आशीर्वाद से।’’ ममता ने कहा, ‘‘पाँव छूती हूँ।’’

‘‘सदा सुखी रहो बेटा।’’ दादा जी बोले, ‘‘देर न करो, जल्दी जाओ। मैं इस बीच बच्चों को जगाता हूँ।’’

‘‘बच्चों को सोने दीजिए बाबू जी।’’ ममता ने कहा, ‘‘ये लोग तो वैसे भी देर तक सोने के आदी हैं।’’

‘‘देर तक सोने के आदी घर में हैं या सफ़र में?’’ दादा जी तीखे स्वर में बोले, ‘‘इनकी बात तुम मुझ पर छोड़ दो और इस बुद्धू को लेकर फ्रेश होने को जाओ।’’

ममता ने सुधाकर की ओर देखा और केवल मुस्कराकर रह गईं। सुधाकर भी चुपचाप टॉयलेट्स की ओर बढ़ गया।

जाग गए बच्चे भी

‘‘मणिका-निक्की! उठो।...उठो बेटे, देखो नजीबाबाद आ गया।’’ उनके चले जाने के बाद दादा जी ने सीटों पर पसरे पड़े बच्चों को जगाने के लिए हिलाना शुरू कर दिया।

‘‘नजीबाबाद!...यहाँ से बद्रीनाथ कितनी दूर है दादा जी?’’ थोड़ी-बहुत कुनन-मुनन करने के बाद निक्की ने फुर्ती के साथ बैठते हुए पूछा।

‘‘वह तो अभी बहुत दूर है।’’ दादा जी बोले, ‘‘तुम लोग फटाफट पेस्ट वगैरा से निबटो।...दिन अभी निकल ही रहा है बेटे। देर करोगे तो टॉयलेट के बाहर लाइन लगनी शुरू हो सकती है। सफर के दौरान इस बात का ध्यान जरूर रखना चाहिए।’’

‘‘पहले आप हो आइए न दादा जी।’’ मणिका अपनी सीट पर करवट बदलकर बोली, ‘‘जैसे ही आप आएँगे, हम चले जाएँगे।’’

‘‘अरे, तू भी जाग गई चुहिया?’’

‘‘गुड मार्निंग दादा जी।’’ वह आलस्यभरी आवाज़ में बोली।

‘‘वेरी गुड मार्निंग बेटा। मैं तो हो भी आया। कुल्ला-मंजन करके मुँह-हाथ धोकर एकदम तैयार खड़ा हूँ तुम्हारे सामने।’’ दादा जी बोले।

‘‘ठीक है, पहले मैं जाता हूँ।’’ निक्की खड़ा होकर बोला।

‘‘बड़ा फुर्तीला बच्चा है।’’ दादा जी खुश होकर बोले, ‘‘अभी रुक थोड़ी देर। फिलहाल मम्मी-पापा गए हुए हैं। उन्हें आने दो, तब जाना।...या फिर ऐसा कर, तू जा।’’

‘‘मेरा ब्रश, पेस्ट, तौलिया और साबुन किधर है दादा जी ?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘उस सूटकेस के भीतर, एकदम ऊपर।’’

सामान लेकर निक्की टॉयलेट की ओर बढ़ गया।

‘‘गाड़ी यहाँ कितनी देर रुकेगी दादा जी?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘कुछ देर तो रुकेगी ही। क्यों ?’’

‘‘नजीबाबाद के बाद कोटद्वार ही आएगा न, प्लेन का आखिरी स्टेशन?’’

‘‘ठीक कहा। वहीं से हम उत्तराखण्ड राज्य की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं।’’ दादा जी बोले।

‘‘कोटद्वार में भी कुछ देखने लायक स्थान हैं दादा जी?’’ उठकर सीधी बैठते हुए मणिका ने पूछा।

‘‘देखने लायक भी और जानने लायक भी।’’ दादा जी बोले, ‘‘लो, निक्की तो इतनी जल्दी लौट भी आया। उधर तुम्हारी मम्मी शायद तुम्हारे इन्तज़ार में खड़ी रह गई है, अब तुम जाओ।’’

‘‘जाती हूँ; लेकिन मेरे आने तक भैया को आप कुछ नहीं बतायेंगे दादा जी।’’ मणिका अधिकारपूर्वक बोली और टॉयलेट की ओर चल दी।

‘‘दीदी, तेरा ब्रश-पेस्ट।’’ गाड़ी के निकट आकर निक्की ने सूटकेस को देखा और मणिका का ब्रश उठाकर उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा।

मणिका ब्रश लेकर आगे बढ़ गई।

अल्ताफ अभी भी चायवाले की बेंच पर ही बैठा था। वह दरअसल, इन लोगों के पूरी तरह तैयार होने का इन्तज़ार कर रहा था। दादा जी ने जैसे ही मणिका को टॉयलेट से बाहर आकर ब्रश करते देखा, आवाज़ लगाकर तीन चाय ले आने का ऑर्डर चायवाले को दे दिया।

‘‘दो मिनट में लाया बाऊ जी।’’ आर्डर सुनते ही चायवाले ने जवाब दिया और जैसा कि उसने कहा था, अगले दो ही मिनट में तीन गिलास चाय लेकर वह उपस्थित हो गया।

‘‘बच्चा-लोग के लिए बिस्कुट वगैरा कुछ लाऊँ बाऊ जी?’’ चाय का एक गिलास दादा जी के हाथ में पकड़ाते हुए उसने पूछा।

‘‘वह सब है हमारे पास।’’ दादा जी ने कहा, ‘‘वैसे भी, इतनी सुबह ये लोग कुछ खायेंगे नहीं।’’

गाड़ी में पहले रखे चाय के खाली गिलासों को लेकर चायवाला चला गया।

‘‘अब बताइए दादा जी।’’ मणिका चाय की चुस्की लेकर बोली।

‘‘अभी नहीं।’’ दादा जी बोले, ‘‘गाड़ी चलना शुरू होगी तब।’’

वह बेचारी चुप हो गई। ममता और सुधाकर इस दौरान इधर-उधर चहल-कदमी करने लगे थे।

विश्वामित्र-मेनका की कथा

दोनों बच्चों ने अपने-अपने गिलास की चाय खत्म की। दादा जी ने भी। वहीं बैठे-बैठे उन्होंने अल्ताफ को इशारा किया, अल्ताफ ने चायवाले को। वह दौड़कर आया और खाली गिलासों को हाथ में पकड़ते हुए अल्ताफ की ओर इशारा करके बोला, ‘‘पैसे उन्होंने दे दिये हैं बाऊ जी।’’

‘‘ठीक है।’’ दादा जी ने कहा।

अल्ताफ को चायवाले के पास से उठकर गाड़ी की ओर बढ़ता देखकर ममता और सुधाकर भी चले आए।

गाड़ी आगे चल दी।

बच्चों ने उत्सुकतापूर्वक दादा जी के चेहरे को निहारना शुरू किया।

‘‘महर्षि विश्वामित्र का नाम सुना है?’’ बच्चों की उत्सुकता को भाँपकर गाड़ी चलने के कुछ देर बाद ही दादा जी ने उनसे पूछा।

‘‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं।’’ मणिका तपाक-से बोली, ‘‘वही, जो अपने यज्ञ की रक्षा के लिए भगवान राम और लक्ष्मण को उनके पिता दशरथ से माँगकर ले गए थे।’’

‘‘बेटे, श्रीराम को ले जाने की घटना से बहुत पहले उन महर्षि विश्वामित्र ने एक बार घोर तपस्या की थी।’’ दादा जी ने धीरे-धीरे बताना शुरू किया, ‘‘देवताओं के राजा इन्द्र को उनकी तपस्या देखकर बड़ा डर लगा। उसने सोचा कि विश्वामित्र की तपस्या अगर सफल हो गई तो देवता उसे हटाकर कहीं विश्वामित्र को ही स्वर्ग का राजा न बना दें। यह सोचकर उसने अपने दरबार से मेनका नाम की एक अप्सरा को विश्वामित्र का ध्यान तपस्या की ओर से हटाकर घर-गृहस्थी की ओर लगा देने के लिए उनके पास भेज दिया। बहुत सुंदर तो थी ही मेनका, बहुत चतुर भी थी। आखिर अप्सरा थी इन्द्र के दरबार की। चालाकीभरी बातें बनाकर वह विश्वामित्र की पत्नी जा बनी और घर-गृहस्थी के कामों में उलझाकर उन्हें तपस्या करने से रोक दिया। कई वर्षों तक साथ रहने के बाद मेनका को जब यह पता चला कि वह माँ बनने वाली है, तब वह यह सोचकर डर गई कि विश्वामित्र को अगर उसकी चालाकी और उनके साथ रहने के लिए आने की उसकी असलियत का पता चल गया तो शाप देकर उसे एक ही क्षण में भस्म कर डालेंगे। बस, एक दिन अचानक वह विश्वामित्र के चरणों से लिपट गयी और रोने लगी। विश्वामित्र की समझ में कुछ न आया। उन्होंने उससे उसके रोने का कारण पूछा लेकिन रोने का कारण बताने की बजाय वह यही कहती रही कि पहले वे उसे क्षमा कर दें, तभी वह कुछ बताएगी। विश्वामित्र तो उसके मोहजाल में पूरी तरह फँसे हुए थे। उस पर प्रसन्न होकर उन्होंने उसे क्षमा कर देने का वचन दे दिया। वचन पाकर मेनका ने बहुत दुःखी होने का नाटक करते हुए उनसे कहा—स्वामी! मुझ पापिन पर दया करने के कारण आप तपस्या नहीं कर पा रहे हैं। यह सोच-सोचकर मेरा मन कई दिनों से मुझे धिक्कार रहा है। स्वामी! जैसे आपने अपने राज्य का मोह त्यागकर संन्यास ग्रहण किया था, मेरी प्रार्थना है कि वैसे ही मेरा मोह त्यागकर आप पुनः अपनी तपस्या में लग जायँ।’’

महर्षि कण्व का आश्रम

कहानी सुनाने का दादा जी का तरीका इतना अधिक रोचक था कि ममता और सुधाकर भी उनकी ओर मुँह करके बैठ गए।

‘‘बेटे, आराम से ही चलाना गाड़ी।’’ दादा जी अल्ताफ से बोले।

‘‘आप बेफिक्र होकर कहानियाँ सुनाते रहिए बाबू जी।’’ अल्ताफ ने कहा, ‘‘हम लोगों को बातें सुनते और बातें करते हुए गाड़ी चलाते रहने की आदत बनी होती है।’’

‘‘विश्वामित्र ने मेनका की इस बात को उसका महान त्याग समझकर उसे पूरी तरह क्षमा कर दिया।’’ दादा जी ने आगे बताना शुरू किया, ‘‘उनकी तपस्या को भंग करने का अपना काम बड़ी चतुराई और सफलता से पूरा करके मेनका उनका आश्रम छौड़कर चली गई। कुछ समय बाद उसने एक सुन्दर कन्या को जन्म दिया जिसे लेकर वह इन्द्र के लोक में जा पहुँची।’’

‘‘फिर क्या हुआ दादा जी?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘फिर, लालन-पालन के लिए इन्द्र ने उस कन्या को धरती पर मालिनी नदी के किनारे आश्रम बनाकर रहने वाले उस समय के महान ऋर्षि कण्व के आश्रम में भेज दिया। बड़ी होने पर वही कन्या शकुन्तला कहलाई।’’ दादा जी बोले, ‘‘जानते हो, शकुन्तला कौन थी?’’

‘‘हाँ दादा जी ।’’ मणिका तपाक से बोली, ‘‘इन्द्रलोक की अप्सरा मेनका और महर्षि विश्वामित्र की पुत्री!’’

‘‘धत् तेरे की...’’ दादा जी अपने माथे पर हथेली मारकर बोले, ‘‘यह बात तो अभी-अभी मैंने ही तुमको बताई है। इसके अलावा बताओ कि शकुन्तला कौन थी?’’

‘‘राजा दुष्यन्त की पत्नी और भारत के चक्रवर्ती सम्राट भरत की माँ।’’ गाड़ी चलाते हुए अल्ताफ ने मुस्कराते हुए बताया फिर बोला, ‘‘कभी-कभार आप लोगों के बीच में मैं भी कुछ बोल सकता हूँ न सर जी?’’

‘‘भई, मेरी तरफ से तो ‘हाँ’ है, बाकी तुम बच्चों से तय कर लो।’’ दादा जी ने कहा, ‘‘तुमने बिल्कुल ठीक बताया लेकिन यह भरत भगवान श्रीराम के छोटे भाई भरत नहीं हैं।’’

‘‘पता है।’’ इस बार निक्की ने कहा, ‘‘भगवान राम के छोटे भाई भरत की माता का नाम शकुन्तला नहीं, कैकेयी था।’’

‘‘वेरी गुड।’’ दादा जी मुस्कराकर बोले, ‘‘भई तुम लोगों का सामान्य ज्ञान तो बड़ा उत्तम है!’’

‘‘फिर क्या हुआ दादा जी?’’ अपनी प्रशंसा के शब्दों में न उलझकर बच्चों ने कथा के तारतम्य को जोड़े रखने का प्रयास करते हुए पूछा।

‘‘फिर जो हुआ, वह बहुत लम्बी कहानी है।’’ दादा जी बोले, ‘‘मैंने जिस उद्देश्य से शकुन्तला के जन्म की कहानी तुमको सुनाई है, उसे सुनो—मालिनी नदी और महर्षि कण्व का आश्रम, दोनों इस कोटद्वार क्षेत्र में ही हैं। मालिनी नदी को बहुत-से लोग मालन नदी भी कहते हैं। उसी के आधार पर इस घाटी को मालन घाटी कहा जाता है। कहा जाता है कि अपने वीर पुत्र भरत को शकुन्तला ने इस मालन घाटी में ही जन्म दिया था। ...और यह भी कि संस्कृत के महाकवि कालिदास ने अपने महान् काव्य ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ की रचना इस मालिनी नदी के किनारे बैठकर ही की थी। ...’’

‘‘कोटद्वार आने वाला है सर जी,’’ अल्ताफ आत्मीय स्वर में बोला।

गाड़ी हॉर्न देती हुई तेजी से दौड़ रही थी। बातों-बातों में कई छोटे स्टेशन पीछे निकल गए थे। खिड़कियों के सहारे बैठे बच्चे दूर खड़े पहाड़ों को देखकर पुलकित होने लगे। अब से कुछ समय बाद ही वे इन पहाड़ों के बीच से गुजरने वाले थे। खण्ड-5 में जारी…………