विवाह एक पवित्र बंधन Priya Vachhani द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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विवाह एक पवित्र बंधन

Priya Vachhani

priyavachhani26@gmail.com

विवाह एक पवित्र बंधन

विवाह ये सिर्फ सामाजिक बंधन ही नहीं दो आत्माओं का पवित्र बंधन है। स्त्री और पुरुष दोनों ही एक दूसरे के बिन अधूरे हैं। और इसी अधूरेपन को पूर्ण करता है विवाह का बंधन। वैसे तो हर धर्म में विवाह के अलग-अलग तरीके हैं। किन्तु आज कल हर विवाह में ये प्रश्न सामान्यतः पूछा जाता है। अरेंज मैरिज है या लव मैरिज? (वैसे हिंदी में अरेंज मैरिज के लिए कोई ख़ास शब्द नहीं लेकिन इसे नियोजित विवाह भी कहा जाता है। किन्तु नियोजित विवाह कहना भी ज्यादा उचित न होगा इसलिये अरेंज मैरिज ही कहते हैं)

विवाह चाहे जिस तरह भी किया जाए किन्तु महत्वपूर्ण होता है सही जीवन साथी का चयन करना क्योंकि शादी कोई फ़िल्मी कहानी की तरह नही होती यह बंधन होता है, एक उतार चढ़ाव से भरा रिश्ता होता है जो न सिर्फ दो लोगों को बांधता है बल्कि दो परिवारो को भी जोड़ता है। कहते हैं लड़के की शादी सिर्फ लड़की से होती है और उसे लड़की की जिम्मेदारियों का वहन करना होता है। किन्तु लड़की की शादी सिर्फ लड़के से नहीं होती,बल्कि उसका पूरे परिवार से रिश्ता जुड़ता है। जिसके चलते उसे न सिर्फ पत्नी धर्म निभाना होता है बल्कि उसे एक बहू ,भाभी, देवरानी, जेठानी इस तरह के कई रिश्ते निभाने होते हैं। यह सब जानकार और समझकर ही विवाह के बंधन में बंधने का निर्णय लेना चाहिए।

वैसे दोनों विवाह की अपनी-अपनी खूबियां हैं और दोनों में कुछ कमियां भी हैं। किन्तु कुछ बातों का ध्यान रखने से और सामंजस्य बिठाकर चलने से दोनों तरह के विवाह सफल होते देखे गए हैं। हालांकि प्रेम विवाह में इसका अनुपात कम है। किन्तु आज की पीढ़ी प्रेम विवाह करने पर ज्यादा जोर देती है।

प्रेम विवाह में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात होती है के लड़का-लड़की एक दूसरे को पहले से ही जानते हैं। एक दूसरे की अच्छी आदतों और बुरी आदतों से, एक दूसरे के स्वभाव से पूर्णतयः परिचित होते हैं। जिसके चलते शादी के बाद सामंजस्य बिठाने में तकलीफ नही होती। पर! क्योंकि प्यार के मोड़ पर तो सब अच्छा ही लगता है। और इसलिए भावनाओं में बहकर दोनों साथ रहने का निर्णय लेते हैं। किन्तु वहीँ जब जीवन की गाडी प्रेम की पटरी से उतरकर यथार्थ के धरातल पर कदम रखती है तो इन संबंधो में खिंचाव आने लगता है। लड़की की शिकायत रहती है लड़का पति बनते ही बदल गया है। वह उसे उस तरह घुमाने नहीं ले जाता, उतना समय नहीं देता, पहले उसकी हर बात को अपनी सर आँखों पर रखने वाला अब उसकी बाते ही ध्यान से नहीं सुनता। वहीँ लड़के का कहना होता है पहले उस पर कोई जिम्मेदारी न थी अब दुगनी जिम्मेदारी हो गयी है। काम का बोझ, घरवालों की उम्मीदें और पत्नी की फरमाइशे पूरी करने के लिए उसे पूरा दिन काम में खटना पड़ता है। उसके बाद घर वापस आते ही पत्नी शिकायतों का पुलिंदा लेकर बैठ जाती है। वो लड़की जो मेरी प्रेमिका थी, जिसे मेरी ख़ुशी और आराम का ख्याल था वो अब पत्नी बनते ही बदल गयी है। अब वह प्रेम नहीं करती बस शिकायते और फरमाइशें ही करती है। पहले अच्छे से सजनें सँवरने वाली लड़की को अब बाल तक सँवारने का ध्यान नहीं रहता।

ऐसे झगड़े सामान्यतः होते ही हैं प्रेम विवाह में। क्योंकि पहले दोनों पर कोई जिम्मेदारी न होने की वजह से एक दूसरे को पूरा समय देते थे।और अब साथ ही जिम्मेदारियों का बोझ भी होता है। और क्योंकि प्रेम विवाह माता पिता की मर्जी से नहीं किया गया होता है तो कई जगह यह भी देखने मिलता है के बड़े कम ही मध्यस्थ बनते हैं और बनते भी हैं तो भी झगड़े के दौरान बेटे का ही पक्ष लेते हैं। वो बहू को सिरे से गलत ठहरा देते हैं। इसलिए जहाँ तक हो प्रेम विवाह भी पहले माता पिता को मानकर उनकी रजामंदी से करना चाहिए।

अरेंज मैरिज को हमारे देश में इसलिए ज्यादा प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि हमारे समाज में यह आम धारणा है के विवाह हो जाए प्रेम उसके बाद अपने आप हो जाएगा। जो के पूर्णतयः गलत भी नहीं। और वैसे भी आपके माँ बाप आपसे ज्यादा आपकी कमियों और खूबियों को जानते हैं। और वो जो भी आपके लिए लड़की या लड़का खोजेंगे उसे पहले हर तरह से देख और परख लेंगे ताकि भावी जीवन में आपको तकलीफ न हो और आपका जीवन साथी आपसे सामंजस्य बिठाकर चलने वाला हो। लड़की या लड़के में कोई बुरी आदत हुई या झगड़ा हुआ भी तो घरवाले मध्यस्थ बनकर मामले को संभाल लेते हैं। और शादी के बाद हमारा मन भी पहले से ही जीवनसाथी की अच्छी और बुरी दोनों बातों को अपनाने के लिए तैयार रहता है तो सामंजस्य बिठाने में ज्यादा समय नहीं लगता।

किन्तु इस विवाह में भी अच्छाई के साथ कई बुरी बातें भी हैं। सबसे पहली तो जहाँ प्रेम विवाह में दहेज़ लेने देने का उतना जोर नहीं रहता वही अरेंज मैरिज में यह प्रथा आज तक तोहफे देने के रूप में चली आ रही है। ये मायने नहीं रखता क्या और कितना किन्तु हर वर्ग अपने सामर्थ्य के अनुसार देता जरूर है।

पहले ये प्रथा थी के लड़का लड़की एक दूसरे को नहीं देखते थे सारी बातें घरवाले ही तय किया करते थे। इसलिए घूंघट उठने तक कौतुहल बना रहता था। किन्तु आज कल माता पिता अपने बेटे से ही नहीं अब तो बेटी से भी उसकी मर्जी जानकर ही आगे बढ़ते हैं। और साथ ही उन्हें कुछ वक्त साथ बिताने का मौका भी दिया जाता है। जिससे वो एक दूसरे को थोडा समझ लें।

हम किसी एक विवाह को सही नहीं ठहरा सकते। दोनों ही विवाह में जरूरत है आपसी समझ की। तो इसलिए विवाह कोई भी करें पर एक दूसरे की अच्छाई और बुराइयों को अपनाते हुए समझदारी, ईमानदारी और प्रतिबद्ध होकर चलें।

प्रिया वच्छानी