विराम-चिह्न
जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ
जयशंकर प्रसाद
© COPYRIGHTS
This book is copyrighted content of the concerned author as well as Matrubharti.
Matrubharti has exclusive digital publishing rights of this book.
Any illegal copies in physical or digital format are strictly prohibited.
Matrubharti can challenge such illegal distribution / copies / usage in court.
विराम-चिह्न
देव-मन्दिर के सिंहद्वार से कुछ दूर हटकर वह छोटी-सी दुकान थी।
सुपारी के घने कुंज के नीचे एक मैले कपडे के टुकडे पर सूखी हुईधार में तीन-चार केले, चार कच्चे पपीते, दो हरे नारियल और छः अण्डेथे। मन्दिर से दर्शन करके लौटते हुए भक्त लोग दोनों पट्टी में सजी हुईहरी-भरी दुकानों को देखकर उसकी ओर ध्यान देने की आवश्यकता हीनहीं समझते थे।
अर्ध-नग्न वृद्धा दुकानवाली भी किसी को अपनी वस्तु के लिए नहींबुलाती थी। वह चुपचाप अपने केलों और पपीतों को देख लेती। मध्याह्नबीत चला। उसकी कोई वस्तु न बिकी। मुँङ की ही नहीं, उसके शरीरपर की भी झुरियाँ रूखी होकर ऐंठी जा रही थी। मूल्य देकर भात-दाल की हाँडियाँ लिये लोग चले जा रहे थे। मन्दिर में भगवान के विश्रामका समय हो गया था। उन हाँडियों को देखकर उसकी भूखी आँखों मेंलालच की चमक बढी, किन्तु पैसे कहाँ थे? आज तीसरा दिन था, उसेदो-एक केले खाकर बिताते हुए। उसने एक बार भूख से भगवान कीभेंट कराकर क्षणभर के लिए विश्राम पाया; किन्तु भूख की वह पतलीलहर अबी दबाने में पूरी तरह समर्थ न हो सकी थी कि राधे आकरउसे गुरेरने लगा। उसने भरपेट ताडी पी ली थी। आँखें लाल, मुँह सेबात करने में झाग निकल रहा था। हाथ नचाकर वह कहने लगा -‘सब लोग जाकर खा-पीकर सो रहे हैं। तू यहाँ बैठी हुई देवता
का दर्शन कर रही है। अच्छा, तो आज भी कुछ खाने को नहीं?’
‘बेटा! एक पैसे का भी नहीं बिका, क्या करूँ? अरे, तो भी तूकितनी ताडी पी आया है।’
‘वह सामने तेरे ठाकुर दिखाई पड रहे हैं। तू भी पीकर देख न!’
उस समय सिंहद्वार के सामने की विस्तृत भूमि निर्जन हो रही थी।केवल जलती हुई धूप उस पर किलोल कर रही थी। बाजार बन्द था।राधे ने देखा, दो-चार कौए काँव-काँव करते हुए सामने नारियल-कुज कीहरियाली में घुस रहे थे। उसे अपना ताडीखाना स्मरण हो आया। उसनेअण्डों को बटोर लिया।
बुढिया ‘हाँ, हाँ’ करती ही रह गयी, वह चला गया। दुकानवालीने अँगूठे और तर्जनी से दोनों आँखों का कीचड साफ किया और फिरमिट्टी के पात्र से जल लेकर मुँह धाया।
बहुत सोच-विचारकर अधिक उतरा हुआ एक केला उसने छीलकरअपनी अंजलि में रख उसे मन्दिर की ओर नैवेद्य लगाने के लिए बढाकरआँखें बन्द कर लीं। भगवान ने उस अछूत का नैवेद्य ग्रहण किया या नहीं,कौन जाने; किन्तु बुढिया ने उसे प्रसाद समझकर ही ग्रहण किया।
अपनी दुकान झोली में समेटे हुए, जिस कुंज में कौए घुसे थे,उसी में वह भी घुसी। पुआल से छायी हुई टट्टरों की झोंपडी मं विश्रामकिया।
उसकी स्थावर सम्पि्रूद्गा में वही नारियल का कुंज, चार पेड पपीतेऔर छोटी-सी पोखरी के किनारे पर के कुछ केले के वृक्ष थे। उसकीपोखरी में छोटा-सा झुण्ड ब्रूद्गाखों का भी था, जो अण्डे देकर बुढिया कीआय में वृद्धि करता। राधे अत्यन्त मद्यप था। उसकी स्त्री ने उसे बहुतदिन हुए छोड दिया था।
बुढिया को भगवान का भरोसा था, उसी देव-मन्दिर के भगवान का,जिसमें वह कभी नहीं जाने पायी थी।
अभी वह विश्राम की झपकी ही लेती थी कि महन्त के जमादारकुंज ने कडे स्वर में पुकारा - ‘राधे, अरे रधवा, बोलता क्यों नहीं रे!’बुढिया ने आकर हाथ जोडते हुए कहा - ‘क्या है महाराज?’
‘सुना हे कि कल तेरा लडका कुछ अछूतों के साथ मन्दिर मेंघुसकर दर्शन करने जाएगा?’
‘नहीं, नहीं, कौन कहता है महाराज! वह शराबी, भला मन्दिर मेंउसे कब से भक्ति हुई है?’
‘नहीं, मैं तुझसे कहे देता हूँ, अपनी खोपडी सँभालकर रखने केलिए उसे समझा देना। नहीं तो तेरी और उसकी; दोनों की दुर्दशा होजाएगी।’
राधे ने पीछे से आते हुए क्रूर स्वर में कहा - ‘जाऊँगा, वह क्यातेरे बाप के भगवान हैं। तू होता कौन है रे!’
‘अरे, चुप रे राधे! ऐसा भी कोई कहता है रे! अरे, तू जायेगा, मन्दिरमें? भगवान का कोप कैसे रोकेगा रे?’ बुढिया गिडगिडाकर कहने लगी।कुंजबिहारी जमादार ने राधे की लाठी देखते ही ढीली बोल दी। उसने कहा- ‘जाना राधे कल, देखा जायेगा।’ - जमादार धीरे-धीरे खिसकने लगा।
‘अकेले-अकेले बैठकर भोग-प्रसाद खाते-काते बच्चू लोगों कोचरबी चढ गई है। दरशन नहीं रे - तेरा भात छीनकर खाऊँगा। देखूँगा,कौन रोकता है।’ - राधे गुर्राने लगा। कुंज तो चला गया, बुढिया ने कहा- ‘राधे बेटा, आज तक तूने कौन-से अच्छे काम किये हैं, जिनके बलपर मन्दिर में जाने का साहस करता है? ना बेटा, यह काम कभी मतकरना। अरे ऐसा भी कोई करता है!’
‘तूने भात बनाया है आज?’
‘नहीं बेटा! आज तीन दिन से पैसे नहीं मिले। चावल है नहीं।’
‘इन मन्दिरवालों ने अपनी जूठन भी तुझे दी?’
‘मैं क्यों लेती, उन्होंने दी भी नहीं।’
‘तब भी तू कहती है कि मन्दिर में हम लोग न जाएँ! जाएँगे;सब अछूत जाएँगे।’
‘न बेटा! किसी ने तुमको बहका दिया है। भगवान के पवित्र मन्दिरमें हम लोग आज तक कभी नहीं गये। वहाँ जाने के लिए तपस्या करनीचाहिए।’
‘हम लोग तो जाएँगे।’
‘ना, ऐसा कभी न होगा।’
‘होगा, फिर होगा। जाता हूँ ताडीखाने, वहीं पर सबकी राय से कल क्या होगा; यह देखना।’ - राधे ऐंठता हुआ चला गया। बुढियाएकटक मन्दिर की ओर विचारने लगी - ‘भगवान, क्या होनेवाला है!’
दूसरे दिन मन्दिर के द्वार पर भारी जमघट था। आस्तिक भक्तोंका झुण्ड अपवित्रता से भगवान की रक्षा करने के लिए दृढ होकर खडाथा। उधर सैकडों अछूतों के साथ राधे मन्दिर में प्रवेश करने के लिएतत्पर था।
लट्ठ चले, सिर फूटे। राधे आगे बढ ही रहा था कि कुंजबिहारीने बगल से घूमकर राधे के सिर पर करारी चोट दी। वह लहू से लथपथवहीं बोटने लगा। प्रवेशार्थी भागे। उनका सरदार गिर गया था। पुलिसभी पहुँच गयी थी। राधे के अन्तरंग मित्र गिनती में १०-१२ थे। वेही रह गये।
क्षणभर के लिए वहाँ शिथिलता छा गयी थी। सहसा बुढिया भीडचीरकर वहीं पहुँच गई। उसने राधे को रक्त में सना हुआ देखा। उसकीआँखें लहू से भर गयीं। उसने कहा - ‘राधे की लोथ मन्दिर में जाएगी।’
वह अपने निर्बल हाथों से राधे को उठाने लगी।
उसके साथी बढे। मन्दिर का दल भी हुँकार ने लगा; किन्तु बुढियाकी आँखों के सामने ठहरने का किसी को साहस न रहा। वह आगे बढी;पर सिंहद्वार की दहलीज पर जाकर सहसा रुक गई। उसकी आँखों कीपुतली में जो मूर्तिभंजक छाया-चित्र था, वही गलकर बहने लगा।
राधे का शव दहलीज के समीप रख दिया। बुढिया ने दहलीज परसिर झुकाया, पर वह सिर उठा न सकी। मन्दिर में घुसनेवाले अछूतों केआगे बुढिया विराम-चिह्न सी पडी थी।