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अमिट स्मृति

जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ

अमिट स्मृति

जयशंकर प्रसाद


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अमिट स्मृति

फाल्गुनी पूर्णिमा का चंद्र गंगा के शुभ्र वक्ष पर आलोक-धारा कासृजन कर रहा था। एक छोटा-सा बजरा वसन्त-पवन में आन्दोलित होताहुआ धीरे-धीरे बह रहा था। नगर का आनन्द-कोलाहल सैंकडो गलियोंको पार करके गंगा के मुक्त वातावरण में सुनाई पड रहा था। मनोहरदासहाथ-मुँह धोकर तकिए के सहारे बैठ चुके थे। गोपाल ने ब्यालू करकेउठते हुए पूछा -

बाबूजी, सितार ले आऊँ?

आज और कल, दो दिन नहीं। - मनोहरदास ने कहा।

वाह बाबूजी, आज सितार न बजा तो फिर बात क्या रही।

नहीं गोपाल, मैं होली के इन दोनों दिनों में न तो सितार ही बजाताहूँ और न तो नगर में ही जाता हूँ।

तो क्या आप चलेंगे भी नहीं, त्योहार के दिन नाव पर ही बीतेंगे,यह तो बडी बुरी बात है।

यद्यपि गोपाल बरस-बरस का त्योहार मनाने के लिए साधारणतःयुवकों की तरह उत्कंठित था; परन्तु स्रूद्गार बरस के बूढे मनोहरदास कोस्वयं बूढा कहने का साहस नहीं रखता। मनोहरदास का भरा हुआ मुँह,दृढ अवयव और बलिष्ठ अंगविन्यास गोपाल के यौवन से अधिक पूर्ण था।

मनोहरदास ने कहा - गोपाल! मैं गन्दी गालियों या रंग से भागता हूँ।इतनी ही बात नहीं, इसमें और भी कुछ है। होली इसी तरह बिताते मुझेपचास बरस हो गए।

गोपाल ने नगर में जाकर उत्सव देखने का कुतूहल दबाते हुए पूछा- ऐसा क्यों बाबूजी?

ऊँचे तकिए पर चि्रूद्गा लेटकर लम्बी साँस लेते हुए मनोहरदास नेकहना आरम्भ किया -

हम और तुम्हारे बडे भाई गिरधरदास साथ-ही-साथ जवाहरात काव्यवसाय करते थे। इस साझे का हाल तुम जानते ही हो। हाँ, तब बम्बईकी दुकान न थी और न तो आज-जैसी रेलगाडियों का जाल भारत मेंबिछा हुआ था; इसलिए रथों और इक्कों पर भी लोग लम्बी-लम्बी यात्राएँकरते। विशाल सफेद अजगर-सी पडी हुई उ्रूद्गारी भारत की वह सडक,जो बंगाल से काबुल तक पहुँचती है, सदैव पथिकों से भरी रहती थी।कहीं-कहीं बीच में दो-चार कोस की निर्जनता मिलती, अन्यथा ह्रश्वयाऊ,बनियों की दुकानें, पडाव और सरायों से भरी हुई इस सडक पर बडीचहल-पहल रहती। यात्रा के लिए प्रत्येक स्थान में घंटे में दस कोसजानेवाले इक्के तो बहुतायत से मिलते। बनारस इसमें विख्यात था।

हम और गिरधरदास होलिकादाह का उत्सव देखकर दस बजे लौटेथे कि प्रयाग के एक व्यापारी का पत्र मिला। इसमें लाखों के माल बिकजाने की आशा थी और कल तक ही वह व्यापारी प्रयाग में ठहरेगा।उसी समय इक्केवान को बुलाकर सहेज दिया और हम लोग ग्यारह बजेसो गए। सूर्य की किरणें अभी न निकली थी; दक्षिण पवन से पि्रूद्गायाँअभी जैसे झूम रही थीं, परन्तु हम लोग इक्के पर बैठकर नगर को कईकोस पीछे छोड चुके थे। इक्का बडे वेग से जा रहा था। सडक केदोनों और लगे हुए आम की मंजरियों की सुगन्ध तीव्रता से नाक मेंघुसकर मादकता उत्पन्न कर रही थी। इक्केवान की बगल में बैठे हुएरघुनाथ महाराज ने कहा - सरकार बडी ठंड है।

कहना न होगा कि रघुनाथ महाराज बनारस के एक मानी लठैतथे। उन दिनों ऐसी यात्राओं में ऐसे मनुष्यों को रखना आवश्यक समझाजाता था।

सूर्य बहुत ऊपर आ चुके थे, मुझे ह्रश्वयास लगी थी। तुम तो जानतेही हो, मैं दोनों बेला बूटी छानता हूँ। आमों की छाया में एक छोटा-सा कुआँ दिखाई पडा, जिसके ऊपर मुरेरेदार पक्की छत थी और नीचेचारों ओर दालानें थी। मैंने इक्का रोक देने को कहा। पूरब वाले दालानमें एक बनिए की दुकान थी, जिस पर गुड, चना, नमक, स्रूद्गाू आदिबिकते थे। मेरे झोले में अब आवश्यक सामान थे। सीढियों से चढकरहम लोग ऊपर पहुँचे। सराय यहाँ से दो कोस और गाँव कोस-भर परथा। इस रमणीय स्थान को देखकर विस्राम करने की इच्छा ोती थी। अनेकपक्षियों की मधुर बोलियों से मिलकर पवन जैसे सुरीला हो उठा। ठंडईबनने लगी। पास ही एक नींबू का वृक्ष खूब फूला हुआ था। रघुनाथने बनिए से हाँडी लेकर कुछ फूलों को भिगो दिया। ठंडई तैयार होतेहोते उसकी महक से मन मस्त हो गया। चाँदी के गिलास झोली से बाहरनिकाले गए; पर रघुनाथ ने कहा - सरकार, इसकी बहार तो पुरवे मेंहै। बनिये को पुकारा। वह तो था नहीं, एक धीमा स्वर सुनाई पडा -क्या चाहिए?

पुरवे दे जाओ!

थोडी ही देर में एक चौदह वर्ष की लडकी सीढियों से ऊपर आतीहुई नजर पडी। सचमुच वह सालू की छींट पहने एक देहाती लडकी थी,कल उसकी भाभी ने उसके साथ खूब गुलाल खेला था, वह जगी भीमालूम पडती थी - मदिरा-मन्दिर के द्वार-सी खुली हुई आँखो में गुलाबकी गरद उढ रही थी। पलकों के छज्जे और बरौनियों की चिकों परभी गुलाल की बहार थई। सरके हुए घूँघट से जितनी अलकें दिखलाईपडतीं, वे सब रँगी थी। भीतर से भी उस सरला को कोई रंगीन बनानेलगा था। न जाने क्यों, क्या इस छोटी अवस्था में ही वह चेतना से ओत-प्रोत थी। ऐसा मालूम होता था कि स्पर्श का मनोविकारमय अनुभव उसेसचेष्ट बनाए रहता, तब भी उसकी आँखें धोखा खाने ही पर ऊपर उठती।

पुरवा रखने ही भर में उसने अपने कपडों के दो-तीन बार ठीक किया,फिर पूछा - और कुछ चाहिए? मैं मुस्कराकर रह गया। उसे वसंत केप्रभाव में सब लोग वह सुस्वादु और सुगंधित ठंडई धीरे-धीरे पी रहेथे और मैं साथ-ही-साथ अपनी आँखों से उस बालिका के यौनोन्माद कीमाधुरी भी पी रहा था। चारों ओर से नींबू के फूल और आमों कीमंजरियों की सुगन्ध आ रही थी। नगरों से दूर देहातों से अलग कुएँकी वह छत संसार में जैसे सबसे ऊँचा स्थान था। क्षण-भर के लिएजैसे उस स्वह्रश्वन-लोक में एक अह्रश्वसरा आ गई हो। सडक पर एकबैलगाडी-वाला बंडलों से टिका हुआ आँखें बन्द किए हुए बिरहा गाताथा। बैलों को हाँकने की जरूरत नही थी। वह अपनी राह पहचानते थे।

उसके गाने में उपालम्भ था, आवेदन था। बालिका कमर पर हाथ रखेहुए बडे ध्यान से उसे सुन रही थी। गिरधरदास और रघुनाथ महाराजहाथ-मुँह धो आए; पर मैं वैसे ही बैठा रहा। रघुनाथ महाराज उजड्ड तोथे ही; उन्होंने हँसते हुए पूछा - क्या दाम नहीं मिला?

गिरधरदास भी हँस पडे। गुलाब से रँगी हुई उस बालिका कीकनपटी और भी लाल हो गई। वह जैसे सचेत-सी होकर धीरे-धीरे सीढीसे उतरने लगी। मैं भी जैसे तन्द्रा से चौंक उठा और सावधान होकर पानकी गिलौरी मुँह में रखता हुआ इक्के पर आ बैठा। घोडा अपनी चालसे चला। घंटे-डेढ घंटे में हम लोग प्रयाग पहुँच गए। दूसरे दिन जबहम लोग लौटे, तो देखा कि उस कुएँ के दालान में बनिए की दुकाननहीं है। एक मनुष्य पानी पी रहा था, उससे पूछने पर मालूम हुआ किगाँव में एक भारी दुर्घटना हो गई है। दोपहर को धुरहट्टा खेलने के समयनशे में रहने के कारण कुछ लोगों में दंगा हो गया। वह बनिया भी उन्हींमें था। रात को उसी के मकान पर डाका पडा। वह तो मार ही डालागया, पर उसकी लडकी का भी पता नहीं।

रघुनाथ ने अक्खडपन से कहा - अरे, वह महालक्ष्मी ऐसी ही रहीं।उनके लिए जो कुछ न हो जाय, थोडा है।

रघुनाथ की यह बात मुझे बहुत बुरी लगी। मेरी आँखों के सामनेचारों ओर जैसे होली जलने लगी। ठीक साल-भर बाद वही व्यापारीप्रयाग आया और मुझे फिर उसी प्रकार जाना पडा। होली बीत चुकीथी, जब मैं प्रयाग से लौट रहा था, उसी कुएँ पर ठहरना पडा। देखातो एक विकलांग दरिद्र युवती उसी दालान में पडी थी। उसका चलना-फिरना असम्भव था। जब मैं कुएँ पर चढने लगा तो उसने दाँत निकालकरहाथ फैला दिया। मैं पहचान गया - साल-भर की घटना सामने आ गई।न जाने उस दिन मैं प्रतिज्ञा कर बैठा कि आज से होली न खेलूंगा।वह पचास बरस की बीती हुई घटना आज भी प्रत्येक होली मेंनई होकर सामने आती है। तुम्हारे बडे भाई गिरधर ने मुझे कई बार होलीमनाने का अनुरोध किया, पर मैं उनसे सहमत न हो सका और मैं अपनेहृदय के इस निर्बल पक्ष पर अभी तक दृढ हूँ। समझा न, गोपाल।इसलिए मैं ये दो दिन बनारस के कोलाहल से अलग नाव पर ही बिताता हूँ।

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